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ओबीसी महिला अध्येता शांतिश्री धूलीपुड़ी पंडित, जिनकी नजर हिंदू देवताओं की जाति पर पड़ी

जब उत्पादक समुदायों जैसे शूद्र, दलित और आदिवासी समाजों से गंभीर बुद्धिजीवी उभरते हैं तब जाति व्यवस्था में स्वयं की उनकी स्थिति, उनकी चेतना की निर्धारक बन जाती है, फिर चाहे वे हिंदुत्ववादी खेमे से हों या साम्यवादी खेमे से, बता रहे हैं कांचा इलैया शेपर्ड

शांतिश्री धूलीपुड़ी पंडित ने हिंदू देवी-देवताओं के संबंध में एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया है, जो दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी खेमे के भीतर एक नए विमर्श की शुरूआत है। उन्होंने अपने इस सिद्धांत का प्रतिपादन आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर द्वारा अगस्त 2022 में नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में अपने वक्तव्य में किया। हालांकि उनके अपने खेमे ने उनके इस सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया। धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों ने ऐसा अभिनय किया मानो उन्होंने कुछ सुना ही न हो और इस तरह स्वयं और देश को गंभीर बौद्धिक क्षति पहुंचाई। ब्राह्मणवादी शक्तियां उनकी बर्खास्तगी और गिरफ्तारी की मांग कर रही हैं। इस मुद्दे को लेकर आंदोलन और प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपने की धमकी दी गई है। इस तरह की धमकियों का डटकर मुकाबला किया जाना चाहिए। इन लोगों की सोच उतनी ही प्रतिगामी है जितनी कि सलमान रुश्दी पर हमला करने वाले मुस्लिम कट्टरपंथियों की। 

हिंदुत्ववादी शक्तियों के राज में किसी महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए नए प्रश्न उठाने वाली शांतिश्री पहली ओबीसी महिला बुद्धिजीवी हैं। वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की पहली महिला कुलपति हैं। उनके पहले जो सज्जन इस पद पर विराजमान थे, उन्हें असहमति और बौद्धिक विमर्श से सख्त परहेज था। वे विश्वविद्यालय में सेना जैसा अनुशासन चाहते थे। शांतिश्री ने इस बात की परवाह किए बिना कि उनके खेमे में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, एक नए विमर्श की शुरूआत कर अकादमिक स्वतत्रंता की जो मिसाल प्रस्तुत की है, वह हवा के एक ताजा झोंके के समान है। वे ऐसे बौद्धिक प्रश्न उठा रही हैं, जिनके संपूर्ण समाज के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं। नारीवादी, उदारवादी और मार्क्सवादी भारतीय महिला बुद्धिजीवियों में भी मैंने आज तक ऐसा ओबीसी बुद्धिजीवी नहीं देखा, जो ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता से इतनी गंभीरता और तत्परता से मुकाबला करने को प्रस्तुत हो। 

उनकी इस पहल का सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि उन्होंने दक्षिणपंथी खेमे के भीतर रहते हुए आंबेडकर को गंभीरता से लिया और जाति के संबंध में मनु के सिद्धांत और ब्राह्मणणवादी आध्यात्मिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाए। एम. एस. गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, मोहन भागवत व राम माधव सहित सभी हिंदुत्ववादी ब्राह्मण नेता और लेखक, मनु को एक अलौकिक और पवित्र चिंतक मानते हैं। परंतु शांतिश्री की दृष्टि में मनु एक प्रतिगामी, स्त्री-विरोधी और जातिवादी चिंतक हैं। और शांतिश्री एकदम ठीक कह रहीं हैं। 

यद्यपि शांतिश्री ने कहा कि सभी (गैर-मुस्लिम, गैर-ईसाई) महिलाएं शूद्र होती हैं और वे ब्राह्मण पुरूष से विवाह करने के बाद ही ब्राह्मण बनतीं हैं, परंतु मैंने तो यह पाया है कि अधिकांश ब्राह्मण महिला लेखिकाओं, इतिहासविदों और समाजविज्ञानियों की समझ और कार्यकलाप इसके ठीक उलट हैं। वे ब्राह्मणों की तरह जीती हैं और उनकी तरह ही लिखती हैं। मंडल आंदोलन के दौरान उनकी (चंद अपवादों को छोड़कर) आरक्षण-विरोधी राजनीति का मैं स्वयं गवाह हूं। अन्य विश्वविद्यालयों को तो छोड़िए, जेएनयू तक के किसी पुरूष या महिला इतिहासविद, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी या राजनीतिविज्ञानी ने आज तक अपने लेखन में मनु को प्रतिगामी बताते हुए उनकी निंदा नहीं की। शांतिश्री ने यह कर दिखाया है। अब तक विश्वविद्यालयों में उदारवादी-मार्क्सवादी इतिहास लेखन और मानव वैज्ञानिक पड़तालों का उपयोग जाति प्रथा के संरक्षण के लिए किया जाता रहा है। 

