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सत्यशोधक फुले

ज्योतिबा के पास विचारों की समग्र प्रणाली थी और वह उन प्रारंभिक विचारकों में से थे, जिन्होंने भारतीय समाज में वर्गों की पहचान की थी। उन्होंने भारतीय समाज के द्वैवर्णिक संरचना का विश्लेषण किया था और सामाजिक क्रांति के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को अग्रणी कारक शक्ति / एजेंसी के तौर पर चिह्नित किया था। पढ़ें, सुभाष गताडे की पुस्तक ‘चार्वाक के वारिस का एक अंश’

[प्रस्तुत अंश सुभाष गाताडे की पुस्तक ‘चार्वाक के वारिस’ के पांचवें अध्याय ‘स्वामी दयानंद, विवेकानंद एवं महात्मा ज्योतिबा फुले के बहाने चंद बातें’ का सातवां खंड (‘सत्यशोधक’ फुले) है। इस किताब का संपादन स्वदेश कुमार सिन्हा और प्रकाशन ऑथर्स प्राइड पब्लिशर., दिल्ली द्वारा किया गया है। यहां इसे हम लेखक की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं]

विद्या बिना मति गई, मति बिना गति गई,
गति बिना नीति गई, नीति बिना वित्त गई,
वित्त बिना शूद्र चरमराये,
इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ।
– ज्योतिबा फुले 

जिन मापदंडों के आधार पर हम सामाजिक मुक्ति के बारे में इन दोनों [स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद] शख्सियतों की तुलना कर रहे हैं, उन्हीं पैमानों पर अगर महात्मा फुले को देखें तो क्या नज़र आता है? लेकिन कुछ कहने से पहले फुले के जीवन के अहम पड़ावों का विहंगावलोकन करना समीचीन होगा।

1848 – अपनी पत्नी सावित्री बाई और उनकी सहपाठी/ मित्र फातिमा शेख के सहयोग से भारत में शूद्र-अतिशूद्र लड़कियों के लिए पहले स्कूल की स्थापना; 1851- सभी जाति की कन्याओं के लिए एक अन्य स्कूल; 1855 – कामगार लोगों के लिए रात्रि पाठशाला; 1856 – उनकी ‘विभाजक’ गतिविधियों के चलते उन पर जानलेवा हमला; 1860 – विधवा विवाह की मुहिम; 1863 – विधवाओं के लिए एक आश्रय स्थल की शुरुआत, विधवाओं के केशवन अर्थात बाल काटे जाने के खिलाफ़ नाभिकों [नाइयों] की हड़ताल का आयोजन; 1868 – अपने घर का कुआं अश्पृश्यों के लिए खोल देना; 1 जून, 1873 – ‘गुलामगिरी’ उनकी बहुचर्चित किताब का प्रकाशन; 24 सितंबर, 1873 – सत्यशोधक समाज की स्थापना; 1876-82 – पुणे म्युनिसिपल काउंसिल के नामांकित सदस्य; 1882 – ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ की लेखिका एवं सत्यशोधक समाज की कार्यकर्ता ताराबाई शिंदे की ज़ोरदार हिमायत, जब उनकी उपर्युक्त किताब ने रूढ़ीवादी तबके में जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया था; 11 मई,1888 – एक विशाल आम सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की गई; 1889 – उनकी आखिरी किताब ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ का प्रकाशन; 28 मई,1890 – पुणे में इंतकाल।

