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बहस-तलब : दलितों की भागीदारी के बगैर द्रविड़ आंदोलन अधूरा

तमिलनाडु में ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण की पूरी बहस में दलित हाशिए पर हैं। क्या यह बहस दलित बनाम गैर-दलित नहीं होनी चाहिए और उस परिपेक्ष्य के अनुसार दलितों की स्थिति का आकलन नहीं किया जाना चाहिए? पढ़ें, विद्याभूषण रावत का यह विश्लेषण

तमिलनाडु का द्रविड़ियन मॉडल आजकल उत्तर भारत में चर्चा में है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्य में एक ऐसी सरकार दी है, जिसका इंतजार दलित-बहुजनों को लंबे समय से था। राज्य में स्कूलों की बेहतरी के लिए उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों को देखा। मेडिकल संस्थानों में प्रवेश के मामले में राष्ट्रीय अहर्ता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) के प्रश्न पर उन्होंने केंद्र की नीति का खुलकर विरोध किया। इसके अलावा उनकी सरकार ने ऐसे कई और फैसले लिए हैं, जो देश के अन्य राज्य सरकारों के लिए नजीर हैं। फिर चाहे वह स्कूलों में नाश्ते का सवाल हो या मंदिरों में गैर-ब्राह्मण तमिल बोलने वाले पुजारियों का प्रश्न। ऐसे सभी प्रश्नों पर उत्तर भारत में दलित-ओबीसी नेता चुप्पी साधे रहते हैं। तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलनिवेल थिआगराजन ने तो हाल ही में खुले तौर पर नरेंद्र मोदी मॉडल को ही चुनौती दी।

 

उत्तर भारत के अनेक दलित-बहुजन बुद्धिजीवी, जो यहां के दलित-बहुजन नेताओं की उपेक्षा से दुखी-परेशान रहते हैं, उन्हें तमिलनाडु में एक नई आशा की किरण दिखाई दे रही है। 

दरअसल, तमिलनाडु का पेरियार मॉडल संपूर्ण भारत के लिए एक संदेश है। हालांकि इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज चाहे स्टालिन हों या द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) के अन्य नेता हों, सभी राजनीतिक मज़बूरियों को भी समझते हैं। लेकिन इसके साथ ही यह ध्यान रखना होगा कि बदलते वक्त में पुराने मॉडल के आधार पर बार-बार अपनी उपलब्धियों का बखान नहीं किया जाना चाहिए। मतलब यह कि ब्राह्मणों को पानी पी-पीकर कोसने से द्रविड़ियन मॉडल सफल हो जाएगा, ऐसा मानना बहुत बड़ी भूल होगी। 

उत्तर भारत में पेरियार एक तबके द्वारा नायक तो दूसरे द्वारा खलनायक बना दिए गए। खलनायक बनाने वालों की ताकत इतनी अधिक थी कि बसपा ने अपने प्रमुख बैनरों से पेरियार का नाम हटा दिया। हालांकि बाद में सत्तासीन होने के बाद बसपा द्वारा 17 सितंबर, 1995 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के परिवर्तन चौक पर तीन दिवसीय पेरियार मेंला आयोजन किया, जिसका भाजपा ने विरोध किया था। 

बताते चलें कि पेरियार अक्टूबर, 1968 में अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग के सम्मेंलन की अध्यक्षता करने लखनऊ आए थे। तब भदंत आनंद कौसल्यायन, अखिल भारतीय भीम सेना के अध्यक्ष बी. श्याम सुंदर, शिवदयाल चौरसिया, छेदी लाल साथी, ललई सिंह यादव, और मुस्लिम मजलिस के ए. जे. फरीदी शामिल थे। तब पेरियार के लखनऊ आगमन का जनसंघ और आरएसएस ने विरोध किया भी था। लेकिन वे पेरियार को लखनऊ आने से नहीं रोक पाए। पेरियार का व्यक्तित्व एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व था और उनका सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण तमिलनाडु में बृहत्तर परिवर्तन का कारक बनाया। गैर-ब्राह्मणवाद आंदोलन को सामाजिक न्याय और बहुजन समाज का प्रश्न बनाकर पेरियार ने तमिल समाज में बड़े राजनीतिक परिवर्तन को आधार दे दिया, जिसकी तुलना दूसरे प्रदेशों से नहीं की जा सकती। 

