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एक दलित-बहुजन यायावर की भूटान यात्रा (तीसरा भाग)

मैं जब पुनाखा जिले की राह में स्थित धार-चू-ला के नज़दीक स्थित एक बौद्ध मठ में गया तो मुझे उसके एक कमरे में जाने से मना किया गया था, लेकिन मैं गलती से उस कक्ष में दाखिल हो गया। मैं यह देखकर हतप्रभ रह गया कि वहां काली जैसी किसी देवी की प्रतिमा लगी थी। पढ़ें, भंवर मेघवंशी की भूटान यात्रा के संस्मरण का तीसरा भाग

पिछली कड़ी के आगे

भूटान में बौद्ध धम्म के परोपकार, विवेक और दया के भावों से युक्त सिद्धांतों और उसके अनुरूप कार्य व्यवहार ने लोगों की ख़ुशियों को बढ़ाने में मदद की है। अगर हम इतिहास को खंगालें तो यह भी पाते हैं कि आज के भूटान को राष्ट्र राज्य का स्वरूप देने में और राष्ट्रीय एकता व अखंडता बनाने में बौद्ध धम्म की प्रभावी भूमिका रही है।

पहले भूटान विभिन्न कबीलों में बंटा हुआ था। उन कबीलों के अलग-अलग नाम भी थे। न तो राजनीतिक रूप से और न ही सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से यह मुल्क एक था। सातवीं शताब्दी में यहां बौद्ध धम्म का प्रवेश हुआ। तिब्बत के 33वें राजा सोंगसेन गांपो ने अपने शासन काल में कुल 108 बौद्ध विहार (लखांग /मठ) बनवाये, जिनमें से दो आज के भूटान में स्थित है। पारो का किचु लखांग और भूमथांग का ज़ामेब्य लखांग अपनी प्राचीनता के साथ आज भी विद्यमान है। मुझे सातवीं सदी में बने किचु लखांग को देखने का अवसर मिला, जहां से भूटानी बौद्ध परंपरा का इतिहास शुरू होता है।

सन 747 ईस्वी में भारत से तांत्रिक गुरु पद्मसंभव को भूटान के भूमथांग इलाक़े के तत्कालीन राजा वहां की ज़मीन को भूत-प्रेतों से मुक्त करने के लिए बुलाया गया। उन्होंने महायान संप्रदाय के वज्रयानी बुद्धिज़्म की यहां स्थापना की। गुरु पद्मसंभव को यहां मास्टर रिनपोचे कहा जाता है। वे भूटान के अभिभावक हैं और उन्हें दूसरा बुद्ध माना गया है। मास्टर रिनपोचे को भूटान का धार्मिक, नैतिक और सामाजिक गुरु माना जाता है। वे भूटान के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के प्रतीक हैं। गुरु पद्मसंभव की प्रतिमा हरेक मठ में मिलती है। लून्तसे शहर में तो विशाल भव्य प्रतिमा लगाई गई है।

पारो ताकसांग पर्वतमाला की कठिन चढ़ाई के बाद जब हम टाइगर नेस्ट नामक बेहद प्रसिद्ध बौद्ध पर्यटन स्थल पर पहुंचे तो हमें वहां जानकारी भी मिली कि गुरु रिनपोचे ने अपनी शिक्षाओं व सिद्धांतों को पेड़ के पत्तों और मृणशिलाओं पर लिखवा कर दुर्गम पर्वतों, गुफाओं और चट्टानों के मध्य छिपा दिया था, जो अब तक मिलता जा रहा है। गुरु ने दो बार भूटान का भ्रमण किया था। पहली बार वे भूमथांग आए और दूसरी बार उन्होंने लून्तसे स्थित सिंगेय जोंग (दुर्ग) के रास्ते भूटान में प्रवेश किया था।

