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सहजीवन : बदलते समाज के अंतर्द्वंद्व के निहितार्थ

विवाह संस्था जाति-धर्म की शुद्धता को बनाये रखने का एक तरीका मात्र है, इसलिए समाज उसका हामी है और इसलिए वह ऐसे जोड़ों की मदद को तत्पर भी रहता है। समाज और रिश्तेदार रिश्ते को बचाने की कुछ हद तक कोशिश भी करते हैं। हालांकि प्रेम संबंधों या सहजीवन के मामले में समाज चूंकि इनकी सहमति नहीं देता, इसलिए इसे टूटने से बचाने का भी कोई प्रयास उसका नहीं होता। बता रही हैं सविता पाठक

अपराध की जघन्यता देखने से पहले जब समाज में अपराधी की जाति और धर्म और उसका लिंग और उसका वर्ग देखा जाने लगे तथा उसे सुनियोजित तरीके से फैलायी गयी धारणाओं के आधार पर तौला जाने लगे तो अपराध पर चर्चा बहुत मुश्किल होती है। खासकर स्त्रियों के ऊपर होनेवाले अत्याचार व उनसे संबंधित अपराध के मामले में। और फिर लगता है कि कुछ लोग स्त्रियों के प्रति संवेदनशील होने के बजाय अपनी रूढ़, जड़ और नफरती भावनाओं के प्रचार के लिए मसाला खोजते रहते हैं।

हाल ही में दिल्ली में एक जघन्य हत्याकांड हुआ, जिसने लोगों को भीतर से हिला दिया। आफताब पूनावाला और श्रद्धा वाकर बंबल एप पर मिले थे और कुछ समय बाद साथ रहने लगे। आफताब ने श्रद्धा की हत्या करके बड़े ही शातिर तरीके से उसके कई टुकड़े किये और फेंकता रहा। लेकिन जब श्रद्धा के परिवार ने उसे खोजना शुरू किया तब पूरी बात सामने आई। इस हत्याकांड ने कई सवालों को सतह पर लाकर खड़ा कर दिया।

निस्संदेह इस तरह का अपराध ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ क्राइम है, लेकिन देखा जाय तो इतना भी रेयर नहीं है। महिलाओं के प्रति अपराध के मामले में भारतीय समाज अपराध के नये नये ‘कीर्तिमान’ स्थापित करता रहा है और यह कोई नई बात नहीं है। वर्ष 2010 में देहरादून के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर राजेश गुलाटी ने अपनी पत्नी अनुपमा की इसी प्रकार हत्या की थी और सत्तर टुकड़े करके मसूरी के जंगलों में फेकता रहा। उनकी शादी पारंपरिक तरीके से हुई थी। उनका एक छोटा बच्चा भी था, जो रोज उससे अपनी मां के बारे में पूछता था और वह उसे कहता रहा कि उसकी मां ऑफिस के काम से बाहर गयी है या नानी के यहां गयी है। ऐसी ही एक वारदात का उदाहरण नैना साहनी केस है, जिसमें उसके पति सुशील शर्मा ने उसकी लाश को टुकड़े करके तंदूर में डाल दिया था।

निस्संदेह जिस तरह का जघन्य अपराध हुआ है, उसके ऊपर संवेदनशीलता से सोचने की जरूरत है। उसके हर पहलू पर विस्तार पर बात करने की जरूरत है कि इतनी क्रूरता, इतनी हिंसा किसी के भीतर कैसे आती है और क्यों उसे कानून का कोई भय नहीं है? उसके भीतर क्या कोई चेतना नहीं जो उसे ऐसा करने से रोके? फिर यह भी सोचने की जरूरत है कि कोई स्त्री जब यह महसूस करने लगती है कि उसके साथी का उसके प्रति प्रेम खत्म हो चुका है, उसके प्रति सम्मान नहीं बचा है, वह हिंसा पर उतारू है तब पर भी वह उसका साथ क्यों नहीं छोड़ पाती है? 

