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न्यायपालिका पर सरकारी निगरानी के निहितार्थ

लोकंतत्र में जब कोई संस्था लोकतंत्र के हितों से बाहर निकलकर आवारागर्दी करने पर उतारू हो जाती है तो उसका असर तमाम दूसरी संस्थाओं पर भी पड़ता है। संस्थाएं एक संस्कृति का निर्माण करती है और सभी संस्थाओं द्वारा तैयार की जाने वाली संस्कृति से लोकतंत्र की संस्कृति का एक चक्र तैयार होता है। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

भारत के कानून मंत्री चाहते हैं कि देश में न्यायापालिका में खुद के उपर निगरानी रखने वाला एक मंच तैयार किया जाए। कानून मंत्री किरेन रिजिजू है। वे राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के साप्ताहिक अखबार ‘पांचजन्य’ द्वारा गुजरात में आयोजित संवाद के कार्यक्रम में बोलने के लिए पहुंचे थे। चूंकि संवाद में कानून के छात्र मौजूद थे, लिहाजा उन्होंने देश में न्यायपालिका को लेकर सरकार में जो बातचीत चल रही है, उसे छात्र-छात्राओं के सामने रखा।

उन्होंने मुख्यत: दो बातें रखी। पहली बात तो यह कि देश में बड़ी अदालतों जैसे उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति में सरकार का कोई दखल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की एक टीम (कॉलिजयम) देश में बड़ी अदालतों के लिए जजों की नियुक्ति करती है। सरकार चाहती है कि न्यायालयों में अधिकारियों (न्यायाधीशों) की नियुक्ति के लिए कॉलिजयम प्रणाली से पृथक आयोग हो। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने कहा कि वे इसे नहीं मानते हैं। जैसे देश में मीडिया कंपनियों में हर संपादक अपनी टीम तैयार करता है। उसी तरह से ‘न्यायिक कंपनी’ में भी नियुक्तियां जारी है और उस पर सबसे ज्यादा सवाल खड़े हो रहे है। यह कानून मंत्री का कहना है। 

निरपेक्ष होकर हम यह देख सकते हैं कि इस वक्त देश में सबसे ज्यादा सवाल न्यायापालिका के अधिकारियों के व्यवहार और न्यायापालिका के रवैये को लेकर उठ रहे हैं। लोकतंत्र में किसी भी स्तर पर जब सवाल उठते हैं तो उन्हें अधिकारिक रुप से उठाने के लिए किसी न किसी मंच की जरुरत महसूस होती है। सरकार पर सवाल खड़े होते हैं तो संसद में उस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। कार्यपालिका पर सवालों के लिए सरकार के तंत्र मौजूद हैं। यानी एक निगरानी तंत्र का होना अनिवार्य माना जाता है। यहां तक कि मीडिया यानी अखबारों को लेकर लोगों के बीच उठने वाले सवालों के लिए भारतीय प्रेस परिषद बनी है। भारतीय प्रेस परिषद या कोई भी ऐसी संस्था कितनी निगरानी रख पाती है और लोगों के बीच उठने वाले सवालों का कितना जवाब मिल पाता है, यह दीगर बात है। यहां केवल कानून मंत्री ने न्यायापालिका को लेकर एक निगरानी तंत्र विकसित करने पर जोर दिया है, उसके मुतत्लिक यहां विचार किया जा रहा है। 

किरेन रिजिजू, केंद्रीय कानून मंत्री

कानून मंत्री चाहते है कि न्यायापालिका स्वयं के लिए एक निगरानी तंत्र की स्थापना करें। यह बेहद जरुरी सवाल है। लेकिन यह न्यायापालिका पर महज दबाव बनाने के लिए जरुरी सवाल है? क्या न्यायापालिका स्वयं इस दिशा में पहल कर सकती है? वर्ष 1978 में तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार द्वारा भारतीय प्रेस परिषद के गठन के लिए विधेयक पेश किया गया था, जिसे संसद के दोनों सदनों ने पारित किया था। हालांकि सरकार ने यह जरुर दिखाने की कोशिश की है कि भारतीय प्रेस परिषद पर सरकार की कोई दखलंदाजी नहीं हैं। वह एक स्वायत ईकाई की तरह काम करती है। इसी तरह न्यायापालिका स्वंय निगरानी तंत्र विकसित करें, इसके लिए कानून मंत्री को उस दिशा में आगे बढ़ने की प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए। न्यायापालिका में कोई इस तरह का मंच नहीं है जहां इस तरह के फैसले किए जा सकें। इसके बाद इस सवाल पर भी विचार किया जाय कि लोकतंत्र के जो स्तंभ है, उनके भीतर स्वयं की निगरानी के लिए तंत्र विकसित किए गए, उनकी विफलताओं के अनुभव किस हद तक हैं, और वे न्यायापालिका जैसे स्तंभ के लिए बनने वाले निगरानी मंच से दूर रहें, इसकी व्यवस्था कैसे की जा सकती है। 