गुरु रिनपोचे ने भूटानी बौद्ध धम्म के सबसे पुराने नियंगपा मत की स्थापना की थी। वर्तमान में भूटान में बौद्ध धम्म के चार मत विद्यमान है– नियंगपा, काग्युपा,शाक्यपा और गेलुग्पा। पूर्वी और मध्य भूटान में नियंगपा और पश्चिमी भूटान में काग्युपा मत का बोलबाला है। हालांकि सभी मतों के लोग मिल-जुल कर रहते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि बौद्ध धम्म गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात महायान और हीनयान नामक दो संप्रदायों में विभक्त हो गया था। महायान में वज्रयानी संप्रदाय के हिमालय क्षेत्र के विभिन्न मत तंत्र-मंत्र,भूत-प्रेत,आत्मा-परमात्मा और पुनर्जन्म व अवतारवाद तक को मानते है। भूटान का बौद्ध मत थेरवादी बौद्ध मत से सर्वथा अलग प्रतीत होता है।

मैं जब पुनाखा जिले की राह में स्थित धार-चू-ला के नज़दीक स्थित एक बौद्ध मठ में गया तो मुझे उसके एक कमरे में जाने से मना किया गया था, लेकिन मैं गलती से उस कक्ष में दाखिल हो गया। मैं यह देखकर हतप्रभ रह गया कि वहां काली जैसी किसी देवी की प्रतिमा लगी थी। वहां मौजूद एक लामा ने मेरी जिज्ञासा का शमन करते हुए जानकारी दी कि यह वज्रतारा की प्रतिमा है। आप इसे भद्रकाली भी समझ सकते हैं। मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न थी, क्योंकि मेरा बौद्ध धम्म से परिचय चार तरीक़ों से रहा है। सबसे पहली समझ मेरी एक दक्षिणपंथी संगठन के साहित्य से बनी, जो बौद्ध धम्म को हिंदू धर्म की एक शाखा मानता है और गौतम बुद्ध को सनातनी वैदिक सुविधाभोगी देवता विष्णु का अवतार बताता है। दूसरा परिचय ओशो के प्रवचनों से मिला, जो बुद्ध और ध्यान समाधि को विशेष आदर देते हैं। तीसरा परिचय विपश्यना गुरु सत्यनारायण गोयनका के कार्यकलापों से मिला। चौथा और महत्वपूर्ण परिचय बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के धम्म दीक्षा समारोह और उनकी किताब ‘बुद्ध और उनका धम्म’ से मिला। साथ ही आंबेडकरवादी नवयानी बौद्धों के सम्पर्क ने भी एक नई दृष्टि दी। लेकिन भूटान आकर तो चारों प्रकार की समझ ध्वस्त हो गई। यहां तो बौद्ध धम्म के नाम पर कुछ और ही दिखाई पड़ा।

भूटान में एक मठ की छत पर बुद्ध की विशाल प्रतिमा

भूटान की कुल आबादी की 80 फ़ीसदी जनसंख्या बौद्ध धम्म को मानती है। यहां 18 प्रतिशत हिंदू धर्म के लोग भी हैं और 2 प्रतिशत ईसाई भी। सभी धर्मों में सहअस्तित्व का भाव है और सभी मिलजुल कर रहते हैं। कोई बड़ा विवाद सामने नहीं आया है। एक बौद्ध मठ तो ऐसा भी है, जिसकी एक ही छत के तले हिंदू मंदिर भी है। यहां हिंदू पर्व त्यौहारों के मौकों पर अवकाश भी रहता है। एक बार दीपावली के मौक़े पर मैं भूटान की राजधानी थिम्फु की गलियों में शाम को घूम रहा था, मैने पाया कि शांत शहर में कहीं पटाखे फूट रहे हैं। वहां जाकर देखा कि प्रवासी भारतीय और स्थानीय हिंदू जो कि नेपाल अथवा भारत से यहां आकर बस गये हैं, दीवाली मना रहे हैं। थिम्फु में भी एक मंदिर का अस्तित्व था।

वैसे तो भूटानी बौद्ध अपने मठ विहारों को टेम्पल ही कहना पसंद करते है। उनकी पूजा पद्धति में भी काफ़ी साम्यता आप देख सकते हैं। जैसे कि प्रतिमाओं के सामने पानी और अन्य वस्तुएँ चढ़ाना। फिर उनको प्रसाद के रूप में ग्रहण करना। यह मुझे एकदम मंदिरों में चरणामृत लेने जैसा ही लगा, क्योंकि मूर्तियों को प्रणाम करने के बाद वहां मौजूद लामा बुद्ध प्रतिमा के सामने रखे पानी को उपासकों को देता है, जिसे चखने के बाद बचे हुए पानी को सिर पर लगाया जाता है। हालांकि किसी को किसी का चरण स्पर्श करते मैने नहीं देखा। मठों में जूते तो उतारने पड़ते हैं। लेकिन अगर सिर साड़ी के पल्लू से ढँका है अथवा टोपी से तो उसको भी उतारना पड़ता है। धूप, दीप, अगरबत्ती तो बहुत आम है। 108 मनकों की माला हाथ में लिए माला फेरते बुजुर्ग सब तरफ़ नज़र आते हैं। प्रार्थना चक्रों और पूजा स्थलों पर परिक्रमा करते लोग भी दिखेंगे। लामाओं का गेरुआ रॉब भी आपको भारत की याद दिलाता है।

