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संबोधन : साहित्य और इतिहास में पक्षधरता (संदर्भ ‘कबीर और कबीरपंथ’) 

‘ब्राडफोर्ड ऑब्जर्वर’ (9 सितंबर, 1841) में मि. ए लंगलोज ने कबीर को हिन्दुस्तान का महान समाज सुधारक और 15वीं सदी का नायक कहा है। बुनकर समाज के कबीर के कविता संग्रह ‘बीजक’ तथा सोलहवीं सदी के नायक नानक का जिक्र करते हुए आलेख में कहा गया है कि कबीर जैसे साधारण आदमी और नानक ने बहुदेववाद के विरुद्ध एक ईश्वर की परिकल्पना की। पढ़ें, सुभाष चंद्र कुशवाहा का संबोधन

[प्रस्तुत संबोधन गत 20 अगस्त, 2022 को फारवर्ड प्रेस द्वारा आयोजित ऑनलाइन लोकार्पण कार्यक्रम सह परिचर्चा के लिए लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा द्वारा तैयार किया गया। परिचर्चा का विषय था– ‘भारतीय समाज के अध्ययन में बाहरी (गैर-भारतीय) समालोचनात्मक दृष्टिकोण का महत्व क्या रहा है?’। अपरिहार्य कारणों से वे अपने विचार इस कार्यक्रम में रख नहीं सके। प्रस्तुत है उनका संबोधन]

आज जिस किताब ‘कबीर और कबीरपंथ’ का यहां लोकार्पण किया जा रहा है, उसका सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व है। इसके लेखक फ्रैंक अर्नेस्ट केइ (एफ. ई. केइ) ने लगभग 1920 के आसपास कबीर के साथ-साथ कबीरपंथ को समझने में हमारी मदद की। इस पुस्तक की आधी सामग्री कबीरपंथ पर है और इसमें यह इशारा भी है कि जो कबीर, पाखंडों और कर्मकांडों से दूर रहते थे, बाद में कबीरपंथियों ने हिंदू धर्म के प्रभाव से कमजोर कर दिया। कबीर को बाहरी दुनिया के दबाव में ही हम जानने की स्थिति में आ पाए।

कबीर आज हमारे बीच विदेशी विद्वानों और मिशनरियों की वजह से हैं न कि हिंदी साहित्यकारों की वजह से। हिंदी वालों ने तो उन्हें मारने की कोशिश की। ‘कबीर परिचई’ या ‘भक्तमाला’ जैसी कृतियां, कबीर के पाखंडों के प्रति विद्रोह को नेस्तनाबूद कर, चमत्कारिक भगवान बनाने के काम में लगी रहीं। रामचंद्र शुक्ल ने कबीर को कवि मानने से इनकार कर दिया। रवींद्रनाथ टैगोर ने 1915 में बिना किसी समीक्षा आलेख के कबीर के 100 दोहों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। वर्ष 1916 के आसपास अयोध्या प्रसाद सिंह ‘हरिऔध’ जी ने कबीर के कुछ दोहों को प्रकाशित किया। डाॅ. श्यामसुन्दर दास नेे वर्ष 1928 में ‘कबीर ग्रंथावली’ का संपादक किया और 1960 में जाकर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर मुकम्मल किताब लिखी।  

दूसरी ओर कबीर के बारे में 1841 ई. से ब्रिटिश अखबारों में लेख और समाचार छपने लगे थे। तमाम ईसाई मिशनरियां उनके बारे में सामग्रियां जुटा रही थीं। उन पर शोध कर रही थीं। कबीर द्वारा मूर्ति पूजा का निषेध, बाह्य आडंबरों का खंडन और एक परमतत्व की परिकल्पना, ईसाई मिशनरियों को भा रहा था। सात समंदर पार के अखबार जब कबीर की महत्ता बता रहे थे, तब तक हमारा हिंदी समाज सोया हुआ था। या यूं कहें कि बहुत हद तक बौद्ध साहित्य की तरह कबीर साहित्य को भी ओझल करने का कुचक्र रचा जा रहा था। उनकी विद्रोही रचनाओं को निस्तेज करने के लिए उनके नाम पर प्रक्षिप्त रचनायें घुसेड़ी जा रही थीं। उन्हें दैवीय और चमत्कारिक बनाया जा रहा था। जब ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजी लेखकों ने कबीर पर पर्याप्त काम कर दिया, उनकी कुछ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया, तब हिंदी साहित्य के पुरोधाओं को लगा कि अब कबीर को छिपा पाना संभव न होगा। मजबूरी में कबीर को सामने लाना पड़ा।

फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘कबीर और कबीरपंथ’ का आवरण पृष्ठ व सुभाष चंद्र कुशवाहा

कबीर विदेशी विद्वानों के लिए कितने महत्वपूर्ण थे, इसको सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर से जाना जा सकता है, जिन्होंने कबीर पर काम करते हुए उन्हें 15वीं सदी का ‘भारतीय लूथर’ कहा। कबीर जैसे भारतीय लूथर या एक मात्र हिन्दुस्तानी कवि और संत के प्रति ईसाई मिशनरियों की, और साथ ही साथ ब्रिटिश अखबारों की दिलचस्पी, उनके कद का भान करा रही थी।

‘ब्राडफोर्ड ऑब्जर्वर’ (9 सितंबर, 1841) में मि. ए लंगलोज ने कबीर को हिन्दुस्तान का महान समाज सुधारक और 15वीं सदी का नायक कहा है। बुनकर समाज के कबीर के कविता संग्रह ‘बीजक’ तथा सोलहवीं सदी के नायक नानक का जिक्र करते हुए आलेख में कहा गया है कि कबीर जैसे साधारण आदमी और नानक ने बहुदेववाद के विरुद्ध एक ईश्वर की परिकल्पना की।

‘अर्मघ गार्डियन’ ने 1 जनवरी, 1853 को कबीरपंथियों के साहस और हिंदू पूजा पद्धतियों, पाखंडों के विरुद्ध उनकी आवाज का उल्लेख किया है। मार्निंग एडवर्टाइजर ने 10 मार्च, 1865 को लिखा कि कबीर ने अभूतपूर्व साहस दिखाया था और मूर्तिपूजा की खिल्ली उड़ाई।

इसी क्रम में 5 जुलाई, 1872 को ‘द स्काॅटमैन’ में डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर की दो खंडों में छपी किताब ‘उड़ीसा’ की समीक्षा छपी है, जो स्मिथ एल्डर एंड कंपनी, लंदन से छपी थी। इस किताब में जगन्नाथपुरी का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि सिर्फ इसी शहर में निम्न और उच्च जातियां एक साथ रहती थीं, जबकि अपने गांवों में निम्न जातियां अगर उच्च जातियों को छू लें तो वह अपराध होता था। यहां तक कि दक्षिणी प्रांतों में सुबह 9 बजे के पूर्व और शाम 4 बजे के बाद गांवों में प्रवेश मना था, जिससे उनकी लंबी परछाईं से ब्राह्मण छू न जाएं। हंटर ने जगन्नाथपुरी में निम्न और उच्च जातियों को एक साथ रहने के कारण के बारे में लिखा है कि ऐसा कबीर की शिक्षाओं के प्रभाव से संभव हुआ है। हंटर ने कबीर को रामानंद के 12 शिष्यों में एक बताया है और बताया है कि उनके समय में जगन्नाथपुरी में कबीर की समाधि थी। हंटर के अनुसार कबीर ने हिंदू-मुसलमानों को एक माना है। उनके शरीर में एक रक्त है। उनके खुदा या राम एक हैं। वह पुरब या पश्चिम में नहीं, अपितु मन में रहता है।

जगन्नाथपुरी के बारे में उक्त आलेख में जो कुछ कहा गया है, वह आश्चर्यचकित करने वाला है। आज भी वहां प्रसाद के रूप में भात वितरित किया जाता है। भात को ब्राह्मण धर्म में कच्चा भोजन कहा जाता है। कच्चा भोजन को प्रसाद में वितरित करने का रिवाज नहीं है, सिवाय उड़ीसा के मंदिरों के। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जगन्नाथपुरी पर कभी कबीरपंथियों का नियंत्रण था।

‘द इंग्लिस लेक्स विजिटर एण्ड केसविक गार्डियन’ (5 मार्च, 1881) लिखता है कि बिलासपुर, छत्तीसगढ़ कबीरपंथियों का गढ़ था। ज्यादातर चमार जातियों के लोग कबीर की शिक्षाओं से प्रभावित थे, जो बुनकर आदिवासी थे। बिलासपुर की तिहाई जनसंख्या कबीरपंथियों की थी।