यह स्पष्ट रुप से महसूस किया जा रहा है कि लोकतंत्र में फिलहाल कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका समेत मीडिया एक स्तंभ क रुप में काम नहीं कर रही हैं, बल्कि इन स्तंभों का इस्तेमाल लोकतंत्र विरोधी स्थापनाओं के लिए किया जा रहा है। इसीलिए न्यायापालिका के भीतर जो फैसले हो रहे हैं, उन्हें न्यायापालिका के फैसले के रुप में नहीं देखा जा रहा है, बल्कि उन फैसलों को न्यायाधीश यानी न्यायिक अधिकारियों के निजी हितों से जुड़े फैसले के रुप में लोगों के बीच चर्चा होती है। यह खुलेआम व्यक्त किया जाने लगा कि किसी भी मामले में क्या फैसला आ सकता है। न्यायाधीशों की पृष्ठभूमि पर नजर लोगों की रहती है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि किसी भी मुद्दे व विषय को लेकर क्या फैसला हो सकता है। 

किरेन रिजिजू ने यह चिंता जाहिर की है तो वह लोकतंत्र के लिए स्तंभों को सक्रिय करने की दिशा में है या फिर एक स्तंभ को अपने विचारों के हितों में इस्तेमाल करने के उद्देश्य से यह चिंता जाहिर की जा रही है, इसे समझने की जरुरत हैं। लोकंतत्र में जब कोई संस्था लोकतंत्र के हितों से बाहर निकलकर आवारागर्दी करने पर उतारू हो जाती है तो उसका असर तमाम दूसरी संस्थाओं पर भी पड़ता है। संस्थाएं एक संस्कृति का निर्माण करती है और सभी संस्थाओं द्वारा तैयार की जाने वाली संस्कृति से लोकतंत्र की संस्कृति का एक चक्र तैयार होता है। अभी संस्थाओं को हम एक-दूसरे को दुरुस्त करने की चिंता से लैस नहीं देख रहे हैं, बल्कि एक-दूसरे पर दबाव बनाने या अपने दबाव को दूसरे पर डालने के लिए इस्तेमाल करने की प्रवृति बढ़ी है। 

इसी परिपेक्ष्य में कानून मंत्री ने संवाद कार्यक्रम के दौरान न्यायिक अधिकारियों (न्यायाधीशों ) द्वारा अदालतों में बैठकर जो टीका टिप्पणी करने की बढती प्रवृति को रेखांकित किया है। वह गौरतलब है। हम अक्सर देखते हैं कि न्यायाधीश अदालतों में किसी मामले की सुनवाई के दौरान कोई टिप्पणी करते हैं। वह टिप्पणी किसी समाचार के हेडलाइन की तरह होती है। उसे उसी रुप में मीडिया में भी जगह मिल जाती है। लेकिन उस तरह की टिप्पणी उनके फैसले में शामिल नहीं होती है। या फिर फैसले में उस टिप्पणी का विस्तार नहीं दिखता है। मीडिया में यह एक प्रवृति बढ़ी है कि किसी सामग्री की हेडलाइन पाठकों व दर्शकों को आकर्षित करने के लिए बनाई जाती है, लेकिन उस हेडलाइन का सामग्री से रिश्ता नाम मात्र का ही होता है। न्यायाधीशों ने भी अपनी एक पैकेजिंग तैयार कर ली है कि कैसे लोगों के बीच चर्चा में बने रहना है और कैसे ताकतवर के पक्ष में भी झुके रहना है। दोनों को एक साथ साधने की कला इस समय तेजी से फल फूल रही है।

लोकतंत्र में न्यायापालिका निर्भीकता की संस्कृति को विकसित करनेवाली होनी चाहिए। यह महसूस किया जाता है कि वह उत्पीड़न का एक औजार बनाई जा रही है। लोगों के बीच न्यायपालिका को लेकर दुख और दर्द बढ़ा है। कानून मंत्री इस दुख दर्द का किस रुप में इस्तेमाल करना चाहते हैं? उनकी बातों के पक्ष-विपक्ष में हाथ उठाने से पहले यह समझना बहुत जरुरी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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