प्राचीन भारत पर लेखन करने वाले अधिकांश सम्मानित वामपंथी इतिहासविदों जैसे डी. डी. कौशम्बी, रोमिला थापर और आर. एस. शर्मा ने कभी शूद्र / दलित / आदिवासी परिप्रेक्ष्य से मनु के धर्मशास्त्र पर गंभीरता से विचार नहीं किया और ना ही उन्होंने आंबेडकर के मनु और हिंदू धर्मशास्त्र के संबंध में विचारों को गंभीरता से लिया। एम. एन. श्रीनिवास, आंद्रे बेतेय व दीपंकर गुप्ता जैसे समाजशास्त्रियों और मानवविज्ञानियों ने कभी हिंदू देवी-देवताओं की जाति के प्रश्न पर विचार नहीं किया। शांतिश्री का कहना है कि “हिंदू देवकुल में कोई भी देवी या देवता ब्राह्मण नहीं है। उनमें से अधिकांश या तो क्षत्रिय वंश से हैं या शूद्र / दलित / आदिवासी हैं।” उन्होंने कहा कि शिव या तो दलित हैं या आदिवासी और पुरी के जगन्नाथ आदिवासी हैं। एक तरह से उन्होंने दैवीय शक्तियों का जाति-विरोधी दृष्टिकोण से विखंडन किया। मानव वैज्ञानिक दृष्टि से जातिगत पदक्रम में विभिन्न देवों की स्थिति क्या थी, यह प्राचीन ब्राह्मणवादी संस्कृत ग्रंथों से जाना जा सकता है। कई देवों के नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख भी किया गया है और ये जातियां भारतीयों में वर्तमान में हैं।  

जब शांतिश्री हिंदू देवों की मानवशास्त्रीय स्थिति के बारे में बात करती हैं, जिससे ब्राह्मण अध्येता चाहे वे पुरूष रहे हों या महिला, हमेशा बचते रहे, तब वे एक वैज्ञनिक पड़ताल कर रही होती हैं। बड़े से बड़े क्रांतिकारी वामपंथी बुद्धिजीवी भी इस तरह के प्रश्नों से दूर रहते आए हैं। भयावह असमानता एवं दमन की प्राचीन संस्थाओं पर विमर्श से बचने से न तो देश का भला होगा और ना ही संबंधित धर्म का। हर प्रकार की असमानताओं पर दार्शनिकों और चिंतकों को विचार करना चाहिए क्योंकि तभी हम एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे, जिसमें सभी मनुष्य एक बराबर होंगे और जो श्रम की गरिमा में आस्था रखेगा। हम पक्के तौर पर यह जानते हैं कि ब्राह्मणवादी जातियां श्रम विरोधी और इसलिए विकास विरोधी हैं। श्रम की गरिमा और उत्पादन परस्पर जुड़े हुए हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित

इसके पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक सेमिनार में धूलीपुड़ी पंडित ने कहा था कि द्रोपदी और सीता भारतीय इतिहास की प्राचीनतम नारीवादी थीं क्योंकि सीता भारत की पहली सिंगल मदर थीं तथा द्रोपदी ने कई मौकों पर अपने पांचों पतियों का विरोध किया था। यह कथन अपने आप में हिंदुत्व-विरोधी है। 

भारतीय मानवविज्ञानियों की एक समस्या यह रही है कि अन्यों की तरह वे भी घोर ब्राह्मणवादी थे। उन्होंने कभी अतीत और वर्तमान की मानवीय दृष्टिकोण से पड़ताल नहीं की। उनकी काम करने की पद्धति और अतीत व वर्तमान का उनका अध्ययन उनकी स्वयं की जातिगत व सांस्कृतिक चेतना से निर्धारित होता रहा। उदाहरण के लिए एम. एन. श्रीनिवास ने शुचिता और प्रदूषण की अवधारणाओं को केंद्र में रखकर भारतीय सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन किया। उत्पादन, समानता / असमानता व उत्पादक समुदायों की श्रम शक्ति कभी उनके विश्लेषण का केंद्रीय तत्व नहीं रही। 