इस तरह की घटनाओं को लिव इन बनाम पारंपरिक विवाह, हिंदू बनाम मुस्लिम के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। इस घटना के बाद जो लड़कियों पर तमाम तरीके का प्रतिबंध लगाने की बात कर रहे हैं, वे खुद ही बीमार होने की सूचना दे रहे है। ये वही लोग हैं, जिन्हें लगता है कि लड़कियां अगर जीन्स पहनती हैं, मोबाइल रखती हैं तो बिगड़ जाती हैं। अगर इनकी मानें तो हर बलात्कार और हिंसा के पीछे लड़कियों की आजादी की चाहत है। वह अपराधी पर रोक लगाने के बजाय भुक्तभोगी को ही सजा देने लगते हैं। दरअसल, वे समाज में घट रही तमाम सकारात्मक बातों का प्रचार कभी नहीं करते, बल्कि अपवादों को खूब बढ़ा-चढ़ाकर रखते हैं और समाज व लड़कियों के माता-पिता को डराने का काम करते हैं।

‘लिविंग टूगेदर’ यानी सहजीवन। यह वही शब्द है, जिसे सुनकर कुछ लोगों के चेहरे पर विशेष अर्थयुक्त रहस्यमयी मुस्कान फैल जाती है तो कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। इस शब्द के सुनते ही कुछ लोगों की कल्पनाशक्ति नैतिकता के सभी बंधनों को तोड़ते हुए बंद दरवाजों के अंदर चलने वाली हलचलों को अपने स्वप्नलोक में रचने लगती है। ऐसे लोगों की संख्या समाज में कतई कम नहीं है, जिनके सामने अगर कोई लड़की यह कह दे कि वह किसी के साथ ‘लिव इन’ में रहती है तो तुरंत उसके चरित्र के पतन की तमाम कहानियां गढ़ने लगते हैं। इस वास्तविकता से शायद ही कोई इनकार कर सके कि आज हमारा भारतीय समाज जिन कुछ सवालों से नैतिकता-अनैतिकता के स्तर पर मुठभेड़ कर रहा है, उनमें विवाह संबंध भी एक है। इसलिए संक्रमणकालीन समाज में संक्रमणशील रिश्तों के तौर पर विवाह के एक रूप के बतौर सहजीवन पर भी बात तो की ही जानी चाहिए। और इसमें न तो किसी तरह की तिलिस्मी फंतासियों की कल्पना करने की जरूरत है और ना ही घृणावश नाक-भौं सिकोड़ने की, क्योंकि सहजीवन में भी स्त्री-पुरुष ठीक उसी तरह से रहते हैं जैसे किसी अन्य वैवाहिक संस्था में। 

दरअसल, स्त्री और पुरुष के बीच के रिश्ते सभी मानव समुदायों का आधार रहे हैं। इन्हीं संबंधों की जमीन पर मानव समाज की आलीशान इमारतें खड़ी होती रही हैं। इन्हीं रिश्तों पर दुनिया के तमाम महाकाव्यों की रचना की गई। प्रेम पर बड़ी-बड़ी पोथियां लिखी गईं। प्रेमियों के वियोग के दर्द से दुनिया भर में न जाने कितने पन्ने भरे पड़े हैं। प्रेम सफल हो गया तो शादी हो गई। यानी दोनों ने हमेशा के लिए एक-दूसरे को पा लिया। असफल हो गया तो जीवन भर की कचोट। जाहिर तौर पर पूरे मानव समुदाय के केंद्र में जो रिश्ते हों, उन्हें परिभाषित और व्याख्यायित करने की कोशिशें भी हजार होंगी। 

इसी वजह से मानव समाजों के इतिहास में स्त्री-पुरुष संबंधों को परिभाषित और पुनर्परिभाषित करने की कोशिशें की जाती रही हैं। मसलन, उनकी सीमाएं क्या होंगी और उनका कितना विस्तार होगा। कितनी स्वतंत्रता होगी और कहां-कहां होगी तथा बंधन क्या-क्या होंगे। रिश्तों के मद्देनजर क्या करना है व क्या नहीं करना है, इसके नियम बनाए जाएंगे व रोजमर्रा के जीवन में वे कैसे लागू किए जाएंगे। यह कहना अतिरेक नहीं कि कमोबश सभी मानव समुदायों में अभी भी यह कोशिश जारी है। हर कहीं स्त्री-पुरुष के रिश्तों को बार-बार किसी खास खांचे में फिट करने की कोशिशें की जा रही हैं और कुछ दिनों बाद जब पता चलता है कि यह खांचा तो फिट ही नहीं बैठ रहा है तब संबंध पहले बनाए हुए फ्रेम को तोड़ने लगते हैं। ऐसे में रिश्ते उन खाचों से बाहर अपने कदम निकालने लगते हैं।