भारत में अंग्रेजों के शासन शुरू होने से पहले प्रजा को शिक्षा देना सरकार का दायित्व नहीं माना जाता था। महात्मा फुले के जन्म से पहले राजसत्ता तथा धार्मिक सत्ता ब्राह्मणों के हाथ में होने के कारण सिर्फ उन्हें ही धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार था। निम्न जाति के जिन व्यक्तियों ने पवित्र ग्रंथ पढ़ने का प्रयास किया तो उन व्यक्तियों को मनु के विधान के तहत कठोर सजाएं मिली थीं। दलितों की स्थिति जानने के लिए पेशवाओं के राज पर नज़र डालें तो दिखेगा कि वहां दलितों को सड़कों पर घूमते वक्त अपने गले में घड़ा बांधना पड़ता था ताकि उनकी थूक भी बाहर न निकले। वे सड़कों पर निश्चित समय में ही निकल सकते थे, क्योंकि उनकी छायाओं से भी सवर्णों के प्रदूषित होने का ख़तरा था। ज़ाहिर सी बात है कि दलितों के लिए शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता ‌था। वर्ष 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा जारी आदेश के तहत शिक्षा के दरवाज़े सभी के लिए खुल गए। वैसे सरकार ने भले ही आदेश जारी किया हो, लेकिन ज़मीनी स्तर पर स्थिति बेहद प्रतिकूल थी। ब्राह्मणों के लिए एक तरह से आरक्षित पाठशालाओं में जब अन्य जाति के छात्रों को प्रवेश दिया जाने लगा तब उसका जबरदस्त प्रतिरोध हुआ था।

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 1848 में महिलाओं के लिए खोले अपने पहले स्कूल के जरिए फुले दंपत्ति ने उस सामाजिक विद्रोह का बिगुल फूंका, जिसकी प्रतिक्रियाएं 21वीं सदी में भी जोर-शोर से सुनाई दे रही हैं। 1851 तक आते-आते महिलाओं, शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए उनके द्वारा खोले‌ गए स्कूलों की संख्या पांच तक पहुँची थी, जिसमें एक स्कूल तो सिर्फ दलित महिलाओं के लिए था। जैसे कि उस समय हालात थे और ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियों में पढ़ने-लिखने वालों की संख्या बेहद सीमित थी, उस समय इस किस्म के धर्मभ्रष्ट करने वाले काम के लिए कोई महिला शिक्षिका कहां से मिल पाती? ज्योतिबा ने बेहतर यही समझा कि अपनी खुद की पत्नी को पढ़ा-लिखाकर तैयार किया जाए और इस तरह 17 साल की उम्र में सावित्रीबाई पहली महिला शिक्षिका बनीं। फातिमा शेख नामक दूसरी शिक्षित महिला ने भी – जो सावित्रीबाई की सहेली थीं – इस काम में हाथ बंटाया।

इस बात के विस्तृत विवरण छप चुके हैं कि शूद्रों-अतिशूद्रों तथा स्त्रियों के लिए स्कूल चलाने के लिए इस दंपत्ति को प्रतारणाएं झेलनी पड़ीं। यहां तक कि सनातनियों के प्रभाव में आकर ज्योतिबा के पिता गोविंदराव ने उन्हें घर से भी निकाल दिया। 

‘चार्वाक के वारिस’ पुस्तक का मुख पृष्ठ

सावित्रीबाई एवं ज्योतिबा की शिक्षा की मुहिम ने किस तरह एक नई अलख जगाई, इसकी झलक 1855 लिखे इस पत्र से मिलती है, जो उस वक्त 14 साल की मुक्ताबाई ने – जो खुद मांग नामक दलित जाति में जन्मी थी – लिखा था और पहली दफा अहमदनगर से प्रकाशित ज्ञानोदय नामक पत्रिका में – ‘मांग महारों के दु:ख के बारे में’ शीर्षक से छपा था। चौदह साल की वह लड़की कहती है कि–

 “ऐ पढ़े-लिखे पंडितों,
अपने खोखले ज्ञान की स्वार्थी
रटंत बन्द करो और
सुनो जो मैं कहना चाहती हूं।

