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बहस-तलब : एससी-एसटी एक्ट के बावजूद क्यों लाचार हैं दलित?

अभी तो हम जानते ही हैं कि हाथरस बलात्कार व हत्याकांड मामले में क्या हुआ। लेकिन अपराधी कहां हैं और केस की स्थिति क्या है, इसका कहीं कोई अता-पता नहीं है। उन्नाव मामले का हश्र हमने देख ही लिया है और ऐसे ही और मामले हैं, जहां मामलों की गति अत्यंत धीमी है। जरूरत इस बात की है कि मीडिया को ईमानदारी से इन मामलों में लगातार फॉलोअप करनी चाहिए। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

हाल ही में भाजपा शासित उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मे ‘ज़ोमेटो’ कंपनी के एक डिलीवेरी बॉय के साथ एक उपभोक्ता ने दुर्व्यवहार किया। यह कंपनी ऑनलाइन बुक कराए गए खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करती है। डिलीवरी बॉय ने यह आरोप लगाया के एक उपभोक्ता के यहां खाना पहुंचाने के दौरान उसके ऊपर थूका गया क्योंकि वह दलित है। यह बात सोशल मीडिया से लेकर पारंपरिक मीडिया तक में चर्चा का विषय बनी। 

वैसे दलितों पर अत्याचार के हजारों मामले रोज़-ब-रोज़ आते है और यह भी हकीकत है कि अब उनके स्वरूप बदल गए है। अब वे लोग निशाना बनते हैं, जो अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान को लेकर प्रतिवाद करते हैं। 

ऊपर वर्णित घटना में जिस डिलीवरी बॅाय की चर्चा की गई है, उसका नाम विनीत रावत है। उसके मुताबिक, जब वह आशियाना सोसाइटी में खाना पहुंचाने गया तो उसकी जाति पूछी गई और फिर यह जानकर कि वह दलित है, उसके ऊपर थूका गया तथा उसकी पिटाई की गई। विनीत ने जो मामला दर्ज कराया है, उसमें उसने अभय सिंह नामक एक व्यक्ति को नामजद बनाया है। वहीं अभय सिंह का कहना है कि वह स्वयं पिछड़ा वर्ग (कुर्मी जाति) का है तथा उसके घर में काम करनेवाली एक महिला दलित है। ऐसे में यह आरोप बेबुनियाद है कि उन्होंने जातिवाद किया है। 

हालांकि इस घटना पर अलग-अलग रपटें सामने आई हैं। लेकिन कार्रवाई संबंधी संशय अब भी बरकरार है। 

इसी घटना के बाद लखनऊ में ही एक और घटना सामने आई, जिसमें शिवम रावत नामक एक युवक की चारपाई के नीचे बम रख कर ब्लास्ट किया गया, जिससे उसकी मौत हो गई। इस घटना का आरोपी अर्जुन सिंह नामक एक व्यक्ति बताया जा रहा है, जो कि राजपूत जाति से आता है। दोनों ही मामलों में पुलिस का कहना है कि वह कार्रवाई कर रही है। लेकिन दिलचस्प यह कि मीडिया ने इन दोनों मामलों के फॉलोअप से पल्ला झाड़ लिया है।

बताते चलें कि शिवम की उम्र करीब 20 वर्ष की थी और वह अपने घर का एकलौता कमाने वाला व्यक्ति था, जो कुछ ही दिनों पूर्व हरिद्वार से घर लौटा था। घटना 16 जून, 2022 को घटित हुई और अगले ही दिन शिवम ने दम तौड़ दिया। उसके परिवार के लोग आरोप लगा रहे है कि प्रशासन सहयोग नहीं कर रहा है। 

उत्तर प्रदेश मे दलितों पर अत्याचार का मामला गंभीर है। सबसे बड़ी परेशानी यह है के समुचित धाराओं के आधार पर प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। पिछले वर्ष संसद में सरकार ने बताया था कि देश भर में वर्ष 2018 से 2020 तक देश भर मे दलितों पर अत्याचार के 1 लाख 39 हजार 45 मामले दर्ज किए गए, जिनमे 50 हजार 291 केवल वर्ष 2020 के ही थे। इन तीन वर्षों मे सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश से आए, जिनकी संख्या 36 हजार 467 है। अधिकांश मामले जमीन से संबंधित बताए जाते हैं जो कि होते कुछ और ही हैं। 

