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बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में

मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो का स्थान पहले आएगा, क्योंकि यह तो मानना ही होगा कि भारत में सामाजिक विषमता ही आर्थिक विषमता की जननी है। पढ़ें, विद्या भूषण रावत की यह टिप्पणी

आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फीसदी आरक्षण की वैधता को लेकर इस समय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। वैसे भी केंद्र सरकार ने संसद मे 103वें सवैधानिक संशोधन के बाद यह आरक्षण ईडब्ल्यूएस के नाम पर ‘सवर्णों’ के लिए कर दिया है। लेकिन हम सब सहज ही अनुमान लगा हैं कि इस सुनवाई का परिणाम क्या होगा। 

बताते चलें कि 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के द्वारा पिछड़े वर्ग के सदस्यों के लिए मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को स्वीकार करने के कारण सवर्ण तबकों में खलबली मच गई और एक राजनेता जिसे राजर्षि और मिस्टर क्लीन का खिताब दिया गया था, को भारतीय राजनीति के इतिहास में सबसे बड़ा खलनायक बना दिया गया। ऐसा इसलिए कि आरक्षण एक ऐसा विषय है, जिसने भारत में मलाईदार तबकों को बेहद उद्वेलित किया है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इसके कारण उनका सत्ता पर नियंत्रण लगातार घटता जा रहा है।

निशाने पर आरक्षण

लिहाजा आरक्षण को खत्म करने की राजनीतिक रणनीति ओबीसी आरक्षण के बाद से ही शुरू कर दी गई और इसके पहले नायक थे भूतपूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव, जिन्होंने निजीकरण की बात को आगे बढ़ाया और उसके बाद की सरकारों ने निजीकरण को अपने लिए मुनाफे का साधन बना लिया। भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तो एक मंत्रालय ही बना दिया, जिसका काम था सरकारी कंपनियों को बेचना। इसे विनिवेश मंत्रालय का नाम दिया गया और इसके ‘पथप्रदर्शक’ थे आरक्षण और डॉ. आंबेडकर की नीतियों के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वाले ‘बुद्धिजीवी’ अरुण शौरी। बाद में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जब यूपीए की सरकार बनी अर्जुन सिंह को केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय का जिम्मा दिया गया। उनके कार्यकाल के दौरान आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता के प्रश्नों पर केंद्रीय विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में बहुत बड़े परिवर्तन किए गए, जो आज भी मील का पत्थर कहे जा सकते हैं। अर्जुन सिंह के मंत्री रहते ही उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ मिला। साथ ही, डॉ. मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल के दौरान ही एससी व एसटी वर्गों को पदोन्नति में आरक्षण का लाभ मिलना प्रारंभ हुआ। हालांकि एक सच यह भी कि अर्जुन सिंह को हाशिए पर कर दिया गया। 

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

आरक्षण विरोधी सवर्ण लॉबी ने अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरिवाल के आंदोलन में भाग लिया और परिणाम हुआ कि भाजपा मजबूत हुई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार ने प्रारंभ में धर्म ही बना लिया कि भारत सरकार की सभी परिसंपतियों को जितनी जल्दी हो, बेचा जाय ताकि आरक्षण का झमेला ही न रहे। 

अब भी है अपर्याप्त भागीदारी

टेलीग्राफ अखबार की एक रिपोर्ट, जिसे संसद में भी रखा गया, के अनुसार, 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों से प्राप्त जानकारी के मुताबिक केंद्रीय विश्वविद्यालयों मेंअनुसूचित जाति का एक, अनुसूचित जनजाति के पांच और पिछड़े वर्गों के मात्र तीन रजिस्ट्रार हैं। 1 अप्रैल, 2022 तक के आंकड़ों के अनुसार कुल 12,373 अध्यापकों में 1306 अनुसूचित जाति, 568 अनुसूचित जनजाति और 1740 पिछड़े वर्ग से संबंधित हैं। बाकी 8386 ‘सामान्य’ वर्ग के। इसी प्रकार कुल 22,096 गैर-शिक्षण कर्मियों में 2063 एससी, 1186 एसटी और 2342 ओबीसी हैं। यहां भी 16,132 ‘सामान्य’ वर्ग के हैं। 

अगर पूरे आंकड़े को देखे तो सभी की संख्या बहुत कम है और इसका मतलब है कि आरक्षण का पालन नहीं किया जा रहा है। 

मंडल रिपोर्ट के बाद अक्सर यह कहा जाता था कि लोग आरक्षण के विरुद्ध हैं और यदि मदद करनी हो तो शिक्षा के क्षेत्र मे मदद कर सकते हैं। लेकिन जब दलित-पिछड़े आदिवासी मेरिट लिस्ट मे टॉप करने लगे तो जातिवादियों के लिए समस्या खड़ी हो गई। तब यह आरोप लगता था कि 10 प्रतिशत प्राप्तांक वाले को 90 प्रतिशत वाले के ऊपर थोपा जा रहा था। मतलब यह कि आरक्षण का जो नॅरेटिव बनाया गया, वह यह था कि यह ‘अयोग्य’ लोगों को दिया जाता है, जिसके काण भ्रष्टाचार बढ़ रहा हैं। 