तमिलनाडु में 1967 के बाद से ही द्रविड़ियन पार्टियों की सरकारे रही हैं। उससे पहले वहां के. कामराज के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन 1967 के बाद से पहले डीएमके और उसकी प्रतिद्वंदी के रुप में अखिल भारतीय अन्ना द्रमुक (एआईएडीएमके) पार्टी उभरी। दोनों पार्टियों की वैचारिक पृष्टभूमि पेरियार के सामाजिक न्याय आंदोलन की रही है। 

तमिलनाडु में आज भी दलित, पिछ़ड़ों और आदिवासियों के लिए 69 प्रतिशत आरक्षण है, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा से अधिक है। यह तब हुआ जब जयललिता वहां की मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने इस संदर्भ में केंद्र सरकार पर ऐसा दबाब डाला कि उसे तमिलनाडु में 69 फीसदी आरक्षण के सवाल को संविधान की 9वीं अनूसची में डालना पड़ा। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि 9वीं अनुसूची में डाले जाने के बाद किसी भी प्रावधान को न्यायालयीय चुनौती नहीं दी जा सकती है।

तमिलनाडु में आरक्षण जस्टिस पार्टी (1917-27 अगस्त, 1944) के समय से था और अब यह लगभग आनुपातिक व्यवस्था पर आधारित है। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर सत्ता ताकतवर पिछड़े वर्ग के हाथ में आई और दलितों की स्थिति गंभीर बनी रही। 

पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन में विवाह और लैंगिक समानता का प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण था। लेकिन बावजूद पेरियार की विचारधारा की हकीकत यह है कि द्रविड़ पार्टियों की राजनीति के केंद्र में पिछड़ा वर्ग और उसकी ताकतवर जातियां रही हैं। ब्राह्मणवाद विरोध के नाम पर राजनीति से तमिलनाडु के सभी बड़े दलों के दलित विरोधी चरित्र को भी समझना पड़ेगा।

अगर राजनीति में इसका असर देखें तो तमिलनाडु में दलित आंदोलन के लिए सबसे मजबूत संघर्ष विदुथलाई चिरूथाइगल काची (वीसीके) नामक पार्टी कर रही है। हालांकि उनके भी दो सांसद जीत के नहीं आते यदि डीएमके के साथ उनका समझौता नहीं होता। आज डीएमके किसी भी तरीके से अपने आप को ‘सवर्ण विरोधी’ या ‘हिंदू विरोधी’ के तौर पर नहीं प्रस्तुत करना चाहती है। यह पार्टी अपने काम पर फोकस कर रही है। 

1960 के दशक से ही तमिल राजनीति और समाज पर पेरियार के आंदोलनकारियों की पकड़ है। वे सत्ता में हैं और विपक्ष में भी रहे हैँ। क्या तमिलनाडु में आज भी दलितों पर अत्याचार केवल ब्राह्मणों के द्वारा किया जा रहा है? डीएमके और एआईडीएमके को इसका जवाब देना चाहिए। 

अभी हाल ही में तेनकासी नामक स्थान पर दलितों के आर्थिक बहिष्कार की खबर आई। दुकानदार बच्चों को भी कोई सामान देने से इनकार कर रहे थे। यह बहिष्कार पिछले दो महीने से चल रहा था। हाल ही में सामाजिक संगठनों ने पिछले पांच वर्षों में दलितों की हत्याओं के 300 मामले चिन्हित किये, जिनमें 13 मामलों में ही दोषियों को सजा हुई है। केवल 28 मामलों की जांच चल रही है और 229 मामले लंबित हैं। 