दरअसल, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धाराओं को लेकर पुलिस प्रशासन संवेदनशील नहीं रहता। इसके अलावा पुलिस प्रशासन का अपना सामाजिक ढांचा भी है। इस कारण से होता यह है कि पहले तो पुलिस समुचित धारा नहीं लगाकर आरोपियों का बचाव करती है। हालांकि जब लोग विरोध करते हैं तब जाकर पुलिस मुकदमे में धाराएं जोड़ देती है, लेकिन अधिकांश मामलों मे तो केस पहले ही खत्म हो चुका होता है। पुलिस प्रशासन के अहसयोग के अलावा इसका दूसरा कारण है– दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति। 

यदि एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज हो भी जाता है तो उसके तहत मिलने वाले मुआवजे तक ही बात सीमित कर दी जाती है और फिर प्रयास होता है कि मुआवजे के कारण से यदि कार्यवाही या यथोचित धाराएं न भी हों तो कोई फर्क नहीं पड़ता। गरीब व्यक्ति रोज-रोज थाना और कोर्ट के चक्कर नहीं लगा सकता। पूरी प्रक्रिया इतनी परेशान और हैरान कर देने वाली होती है कि व्यक्ति स्वयं ही उससे अलग हो जाता है। बहुत कम मामले मे कोई व्यक्ति चार्जशीट मे क्या लिखा है, उस तक पहुंच पाता है। दरअसल, प्रशासन और पुलिस दोनों के ही अधिकारी यह समझते हैं कि मुआवजा दिलाने के बाद उनका काम खत्म हो जाता है। गांव का गरीब व्यक्ति पहले से ही परेशान रहता है और उस पर मुआवजा मिलने के बाद उसका गुस्सा भी ठंडा दिखता नजर आता है, क्योंकि वह कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाते-लगाते थक जाता है। दूसरे, जो भी तथाकथित क्रांतिकारी खबर की शुरुआत मे उसके साथ रहते हैं, बाद में उसके साथ नहीं रहते। नतीजा यह होता है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मे लड़ाई लड़ने के लिए प्रतिबद्ध साथी नहीं मिलते। कई लोग तो यह सोच लेते हैं कि ट्विटर या फेसबुक पर लड़ाई लड़ लेने मात्र से उनके हिस्से का काम पूर्ण हो चुका है। 

अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के संबंध में आम जनों में जागरुकता और सरकारी तंत्र का संवेदनशील होना आवश्यक

दुखद बात यह है कि एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज कराए गए मुकदमे की कॉपी सोशल मीडिया पर चस्पा करने से आगे नहीं बढ़ पाते। कई संगठन तो केवल अखबार की कटिंग और सोशल मीडिया के पोस्ट आदि से ही खुश हो जाते है। मतलब यह कि घटनाओं का फॉलोअप करने वाले बहुत कम होते हैं। 

एक और हकीकत है। कई बार एफआईआर दर्ज करने मे ही बहुत समय लग जाता है। मेडिकल और पोस्टमॉर्टम की प्रक्रिया मे भी कोई अन्य साथी न होने के कारण गड़बड़ी होने की पूरी संभावना होती है। किसी भी केस मे सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न शुरुआती घंटों या दिनों मे होते है और यही वो क्षण है जब सबूतों को खत्म करने या उन्हे मिटाने के प्रयास किये जाते हैं। 