भूटान के बौद्ध धम्म पर प्राचीन कबीलों के रीति-रिवाजों और परंपराओं का साफ़ असर मौजूद है। आज जो तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा तथा पुनर्जन्म संबंधी विश्वास भूटानी समाज में पाया जाता है, वह उनकी आदिम संस्कृति है। चूंकि ये सभी क़बीले प्रकृति पूजक रहे होंगे तो उन्होंने सिद्धांतत: तो बौद्ध धम्म अपना लिया, लेकिन कार्य-व्यवहार में पुरानी प्रथाएं भी जारी रहीं और आज भी वे यथावत हैं। यहीं जाकर भूटानी बुद्धिज़्म बाक़ी दुनिया के बौद्ध धम्म से अलग हो जाता है।

हर भूटानी घर में पूजा का एक कमरा जरुर होता है, जो दरअसल बुद्ध विहार की प्रतिकृति है। शायद बर्फ़बारी के दौरान जब लोग घरों में क़ैद रहते होंगे तब उनकी आध्यात्मिक ज़रूरत के लिए इसकी संकल्पना की गई होगी। लामाओं का यहां दैनिक जीवन में बड़ा प्रभाव है। वे मठों, राजकीय दफ़्तरों, घरों, बाज़ारों, बस अड्डों और हवाई अड्डे आदि जगहों पर बड़ी संख्या में मिलते हैं।

एक मठ में भूटानी राजवंश के पूर्व व वर्तमान शासक की तस्वीरें

आम भूटानी ज्योतिष, खगोल शास्त्र, परंपरागत चिकित्सा सोवा रिगपा में यक़ीन करते हैं। वे विभिन्न तरह के देवी-देवताओं को खुश रखने के लिए उनके वास्ते उत्सव मनाते हैं। उनके नाम पर प्रार्थना के ध्वज पहाड़ियों पर फहराते हैं। फिर जन्म हो या मरण, विवाह अथवा कोई त्यौहार हो, बीमारी हो या यात्रा, सबके लिए पंचांग से शुभ-अशुभ मुहुर्त देखते हैं। प्रार्थना के चक्र, प्रार्थना के झंडे, मठों की मूर्तियां, धूप-दीप स्थल हर जगह आपको अलग ही तरह का बौद्ध धम्म मिलता है, जिसे देखकर आपके मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि बौद्ध धम्म को वैज्ञानिक धम्म कहना क्या यहां संभव हैं?

हिमालय क्षेत्र में माने जाने वाले बौद्ध धम्म में विगत बुद्ध, वर्तमान बुद्ध और आगत बुद्ध की अवधारणाएं भी हैं। वे मानते हैं कि पांच-पांच हज़ार साल का सृष्टि चक्र होता है। हर पांच हज़ार साल के लिए एक बुद्ध आते हैं। सबसे अंतिम पहले अवलोकितेश्वर थे। वर्तमान बुद्ध गौतम बुद्ध हैं, जिनको यहां शाक्यमुनि गौतम कहा जाता है और भविष्य के बुद्ध मैत्रय होंगे। तीनों की प्रतिमा के अलावा गुरु रिनपोचे, भूटान को राजनीतिक रूप से एक करने वाले सबदरूंग नामग्येल की प्रतिमा भी होती है। भूटान के सबसे बड़े बौद्ध धम्म गुरु जे खेम्पों तथा वर्तमान राजा जिग्मे खेसर वांगचुक तथा उनकी पत्नी पेमा की तस्वीरें भी विभिन्न धर्मस्थलों में होती हैं। भूटान के नागरिक उनके प्रति बेहद आदर भाव प्रदर्शित करते हैं।