जब उत्पादक समुदायों जैसे शूद्र, दलित और आदिवासी से गंभीर बुद्धिजीवी उभरते हैं तब जाति व्यवस्था में उनकी स्थिति उनकी चेतना की निर्धारक बन जाती है। चाहे वे हिन्दुत्वादी खेमे से हों या साम्यवादी खेमे से – अगर उनमें गंभीर बौद्धिक जिज्ञासा और समाज की मूलभूत कमियों की समझ होती है तो वे नए प्रश्न उठाना शुरू कर देते हैं। जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले, आंबेडकर और पेरियार ने जो प्रश्न उठाए, वे उनके समकालीन ब्राह्मण बुद्धिजीवियों द्वारा उठाए तत्समय जा रहे प्रश्नों से गुणात्मक दृष्टि से एकदम अलग थे। शांतिश्री, जो कि एक ओबीसी महिला अध्येता हैं, ने ब्राह्मण्वादी आध्यात्मिक प्रणाली का मूल्यांकन करने के लिए प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाया है। 

मेरे जीवनकाल में शांतिश्री हिंदुत्ववादी खेमे से एकमात्र ऐसी बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने नए प्रश्न उपस्थित किए हैं। उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और एक सच्चे बुद्धिजीवी बतौर उन्हें इनसे मुकाबला करना चाहिए। वे जेएनयू की पूर्व विद्यार्थी हैं और अब इस विश्वविद्यालय की कुलपति के रूप में कार्यरत हैं। ऐसे में वे जो कहेंगीं, उस पर लोगों का ध्यान जाना स्वाभाविक है।

जेएनयू पश्चिमोमुखी समाज वैज्ञानिक अध्ययन के लिए जाना जाता है। वहां पश्चिमी अध्येताओं को गंभीरता से पढ़ा और गुना जाता है और वहां के विद्यार्थी अपने शोधकार्य में पश्चिमी विद्वानों को उदारता से उद्धत करते हैं तथा अध्यापकगण उन्हें यह करने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं। परंतु इसके बाद भी विश्वविद्यालय का बौद्धिक वातावरण रचनात्मक और परिवर्तनकामी नहीं बन सका है। इस विश्वविद्यालय से कई अच्छे अध्येता और प्रशासक निकले हैं, परंतु वे केवल उसी पश्चिमी संरचना में काम कर पाते हैं, जिनसे वे पहले से परिचित होते हैं। जेएनयू के किसी अध्येता या चिंतक ने अब तक कोई अभूतपूर्व कार्य नहीं किया है। शांतिश्री ने अपना बचाव करते हुए कहा कि वे केवल एक गंभीर अध्येता हैं और आंबेडकर की तरह मौलिक चिंतक नहीं हैं और यह कि उन्होंने दिल्ली में आयोजित सेमिनार में हिंदू देवी-देवताओं के बारे में आंबेडकर के विचारों की संक्षिप्त व्याख्या भर की थी। मेरा मानना है कि भारत सामाजिक-राजनैतिक विकास के जिस चरण में है, उसमें यहां के विश्वविद्यालयों से आंबेडकर जैसे मौलिक अध्येता व चिंतक निकलने चाहिए। आंबेडकर कोलंबिया विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थी थे। जब पश्चिमी विश्वविद्यालयों से मौलिक चिंतक निकल सकते हैं तो भारतीय विश्वविद्यालयों से क्यों नहीं

भारत जैसे देश में समाज विज्ञानों के हर गंभीर विद्यार्थी को आम लोगों और उनकी सोच के दृष्टिकोण से प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक संस्थाओं का अध्ययन करना चाहिए। शांतिश्री का यह दावा है कि समाज वैज्ञानिक अध्ययन के मामले में जेएनयू देश का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। परंतु यह केवल एक तुलनात्मक मूल्यांकन है। सभी भारतीय विश्वविद्यालय पश्चिमी विचारों पर केंद्रित हैं और इस मामले में जेएनयू अन्यों से बेहतर काम कर रहा है।

किसी भी देश के लिए उसकी धार्मिक व्यवस्था अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। भारतीय धार्मिक संरचनाओं एवं उसके दैवीय व सामाजिक व्यक्तित्वों का समालोचनात्मक विश्लेषण हमारे समाज वैज्ञानिक ज्ञान को आगे ले जाएगा। यदि भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करनी है तो यह जरूरी है कि हम समालोचनात्मक चिंतन को प्रोत्साहित करें। मुझे उम्मीद है कि कुलपति के पद पर रहते हुए भी शांतिश्री बौद्धिक असहमति की राह पर चलती रहेंगीं।   

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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