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गैर वाजिब नहीं अनुसूचित जाति के तहत दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों को आरक्षण

आंबेडकर जानते थे कि वंचित वर्गों के सवाल पर कोई इसलिए बात नहीं करेगा क्योंकि मुसलमानों का सामंती वर्ग भी यह बात नहीं मानता और धार्मिक अस्मिता के सवाल पर ही अधिक फोकस करता है। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

बहस-तलब

आरक्षण का प्रश्न आज इतना संवेदनशील हो गया है कि इसके कारण सामाजिक रिश्तों मे दरार पैदा हो जा रही है और एक-दूसरे को गलत साबित करने के लिए तमाम तर्क प्रस्तुत किये जा रहे हैं। वैसे इस पर राजनीति भी खूब हो रही है। पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रश्न पर भी यही सवाल उनकी व्यापक एकता को प्रभावित करता है। हालांकि दक्षिण के राज्यों विशेषकर तमिलनाडु ने इसमें भी आनुपातिक व्यवस्था के जरिए इसे ठीक से संभाला है। जबकि उत्तर के राज्यों मे उपवर्गीकरण के सवालों को समाज को विभाजित करने का या ‘दुश्मन’ की चाल बताकर उसका लगातार विरोध किया जाता रहा है, जिसके फलसरूप एक ही प्रश्न पर सहमति होते हुए भी राजनैतिक परिणाम भिन्न होता है। पिछड़ी जातियों में मुस्लिम और ईसाइयों को भी शामिल कर लिया गया है और दक्षिण के सभी राज्यों में उनके लिए ओबीसी आरक्षण के तहत पृथक आरक्षण दिया गया है।

 

अनुसूचित जाति के लिए निर्धारित 15 प्रतिशत आरक्षण में अब दलित मुस्लिम और दलित क्रिश्चियन का मामला सामने आने से एक प्रकार का तनाव पैदा हो गया है। बहुत से लोग कह रहे हैं कि जाति व्यवस्था दक्षिण एशिया में सभी धर्मों मे विद्यमान हैं, चाहे सिद्धांत के तौर पर वे जाति को न भी मानते हों। कुछ यह तर्क दे रहे हैं कि 1950 के शासकीय आदेश में दलितों के आरक्षण में हिंदू और सिखों का ही नाम था। बाद में 1990 में इसमें दलित बौद्धों का नाम भी जुड़ा। 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लंबे समय से चली आ रही नव बौद्धों की मांग को स्वीकारते हुए उन्हें आरक्षण सूची में शामिल किया तब यह बात चली कि दलित ईसाई और दलित मुसलमानों को इसमें शामिल क्यों न किया जाय। 

इस बात से कोई इनकार नहीं है कि संविधान सभा में छुआछूत के प्रश्नों को केवल हिंदुओं तक ही देखा गया क्योंकि यह माना गया कि यह वर्ण व्यवस्था से उपजी हुई है, जिसके कारण दलितों का सदियों से शोषण हुआ है। संविधान सभा के मुस्लिम, ईसाई सदस्यों ने इस प्रश्न पर कुछ नहीं कहा। सिखों मे भी एक-दो सदस्य ऐसे थे, जिन्होंने इस प्रश्न को उठाया। डॉ. आंबेडकर इस बात को जानते थे और अपनी पुस्तक ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में इस प्रश्न पर उन्होंने बहुत कुछ कहा भी है। भारत की संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर ने इस संदर्भ में अहम भूमिका निभाई और कांग्रेस में भी पूना पैक्ट के बाद से ही इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से विचार हो रहा था। हालांकि पूना पैक्ट के संदर्भ मे ही डॉ. आंबेडकर ने गांधी पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि उन्होंने हर बात के लिए आंदोलन किए, चाहे सर्व धर्म के नाम पर, मुसलमानों की सुरक्षा के लिए या किसानों के लिए, लेकिन दलितों के लिए उन्होंने केवल रोड़े ही अटकाए। 