ऐसे ही ‘द होमवर्ड मेल’ में 23 जनवरी, 1882 को दरियापंथी समुदाय के बारे में एक खबर छपी थी। जिसमें कहा गया था कि इस पंथ को दरिया साहेब ने शुरु किया था और उसका मुख्यालय शाहाबाद, निकट डुमरांव था। यह पंथ, एकेश्वरवादी था और कबीरपंथ या कबीर के भक्तों द्वारा ही बना था, जो हिंदू देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखते थे। वे मूर्ति पूजा और जातिपात की निंदा करते थे। ब्राह्मण को अपने पंथ में शामिल करने के पहले उन्हें जनेऊ से मुक्त करते थे। अखबार के अनुसार तब दरियापंथियों में साधू या महंत बनने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था और किसी भी श्रोत से धन ग्रहण न करने को बाध्य किया जाता था।

‘लंदन डेली न्यूज’ (24 मार्च, 1883) ने सेंट्रल प्राॅविन्स में कबीरपंथियों की संख्या 3,47,994 एवं सतनामियों की संख्या 3,98,409 का उल्लेख किया था। इसी आलेख में अखबार ने जंगलों में भारी संख्या में रहने वाले प्रकृति पूजक आदिवासियों का उल्लेख किया है, जिन्हें, हिंदू, मुसलमान और क्रिश्चियनों ने अपने में मिलाना शुरु किया था।

ब्रिटिश अखबारों में कबीर की चर्चाओं का उल्लेख मैंने ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’ नामक अपनी किताब में की है।

‘चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’ और ‘भील विद्रोह का इतिहास’ पर काम करते हुए मैंने पाया कि साहित्य और इतिहास, दोनों स्थानों से वंचितों को बेदखल करने का काम किया गया है। हीरा डोम की एक मात्र कविता का प्रकाश में आना, संदेह पैदा करता है कि उनकी अन्य रचनाओं को निश्चय ही नष्ट कर दिया गया होगा। प्रेमचंद से पूर्व हिंदी साहित्य में दलितों का दर्द, दासता और छुआछूत का उल्लेख न होना, साहित्य और इतिहास से पर्देदारी, पक्षधरता और भेदभाव का प्रमाण है। आदिवासियों पर जुल्म, उनको सत्ता से बेदखल कर, राजपूतों द्वारा उनकी गद्दियों का अपहरण, इतिहास का क्रूरतम अन्याय है तो साहित्य में पाखंडों और छूआछूत पर चुप्पी, उससे भी घिनौना सामाजिक कृत्य है।

‘कबीर और कबीर पंथ’ में एफ.ई. केइ ने कबीर का समय और परिवेश, किंवदंतियों में कबीर का जीवन’ का उल्लेख करते हुए कबीरपंथ के संस्कार और कर्मकांड तक बात को पहुंचाया है, जो लेखक की उस दृष्टि को साफ करता है कि एक पाखंड विरोधी संत को किस तरह कर्मकांड में उलझा दिया गया।

इस पुस्तक को पढ़ते हुए और ‘कबीर हैं कि मरते नहीं, किताब पर काम करते समय मैंने, केइ की पुस्तक के तमाम संदर्भों और किंवदंतियों का उपयोग किया। कबीर के वैचारिक तेवर के आधार पर वैज्ञानिक ढंग से उनका खंडन किया और उनके जन्म और मृत्यु की उलझा दी गई गुत्थियों को इतिहास की दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास किया। इसलिए एफ. ई. केइ की पुस्तक का कई स्थानों पर उल्लेख करना जरूरी लगा।

अंत में, अनुवादक कंवल भारती के प्रति तहे दिल से आभार व्यक्त करने का मन हो रहा है, जिन्होंने इस किताब को बेहद सरल भाषा में अनुवाद कर, बोधगम्य बना दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कबीर पर हिंदी में काम करने वाले शोधार्थियों के लिए यह किताब काम की सिद्ध होगी।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

सुभाष चंद्र कुशवाहा

सुभाष चन्द्र कुशवाहा एक इतिहासकार और साहित्यकार के रूप में हिंदी भाषा भाषी समाज में अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’, ‘अवध का किसान विद्रोह : 1920 से 1922’, ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’, ‘भील विद्रोह’, ‘टंट्या भील : द ग्रेट इंडियन मूनलाइटर’ और ‘चौरी-चौरा पर औपनिवेशिक न्याय’ आदि शामिल हैं। वे अपनी किताबों में परंपरागत इतिहास दृष्टियों के बरक्स एक नयी इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।

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