पेरियार को श्रद्धांजलि देते तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन

तमिलनाडू में दलितों की आबादी 21 फीसदी है। उनकी जमीनों पर उन जातियों के लोगों का कब्जा है, जो गैर-ब्राह्मणी आंदोलन के अगुआ रही हैं। 1892 से 1933 के मध्य मद्रास प्रेसिडेंसी में लगभग 12 लाख एकड़ जमीन दलितों को पट्टे पर दी गई। लेकिन आज मात्र 10 प्रतिशत जमीनों पर कब्जा ही दलितों के पास है। 

दरअसल ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण की पूरी बहस में दलित हाशिए पर हैं। क्या यह बहस दलित बनाम गैर-दलित नहीं होनी चाहिए और उस परिपेक्ष्य के अनुसार दलितों की स्थिति का आकलन नहीं किया जाना चाहिए? 

तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में 19 फरवरी, 1981 को पलार (दलित) समुदाय के 180 लोगों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया था और आज वे लोग बेहद स्वाभिमान के साथ जिंदगी जी रहे हैं। पूरे क्षेत्र में मारावर समुदाय, जो थेवर जाति से ही निकली हुए हैं, जो वहां की सबसे ताकतवर कृषक जाति है और उनका दबदबा था तथ उनके अत्याचारों से प्रताड़ित होकर दलितों ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। यह थेवर जाति ही डीएमके और एआईडीएमके का मुख्य आधार है। यह जाति पिछड़े वर्ग के नाम पर तमिलनाडु में गैर ब्राह्मणवादी आंदोलन की अगुआ भी रही हैं, लेकिन अपने अंदर से ब्राह्मणवाद को पूरी तरह से नहीं मिटा पाई है। 

तमिलनाडु अनटेबिलिटी इरैडिकेशन फ्रंट (अस्पृश्यता उन्मूलन फ्रंट) की रपट बताती है कि आज भी तमिलनाडु में स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों व जिला पंचायतों में निर्वाचित दलित प्रतिनिधि स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस के मौके पर जातिगत विरोध के कारण तिरंगा तक नहीं फहरा पाते। रपट में बताया गया है कि कुल 386 दलित पंचायत अध्यक्षों में से आज भी 22 को अपने कार्यालयों में बैठने के लिए कुर्सी तक नसीब नहीं है। 

2004 के अंत में तमिलनाडु में भयानक सुनामी आई थी। मैं वहां गया था। मैंने चेन्नई से लेकर नागपट्टनम, कदलूर, तेनकासी, चिदंबरम, नगोर, वेलंकिनी और पांडिचेरी का दौरा किया। दलितों के साथ भेदभाव को लेकर मैंने एक फिल्म बनाई जिसका नाम था– ‘द साइलेंस ऑफ सुनामी’ यानि सुनामी की चुप्पी। पूरी यात्रा में मैंने यह देखा कि किस प्रकार से आपदा में दलितों को कोई सहायता न पहुंच पाए, ऐसे प्रयास भी किए गए। जब भी किसी गांव में मैं लोगों से दलित बस्तियों में जाने की बात कहता तो लोग मुझे कहते कि हमसे बात क्यों नहीं कर रहे हो, वहा क्यों जाना चाहते हो? एक गांव में धार्मिक लंगर चल रहे था, दलितों की उपस्थिति से मछुआरे समाज के लोग नाराज हो गए। लिहाजा आयोजकों ने दलितों के लिए अलग से लंगर लगा दिया। 

शवों को लाने और उठाने के लिए भी अरुंधतियार समाज, जिसे हम उत्तर भारत में वाल्मीकि समाज या स्वच्छकार समाज के नाम से जानते हैं, के लोगों को अलग-अलग स्थानों से बुलाया जा रहा था। सुनामी ने सब कुछ तबाह कर दिया था, लेकिन वह भी वर्ण-व्यवस्था को खत्म नहीं कर पाई। सब कुछ लुटा देने के बाद भी लोग अपनी जातियों और भगवानों से चिपके रहे। यह दुखद था कम से कम उस राज्य में जहां पेरियार ने क्रांति की। 

