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‘हमारे पुरखे रावेन को मत जलाओ’

गोंडी भाषा में ‘रावण’ शब्द नहीं है। यह रावेन है। इसका मतलब होता है नीलकंठ पंछी। यह नीलकंठ रावेन का गोत्र प्रतीक था। बता रही हैं उषाकिरण आत्राम

आज का भारत प्राचीन काल में कोयतुरों (प्रथम स्त्री-पुरुष) का वास स्थल था। इसे कोयामुरी द्वीप कहा जाता था। धरती के प्रथम मानव कोयतुर कहलाए। वहीं कोया का मतलब मूलवासी गोंड है। कोयामुरी द्वीप के प्रथम राजा संभुसेक थे। बाद में यह उपाधि बन गई। यह सर्वोच्च पद का प्रतिनिधित्व करता था और यह उपाधि उसे ही दी जाती जिसे धरती का स्वामी माना जाता था। बाद में हजारों, लाखों सालों तक मानव सभ्यता का विकास होता चला गया। नए-नए शोधकर्ता और खोजी-वैज्ञानिक होते रहे। धातु, कृषि, निवास, राज्य, न्याय व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, कुटुंब व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था आदि का निर्माण किया गया। इस प्रकार मानव जीवन की हर कड़ी प्रगति से जुड़ गई।

बड़े-बड़े राज्य और राजा लोग हुए। राजाओं ने बड़े-बड़े किले और दुर्ग बनवाए। सोने की नगरी बनाई। आर्य, हूण, मंगोल, यहूदी, मुसलमान, अंग्रेज मराठे सभी ने कोयतुरों की भूमि पर हमला करके यहां के मूलनिवासियों को लूटा। जल, जंगल, जमीन, राजपाट, भाषा, धर्म-संस्कृति, अस्तित्व, अस्मिता सभी लूटा और मिटा दिया। लेकिन कोयतुरों के अनेक महान पराक्रमी राजा हुए। इनमें अनेक न्यायप्रिय और लोकप्रिय थे। वे निसर्गपूजक (प्रकृतिपूजक), समूहवादी और कला-संगीत के उपासक थे। उनकी शौर्यगाथा के प्रतीक सुंदर गीत आज भी गाए जाते हैं। हम आदिवासी उन्हें अपना महान पुरखा मानते हैं। इनमें जालंधर, महिषासुर, बकासुर, अइवासुर, रणासुर, कालियानाग, धनासुर, जटासुर, रावेन (रावण), पुल्लेसुर, अहिरावण, महिरावण जैसे अनेक महानायक सम्राट शामिल रहे। लेकिन महिलाओं ने समाज के नेतृत्व की बांगडोर संभाली। यहां तक कि राज्य व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, समाज व्यवस्था भी। इनमें मौला, गिरीजा, गौरा, अंगोदायी, मंदोदरी, ताड़का, त्रिजटा, महामाया, बमलाई, कलीकंकाली और समलायी जैसी हजारों मातृशक्तियों ने इस धरती पर राज किया। उन्होंने सामाजिक व्यवस्था, भाषा और सभ्यता को जन्म दिया तथा विस्तार किया। 

इन्हीं महान सम्राटों की कड़ी में एक विश्वप्रसिद्ध जननायक महान सम्राट हुआ, जो अनेक विद्याओं को को आत्मसात करनेवाला और विज्ञान का ज्ञानी व पराक्रमी सम्राट हुआ। वह विश्रवा का पुत्र रावेन था। विश्रवा के पिता पुलत्स्य थे। गोंडी भाषा में उसका असली नाम था– “राऊ जोनेर वरेनंदू-नरेंदर”। व्यंकटेश आत्राम, मोतीरावण कंगाली आदि गोंडी भाषा के विद्वानों का कहना है पुलत्स्य का अर्थ ‘झबरे बाल वाला सिंह’ होता है। पुलत्स्य की पत्नी तृणबिंदु थी। 

गोंडी भाषा में ‘रावण’ शब्द नहीं है। यह रावेन है। इसका मतलब होता है नीलकंठ पंछी। यह नीलकंठ रावेन का गोत्र प्रतीक था। 