लेकिन पिछले कुछ वर्षों मे जब से दलित, पिछड़े और आदिवासी सामान्य सीटों से भी आने शुरू हुए तो सताधारियों को नए तरीके खोजने पड़े। पहले जनरल का मतलब होता था सामान्य, जिसके तहत कोई भी मेरिट के आधार पर आ सकता है। लेकिन अब दलित-आदिवासियों-पिछड़ों को सामान्य से बाहर करने के लिए सामान्य का मतलब सवर्ण कर दिया गया है और वर्तमान सरकार ने तो इस काम को आगे बढ़ाकर अपनी मंशा को साफ कर दिया है। 

आरक्षण के खिलाफ नॅरेटिव बनाने की कोशिश

डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की बात कही थी। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण दिया। जबकि मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो का स्थान पहले आएगा, क्योंकि यह तो मानना ही होगा कि भारत में सामाजिक विषमता ही आर्थिक विषमता की जननी है। सरकार को गरीबों की चिंता नहीं है, बल्कि उसके नेताओं में इस बात की परेशानी साफ झलकती है कि किसी तरीके से दलित, पिछड़े और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कम किया जाए। पिछड़े वर्ग के लोगों में भी वह विभाजन करवा रही है और दलितों में भी। अति दलित, आति पिछड़ा आदि पर ध्यान दिया जा रहा है। सरकार कहती है के इन सभी वर्गों के मलाईदार तबके ही आरक्षण का लाभ ले रहे हैं, इसलिए वह आरक्षण के अंदर आरक्षण करना चाहती है और इस बात को सबका समर्थन मिल रहा है। 

लेकिन एक सवाल जो बार-बार उठाया जाना चाहिए कि आखिर सवर्णो के आरक्षण में कौन सवर्ण जाति सबसे अधिक मलाई खा रही है? इस सवाल का उत्तर हमें ब्राह्मणवादी नॅरटिव बनाने वाली मशीनरी से मिल जाता है, जिसने उत्तर प्रदेश मे अलग-अलग समय में हर एक नेता पर अपनी जाति का फेवर करने का आरोप लगाया। मायावती पर चमारवाद, अखिलेश पर यादववाद के आरोप लगाए गए। योगी आदित्यनाथ पर भी उत्तर प्रदेश मे ठकुरवाद फैलाने के आरोप लगाए गए हैं। मैं इन प्रश्नों के उत्तर इन जातिययों की सत्ता में भागीदारी से देख रहा हूं। 

दरअसल इस समय जो जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है और जिसे कराने से केंद्र सरकार ने मना कर दिया है, उससे यह जानकारी समग्रता में सामने आ सकेगी कि शासन-प्रशासन से लेकर संसाधनों पर किस जाति की कितनी हिस्सेदारी है। हालांकि सरकार के पास इसके आंकड़े जरूर होंगे कि आखिर किस बिरादरी के कितने अधिकारी हैं। न्यायपालिका भी यह बात जानती है क्योंकि यह बहुत बड़ा काम नहीं है। अगर वह पता करे कि देश के उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में सबसे अधिक जज किस बिरादरी के हैं? अखबारों के मालिक और उनके संपादक व पत्रकार किस जाति के लोग हैं? 

इसलिए मैं यह बार-बार मे कहता हूं कि सरनेम में जातियों का उल्लेख करना चाहिए। केवल सवर्ण, पिछड़ा या दलित बोलने सेर काम नहीं चलेगा। 

सवाल अब प्रतिनिधित्व का है और मात्र सवर्ण कहकर ब्राह्मण-बनिया मोनोपॉली को आप छुपा नहीं सकते। 2018 से भारत सरकार ने सिविल सेवाओं के लिए लैटरल एंट्री की व्यवस्था कर ली। मतलब यह कि ‘विशेषज्ञता’ के नाम पर लोगों को सीधे संयुक्त सचिव से लेकर निदेशक व उपसचिव स्तर के अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाने लगा। सबसे पहले पांच लोग लिए गए। इनमें भी ब्राह्मण-बनिया ही रहे।

अभी हाल ही में जननायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय, बलिया मे ‘अनारक्षित’ स्थानों पर जो नियुक्तिया हुई हैं, वह अगर जातिवाद नहीं है तो क्या है? हिंदी, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र विभागों में अनारक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के नाम पर जिस प्रकार से ब्राह्मण-भूमिहार लोगों की नियुक्तियां की गई हैं, वह दिखाता है कि कैसे सवर्ण ताकतें, मीडिया के जरिए आरक्षण के बारे में नॅरेटिव सेट करती हैं। 

बने एक आयोग

होना तो यह चाहिए कि सत्ता में समुचित भागीदारी सभी तबकों की होनी ही चाहिए और इसलिए एक आयोग बने और हर जाति के प्रतिनिधित्व की जांच हो और फिर उसके बाद निर्णय हो कि किन जातियों का प्रतिनिधित्व कम होना चाहिए और किनका अधिक। तभी भारत सही मायनों मे आगे बढ़ेगा और मजबूत बनेगा। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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