भूटान सहित हिमालय क्षेत्र के लद्दाख, हिमाचल, नेपाल, तिब्बत, सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश में फैले बौद्ध धम्म में व्याप्त अंधश्रद्धाओं, कर्मकांडों, चमत्कार की कहानियों, तंत्र-मंत्र पर ज़्यादा बात नहीं होती है। अधिकांश लोग इन क्षेत्रों के सौंदर्य की बात करते हैं। स्वच्छता और अनुशासित जीवन शैली तथा प्रकृति के साथ साहचर्य और खुशमिज़ाजी का उल्लेख करते हैं। लेकिन महायानी वज्रयानी तंत्रवाद पर बात करने से बचते हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि भूटान में इन विषयों पर लोग चिंतन मनन नहीं कर रहे हैं। वहां भी सुधारवादी आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा है। कुछ लामा इन विषयों पर लिख-बोल रहे हैं। ऐसे दो उदाहरण मैं देना चाहूंगा।

तिब्बती बौद्ध लामा जोंगसार जामयांग ख्यान्तसे, ने “व्हाट मेकस यू नॉट ए बुद्धिस्ट” नामक किताब लिखी। वे प्रेरक गुरु, फ़िल्म निर्माता, कलाकार और लेखक भी हैं। वे कहते हैं कि बुद्ध के मौलिक सिद्धांतों और लोगों के व्यवहार में काफ़ी अंतर आ गया है। इसलिये वे ग़लतफ़हमियों के शिकार हैं। जोंगसार पूछते हैं कि अगर आप बौद्ध हैं तो आपको स्वीकार करना होगा कि सभी चीजें परिवर्तनशील हैं, कुछ भी स्थायी नहीं है। भावनाएं और अपेक्षाएं पीड़ा देती है,आनंद नहीं। सभी घटनाएं भ्रामक हैं और आत्मज्ञान अवधारणाओं से परे है। यह कोई स्वर्ग नहीं, बल्कि भ्रम से मुक्ति है। 

इसी तरह से और अधिक स्पष्टता से सेचेन रब्ज़ाम रिनपोचे, जो कि एक तिब्बती लामा हैं, वे हिमालय इलाक़े के बौद्ध लोगों की धार्मिक जीवनशैली तथा आचरण पर सवाल उठाते हैं। उनका कहना है कि बौद्ध सिद्धांत भी दुःख निवारण कर खुशहाली का रास्ता बताता है, लेकिन लोग साध्य के बजाय साधन पर अटक जाते हैं। हम बाहरी ख़ुशियां खोज रहे हैं और भीतर की वास्तविक ख़ुशी को भुला रहे हैं। ख़ुशी का आज के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। आज मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। लोग अवसाद में हैं और आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। बुद्ध का रास्ता बुनियादी परिवर्तन का रास्ता है। वह चित्त का विज्ञान है, कार्य कारण के सिद्धांत पर भरोसा करता है। बौद्ध एक नास्तिक धर्म है। यहां तंत्र-मंत्र, पराभौतिक शक्तियों, आत्मा, पुनर्जन्म में विश्वास और अंधश्रद्धाओं को स्वीकारना बुद्ध की वास्तविक शिक्षाओं और सिद्धांतों को छोड़ देना है। बुद्धिज़्म मन मस्तिष्क का वह विज्ञान है, जो आधुनिक विज्ञान का करीबी है। इसीलिए तो पश्चिम के मनोचिकित्सक और न्यूरो साईंटिस्ट भी बौद्ध दर्शन से प्रेरणा ले रहे हैं। आज विश्व भर में चित्त का विज्ञान पढ़ाया जा रहा है। इसमें अंधविश्वासों, स्थानीय रीति-रिवाजों के नाम पर तंत्र-मंत्र और पारलौकिक परामानवीय ताक़तों के लिए कोई जगह नहीं है।

ख़ैर,यह अच्छी बात है कि बौद्ध धम्म में विचार-विमर्श, शास्त्रार्थ और चिंतन-मनन निरंतर जारी रहता है तथा आवश्यक परिवर्तन, परिवर्धन और परिमार्जन भी होता रहता है। 

क्रमश: जारी

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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