दरअसल, जातियों के खेल इतने निराले हैं कि यदि उत्पीड़क आपकी बिरादरी का है तो आपकी भाषा बदल जाती है। यदि मामला पिछड़ो और दलितों के बीच है, यानि यदि उत्पीड़न करने वाला यादव या कुशवाहा है तो आपको ब्राह्मण-ठाकुर वकील मिल जाएंगे। यदि उत्पीड़क ब्राह्मण, ठाकुर या भूमिहार है तो बहुजन के नाम पर काम करने वाले बहुत से लोग मिल जाएंगे, लेकिन खेल अंततः जातियों का ही है। अब वकील यदि मिल भी जाता है तो लड़ाई आगे नहीं बढ़ पाती क्योंकि गांव अक्सर जातीय आधार पर बंटा हुआ रहता है और लोग सच बताने को तैयार नहीं होते। गांव का सच अक्सर जाति के आधार पर निर्धारित होता है। गांव की इस क्रूर सच्चाई के चलते न्यायालय तक की लड़ाई मे आपको गवाह नहीं मिलते। 

गांवों में किसी एक घटना के संबंध अलग-अलग लोगों के अपने-अपने सच होते हैं। एक कहानी के कई रूप मिल जाते हैं और सभी अपनी-अपनी जातियों के अनुसार होते है। सभी सच ही कहते हैं, लेकिन अपनी-अपनी जातियों के हिसाब वाला सच। हमलोग घटनाओं को दलित, अगड़ा दलित, बहुजन, स्वर्ण आदि की श्रेणियों में अपनी वैचारिकी के अनुसार विश्लेषण करने के प्रयास करते हैं, जो कई बार जमीनी हकीकत से बहुत दूर होते हैं। 

हालांकि मीडिया भी टीआरपी क चक्कर में हंगामा खड़ा करना चाहता है। इसलिए दो-चार दिनों के बाद सभी उस केस को भूल जाते है और परिवार पुनः कठिन परिस्थितियों मे होता है और तब वह परिवार या तो समझौता कर लेता है और मुआवजे के बाद चुप बैठ जाता है, क्योंकि अधिकारी से लेकर नेता तक उसके यहां आते हैं और अपनी ‘सलाह’ देकर चले जाते हैं। केस तो पहले दो से तीन दिन मे ही कमजोर हो जाता है, क्योंकि समाज के लोग ही साथ नहीं होते। गांव में हर एक जाति का दूसरी के प्रति पूर्वाग्रह होता है। उनके रिश्ते केवल काम तक सीमित होते है और गांव की मर्यादा ‘जातीय’ संरचना के अनुसार चलने मे होती है। यदि आपने इस मर्यादा को थोड़ा भी लांघने की कोशिश की तो आप खतरे मे होते है। किसी भी दुर्घटना मे प्रशासन और पुलिस भी इस ‘सामाजिक’ ‘संरचना’ के अनुसार ही चलती है और उसके संपर्क सूत्र भी ऐसे ही होते है। यदि कही पर कोई दलित समाज का व्यक्ति आरोपी है तो पुलिस को पूरे गांव का समर्थन भी मिल लाता है और वह ‘सख्त’ कार्यवाही करती है, लेकिन ताकतवर जातियों के आरोपितों पर हाथ डालना आज भी आसान नहीं है और राजनीतिक नफ़ा-नुकसान के अनुसार ही कार्यवाही होती है। 

यदि सब ठीक है तो केवल यह बात बताया दी जाय कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत पिछले पांच साल मे दर्ज हुए मुकदमों की स्थिति क्या है तो अनुपालन की स्थितियां साफ हो जाएंगीं। 

दरअसल आज जरूरत हमारे कानूनों मे बदलाव की भी है। गवाहों को सुरक्षा और गवाही बदलने पर दंड के प्रावधान भी महत्वपूर्ण है। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है समय पर जांच और जांच और कार्रवाई पर भरोसा। मेरी नजर मे किसी भी मामले मे यदि प्राथमिक स्तर पर ही ईमानदारी से जांच नहीं हुई तो वह कोर्ट मे टिक ही नहीं पाएगा। दूसरे, इन मामलों को एक समय सीमा मे निपटाने की बात होनी चाहिए। हम सब जानते है के जिन मामलों मे हंगामा होता है वे भी हंगामे की ठंडे होने का इंतेज़ार करते है और फिर एक दिन चुपचाप लोग बाइज्जत बारी हो जाते है, लेकिन उसमें कोर्ट को दोष देने के बजाए हमे जांच दल की रेपोर्टों और चार्जशीट को ध्यान से देखना पड़ेगा। 