बताते चलें कि प्राचीन कोयतुर सभ्यता में गोत्र प्रतीकों से ही सभी 750 गोत्रों की पहचान थी। सभी प्रतीक चिन्ह अलग-अलग जीव-जंतु होते थे। लेकिन आर्य वंश के रचनाकारों ने रावेन की विद्वता देखकर उसे कोयावंशियों से मूल पहचान छिपाकर उसे ब्राह्मण कहा। यह सरासर झूठ है। उन्होंने रावेन के दादा को ब्रह्मा का मानसपुत्र बताया। ब्रह्मा तो आर्य था। वह बाहर से आया मूलनिवासियों का शत्रु था। एक शत्रु आर्य अनार्य मूलनिवासी के पुत्र को अपना पुत्र क्यों मानेगा? रावेन की माता अनार्य राजा सुमाली की बेटी थी। लेखक मारोती उईके कहते हैं– “रावण आर्य नहीं, गोंड राजा था।” वे कहते हैं कि समय देखकर झूठा इतिहास लिखने में माहिर यहां के आर्य ब्राह्मण हैं, जिन्होंने झूठा इतिहास व साहित्य लिखा है, क्योंकि हमारा राजा कोयावंशी गोंड राजा था। गण व्यवस्था के सभी मूलवासी कोयतुर सम्राटों रावेन, मेघराज, दैत्यासुर, कोलहासुर, बाणासुर, पुल्लेसुर और महिषासुर आदि की, जिन्हें आर्य हिंदुओं ने राक्षस, दैत्य, पिशाच, भूत, दानव और असुर कहा, को अपना पुरखा मानते हैं और पूजा करते हैं। वे अपने पुरखापेन (पेन अर्थात शक्ति) कहते हैं। दादा-दादी कहते हैं। उनकी गाथाएं गाते हैं। उनका उत्सव मनाने के लिए लकड़ी की प्रतिमा बनाते हैं।

एक पुरखा हुए मयदानव। उन्होंने मयनार (गोंडी में मय मतलब पुरखा और नार का अर्थ गांव) का निर्माण किया। आज की दिल्ली का प्राचीनतम नाम मयनार था। यह नाम गोंडी में नाम था। मयनार यानी मयदाव का गांव। वहां कड़कड़डूमा पेन स्थान (शक्ति स्थल) था। आज यहां कड़कड़डूमा कोर्ट है। और इसकी कुछ ही दूरी पर कड़कड़डूमा गांव है। मयदानव मंदोदरी के पिता थे और स्थापत्य कला के विशेषज्ञ थे। उन्होंने उस काल में हवाई जहाज बनाकर अपनी पुत्री मंदोदरी और दामाद रावेन को भेंट दिया था। लेकिन उनका उल्लेख आर्यों के ग्रंथ में इस रूप में नहीं है। वे मयदानव ही थे, जिन्होंने महाभारत काल में पांडवों के लिए अद्भूत सभागृह बनाया था। इसकी खासियत यह थी कि जहां पर पानी दिखता था वहां जमीन होती थी और जहां जमीन दिखती थी, वहां पर पानी होता था। लेकिन स्थापत्य कला के उस महान विशेषज्ञ मयदानव का नाम इतिहास के पन्नों में नहीं आने दिया, क्योंकि वह रावेन का ससुर और मूलवासी कोयतूर था, अनार्य था। फिर रावेन ब्राह्मण कैसे हो सकता है?

रावणवध की तैयारी मैं पुतले बनाते लोग

रावेन को लेकर आर्य ब्राह्मणों ने खूब दुष्प्रचार किया। उन्हें यह कहकर बदनाम किया गया कि उन्होंने सीता का अपहरण किया। इसका महत्वपूर्ण कारण था कि आर्य लोग सुरापान करते थे। अबोल जानवरों की बलि देते और उनका भक्षण करते थे। वे अनार्यों के खेत, फसल व जंगल में आग लगा देते थे। उनकी जमीनों पर कब्जा करके घी, तेल, धान, फल-फूल जलाकर यज्ञ करते थे। वे अनार्य औरतों के साथ तरह-तरह के जुल्म करते थे। वे उनको दासी बनाते और उनकी खरीद-बिक्री करते थे। उनके इन्हीं व्यवहारों का विरोध रावेन करता था। रावेन निसर्गपूजक मातृपूजक था। स्त्रियों का आदर-सम्मान करनेवाला, समूहवादी सभ्यता को माननेवाला समतावादी था। इसलिए वह सुरापान करनेवाले आततायी आर्यों के यज्ञ में बाधा डालता था। इसलिए आर्य उसको बड़ा शत्रु मानते थे। दूसरा कारण था कि वह सबसे धनवान कुबेर का स्वामी था। उसकी राजधानी सोने की थी। उसके राज्य में जल-जमीन-जंगल सब समृद्ध थे। उसकी अपनी लिपि-बोली, कल-संगीत और आदर्श मानववादी सभ्यता थी। उसका वैभव देखकर लालची आर्य ईर्ष्या रखते थे। और उसका राज्य हथियाने के लिए हमेशा युद्ध करते थे। उसके राज्य में एक जमींदार का लड़का घुस गया। उसका नाम था रामचंद्र। वह आर्य ब्राह्मणों का भेजा हुआ दूत था। उसने रावेन की बहन सूपर्णखा पर जबरन हमला किया। उसके नाक-कान काट डाले। सवाल है कि स्त्री के शरीर पर हथियार चलाकर उसका नाक-कान काटने वाले को क्या अत्याचारी नहीं कहेंगे? स्त्री के शरीर पर शस्त्र चलाना, उसे विद्रुप करना, उसके सौंदर्य को कलंकित करना अपराध नहीं है? एक राजा अपनी लाडली बहन पर अत्याचार करने वाले आर्य शत्रु का सम्मान करेगा? उसे कुछ भी सबक नहीं सिखाएगा? फिर उसने तो रामचंद्र की पत्नी को सिर्फ उठाकर ले गया। उसके साथ न तो किसी प्रकार की हिंसा की और ना ही अपमानित किया। बल्कि सम्मानपूर्वक अतिथि गृह में सुरक्षित रखा। फिर वह पापी, अत्याचारी और दुराचारी कैसे हुआ? 