अपने लिए आरक्षण मांगते दलित मुस्लिम और दलित ईसाई

आंबेडकर जानते थे कि वंचित वर्गों के सवाल पर कोई इसलिए बात नहीं करेगा क्योंकि मुसलमानों का सामंती वर्ग भी यह बात नहीं मानता और धार्मिक अस्मिता के सवाल पर ही अधिक फोकस करता है। मुसलमान और ईसाइयों में जाति के सवाल को स्वीकार करने का मतलब था वैचारिकी या धार्मिक तौर पर यह बात स्वीकार करना होता कि उनके समाजों में भी यह समस्या है। 

एक हकीकत यह कि धर्म बदलने का विचार रखने वाले अक्सर ईसाई या इस्लाम के बारे में सोचते हैं। इसके उदाहरण नहीं के बराबर मिलते हैं कि दूसरे धर्म के लोगों ने सामूहिक तौर पर या व्यक्तिगत तौर पर भी अपना धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपनाया हो। ऐसा कहा जाता है कि यदि कोई दूसरे धर्म से हिंदू बनेगा तो उसे किस जाति में रखा जाएगा। हिंदुत्व मूलतः वर्णवाद पर आधारित व्यवस्था है, लेकिन इस्लाम और ईसाई धर्म में ऐसा नहीं है और इन दोनों ही धर्मों का नेतृत्व इस आधार पर अपने को ‘बेहतर’ भी साबित करता था ताकि दोनों ही धर्मों को दलितों के लिए एक विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। जब डॉ. आंबेडकर ने येवला मे 1932 में यह घोषणा की थी कि में हिंदू पैदा जरूर हुआ हूं, जो मेरे बस में नहीं था, लेकिन हिंदू रहकर नहीं मरूंगा। उनके इस घोषणा के बाद से ही उन्हें अपने-अपने धर्मों में लाने के लिए बहुत प्रयास किए गए। 

दरअसल भारत विभाजन के बाद बाबा साहब के निकट सहयोगी और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के टिकट पर उन्हें बंगाल से संविधान सभा में लाने वालेजोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग के समर्थन में आ गए थे और स्वतंत्र पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष और वहां के पहले कानून मंत्री बने। वह इस उम्मीद मे पाकिस्तान गए क्योंकि उन्हें लगा कि मुसलमानों का व्यवहार दलितों के प्रति शायद हिंदुओं से अच्छा होगा। कायदे आजम जिन्ना उन्हे बहुत मानते थे, इसलिए उन्हें पाकिस्तान की संविधान सभा में इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी गई। लेकिन पाकिस्तान का मुस्लिम कुलीन वर्ग दलितों को पृथक और स्वतंत्र रूप से स्वीकार करने को तैयार नहीं था। नया राष्ट्र चाहे कितने भी वादे करता, लेकिन उसकी बुनियाद ही धर्म के आधार पर थी, तो उसमें अल्पसंख्यकों के लिए संभावनाएं लगभग नगण्य थीं। 

दरअसल पाकिस्तान का सामंती मुस्लिम नेतृत्व भारत के साथ बातचीत में दलितों को एक कवच के तौर पर इस्तेमाल कर रहा था और वह दलितों को एक अलग केटेगोरी के रूप में नहीं देख रहा था। दलितों का प्रश्न हिंदुओं के साथ ही जोड़ा गया। पाकिस्तान में आज भी पसमांदा मुसलमान के सवाल पर कोई चर्चा नहीं है। आज पाकिस्तान में बहुत से लोग आंबेडकर जयंती मनाते हैं, लेकिन अत्यंत ही शातिर तरीके से इस सवाल को छिपा लिया जाता है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों ने दलितों के प्रश्न पर क्या किया और सबसे महत्वपूर्ण यह कि जोगेंद्रनाथ मंडल के साथ उनका व्यवहार ऐसा क्यों रहा कि उन्हे तीन वर्ष के अंदर ही देश छोड़ना पडा। 

