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महाराष्ट्र उपचुनाव : दलित-बहुजनों को मिले सबक

भारत की मुख्य राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं, इसलिए एक ही मूलभूत विचारधारा की राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे को शत्रु की तरह झूठा आभास कराती हैं, और जनता उसे सच मानकर अपने मताधिकार का प्रयोग करती रहती है। बता रहे हैं प्रो. श्रावण देवरे

पहले उपचुनावों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता था, लेकिन अभी हाल ही में हुए महाराष्ट्र के कसबा पेठ व चिंचवाड़ विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव युद्ध स्तर पर लड़े गए। कसबा पेठ में महाविकास अघाड़ी में शामिल कांग्रेस के रवींद्र धंगेकर भाजपा के उम्मीदवार हेमंत रासेन को हराकर विजयी हुए। करीब 27 साल बाद कांग्रेस ने इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा पर जीत हासिल की है। वहीं चिंचवाड़ विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के अश्विनी जगताप को जीत मिली।

मुख्य बात यह कि दोनों उपचुनावों में सभी पार्टियों सबकुछ दांव पर लगाकर चुनाव लड़ा। जिन पार्टियों के उम्मीदवार नहीं थे, उन पार्टियों के भी बड़े नेताओं ने भी जी-तोड़ मेहनत की। इस प्रकार सभी नेताओं के रोज-रोज रणभेरी बजाने एवं ललकारने से जनता में भी जोश आ गया तो उसने भी उत्साहपूर्वक मतदान किया। जबकि आमतौर पर उपचुनावों में जनता उदासीन रहती है। लेकिन तुलनात्मक आंकड़ा देखें तो इस उपचुनाव में जनता ने लगभग उतना ही मतदान किया, जितना आम चुनाव के समय दिा था। मसलन, 2019 के विधानसभा चुनाव में कसबा पेठ विधानसभा क्षेत्र में 51.54 प्रतिशत वोट पड़े थे, वहीं अभी के उपचुनाव में 50.06 प्रतिशत वोट पड़े। ऐसे ही चिंचवाड़ विधानसभा क्षेत्र में 2019 के चुनाव में 53.59 फीसदी मतदान हुआ था तो इस बार उपचुनाव में 50.57 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया।

यानी इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों की जनता ने भी उपचुनाव को गंभीरता से लिया। ऐसे में सवाल उठता है कि उपचुनाव भी जब युद्ध स्तर पर लड़ा जाय तो उससे भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ, क्या ऐसा समझा जाना चाहिए? 

छगन भुजबल, प्रकाश आंबेडकर व अन्य

इस सवाल का जबाब ‘नहीं’ है। केवल चुनाव से लोकतंत्र स्थापित नहीं हो जाता। हमारे सामने अतीत के अनेक उदाहरण हैं। जैसे कि जर्मनी में हिटलर के समय से लेकर अब तक व साम्यवादियों के देश रूस वचीन में भी चुनाव होते रहते हैं, लेकिन इन देशों में लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका है। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है, जब दो या उससे अधिक विचारधारा के आधार पर राजनीतिक पार्टियां चुनाव लड़ती हैं।

लेकिन भारत की मुख्य राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं, इसलिए एक ही मूलभूत विचारधारा की राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे को शत्रु की तरह झूठा आभास कराती हैं, और जनता उसे सच मानकर अपने मताधिकार का प्रयोग करती रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि एक ही ब्राह्मणवादी विचारधारा की पार्टीयां अलट-पलटकर सत्ता में आती रहती हैं। कांग्रेस और भाजपा इसके उदाहरण हैं।

भारत में आज दो ही मुख्य विचारधाराएं हैं। एक जाति-व्यवस्था की समर्थक ब्राह्मणी विचारधारा और दूसरी जाति का विनाश चाहनेवाली अब्राह्मणी विचारधारा। सत्ता के करीब रही अधिकतर पार्टियां ब्राह्मणी खेमे में शामिल रहती हैं। वहीं खुद को प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी माननेवाली फुले-अंबेडकरवादी व मार्क्सवादी पार्टियां भी जैसे तैसे इन्हीं प्रस्थापित पार्टियों की पूंछ पकड़कर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। वैसे यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि अब्राह्मणीकरण करने से तमिलनाडु की अब्राह्मणी जनता ने ओबीसी के नेतृत्व में अपनी अब्राह्मणी पार्टी खड़ी की है। इसलिए तमिलनाडु में ब्राह्मणी खेमा पराजित रहा है। मतलब यह कि तमिलनाडु में कांग्रेस का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है और संघ-भाजपा अभी तक अपना अस्तित्व नहीं बना पाए हैं। बिहार व उत्तर प्रदेश में जनता का ध्रुवीकरण राजनीतिक स्तर पर ब्राह्मणी-अब्राह्मणी होने के कारण वहां के ओबीसी के नेतृत्व में पार्टियां खड़ी हैं और वे पार्टियां ब्राह्मणी खेमे को चुनौती दे रही हैं। जिस दिन बिहार व उत्तर प्रदेश में ये ओबीसी पार्टियां सांस्कृतिक स्तर पर ब्राह्मणी-अब्राह्मणी ध्रुवीकरण शुरू करेंगी, उस दिन वहां की दलित जनता मायावती जैसी नेताओं को छोड़कर तमिलनाडु के दलितों की तरह ओबीसी नेतृत्व को स्वीकार कर लेगी।