नये मायने गढ़ता सहजीवन

अगर हम दुनिया को छोड़ भी दें तो भारत में ही विवाह की कई अलग-अलग परिभाषाएं मौजूद हैं। यहां पारंपरिक विवाह भी है जिसमें सबकुछ तय करने का अधिकार माता-पिता व समाज के लोग करते हैं तथा गोपनीय विवाह भी है, जिसमें केवल एक प्रेमी युगल होता है। जाहिर तौर पर विवाह की कुछ सुविधाएं हैं तो कुछ जिम्मेदारियां भी इनसे आयद होती हैं। यही वजह रही कि अलग-अलग विवाह पद्धतियां रही हैं और उन्हें नियंत्रित करने के लिए विवाह के नियम और उपनियम भी अलग-अलग रहे हैं। 

लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो विवाह के इन अलग-अलग कायदे-कानूनों में किसी न किसी प्रकार से समाज को एक दायरे में बांधने का प्रयास जरूर दिखाई पड़ता है। साथ ही, यह बात भी जरूर है कि वक्त के साथ-साथ दायरा छोटा पड़ता गया। इसीलिए, समय के साथ ही विवाह की पद्धतियों में भी बदलाव होता रहा है।

खैर, शादी अपनी मर्जी से हो या मां-बाप और समाज की मर्जी से, यह बेहद पुराना सवाल है और इसका जवाब अब भी मां-बाप और समाज के पक्ष में ही दिया जाता है। इसका कारण यह कि इस सवाल के जवाब में साथ जाति और धर्म का पूरा ढांचा शामिल है। 

फिर भी प्रेम विवाह की इच्छा युवाओं में लगातार बढ़ रही है। अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने के हक के लिए प्रेमी जोड़े अपनी जान भी कुरबान कर रहे हैं। कुछ हद तक समाज पर इसका असर भी पड़ा है। खासतौर पर इसलिए कि भले ही प्रेम विवाह के बाद परिवार, परिजन और समाज स्वीकार न करें, लेकिन यह विवाह ही है, इसे मानने से अब शायद ही कोई इनकार करेगा। 

फिर यह बेमानी है कि शादी मंडप में हुई है या मंदिर में या फिर भागकर की गई है या घर में। कोर्ट में हुई है या आर्य समाज में। विवाह के यह अलग-अलग रूप हैं, जिन्हें कमोबेश हर कोई स्वीकार करने लगा है। फिर ‘लिव इन’ यानी सहजीवन से क्या परेशानी है?

दरअसल, परेशानी सहजीवन के संस्थाबद्ध नहीं होने के कारण है। स्त्री और पुरुष के संबंधों की, एक-दूसरे के साथ रहने की, यह ऐसी पद्धति है जो अभी तक किसी एक खांचे में बंध नहीं पाई है। इसी के चलते इससे जुड़ी तमाम घटनाएं अक्सर ही सामने आती रहती हैं। कहीं तो साथी के साथ धोखाधड़ी की खबरें आती हैं तो कहीं पर छह-सात साल साथ बिताने के बाद अपने साथी के ऊपर बलात्कार के आरोप लगाने जैसी घटनाएं भी दिखाई पड़ती हैं। कोई भी सामाजिक परिघटना जब अपराधों को भी जन्म देने लगती है तब निश्चित तौर पर उसे व्याख्यायित करने के प्रयास किए जाने लगते हैं।

पश्चिमी समाज आज जहां पहुंच गए हैं वहां पर निजता पर पहरा बैठाने की कोशिशों को तमाम विरोधों का सामना करना पड़ता है। औपचारिक विवाह हुआ है या नहीं, यह सवाल ही वहां पर गौण होता दिखता है। स्त्री-पुरुष साथ रहते हैं, उनके बच्चे भी होते हैं। जब तक निभती है, साथ चलता है। जब नहीं निभती तो अलग भी हो जाते हैं। वहां साथी केवल साथी होता है। वह मंडप में हासिल हुआ है या मंदिर में, कोई मायने नहीं रखता। 