लेकिन उस न्यायप्रिय गोंड राजा को, जो मातृपूजक सभ्यता का आदर करता था, उसे अहंकारी, पापी, राक्षस, नालायक, व्याभिचारी और अत्याचारी मानकर आज भी आर्य वंश के पितृसत्तावादी हिंदू धर्म माननेवाले सभी उसका पुतला फूंकते हैं और गाली-गलौज करते हैं। वे उसे विकृत रूप में दिखाते है। वे उसे दस मुंह और बीस हाथ वाला, बड़े-बड़े दांत वाले के रूप में दिखाते हैं। वे अपने धर्मग्रंथों में उसे दुष्ट, पापी, दुर्जन, दुष्कर्मी बोलते हैं। 

यह सोचने की बात है कि वह एक इंसान मां की पेट से जन्मा था। वह दो हाथ, दो पांव, एक मुख वाला आदमी था। वह प्रकांड पंडितों का पंडित, कई विद्या-शास्त्रों का ज्ञाता, विद्वान, सदाचारी, बलवान, शास्त्रविद्या में निपुण, प्रज्ञाशील, करुणा रखनेवाला और शीलवान पुरुष था। फिर भी उसका पुतला जलाना कहां की विद्वता है?

भारत के अनेक राज्यों तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रावेन के पेन स्थान हैं। रावेन के नाम पर अनेक गांवों के नाम हैं– रावेनवाडी, रावेनगढ़, रावेनखिंडी, रावेनठाना, रावेनकोर, और रावेनगढ़ी आदि। 

मेरे मायके चांदागढ़ में मेरे पूर्वज आत्राम गोंड राजाओं ने एक हजार साल तक राज किया। वहां बहुत बड़ा किला है, जिसमें चार बड़े-बड़े द्वार हैं। इन्हें जटपुरा, महाकाली, पठाणपुरा और बिनबा द्वार कहते हैं। उस बिनबा द्वार पर रावेन की सुंदर मूर्ति है जो कि उनके रावेनपूजक होने का सबूत है। दूसरा सबूत बाबूपेठ (एक बस्ती) है। आत्राम राजाओं ने पत्थर फोड़ने, किला बनवाने के लिए आंध्र से पत्थर तोड़ने वाले बेलदार (मजदूर) बुलाए थे। उनके लिए बाबूपेठ बसाया गया। वहां पर 25 फुट ऊंची और बड़ी सुंदर मूर्ति है। उस काल में रावेन पूजा धूमधाम से मनाई जाती थी। गोंड राजाओं के काल में सुशासन था। अंग्रेजों के बाद मराठा राज्य आया। तब मराठों ने रावेन के मूर्ति विद्रुप कर दिया। रावेन की पूजा बंद करा दी गई। गोंड रावेनपूजक थे, यह इतिहास से ही मिटा दिया गया। यह मूर्ति आज भी है चांदागड़, महाराष्ट्र में। 

महाराष्ट्र के ही अमरावती के मेलघाट में कोरकु आदिवासी रहते हैं। वे धूमधाम से रावेन व मेघनाथ की गड़पूजा (रावेन की पूजा) आज भी करते हैं। एक समय महाराष्ट्र में स्वयं को गोंड माननेवाले सभी रावेन की लकड़ी की प्रतिमा बनाकर रावेन की पूजा करते थे। नागपुर के गोंड राजा बक्त बुलंद शाह के काल में गरोबाचौक में रावेन की पूजा तथा शस्त्रों की पूजा धूमधाम से हेती थी। बाद में मराठा राजाओं ने रावेन पूजा बंद करा दी तथा रावण दहन की परंपरा शुरू कर दी।