यह दुखद है कि महाराष्ट्र की फुले-आंबेडकरवादी कहलानेवाली पार्टियां संघ-भाजपा और कांग्रेस की पूंछ पकड़कर अपना राजनीतिक अस्तित्व दिखाने का प्रयास करती हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां भी कभी कांग्रेस तो कभी राष्ट्रवादी कांग्रेस की पूंछ पकड़ती हैं। इसलिए महाराष्ट्र की जनता का भी राजनीतिक रूप से ब्राह्मणी-अब्राह्मणी ध्रुवीकरण नहीं हो रहा है। जाहिर तौर पर जब ध्रुवीकरण ही नहीं होगा तो कोई भी गैर-ब्राह्मणी राजनीतिक विकल्प खड़ा हो ही नहीं सकता।

अब यदि उपचुनाव परिणाम की बात करें तो चिंचवाड़ में ‘कलाटे’ व ‘न-कलाटे’ फैक्टर को खूब महत्व दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि राहुल कलाटे नामक एक निर्दलीय उम्मीदवार के कारण चिंचवाड़ में भाजपा जीती और कसबा में ‘कलाटे’ फैक्टर न होने के कारण भाजपा हार गई। 

सवाल यह है कि संघ-भाजपा को पराजित करने के लिए ऐसे कितने ‘न-कलाटे’ पर कबतक उलझे रहेंगे? फुले-आंबेडकरवादी के रूप में व मार्क्सवादी-समाजवादी के रूप में कभी अपना खुद का अस्तित्व दिखायेंगे भी या नहीं? प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाडी को केवल कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस को पराजित करना ध्येय होता है, इसके लिए वह भी ‘कलाटे’ फैक्टर का ही आधार लेती है। पार्टी का खुद का वैचारिक ध्रुवीकरण कहीं भी नहीं है और है भी तो नाते-रिश्तेदारों का भावनात्मक ध्रुवीकरण! 

इस बार के उपचुनाव में कसबा पेठ में ‘आनंद दवे’ नामक एक और फैक्टर सामने आया। यह विधानसभा क्षेत्र ब्राह्मणों के एकाधिकारवाला क्षेत्र रहा, क्योंकि इस क्षेत्र में 30 साल से भाजपा का ब्राह्मण उम्मीदवार चुनाव जीत रहा था। लेकिन इस उपचुनाव मे कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने ओबीसी उम्मीदवार खडे किये। इसका गुस्सा मन में लेकर ब्राह्मण महासभा के नेता आनंद दवे चुनाव में खड़े हुए। यानी दवे के पीछे कोई वैचारिक भूमिका नहीं थी, वे केवल जाति की भूमिका लेकर मैदान में उतरे। कुछ अतीतगामियों को ऐसा लगता था कि आनंद दवे ब्राह्मणों का वोट पाकर भाजपा को पराजित करने में उपयोगी सिद्ध होंगे। लेकिन जब चुनाव परिणाम सामने आया तब ऐसा विचार रखनेवाले मुंह ताकते रह गए। 

असल में चुनाव में विचारों को नगण्य समझकर केवल जाति के नाम पर वोट देने की मूर्खता मराठा, माली से लेकर दलित-आदिवासी तक सभी जातियां करती रहती हैं। दवे यदि मराठा, माली या दलित-आदिवासी वगैरह होते तो शायद चुनाव में रंग रंग जमा पाते। लेकिन दवे ऐसी जाति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो माहौल देखकर अपना वोट-विचार बदलती है। देश में ब्राह्मण ही ऐसी एकमात्र जाति है, जो यह जानती है कि जाति का फैक्टर कब कहां आगे करना है व विचारों का फैक्टर कहां और कैसे आगे करना है।