बतौर उदाहरण फ्रांस के राष्ट्रपति रहे फांसुआ ओलांद 2007 से पत्रकार वलेरी ट्राईवेलर के साथ रह रहे थे। ओलांद के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद वलेरी भी उनके थीं। राष्ट्रपति के आधिकारिक दौरों में भी वह सहचरी के तौर पर जाती थीं। हालांकि, बाद में उनका रिश्ता टूट गया। ऐसे ही मशहूर पॉप गायिका शकीरा ने कोई औपचारिक विवाह नहीं किया है, लेकिन वह दो बच्चों की मां हैं। 

एंजेलीना जोली और ब्रैड पिट कबसे एक-दूसरे के साथ हैं, साथ रहने के कितने साल बाद उन्होंने शादी की या नहीं की, बच्चे उनके शादी से पहले के हैं या शादी के बाद, इन सब सवालों पर कुछ चटपटी खबर बनाने वाले ही माथापच्ची करते हैं। 

ऐसे ही भारत में भी नीना गुप्ता का उदाहरण मौजूद है। नीना शायद पहली भारतीय महिला होंगी, जिन्होंने सहजीवन जिया। उन्होंने मशहूर क्रिकेटर विवियन रिचर्डस से संबंध रखे और उनकी बेटी को भी जन्म दिया। विव रिचर्डस के साथ उनके रिश्तों ने खूब सुर्खियां बटोरी। एक समय तो लगता था जैसे भारतीय समाज व्यवस्था में कोई भूचाल आ जाएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। समाज ने इस तरह की तमाम हलचलों को अपने अंदर जज्ब कर लिया।

मसला यह है कि वैवाहिक संबंध यानी स्त्री-पुरुष का संग-साथ कितना वैयक्तिक है और कितना सामाजिक है। इसमें समाज की भूमिका किस हद तक होनी चाहिए और व्यक्ति की इच्छा का प्रतिशत कितना होना चाहिए। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि कुछ महानगरों को छोड़कर ज्यादातर जगहों पर अभी भी वैवाहिक संबंधों में उनकी इच्छा और पसंद गौण ही होती है, जिन्हें एक-दूसरे के साथ रहना है। इसके बजाय धर्म, जाति, समाज, पैसा, नौकरी, सामाजिक पहचान जैसी चीजें ही प्रमुख रहती हैं। यही कारण है कि समाज और परिजनों की इच्छा से थोड़ी दूरी बनाते हुए अपने पसंद का साथी चुनने की एक इच्छा भी युवाओं में दिखती है। कहा जा सकता है कि सहजीवन भी इसी का एक रूप है। 

अभी तक सहजीवन ने हमारे यहां जो आकार लिया है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि इसके लिए लड़के और लड़की के लिए खुद-मुख्तार यानी आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना जरूरी है। दोनों अपने घर और समाज से दूर किसी महानगर में रहते हों, क्योंकि छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में उनकी अमूमन स्वीकृति नहीं होती। दोनों एक-दूसरे का साथ पसंद करते हों, लेकिन एक-दूसरे के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप भी न चाहते हों। अमूमन वैवाहिक संबंधों में बंधते ही स्त्री और पुरुष दोनों के ऊपर लोकाचार के तमाम नियम-उपनियम सब लागू हो जाते हैं। यहां पर जिम्मेदारियों और कर्तव्यों की एक अंतहीन श्रृंखला है। मसलन, एक दूसरे के मां-बाप, सास-ससुर, भाई-भाभी यानी तमाम रिश्तेदारों के साथ बर्ताव क्या होगा, कैसे होगा। इन सबके साथ पति को कई विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं और पत्नी से कई अधिकार अप्रत्यक्ष तरीके से छीन लिये जाते हैं।

इसके बरक्स सहजीवन में यह सब अनुपस्थित है। स्वतंत्रता ज्यादा है, बंधन कम। भारतीय समाज के हिसाब से देखा जाए तो सहजीवन में यह समझ भी रहती है कि वह बाद में कभी शादी कर लेंगे या शादी कर सकते हैं। यह शादी के पहले एक-दूसरे को समय देने जैसा है। हालांकि, जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। इसी के चलते कई बार रिश्ता टूटने पर कोई एक पक्ष खुद को छला हुआ भी महसूस करता है। इस तरह के मामले पुलिस के पास और कोर्ट भी पहुंच जाते हैं।