अगर हम वेदों के आधार पर इन ब्राह्मणों के, महान पेटू लोगों के, तर्कों को ख़ारिज़ करने कुछ कोशिश करें, जो अपने आप को हमसे श्रेष्ठ मानते हैं और हमसे नफ़रत करते हैं, तब वह कहते हैं कि वेद उनकी अपनी सम्पत्ति है। ज़ाहिर है कि अगर वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए ही है, तो हमारे लिए नहीं है। हे भगवान ! हमें अपना सच्चा धर्म बता दो ताकि हम अपनी जिंदगी उसके हिसाब से जी सकें। वह धर्म, जहां एक व्यक्ति को ही विशेषाधिकार है और बाकी सभी वंचित हैं, इस पृथ्वी से समाप्त हो और हमारे दिमाग में यह कभी न आए कि हम इस धर्म पर गर्व करें।…”

लेकिन महात्मा फुले ने अपने काम को महज़ शिक्षा तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने कई सारी किताबों के जरिए ब्राह्मणवाद से उत्पीड़ित जनता को शिक्षित-जागरूक करने की कोशिश की। ‘गुलामगिरी’, ‘किसान का कोड़ा’, ‘ब्राह्मण की चालबाजी’ आदि उनकी चर्चित किताबें हैं। अपने रचनात्मक कामों के अंतर्गत उन्होंने वर्ष 1863 में अपने घर में ही ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ खोला। जानने योग्य है कि विधवा विवाह पर रोक की प्रथा के कारण विशेषकर ब्राह्मण जाति की महिलाओं को काफी प्रताड़णा झेलनी पड़ती थी। अगर किसी के भुलावे में आकर वे गर्भवती हुईं तो बदनामी से बचने के लिए उन्हें उसको मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचता था। ज्योतिबा-सावित्री ने महिलाओं को इस दुर्दशा से बचाने के लिए अपने घर में ही ऐसे गृह की स्थापना की। इसको लेकर समूचे पुणे में हैंडबिल भी बांटे गए थे। बाल विधवाओं के बाल काटने से रोकने के लिए उन्होंने पुणे के नाइयों की एक हड़ताल भी संगठित की थी।

अपने कार्यों को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिबा ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। फुले की दृष्टि व्यापकता का अंदाज इस बात से भी लग सकता है कि उसकी पहली कार्यकारिणी में हमें हिंदू धर्म की विभिन्न जातियों के अलावा एक यहूदी और एक मुसलमान भी शामिल दिखता है। उन्हीं दिनों अपने दो मित्रों के साथ मिलकर 1873 में ‘दीनबन्धु’ नामक अख़बार का प्रकाशन भी उन्होंने शुरू किया। ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ की रचयिता ताराबाई शिंदे हों या पुणे के सनातनियों से प्रताड़ित पंडिता रमाबाई, दोनों की मज़बूत हिफाजत ज्योतिबा ने की।

जोतीराव फुले(11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890)

जानने योग्य है कि सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता एवं फुले के सहयोगी श्री नारायण मेघा जी लोखंडे ने बम्बई की पहली ट्रेड यूनियन ‘बाम्बे मिल हैंड्स एसोशिएशन’ की स्थापना की थी तथा उन्हीं के आंदोलन की अन्य कार्यकर्ता ताराबाई शिन्दे अपनी किताब ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ के चलते एक तरह से पहली नारीवादी सिद्धांतकार मानी गई हैं। उनकी अन्य सहयोगी भालेकर ने ज्योतिबा की प्रेरणा से किसानों के संगठन का बीड़ा उठाया। 

इस तरह हम देख सकते हैं कि स्त्री, शूद्र-अतिशूद्र के उत्पीड़न का प्रश्न रहा हो या उनकी शिक्षा का, जनता को सचेत करने के लिए अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का मामला रहा हो या सेठों-ब्राह्मणों द्वारा रचे गए छल-कपट सभी की मुखालिफत में वे हमेशा आगे रहे। लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान यही कहा जाएगा कि उन्होंने वर्णाश्रम पर टिकी ब्राह्मणवाद की चौखट को जबरदस्त चुनौती दी और यह साबित किया कि ऊंच-नीच‌ के अनुक्रम पर टिकी यह प्रणाली इंसान को जोड़ने वाली नहीं है, तोड़ने वाली है। यह स्वाभाविक ही था कि नवोदित उपनिवेशवादी संघर्ष द्वारा गढ़ी जा रही राष्ट्र की अवधारणा उन्होंने प्रश्नों के घेरे में खड़ी की। उनका साफ़-साफ़ सवाल था कि जातियों में बंटा‌ यह समाज कैसे एक राष्ट्र हो सकता है?

