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धर्मांतरण देश के लिए खतरा कैसे?

इस देश में अगर धर्मांतरण पर शोध किया जाए, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। और वह यह कि सबसे ज्यादा धर्म-परिवर्तन इस देश में ब्राह्मणों और ठाकुरों ने ही किए हैं। भारत में जब बौद्ध शासन था, तो धड़ाधड़ इन लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया। मुस्लिम राज में इन लोगों ने धड़ाधड़ इस्लाम कबूल किया। बता रहे हैं कंवल भारती

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जबरन धर्मांतरण देश के लिए खतरा है। क्या यह फैसला है, या राजनीतिक बयान? यह फैसला तो कतई नहीं लगता। हां, एक राजनीतिक बयान जरूर लगता है। इससे प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के जज भी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रवक्ता बन गए हैं, जो तथ्यों को समझे वगैर ही बयान जारी कर रहे हैं। धर्मांतरण देश के लिए किस तरह खतरा है? क्या जजों को इसे स्पष्ट करने की जरूरत नहीं थी?

गत 14 नवंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एम. आर. शाह और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार को जवाबी हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया। हां तक तो कानूनी प्रक्रिया ठीक है, पर जवाब आने से पहले ही, पक्ष और विपक्ष की ओर से बहस सुनने से पहले ही, यह ज्ञान दोनों जजों को कहां से समझ में आ गया कि धर्मांतरण जबरन होता है और वह देश के लिए खतरा है? 

अव्वल तो कोई भी अपना धर्म जबरदस्ती नहीं बदलता। और अगर किसी खास मामले में मान भी लिया जाए कि जबरन धर्मांतरण हो सकता है, तो वह देश के लिए खतरा कैसे हो गया? अगर खतरा है, तो यह सीधे-सीधे उस धर्म पर ही गंभीर आरोप है, जिसमें कोई आदमी धर्मांतरण करता है। आदमी या तो ईसाई बनता है, या मुसलमान बनता है, या सिख धर्म में जाता है या बौद्ध धर्म अपनाता है। इन्हीं चार धर्मों में व्यक्ति का धर्मांतरण होता है। तब क्या ये चारों धर्म देश के लिए खतरा हैं? हैरानी होती है कि इन चारों धर्मों के किसी भी प्रतिनिधि ने सुप्रीम कोर्ट के इस अवैध बयान पर आपत्ति व्यक्त नहीं की।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

सवाल है कि जबरन धर्मांतरण क्या है? क्या सचमुच किसी का जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन कराया जा सकता है? कुछ विपरीत परिस्थितियों में ऐसा हो सकता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। जैसे विभाजन के दौर में भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में हुआ। इसमें भी अधिकतर स्त्रियां ही शिकार हुईं। लेकिन सामान्य स्थिति में अगर कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करना न चाहे, तो कोई भी उसका धर्म नहीं बदलवा सकता। लेकिन धर्मांतरण भारत में हमेशा होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे, जब तक धर्म है। यह तभी खत्म हो सकता है, जब धर्म खत्म होगा।  

मसलन, गुरु गोविंद सिंह ने सिख धर्म स्थापित किया, और लाखों हिंदुओं को उन्होंने सिख बनाया। स्वामी दयानंद ने आर्य धर्म का प्रचार किया और लाखों सनातनी हिंदुओं को आर्यसमाजी बनाया। यह भी धर्मांतरण ही था, भले ही यह जबरन धर्मांतरण नहीं था। परंतु सवाल यह है कि कोई भी शुद्धि आंदोलन ब्राह्मणों ने सिखों और आर्यसमाजियों के विरुद्ध क्यों नहीं चलाया? लेकिन जब दलित जातियों के लोगों ने ईसाई और मुसलमान बनना आारंभ किया, तो ब्राह्मणवादी हिंदू संगठन आगबबूला हो गए। आरएसएस ने ‘घर-वापसी’ का उन्मादी आंदोलन चला दिया, जिसके तहत जो भी दलित ईसाई या मुसलमान बना, उन्होंने उसे पकड़कर जबरन उसकी घर-वापसी करा दी। यह घर-वापसी आंदोलन भी तो जबरन धर्मांतरण ही था। फिर इसके विरुद्ध पुलिस ने कोई कार्यवाही क्यों नहीं की? सुप्रीम कोर्ट ने क्यों इसका संज्ञान नहीं लिया?