पर इस तरह की घटनाओं से सहजीवन पर सवाल उठाने की कोई खास वजह नहीं दिखती, सिवाय इसके कि पारंपरिक विवाहों की त्रासदी को कोई नजरअंदाज कर रहा है या महिमामंडित कर रहा है। 

पारंपरिक विवाह के साथ जुड़ी दहेज़ हत्या, घरेलु हिंसा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, वैवाहिक बलात्कार व चरित्र हनन के संदेह में हत्या, ऑनर किलिंग और कुछ दशकों तक सती प्रथा और विधवा स्त्रियों की स्थिति से लेकर तमाम तरह के अनगिनत अपराध हैं। इसमें तलाक के लिए तलाक के बाद तमाम तरह के अपमान झेलती औरतें हैं। इसमें उन अपराधों को हम भूल ही जाते है, जिनमें रोज-ब-रोज के अपमान-तिरस्कार, रोक-टोक, मनोबल तोड़ना, कमजोर दब्बू बनाना शामिल है। हम भूल जाते हैं कि औरतों की एक जमात सिर्फ एक छत और रोटी के बदले में पूरी जिंदगी घुट-घुट कर व्यतीत कर देती है और इस पूरी प्रक्रिया में वह भूल ही जाती है कि मनुष्य भी है।

दूसरी ओर स्त्री पर तमाम पाबंदियां और अपने नफरती विचारों को फैलाने का बहाना ढूंढ़ने वाला समाज जब स्त्री की चिंता करता है तो वह और भी भयावह हो जाता है। 

सहजीवन में कोई संबंध बाद में वैसे भी हो सकता है जैसे किसी वैवाहिक संस्था में रहते हो जाता है जहां एक-दूसरे के प्रति विश्वास और प्रेम खत्म हो जाता है। या वहां भी तमाम तरह के अपराध हो सकते हैं, कोर्ट, कचहरी में मुकदमे हो सकते हैं।

विवाह संस्था जाति-धर्म की शुद्धता को बनाये रखने का एक तरीका मात्र है, इसलिए समाज उसका हामी है और इसलिए वह ऐसे जोड़ों की मदद को तत्पर भी रहता है। समाज और रिश्तेदार रिश्ते को बचाने की कुछ हद तक कोशिश भी करते हैं। हालांकि प्रेम संबंधों या सहजीवन के मामले में समाज चूंकि इनकी सहमति नहीं देता, इसलिए इसे टूटने से बचाने का भी कोई प्रयास उसका नहीं होता। बल्कि ऐसे रिश्ते टूटने पर भाव यह रहता है कि हम तो पहले से ही यह कहते थे, पहले तो माने नहीं, अब सजा भुगतो। इस तरह उसके लिए हर तरह का सपोर्ट सिस्टम न केवल गायब कर दिया जाता है बल्कि चरित्रहीन होने से लेकर तमाम गालियां देकर औरत को मानसिक तौर पर कमजोर कर दिया जाता है। 

दूसरे सामाजिक मूल्यों के चलते औरतों की पहले से ही एक मानसिकता बनी रहती है कि किसी भी तरह पति या पार्टनर के साथ रहना है, चाहे वह सहजीवन हो या शादी। इसके लिए कई बार वह अपनी गरिमा और जीवन की सुरक्षा तक से समझौता कर लेती है। यह उनकी पारंपरिक प्रशिक्षण ट्रेनिंग का नतीजा है। इससे निकलने में उन्हें स्वयं से एक लड़ाई लड़नी पड़ती है। समाज इस मानसिकता का महिमामंडन करता है। उसे ऐसा करती स्त्री धैर्यवान, सहनशील और पवित्र लगती है और इस तरह के रिश्ते से इंकार करती स्त्री चरित्रहीन और उच्चश्रृंखल।

इसके अलावा भी विभिन्न तरीकों से पुरूषों के भीतर स्वतंत्र तौर पर साथ रह रही स्त्री के सम्मान, सुरक्षा और प्रेम को मजबूत करने की भावना के बजाय सामंती संस्कारों को हर से मजबूत किया जाता है। तमाम बातचीत में स्थापित किया जाता है कि ‘मेन विल बी मेन’ (मर्द आखिर मर्द ही होते हैं)। किसी स्त्री के साथ रहना और किसी स्त्री को रखैल बना कर रखना अलग बात नहीं है, बल्कि एक ही बात है। उसमें रोमांच और मर्दानगी है।