यह सवाल भी जानना जरूरी है कि जब भारत में दलितों को यह बताया जा रहा है कि इस्लाम में उनके लिए ‘आजादी’ है तो यह पाकिस्तान के चूड़ा समाज के लोगों को क्यों नहीं नसीब हुई, जो आज वहा ‘ईसाई’ कहे जाते है? इसके पीछे का कारण है जातिवादी मानसिकता। पाकिस्तान के सामंती मुसलमान नहीं चाहते थे कि चूड़ा लोगों के इस्लाम में आने के बाद उन्हे कम-से-कम मस्जिद में एक साथ नमाज़ पढ़ना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने सभी को ईसाई बने रहने दिया और उनके साथ हर स्तर पर भेदभाव और छुआछूत आज भी जारी है। पाकिस्तान में ईसाई शब्द का मतलब ही चूड़ा है और उनका शोषण सबसे अधिक होता है। आज भी सफाई के पेशे में उनके लिए सौ फीसदी आरक्षण है। 

इधर भारत में ईसाई समुदाय के अनेक धार्मिक नेताओं ने 1990 के बाद से इस बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया था कि दलित ईसाई के प्रति चर्च में भी भेदभाव है, लेकिन मुसलमानों के ऊंची जातियों का नेतृत्व इसे बिल्कुल स्वीकार नहीं करना चाहता था। दूसरी ओर सेक्यूलर कही जाने वाली पार्टिया भी मुस्लिम नेतृत्व को नाराज नहीं करना चाहते थे, इसलिए सभी इस मामले में चुप रहे। जबकि यह सच्चर आयोग से लेकर रंगनाथ मिश्र आयोग की रपटाें में साबित हो चुकी है कि मुस्लिम समुदाय में बहुत विविधता है और कोई भी धर्म इस देश के अंदर एक समान नहीं है। सवाल है कि क्या किसी भी देश में नागरिकता के आधार पर लोगों को समान सुविधाएं नहीं मिलनी चाहिए? क्या केवल किसी बात पर केवल इसलिए बहस नहीं होनी चाहिए क्योंकि संविधान सभा में उसके ऊपर कोई चर्चा नहीं हुई? क्या संविधान और धर्म की पुस्तकों के मौलिक अंतर को हम नहीं समझते? 

धार्मिक किताबों में लिखे से एक शब्द को भी नहीं बदला जा सकता, लेकिन संविधान लोगों की आवश्यकताओं के अनुसार संशोधित होता रहा है। हो सकता है कि स्वाधीनता के समय दूसरे धर्मों मे दलितों के सवाल उतनी मजबूती से न उठे हों, क्योंकि विभाजन का मूल आधार तो धर्माधारित ही था। हालांकि यह अब सभी जानते हैं कि धर्म की आड़ में ऊंची जातियों की सत्ता ही थी। 

अक्सर हम यह शिकायत करते हैं कि जाति का मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैसे क्यों नहीं उठ पाया जैसे रंगभेद या नस्लभेद का प्रश्न उठता है। दुनिया के दूसरे हिस्सों मे लोग जातिभेद के सवाल पर वैसी प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते जैसे नस्लभेद के सवाल पर देते हैं। इस प्रश्न पर अगस्त-सितंबर, 2001 में दक्षिण अफ्रीकी शहर डरबन में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इसमें भाग लेने दुनिया भर के देशों मनावधिकार कार्यकर्ता, दलितों के प्रश्न पर काम करने वाले सभी आए और सबने एक स्वर में यह बात रखी कि जातिभेद और छुआछूत पूरे दक्षिण एशिया की समस्या है और यह विद्यमान सभी धर्मों मे मौजूद है। यह बात भी रखी गई कि चूंकि अब दक्षिण एशिया के लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों मे बस चुके हैं और एक बड़ी आबादी अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, अस्ट्रेलिया और यूरोप में रह रही हैं तथा अपने साथ अपनी-अपनी जाति के कुनबों में रहती हैं। इसलिए जाति का प्रश्न केवल भारत या हिंदुअें के अंदर का मामला नहीं है। यह मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों में भी व्याप्त है। इसे स्वीकार करना पड़ेगा तभी अंतराष्ट्रीय स्तर पर कोई कानून बन पाएगा। 