अगर स्त्री, शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षित करने के उनके प्रयासों पर फिर लौटें तो हम पाएंगे कि उन्होंने शोषितों को शिक्षित करने के साथ-साथ शिक्षा का एक वैकल्पिक मॉडल भी प्रस्तुत करने की‌ कोशिश की। मैकाले के शिक्षा की फिल्टर मॉडल के बरअक्स अर्थात शिक्षा ऊंचे तबकों को प्रदान की जाए तो वह छन-छनकर निचले तबकों तक आएगी, महात्मा फुले ने निचले तबकों को सबसे पहले शिक्षित करने पर ज़ोर दिया। आजकल चर्चित ‘पड़ोस में स्कूल’ की नीति की भी उन्होंने हिमायत की। यहां तक कि शिक्षा में सरकारी हस्ताक्षेप का आग्रह किया। भारतीय जनमानस में प्रगट रूप में कायम मनु के विधान को चुनौती देते हुए उन्होंने दलितों-शोषितों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने की भी कोशिश की। उनकी मौत के चंद साल बाद ही उनकी यह इच्छा कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने [1902 में] पूरी की, जो उन्हीं के आंदोलन से जुड़े थे।

1882 में अंग्रेज सरकार द्वारा शिक्षा संबंधी समस्याओं को जानने के लिए नियुक्त हंटर आयोग के सामने प्रस्तुत अपने निवेदन में फुले के शिक्षा संबंधी विचार और ठोस रूप में मिले दिखते हैं। वे साफ़ कहते हैं कि, “मेरी राय है कि लोगों को प्राथमिक शिक्षा कम से कम 12 साल तक अनिवार्य कर देनी चाहिए।” उनका यह भी प्रस्ताव था कि ब्राह्मणों द्वारा दलित जातियों की पढ़ाई के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं की देखते हुए उनकी बस्ती में अलग स्कूल बनाने चाहिए। शिक्षा तथा अन्य स्थानों पर शोषित तबकों को वरीयता देने की बात करते हुए इसमें यह भी लिखते हैं कि अध्यापकों को ठीक तनख्वाह मिलनी चाहिए तभी वे ठीक से पढ़ा पाएंगे। लेकिन उनका सबसे रैडिकल सुझाव शिक्षा के पाठ्यक्रम को लेकर है, जो उनके मुताबिक “महज क्लर्क और शिक्षक तैयार करने की‌ उपयोगिता तक सीमित है।” प्रचलित माध्यमिक शिक्षा को सामान्य लोगों की दृष्टि से अव्यवहारिक और अनुचित घोषित करते हुए उसका‌ विकल्प तलाशने की मांग करते हैं।

उनका साफ़ मानना था कि शूद्रों-अतिशूद्रों को जिन आपदाओं का सामना करना पड़ता है, उसकी जड़ में ईश्वर के नाम से रचित या उनके द्वारा प्रेरित धार्मिक किताबों पर अंधविश्वास ही कारण होता है। इसलिए वे अंधश्रद्धा को खत्म करना चाहते थे। स्पष्ट है कि सभी स्थापित धार्मिक और पुरोहित तबकों को यह अंधविश्वास अपने उद्देश्य के लिए उपयोगी दिखता है, जो उसकी हिफाज़त की पूरी कोशिश करते हैं। उनका प्रश्न था–

“अगर ईश्वर एक ही है, जिसने सभी मानवता को बनाया, तब उसने वेदों को सिर्फ संस्कृत में ही क्यों लिखा जबकि वह समूची मानवता का कल्याण चाहता था? उन सभी के कल्याण का क्या जो यह भाषा समझ नहीं पाते?” 