इस क्रम में समाज में बढ़ता अपराधीकरण, औरत को उपभोग की वस्तु समझना, इस्तेमाल करो और फेंक दो के पूंजीवादी बाजारवादी मूल्य और कई तरह की फिल्में और वेबसीरिज जो कि रोमांस और रोमांच को क्षरित कर कुंठित मनोरंजन दे रही हैं, यह सब मिलकर पूरे समाज को जटिल बना रहे हैं तथा जटिल व खंडित व्यक्तित्वों का निर्माण कर रहे हैं।

बहुधा लोग इसे पश्चिम से आई हुई बीमारी कहते हैं। लेकिन, ऐसा सोचना इसका अतिसरलीकरण होगा। यह सच है कि पश्चिमी देशों में सहजीवन ज्यादा विकसित और परिपक्व रूप में दिखाई देता है, लेकिन इसके पीछे लोकतांत्रिक मूल्यों पर विकसित हुए उनके समाज की भूमिका ज्यादा है। हमारे यहां भी पहले की तुलना में लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास के साथ-साथ सहजीवन ज्यादा दिखाई देने वाली घटनाएं होने लगी हैं। स्त्री की अपनी अस्मिता बनी है। वह अपनी आजादी और यौनिकता दोनों को लेकर मुखर हुई है। वह व्यवसाय से लेकर हर तरह के कामकाज में शामिल हो रही है और उसी की तरह ही जीवन और सुविधाओं का उपभोग करना चाहती है जिस तरह से कोई पुरूष। उसे आर्थिक व्यवस्था, शासन और कारोबार में अपनी भूमिका चाहिए। स्त्री को इस रूप में पसंद करने वाले युवाओं की भी एक पूरा समूह पैदा हुआ है। उसकी खुदमुख्तारी से जीती स्त्री आकर्षित करती है। 

पुराने तरीके से जीवनसाथी खोजने के अलावा विभिन्न वेब पोर्टल व ऐप के जरिए पार्टनर खोजने की रेंज है। जो कि बस एक आधुनिक तरीका है और जहां पार्टनर की तलाश दो व्यस्क लोग कर रहे हैं, जिन्हें खुद इस संबंध में जीना है।

हालांकि, बच्चे और संपति जैसे जिन दो सवालों का जवाब देने के लिए विवाह संस्था का निर्माण हुआ था, सहजीवन उन सवालों के सामने अनुत्तरित है। विवाह संस्था में इन दोनों की सुरक्षा और संवर्धन के लिए सभी कानूनी उपाय किए गए हैं। उन्हें समाज की स्वीकृति भी प्राप्त है। जबकि सहजीवन में बच्चे का क्या होगा या संपत्ति पर अधिकार किसका होगा? इस तरह के सवाल अभी अपना जवाब तलाश रहे हैं।

नीचे सहजीवन में रह रहीं कुछ महिलाओं के निजी अनुभव हैं, जिनके नाम बदलकर लिखे गये हैं। उससे भी यही जाहिर होता है कि मर्दवादी और पितृसत्तात्मक मूल्यों का सामना औरतों को यहां भी करना पड़ता है। 

इन सबके अलावा महत्वपूर्ण बात है कि जिस तरह से कोई प्रेम संबंध या सहजीवन या फिर शादी में जाता है, उसी प्रक्रिया में उसका उससे बाहर न निकल पाना है। खासतौर पर स्त्रियां अपना सर्वस्व देकर किसी के साथ रहने की मानसिकता में जीती हैं। वह अब भी इस बात के लिए तैयार नहीं हैं। इसके पीछे भी पूरी सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट और किसी सपोर्ट सिस्टम का नहीं होना है। इन्हीं जीवन मूल्यों के चलते स्त्रियां लंबे समय तक तमाम तरह की हिंसा सहती रहती हैं।