अभी तो हम जानते ही हैं कि हाथरस बलात्कार व हत्याकांड मामले में क्या हुआ। लेकिन अपराधी कहां हैं और केस की स्थिति क्या है, इसका कहीं कोई अता-पता नहीं है। उन्नाव मामले का हश्र हमने देख ही लिया है और ऐसे ही और मामले हैं, जहां मामलों की गति अत्यंत धीमी है और दलित उत्पीड़ितों को ईमानदार सलाह भी नहीं मिलती, क्योंकि जातीय पूर्वाग्रह तो हर जगह हमारी बौद्धिक ईमानदारी को प्रभावित और भ्रष्ट करेंगे ही। जरूरत इस बात की है कि मीडिया को ईमानदारी से इन मामलों में लगातार फॉलोअप करनी चाहिए। 

हालांकि जातिगत खेल बेहद खतरनाक होते हैं और उनके खिलाफ तुरंत कार्रवाई होनी चाहिये लेकिन यह भी बात सामने आए कि आरोपों की जांच हो। कई बार मुद्दे दूसरे होते हैं और हमारे विशेषज्ञ उससे भटककर प्रश्न उठाते है। बहुत बार से यह भी हो रहा है कि हमारी भूमिका मात्र शोर मचाने या हंगामा कर देने तक की रही है। आजकल ये भी आरोप लगते हैं कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन हम सभी जानते है कि जब कार्रवाई ही नहीं हो रही तो दुरुपयोग का सवाल ही कहां उठता है। मै तो यह कह रहा हूं कि हम भी गलत बातों पर हंगामा करते है। कई मसले कहा सुनी वाले होते है जो ज्यादा पब्लिसिटी पाते है लेकिन जहा वाकई मे हमे मामले को आगे ले जाने की जरूरत है, वहां हम चुप रह जाते है या मामला आगे नहीं बढ़ता। 

ईमानदार जांच और हमारी और से भी सार्थक प्रयास इन मामलों मे सफलता दिला सकता है। जैसे लखनऊ मे ज़ोमेटो के डिलवेरी वाले व्यक्ति के आरोपों पर दूसरी प्रतिक्रिया भी आई है कि मामला वैसा नहीं था जैसे बनाया गया और इस संदर्भ मे सही जांच हो। हालांकि यह तो माना ही गया कि आरोपित के मुंह से पान के पत्ते का थूक डिलीवेरी बॉय के मुंह पर गिरा। अब ये जान-बूझकर किया गया या गलती मे हो गया, इस पर भी बात हो। वैसे भी उत्तर प्रदेश, बिहार मे जब मुंह मे खैनी और पान भरा होता है तो बात करते समय वो सामने वाले के उपर गिरता ही है और शिकायत करने वाले को बेवकूफ और समस्या मान लिया जाता है। 

शातिर लोग अब दलितों के मामले मे दलितों को ही फंसा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के देवरिया मे दो वर्ष पूर्व बनारसी मुशहर की हत्या मे दबंगों ने एक नट जाति के व्यक्ति को जो उसका अपना मित्र था, आरोपित बना दिया। और तो और वह खुद ही बीमार है और उसकी पत्नी का भी इलाज चल रहा है तथा पिता भीख मांगकर अपने बेटे के बच्चों को पाल रहे है। यहां बहुजन आदि नहीं चलता। 

दरअसल, जिस जाति की दबंगई या संख्याबल जिस भी गांव में ज्यादा है, वे वहां दलितों का शोषण कर ही रहे हैं और उनके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इसमें सवर्ण, पिछड़े सभी शामिल हैं। दलितों पर हमलों को रोकने के लिए न केवल वैचारिक ईमानदारी चाहिए, अपितु संविधान को लागू करने वालों की इच्छा शक्ति चाहिए। जातिवाद, जातिभेद, छुआछूत के विरुद्ध बड़े आंदोलन की आज भी हमारे समाज मे सख्त जरूरत है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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