क्या सुप्रीम कोर्ट के जजों ने धर्मांतरण को देश के लिए खतरा बताने का बयान हवा में दिया है? नहीं, यह बयान कदाचित हवा में नहीं दिया गया है, बल्कि यह ब्राह्मणवादी सोच के तहत हिंदुत्व की वर्णव्यवस्था के पक्ष में दिया गया बयान है। यह देश के हित में दिया गया बयान नहीं है। इसे समझने के लिए मैं यहां प्रेमचंद की कहानी ‘सौभाग्य के कोड़े’ का एक अंश उद्धृत करना चाहता हूं। लेकिन इससे पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि धर्मांतरण की समस्या दलित जातियों और आदिवासियों के साथ जुड़ी है, क्योंकि ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य को धर्मांतरण की आवश्यकता नहीं होती। प्रेमचंद की इस कहानी के आरंभ में ही दलित के प्रति हिंदुओं की अमानवीय भावना और धर्मांतरण के लिए उनकी नफरत को देखा जा सकता है। यह अंश इस प्रकार है–

“नथुवा के मां-बाप दोनों मर चुके थे, अनाथों की भांति वह राय भोलानाथ के द्वार पर पड़ा रहता था। रायसाहब दयाशील पुरुष थे। कभी-कभी एक-आध पैसा दे देते, खाने को भी घर में इतना जूठा बचता था कि ऐसे-ऐसे कई अनाथ अफर सकते थे, पहनने को भी उनके लड़कों के उतारे मिल जाते थे, इसलिए नथुवा अनाथ होने पर भी दुखी नहीं था। रायसाहब ने उसे एक ईसाई के पंजे से छुड़ाया था। उन्हें इसकी परवा न हुई कि मिशन में उसकी शिक्षा होगी, आराम से रहेगा; उन्हें यह मंजूर था कि वह हिंदू रहे। अपने घर के जूठे भोजन को वह मिशन के भोजन से कहीं पवित्र समझते थे। उनके कमरों की सफाई मिशन की पाठशाला की पढ़ाई से कहीं बढ़कर थी। हिंदू रहे, चाहे जिस दशा में रहे। ईसाई हुआ, तो फिर सदा के लिए हाथ से निकल गया।”

धर्मांतरण के विरोध के पीछे हिंदुत्व की इसी सामाजिक यथास्थिति को कायम रखने का उद्देश्य है। दलित-आदिवासी समुदायों के गरीब और पीड़ित लोग बस हिंदू रहें, वे सवर्णों की गुलामी करते रहें, उनकी जूठन और उतरन पर जीवित रहें, और ईसाई या मुसलमान बनकर, पढ़-लिखकर इंसान न बनें।

ब्राह्मणों का धर्मांतरण-विरोध नया नहीं है, बल्कि यह उनका पुराना राग है। ब्रिटिश काल में भी हिदुत्ववादियों ने धर्मांतरण के खिलाफ राग अलापा था, जिसका विवरण हमें डॉ. आंबेडकर के ‘कास्ट एंड कन्वर्जन’ और ‘दि कंडीशन ऑफ दि कन्वर्ट’ निबंधों में मिलता है। कांग्रेस और आर्यसमाज ने तो बाकायदा धर्मांतरण के विरोध में शुद्धि आंदोलन ही चलाया था। यह आंदोलन उन्होंने सवर्णों को शुद्ध करने के लिए नहीं चलाया था, बल्कि ईसाई और मुसलमान होने वाले दलितों की शुद्धि करके उन्हें पुन: हिंदू यानी पुन: दलित बाड़े में रखने के लिए चलाया था। इस तथाकथित शुद्धि का विरोध करते हुए डॉ. आंबेडकर ने लिखा था कि “हिंदू समाज को अगर जीवित रहना है, तो उसे अपनी संख्या बल बढ़ाने वाला नहीं, बल्कि जातियां खत्म करके एकता बढ़ाने वाला काम करना चाहिए।” लेकिन यही काम हिंदू समाज ने कभी नहीं किया। उन्होंने दलितों को कभी सम्मान नहीं दिया। सच तो यह है कि उन्होंने कभी दलितों को हिंदू समझा ही नहीं। इसलिए वे आज भी उनकी शिक्षा और उनके उत्थान के बारे में सकारात्मक नहीं रखते हैं। इसी काल की एक घटना का उल्लेख संतराम बी.ए. ने अपनी पुस्तक ‘हमारा समाज’ में किया है। उन्होंने लिखा है– “जिस वर्ष मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माता का देहांत हुआ, उसी वर्ष की बात है। श्री भाई परमानंद (हिंदू महासभा के नेता) मौलाना मुहम्मद अली के पास संवेदना प्रकट करने गए। उस समय बातचीत में मौलाना मुहम्मद अली ने भाई जी से कहा कि आप लोग व्यर्थ ही शुद्धि और अछूतोद्धार का रोड़ा अटकाकर इस्लाम की प्रगति को रोकना चाहते हैं। इसमें आपको कभी सफलता नहीं हो सकती। भाई जी ने पूछा, क्यों? मौलाना ने उत्तर दिया, ‘देखिए, यह भंगिन जा रही है। मैं इसे मुसलमान बनाकर आज ही बेगम मुहम्मद अली बना सकता हूं। क्या आप में या मालवीय जी में यह साहस है? मैं किसी भी हिंदू को मुसलमान बनाकर आज ही अपनी लड़की दे सकता हूं। क्या कोई हिंदू नेता ऐसा कर सकता है? यदि नहीं, तो फिर आप शुद्धि और अछूतोद्धार का ढोंग रचकर इस्लाम के मार्ग में रोड़ा क्यों अटका रहे हैं?” (बी.ए., संतराम, हमारा समाज, पृष्ठ 178)