ब्राह्मण राजनीति में ‘अब्राह्मण’ जाति को आगे करके सत्ता पर कब्जा करते हैं और इस सत्ता का उपयोग केवल ब्राह्मण जाति के हित के लिए कैसे हो सकता है, इसका ध्यान रखते हैं। सत्ता पाने के लिए राजनीति में ‘हम सब हिंदू’ यह भूमिका ब्राह्मण लेते हैं और सत्ता मिलने के बाद ‘हम सिर्फ ब्राह्मण व तुम सब शूद्र!’ ऐसी भूमिका में सामने आते हैं। दिल्ली में ‘ओबीसी मोदी’ को आगे करके व महाराष्ट्र में ‘मराठा-शिंदे’ को आगे करके सत्ता प्राप्त करना व इस सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मण हित का कार्यक्रम लागू करना इसका बेहतरीन उदाहरण है।

वर्ष 2014 में सत्ता प्राप्त करने के बाद ब्राह्मणों ने ओबीसी आरक्षण को संकट में डालकर सुदामा (ईडब्ल्यूएस के लिए दस फीसदी) आरक्षण को मजबूत किया है। ऐसे ही दलित, ओबीसी और आदिवासी आदि को बजट में नगण्य करके व अडानी-अंबानी को मजबूत किया है। भिड़े ब्राह्मण जैसे दंगाइयों व दाभोलकर-पानसरे के हत्यारों को संरक्षण दिया है। भीमा-कोरेगांव जैसे दंगे करवाए और ऐसे ही अनेक ब्राह्मण हित के कार्यक्रम सतत क्रियान्वित किये गए हैं।   

राजनीति में ‘जाति पीछे रखकर’ विचारों को महत्व देने वाली व सत्तानीति में ‘विचार पीछे करके’ जाति को महत्व देनेवाली ब्राह्मण जाति ने आनंद दवे की जमानत जब्त करवायी, तो इसमें आश्चर्य कैसा? कसबा पेठ क्षेत्र के 40 हजार ब्राह्मणों में से केवल 296 ब्राह्मणों ने आनंद दवे को जाति के नामपर वोट दिया और बाकी के 24,704 ब्राह्मणों ने विचारों को वोट दिया है। इस प्रकार केवल 0.74 परसेंट ब्राह्मणों ने जाति के नाम पर और 99.26 प्रतिशत ब्राह्मणों ने विचारों को तरजीह दी।दूसरी ओर दलित-बहुजनों में एक भी मतदाता विचारों के लिए वोट नही देता है। होता यह है कि वे अपनी जाति ही देखते रहते हैं।

खैर, इस पर विचार किया जाना चाहिए कि पिछले तीस सालों से ब्राह्मणों के एकाधिकारवाला कसबा पेठ रूपी किला अभी अचानक ओबीसी के हवाले क्यों किया गया? कांग्रेस व भाजपा इन दोनों के द्वारा ओबीसी उम्मीदवार देना, अचानक हुआ चमत्कार नहीं था।

यह निर्विवाद सत्य है कि राजनीति में कोई भी कभी कुछ मुफ्त में नहीं देता है। कसबा विधानसभा क्षेत्र में ओबीसी मतदाताओं की बहुलता है। लेकिन जबतक ओबीसी ब्राह्मणों के प्रभाव में रहे, तबतक कसबा के मुट्ठीभर ब्राह्मणवाले क्षेत्र में ब्राह्मण उम्मीदवार चुनकर आता था। किंतु बीते कई वर्षों से ओबीसी आंदोलन के जोर पकड़ने के कारण जनजागृति बढ़ रही है।

खैर, चुनाव जनजागृति का बड़ा माध्यम है। यह हमें डॉ आंबेडकर बताते हैं। चुनाव केवल जीतने के लिए ही नहीं लड़े जाते, बल्कि अपने विचार व अपने मुद्दे जनता तक ज्यादा प्रभावी रूप से ले जाने के लिए चुनाव लड़ना होता है। उसी तरह कार्यकर्ता द्वारा किये गये काम का जनता पर कितना असर हुआ है, इसका आकलन भी चुनाव में मिले वोटों के जरिये किया जा सकता है।

बहरहाल, कांग्रेस और भाजपा जैसी प्रस्थापित पार्टियां ऐसे ओबीसी व्यक्ति को टिकट देती हैं, जो उनके गुलाम होते हैं। ऐसे ओबीसी उम्मीदवार विधायक बनने के बाद ब्राह्मण-मराठा की ही दलाली करते हैं। वे जातिगत जनगणना के लिए विधानसभा में कभी नहीं लड़ते। इस उपचुनाव में ‘स्वतंत्र ओबीसी आंदोलन’ का उम्मीदवार खड़ा करके ओबीसी जाति आधारित जनगणना का मुद्दा देश के राजनैतिक अजेंडे पर लाया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

(मराठी से हिंदी अनुवाद चन्द्र भान पाल, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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