सहजीवन के संबंध में कुछ लोगों के अनुभव …

“जब मैंने उसके साथ रहने के बारे में फैसला लिया था, तब इस रिश्ते को क्या नाम देंगे, ऐसे सोचा नहीं था। बस अपने आसपास के परिवारों को बहुत नजदीक से देखा था और इस निर्णय पर पहुंच गई थी कि ऐसे नहीं रहना है। वैसे मेरी तरह ही कई सारे लोग वैवाहिक बंधन में बंधने से इसलिए कतराते हैं क्योंकि वहां की घुटन वो महसूस कर पाते हैं। सहजीवन में रहने का मतलब यह नहीं है कि एक-दूसरे के लिए हमारा सरोकार कम हो जाता है। हां यह जरुर होता है कि कई बार एक-दूसरे की दुनिया से कोई जुड़ाव नहीं बन पाता। जैसे मैं उसके घर में जाकर उसकी मां के साथ उतनी सहजता से नहीं रह सकती। या वह मेरे घर वालों से रिश्तेदारों से नहीं मिलता। विवाह में एक-दूसरे की जिम्मेदारियां बंट जाती हैं। एक-दूसरे की मदद हो जाती है। जबकि इस तरह के रिश्तों में दिक्कत आस-पड़ोस वालों से भी होती है। वह औरत को पत्नी या मां के रूप में देखने के आदी होते हैं, उनके लिए ऐसे संबंध का होना असामान्य है। भले ही शादी करके पति या पत्नी अलग-अलग चोरी-छिपे विवाहेतर रिश्ते चलाए, तो वह उन्हें स्वीकार्य लगता है। कई बार तो पड़ोसी औरत ने मजाक किया आप कुमारिका हैं या मांगलिका …। फिर मुझे बोलना ही पड़ा कि मैं वो हूं जो आप नहीं हैं। मैं अपनी मर्जी से बिना किसी फायदे-नुकसान को सोचे किसी के साथ रहती हूं, इसलिए नहीं कि समाज क्या कहेगा या मेरा क्या होगा। फिर भी सहजीवन के बारे में मैं यही कहूंगी कि ऐसे संबध की पहली शर्त है औरत का आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना। इसके साथ ही उसका मानसिक तौर पर मजबूत होना बहुत जरूरी होता है, क्योंकि जिस संबध में समाज नहीं वहां झगड़ा होने पर या कोई समस्या होने पर कोई मदद भी नहीं करता। उलटे लोग व्यंग्य ही करते हैं। ऐसे में अगर आप समाज की तरफ देखते हो तो निराशा ही हाथ लगेगी…”

– शर्मिला गवड़े, पुणे

“मैं सहजीवन में रही और बाद में यह रिश्ता टूट भी गया। पर मुझे कोई पछतावा नहीं है। मेरा संबंध क्यों टूटा, अभी भी बहुत ठीक से समझ नहीं सकी। उसमें मेरी आकांक्षाएं थोड़ी ज्यादा थीं। मैं आजादी भी चाहती थी और यह भी सोचती थी कि सभी परिवारों की तरह वह मेरी जिम्मेदारी भी उठाए। मैं उसके जीवन के दूसरे निर्णय में भी दखल देना चाहती थी। मेरा ऐसा सोचना मुझे अभी भी गलत नहीं लगता, पर आदमी ऐसे रिलेशन में बहुत मैकेनिकल हो जाता है। बात-बात पर बोलना कि ये तुम्हारी रिसपान्सिबिलिटी है। अगर कोई शारीरिक या सामाजिक समस्या है तो तुम बैकवर्ड हो। कई बार तो लगता है कि मेरे ऐसे होने से उनका फायदा है, क्योंकि ऐसा जीवन कहां मिलेगा, जहां कोई जिम्मेदारी नहीं हो। आदमी के लिए पार्टनर बदलना आसान होता है, क्योंकि हमारे यहां सहजीवन का मतलब प्रेम नहीं, बल्कि एक टेम्परेरी रिलेशन है, जिसमें कोई भी सवाल या जिम्मेदारी आते ही भागने का रास्ता खुला होता है। वैसे भी इस रिलेशन में कौन प्रभावशाली है, इस बात से भी फर्क पड़ता है। कोई रिलेशन टूटने के बाद बुरा तो लगता है, क्योंकि औरत को तो ऐसे देखा जाता है जैसे लिव इन में रहने के बाद उसकी कोई पसंद-नापसंद नहीं है। यहां तक कि जिनके अपनी सेटेल्ड मैरेड लाइफ थी, वो भी प्रपोजल ले के आने लगे। बेहूदगी लगती है। औरत को वो इतना ही जानते हैं जैसे कि वो किसी भी मूर्ख का इंतजार कर रही है। लिव इन के कई शेड़स हैं जैसे शादी के कई शेडस है। इसका सिर्फ इतना मतलब है कि मेरा शरीर और दिमाग मेरा है, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई संबंध कितने दिन चलता है …”