हिंदू नेता वास्तव में दलितोद्धार का ढोंग ही करते हैं। उनकी असली चिंता यह है कि यदि दलित-और आदिवासी समुदाय ईसाई या मुसलमान बन गया, तो वे बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। धर्मांतरण के विरोध का सारा खेल इसी अल्पसंख्यक होने की चिंता का है, और इसी को वे देश के लिए खतरा बताकर आंखों में धूल झोंक रहे हैं।

भारत में आज़ादी के बाद हिंदू ताकतों, खासकर ब्राह्मणों के राजनीतिक दबाव में जबरन धर्मांतरण की घटनाओं को रोकने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया है। लेकिन इसके बाद भी आरएसएस और भाजपा की राज्य-सरकारों ने अपने राज्यों में अलग से जबरन धर्मांतरण के खिलाफ सख्त कानून बनाए हैं। वर्ष 1999 में आरएसएस और भाजपा ने सोनिया गांधी के बहाने पूरे देश में धर्मांतरण के विरोध में ईसाईयों और उनके चर्चों पर हमले कराए थे। उनके द्वारा ईसाईयों के खिलाफ बड़े-बड़े झूठ के पहाड खड़े किए गए। उसी तरह मुस्लिम मदरसों के खिलाफ लगातार झूठा प्रचार किया गया, जो आज भी किया जा रहा है। उन्हें आतंकवाद के अड्डे बताया जा रहा है। इस सारे झूठ के पीछे आरएसएस और भाजपा का एक ही मकसद है, दलित जातियों को दलित बनाकर रखना। 

वर्ष 2020 में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार ने भी धर्मांतरण के खिलाफ एक सख्त कानून बनाया था, जिसमें सवर्ण का धर्मांतरण करानेवाले को पांच साल तक और दलित के मामले में दस साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है। सवर्ण को धर्म बदलने की जरूरत शायद ही कभी पड़ती है, इसलिए उसके मामले में कम सजा, पर दलित को सम्मान के लिए धर्मांतरण की अक्सर जरूरत पड़ती है, इसलिए उनके मामले में दस साल की सजा, ताकि दलित एक तिरस्कृत हिंदू ही बना रहे। धर्मांतरण के विरोध की असल वजह यही है कि ब्राह्मण और सवर्ण हिंदू दलितों को दलित-बाड़े से स्वतंत्र करने के लिए तैयार नहीं हैं।

इस देश में अगर धर्मांतरण पर शोध किया जाए, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। और वह यह कि सबसे ज्यादा धर्म-परिवर्तन इस देश में ब्राह्मणों और ठाकुरों ने ही किए हैं। भारत में जब बौद्ध शासन था, तो धड़ाधड़ इन लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया। मुस्लिम राज में इन लोगों ने धड़ाधड़ इस्लाम कबूल किया। और, ईसाई राज में ये ही ब्राह्मण-ठाकुर धड़ाधड़ ईसाई बने। और विद्रूप यह है कि ये ‘प्राणी’ जिस-जिस धर्म में गए, अपनी वर्णव्यवस्था साथ लेकर गए, और उन सब धर्मों को, जिनमें ये गए, अपने जैसा बनाकर दूषित कर दिया। ऐसा उन्होंने इस कारण से किया, क्योंकि बड़ी संख्या में दलित जातियों ने भी उन धर्मों में धर्मांतरण किया था। वे उन धर्मों में समानता के लिए गए थे। पर, समानता का दुश्मन ब्राह्मण वहां पहले से ही बैठा हुआ था, जिसने उन धर्मों में भी दलितों के लिए एक नीच बाड़ा तैयार करके रख दिया। परिणामस्वरूप वहां भी वे दलित मुसलमान और दलित ईसाई बनकर रह गए।

यह हिंदू समाज का दुर्भाग्य है कि कोई भी सवर्ण हिंदू धर्मांतरण के समर्थन में नहीं मिलेगा। और यह भी दुर्भाग्य है कि अपवाद छोड़कर, कोई भी सवर्ण दलितों, मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति अच्छी भावना रखनेवाला नहीं मिलेगा। देश के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गांधी तक ने धर्मांतरण का विरोध किया था। यही कारण है कि गांधी के सर्वधर्म-समभाव का विचार हिंदुओं को बहुत प्रिय लगता है, क्योंकि इसमें धर्मांतरण का विरोध पूरी तरह निहित है। इस विचार के तहत जब वे यह कहते हैं कि सारे धर्म समान हैं, हमें सबका सम्मान करना चाहिए, तो वे सफ़ेद झूठ बोल रहे होते हैं, क्योंकि चर्चों पर हमला करने और मस्जिदों को गिराने का नेतृत्व भी वे ही करते हैं।

धर्मांतरण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे समय में फ़तवा जारी किया है, जब कुछ राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। इसे ईसाईयों और मुसलमानों के खिलाफ हिंदू ध्रुवीकरण पैदा करने और भाजपा को उसका राजनीतिक लाभ दिलाने के अर्थ में क्यों न देखा जाए?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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