अमरावती जिले में महानंदा टेकाम ने रावेन दहन पर प्रतिबंध लगाने की पहल की। यह 1990-94 की बात है। उनकी पहल के कारण उनके जिले में रावेन दहन बंद हो गया।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में तो आज भी गांवों में लोग रावेन उत्सव धूमधाम से मनाते हैं। 1991 से मनीरावण दुग्गा गुरुजी की पहल के कारण रावेन दहन प्रथा बंद कर दी गई। उन्होंने ही परसवाडी गांव में रावेन की मूर्ति स्थापित की है। दस दिनों तक वहां विविध व्याख्यान, सांस्कृतिक, सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन कर लोगों को जागरूक किया जाता है।। इस मौके पर रावेन की विद्वता, समूहवाद, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक मूल्यों पर विचार रखे जाते हैं।

इतिहास के अध्ययनकर्ता अरुण कांबले अपने ग्रंथ में कहते हैं कि “वाल्मीकि ने रामायण में राम के गुणगान तो किए हैं, लेकिन रावेन की विद्वता पर गौरव उद्गार भी लिखे हैं। ‘वयाम रक्षाम’ याने राक्षसाधिपति रक्षणकर्ता याने द्रविड़ सभ्यता का पंचतत्व का, सृष्टि का और समाज का रक्षक।” मारोती उईके का कहना है कि जो लोग अपने समाज के, राज्य के, और अपनी सभ्यता के रक्षक थे, वे विद्रूप राक्षस कैसे? वो नरभक्षक, रक्तपिपासु, क्रोधी, अत्याचारी, दस मुंह वाले, बीस हाथ वाले कैसे? उसने भी अपने मां के पेट से जन्म लिया था। उनके पास घर-परिवार, बाल-बच्चे, गांव-नगर, समूह-समाज, न्याय व्यवस्था, प्रशासन संबंधी कानून थे। ना वे बलात्कार करते थे, न नारी का अपमान, न झूठ-बेइमानी, न लूटेरे थे और ना ही वे किसी जानवर के जैसे थे। वे सुंदर, और सभी नीतियों, मूल्यों का पालन करने वाले सत्यवादी थे। 

लोक साहित्य में रावेन 

रावन संबंधी गीत व कहानी लोक साहित्य में भरपूर हैं। इनमें उन्हें महाप्रतापी, महापंडित, विद्वान, शौर्यशाली, धनपति, कुबेर, स्वर्णनगरी का निर्माता, वज्र पुरुष, न्यायप्रिय राजा कहा गया है। कोरकु में गोंड समाज की महिलाएं आज भी गीत गाती हैं– 

“लंका रावना जुगी, टऊटेन ओलेन जोय
लंका रावना जुगी, जोडमा नोडमा जोय
लंका रावना चुनुका चिंगी डोयना जोय
लंका रावना दंडा, झुली डोयना जोय
लंका रावना जुगी टऊटेन ओलेन जोय।”

इसका भावार्थ है– लंका में जब हमारे रावेन राजा चलते तब धरती हिलती थी। इतने दमदार राजा थे। उनके सिर पर लगे मुकुट में हीरे-मोती थे, जो जगमग-जगमग प्रकाश करते। उनके हाथ में सोने के कंगन हैं, जिनमें हीरे और मोती जड़े हैं। यदि कितना सुंदर मनभावन रूप है। और वाणी और शारीरिक सौंदर्य, वैभव देखकर सीता मोहित होकर खुद उनेके पीछे चली गई। लेकिन रावेन ने बुरी नजर नहीं डाली। सम्मान से अशोक कुटी में उसकी रहने की व्यवस्था की और सुरक्षा की। कितना उच्चा विचार आचरण करनेवाला शीलवान राजा था। ऐसा गुणगान आदिवासी गोंडी कोरकु गीतों में रावन को महान लोकप्रिय पुरखा माना जाता है।

आज समाज में बलात्कार, भ्रूणहत्या, स्त्री हत्या, चोर-लूटेरे, बेईमान और समाज में गंदगी फैलाने वाले अत्याचारी, बलात्कारी, डाकू, खूनी हैं। ये आर्यों के रावण हैं, हमारे रावेन नहीं। अत्याचारियों और बलात्कारियों को उनके किये की सजा दो। लेकिन रावेन को मत जलाओ।

(संपादन : समीक्षा/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

उषाकिरण आत्राम

उषाकिरण आत्राम की गिनती प्रमुख आदिवासी लेखिका व सांस्कृतिक मुद्दों की कार्यकर्ता के रूप में होती है। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियां में मोरकी (काव्य संग्रह : 1993 में गोंडी भाषा और बाद में हिंदी और मराठी में अनुवादित), 'कथा संघर्ष' (1998) और 'गोंडवाना की वीरांगनायें' (2008) हैं

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