– भाग्यलक्ष्मी, पुणे 

“औरत और आदमी की परवरिश इसी समाज में होती है। लिव इन है या शादी फार्म से फर्क नहीं पड़ता। कई बार लिव इन में रहते हुए भी औरत उसी मानसिक हालत में पहुंच जाती है, जैसे शादी में पहुंचती है। उसमें जैसे ही कोई पार्टनर अलग होने का निर्णय लेता है तो वो सदमा में आ जाती है। लिव इन ऐसी चीज नहीं कि उसकी मंजिल शादी ही हो। बल्कि यह बराबरी का सम्मान है, जो दो लोग अनुभव करते हैं। यह एक पहाड़ी ट्रेकिंग की तरह है, जहां मंजिल कोई नहीं और रास्ता बहुत सुंदर। अपनी-अपनी पीठ पर अपना-अपना बैग, जो साथ है वो साथी है लेकिन मजबूरी नहीं। पर समस्या तब होती है जब उसमें किसी को मंजिल की तलाश होने लगती है। ऐसे में लड़का हो या लड़की, वह परेशान हो जाता है। चूंकि लड़कियां कोई भी निर्णय भावना में आकर लेती हैं, इसीलिए परेशानी भी उन्हें ज्यादा भुगतनी पड़ती है।” 

– वर्तिका, दिल्ली

“हमदोनों दो साल तक साथ रहे। फिर हमने शादी कर ली। इसकी मुख्य वजह हमारे बच्चे का जन्म लेना था। सामाजिक ढांचा ऐसा नहीं था कि मैं अकेले बच्चे को पाल पाती। बच्चे को पूरी देख-रेख चाहिए, उसको सुरक्षा चाहिए। अपने बच्चे को मैं इससे वंचित भी नहीं रखना चाहती थी। इसके चलते मैंने अपने पार्टनर से शादी के लिए पूछा। वो भी तैयार थे। लिव इन भारतीय समाज में आसान नहीं है, क्योंकि दुर्भाग्य से औरत यहां भी पीड़िता होती है और सबसे मुश्किल होती है कि ऐसे में किससे मदद की उम्मीद करें।” 

– अंजना, दिल्ली

“मैंने अपने आसपास जो देखा, हालांकि लिव इन में असुरक्षा की भावना ज्यादा गहरी होती है, कोई वादा नहीं, कमिटमेंट नहीं। अंतत: बड़े गहरे अवसाद के साथ समाप्त होता है। कुछ भी सुरक्षित नहीं और शक की जगह बहुत होती है, लेकिन अगर संबंध समझदार के बीच होता है तो वे दो यूनिट होकर भी दो व्यक्ति होते हैं और दोनो एक-दूसरे को स्पेस देते हैं, सम्मान देते हैं। लिव इन में चीजे बुरी तरह से दरकती हैं। जैसे मान लें लड़की ने गर्भधारण कर लिया और बाद में दोनों पक्ष तैयार नहीं हुए तो लड़की ने गर्भपात करवाया। उस घटना के बाद उनके बीच वह बंधन नहीं बचा। एक खालीपन भर गया।” 

– अंकिता, भोपाल

“मैं कई सालों से सहजीवन में हूं। लेकिन अब लगता है कि अगर आपसी समझदारी बढ़ न रही हो, समाज में भी तार्किकता न बढ़ रही हो तो धीरे-धीरे रिश्ता ठहरने लगता है। फेरे हुए हों या न हुए हों, वो फार्म हो या न हो लेकिन उसकी अर्तवस्तु पारंपरिक विवाह जैसी ही हो जाती है। लड़की के घर वालों के लिए लड़का दामाद और लड़के के घर वालों के लिए लड़की बहू हो जाती हैं।”

– संजीव, भोपाल

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सविता पाठक

डॉ. सविता पाठक दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की प्रवक्ता हैं। उन्होंने डॉ. आंबेडकर की आत्मकथा, ‘वेटिंग फॉर वीजा’ का हिंदी अनुवाद किया है। वे नियमित तौर पर 'पल-प्रतिपल' (पत्रिका) के लिए अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद करती हैं। एक युवा कहानीकार के रूप में भी उनकी पहचान बन रही है।

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बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...