मसलन, ब्रिटेन में 2010 के इक्वालिटी एक्ट में नस्ल के साथ जाति को रखने के मामले में तत्कालीन सरकार ने 2013 में स्वीकृति दे दी और 2015 में इसे कानून बन जाना चाहिए था। लेकिन क्या आप जानते है कि इस कानून के खिलाफ ब्रिटेन के अंदर हिंदुओं से अधिक बड़ी जाति के सिखों ने विरोध किया। इंग्लैंड में जातिभेद मे जाट सिखों का व्यवहार कैसे रहा है, यह हमारे आंबेडकरवादी मित्र बिशन दास बेंस से बातचीत में पता चलता है। आंबेडकरवादी बेंस 1985 में वॉल्वरहैम्पटन के मेयर बने और उन्हें अफ्रीकी, श्रीलंकाई, पाकिस्तानी, नेपाली और बांग्लादेशी मूल के लोगाों ने भरपूर समर्थन दिया था। लेकिन पंजाब के जाटों ने उन्हें किसी भी तरीके से हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि वे एक दलित अम्बेडकरवादी का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। 

लगभग 15 वर्ष पहले मैं उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में एक कार्यक्रम में शामिल होने गया था। वहां मेरी मुलाकात कुछ मुस्लिम सफाईकर्मियों से हुई जो अपनी परेशानियों को साझा कर रहे थे। उनका कहना था कि नगर पालिका में सफाई कर्मचारी के तौर पर भी उन्हे नियुक्ति नहीं मिलती। हालांकि सुबह-शाम वही काम करते हैं। उनका कहना था कि हिंदू सफाई कर्मचारियों को सुविधाएं हैं, लेकिन उन्हें सुविधाएं नहीं दी जाती हैं। जबकि दोनों का काम एक सा है। 

यही स्थिति ईसाई दलितों की है। उनके साथ चर्च मे भेदभाव होता है और वे अपने अलग-अलग चर्चों में प्रार्थना करते हैं। पंजाब में दलित सिखों के गुरुद्वारे अलग हैं और जाति प्रथा को लेकर सिख भी दुनिया के दूसरे देशों में चले गए। एक बार अफ्रीकी देश युगांडा में मुझे तीन अलग-अलग प्रकार के गुरुद्वारों को देख आश्चर्य हुआ। वहां मैं जाटों, रामगढ़ियों के गुरुद्वारे में गया और मैंने सवाल किया कि क्या उनका गुरुद्वारा एक नहीं हो सकता? 

खैर, सरकार ने तो साफ कह दिया है कि वह दलित क्रिश्चियन और दलित मुसलमानों को आरक्षण नहीं देना चाहती और उसके पीछे कारण साफ हैं। वह यह कि हिंदुत्व की लॉबी यह मानती है कि यदि धर्म के आधार पर आरक्षण हो गया तो धर्मांतरण की प्रक्रिया और तेज होगी। उनका कहना है कि यदि ये धर्म जाति को नहीं मानते तो जातिभेद के प्रश्न क्यों उठा रहे हैं? 

सवाल वाजिब है। यह बिल्कुल सही बात है कि दलितों या उत्पीड़ित समूहों में बदलाव धर्म परिवर्तन से नहीं आता। वे संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करके ही आएंगे, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र नागरिकता के आधार पर बनते हैं, यानि नागरिकों के बीच एक ही बात को लेकर भेदभाव नहीं किया जा सकता। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि भारत में सभी धर्मों में जाति का गहरा असर पड़ा है और जातिभेद के कारण लोगों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति और भी बदतर हुई है। संविधान आपके साथ इसलिए भेदभाव नहीं करता है क्योंकि आप किसी जाति विशेष के हैं। सवाल है कि जब बुद्धिस्ट और सिख दलितों को आरक्षण की सुविधा मिल सकती है तो दलित मुसलमानों और ईसाई दलितों को क्यों नहीं? इसमें जो दिल जल रहे हैं वो नौकरियों की कमी और आरक्षण पर चौतरफा हमले की वजह से हो रहे हैं। शायद इस प्रश्न का उत्तर इस बात में है कि सरकार दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करे। लेकिन उस स्थिति में उनके लिए उसी अनुपात मे अनुसूचित जाति के लिए निर्धारित 15 प्रतिशत आरक्षण के अतिरिक्त आरक्षण की व्यवस्था की जाय। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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