हकीकत यह है कि दलितों के प्रश्न पर द्रविड़ आंदोलन असहज हो जाता है। ब्राहमणवाद के विरोध के नाम पर वह सबसे अधिक मुखर होता है, लेकिन ब्राह्मणों को हटा कर कोई सद्भाववादी या बराबरी का समाज बन गया हो, ऐसा अभी तमिलनाडु में नहीं हुआ है। जातियों की ताकत आज भी बनी हुई है और दलित हाशिए पर हैं। यह एक कटु सच्चाई है कि तमिलनाडु में दलितों के सबसे बड़े क्रांतिकारी नेता आंबेडकरवाद के प्रमुख स्तंभ इमैनुएल शेखरण की 11 सितंबर, 1957 को हत्या कर दी गई। हत्यारे थेवर जाति से थे और उनकी हत्या इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने थेवरों के बड़े नेता मूथुरामलिंग थेवर के सम्मान में खड़े होने से इनकार कर दिया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि दलित पर अत्याचारों के मामले में थेवर सबसे आगे हैं। जुलाई से सितंबर 1957 के बीच रामनाथपूरम में जो दंगे हुए, उसमें 42 दलितों की हत्या हुई थी। इस मामले में जो भी आरोपी थे, उनके खिलाफ अन्नादुर्ई की सरकार कुछ नहीं कर पाई और सभी रिहा हो गए। 

आज भी तेनकासी की घटना को राज्य सरकार भले ही हल्के में ले रही हो, लेकिन यह सच सामने आ चुका है कि गांव में 80 परिवार पिछड़ी जातियों के और 50 परिवार दलितों के हैं। गांव की पंचायत ने अन्य जातियों को दलित बच्चों के साथ खेलने कूदने पर रोक लगा दी और दुकानदारों ने उन्हे समान देने से इनकार कर दिया। हालांकि मंत्री कह रहे है कि छुआछूत की खबर गलत है। सवाल इस बात का है कि 70 वर्षों के आत्मसम्मान आंदोलन में क्या छुआछूत का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है या द्रविड़ आंदोलन यह मानता है कि छुआछूत खत्म करने की लड़ाई केवल सवर्णों और दलितों का प्रश्न है तथा पिछड़ी जातियों का इससे लेना देना नहीं है?

सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार वर्ष 2016 से 2020 के दरमियान तमिलनाडु में सीवर में घुसकर काम करने के दौरान मरने वालों की संख्या 55 है। वर्ष 2018-19 में करीब तीन हजार से अधिक लोगों ने सरकार को लिख के दिया था कि वे मानवमल ढोने के काम में लिप्त है लेकिन सरकार ने मात्र 264 लोगों के इस काम में लिप्त होने की बात कही। 

आज भी तमिलनाडु उन राज्यों में है, जहां अंतरजातीय विवाहों को लेकर बेहद तनातनी हो जाती है और जातिगत श्रेष्ठता का पालन करते हुए अपने बेटे-बेटियों की हत्या कर देते हैं। तमिलनाडु की एक संस्था एविडेंस की एक रपट यह बताती है कि 2014-2019 तक राज्य में 195 मामले ऑनेर किलिंग के सामने आए हैं। लेकिन एक भी मामले में न्याय नहीं मिल पाया है। आखिर जिन प्रश्नों के लिए पेरियार ने अपनी जिंदगी लगा दी, वे सवाल ही अभी भी जस के तस दिखाई दे रहे हैं। ब्राह्मणवाद नि:संदेह इनमें से बहुतों के लिए जिम्मेंवार है, लेकिन 70 वर्षों से द्रविड अस्मिता के नाम पर पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली सरकारों को भी तो हिसाब देना ही चाहिए।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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