फुले का निष्कर्ष यह है कि यह बात भरोसे के लायक नहीं लगती कि सभी धार्मिक किताबें ईश्वर द्वारा रचित हैं। यह बात मान लेना एक तरह से अज्ञान और पूर्वाग्रह का परिणाम है। सभी धर्म और धार्मिक किताबें मनुष्य द्वारा निर्मित हैं और वह उन्हीं तबकों के हित साधन की बात करती हैं, जो इसके माध्यम से अपने हित की पूर्ति चाहते हैं। अपने वक्त में फुले ऐसे एकमात्र समाजशास्त्री और मानवतावादी थे, जो ऐसे साहसी विचारों को रख सकते थे। उनकी नज़र में, हर धार्मिक किताब अपने वक्त का उत्पाद होती है और उसमें जो सत्य पेश किए रहते हैं, उनमें कोई स्थायी और वैश्विक वैधता नहीं होती।ऐसी किताबें उनके रचयिताओं के पूर्वाग्रहों और स्वार्थों से कभी मुक्त नहीं हो सकतीं। 

आखिर हम ज्योतिबा फुले के योगदान के बारे में क्या कह सकते हैं, जिन्होंने सामाजिक मुक्ति के क्षेत्र में एक रैडिकल प्रवाह के विकास में अहम भूमिका अदा की। 

‘सेलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ ज्योति राव फुले’ के संपादकीय में प्रोफेसर गो. पू. देशपांडे हमें बताते हैं फुले का फलक व्यापक था, उनका प्रसार विशाल था। उन्होंने अपने वक्त के अधिकतर महत्वपूर्ण प्रश्नों– धर्म, वर्ण व्यवस्था, कर्मकांड, भाषा साहित्य, ब्रिटिश हुकूमत, मिथक, जेंडर प्रश्न, कृषि में उत्पादन की परिस्थितियां, किसानों की हालत आदि को चिह्नित किया और उनको सैद्धांतिक शक्ल देने की कोशिश की…उनके पास विचारों की समग्र प्रणाली थी और वह उन प्रारंभिक विचारकों में से थे, जिन्होंने भारतीय समाज में वर्गों की पहचान की थी। उन्होंने भारतीय समाज के द्वैवर्णिक संरचना का विश्लेषण किया था और सामाजिक क्रांति के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को अग्रणी कारक शक्ति / एजेंसी के तौर पर चिह्नित किया था।


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लेखक के बारे में

सुभाष गताडे

सुभाष गताडे वामपंथी कार्यकर्ता, विमर्शकार और अनुवादक हैं। जाति और आंबेडकर उनके विमर्श के महत्वपूर्ण विषयों में शामिल हैं। उन्होंने काशी हिंन्दू विश्वविद्यालय से एम.टेक. की डिग्री प्राप्त की। ये हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और मराठी में लिखते हैं। ‘बीसवीं शताब्दी में डॉ. आंबेडकर का सवाल’, ‘पहाड़ से उंचा आदमी: दशरथ मांझी’, 'दीनदयाल उपाध्याय : भाजपा के गांधी '(हिंदी), 'गाड्स चिल्ड्रेन : हिंदुत्व टेरर इन इंडिया', 'दी सैफर्न कंडीशन : पालिटिक्स ऑफ रिप्रेशन एण्ड एक्सक्लूजन इन नियोलिबरल इंडिया' (अंग्रेजी), 'अम्बेडकर विरूद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (मराठी) में प्रकाशित इनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। ये निमयित तौर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। 1990 से 1999 तक इन्होंने ‘लोकदस्ता’ पत्रिका संपादन किया है

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