किसी सामग्री के लेखक के नाम को पढ़कर कुछ पढ़ने से बड़ी गड़बड़ी होती है। श्रवण गर्ग का नाम पढ़कर भी मेरे भावों की तरंगों में गड़बड़ी हुई। मैंने सोचा कि उन्होंने उम्र की इस दहलीज पर पहुंचकर किसी मालिक के सामने कुछ विचारोतेजक सवाल खड़े किए हैं, क्योंकि कई बार लोग उम्र के खास मुकाम पर पहुंचकर समाज में बेहतर मूल्यों को विकसित करने के उद्देश्य से जीवन की सच्चाई को उद्धाटित करते हैं।
देखिए, नाम से कितनी गड़बड़ धारणाएं बन जाती हैं और मन में बैठ भी जाती हैं। पहला तो यह कि मैंने मलिक को मालिक पढ़ा। ये बात बेहद ईमानदारी से कह रहा हूं। फिर मालिक के पढ़ते ही न जाने क्यों मालिक से पहले मीडिया शब्द अपने आप जुड़ गया, क्योंकि श्रवण गर्ग ने पूरा जीवन मीडिया मालिकों के साथ गुजारा है…और अखबार वाले ऐसा अक्सर करते भी हैं कि वे देश की तरफ से खुद बोलने लगते हैं और कई बार पूरे देश को गलत सूचनाओं, धारणाओं, व्याख्याओं के आधार पर समाज में आंतरिक कलह बढ़ने देते हैं।
ये सारे भाव, क्षण में ही बनें। पता नहीं क्यों भावों की गति मनुष्य के भीतर सबसे ज्यादा गतिशील क्यों होती हैं! धारणाएं शायद उन्हें जबरदस्त तरीके से धक्का देती हैं।
लेकिन शीर्षक ‘मलिक से पूछा जाना चाहिए देश के चार साल क्यों छीने!’ के बाद दूसरी लाइन तक पहुंचते पहुंचते लगा कि स्वयं को खबरों के संप्रेषण का छात्र ही बनाए रखना चाहिए। जाने कब नया सबक सीखने को मिल जाए।
मैं यह समझता हूं कि पत्रकार का काम सच का निरंतर अन्वेषण करना होता है। वह सच की परत-दर-परत को सामने लाने में लगा रहता है। इसीलिए उसका कोई दोस्त व दुश्मन नहीं होता। दुनिया के उन मुल्कों में सरकार के स्तर पर सत्यों को उद्घाटित करने के फैसले लिये जाते हैं, लेकिन वह किसी घटना के कई-कई वर्षों के बाद होता है। शायद वे सरकारें अपने समाज को ही महत्वपूर्ण मानती हैं। पत्रकारों का इसीलिए समाज में इतना सम्मान है और वह भी स्वयं को पत्रकार कहलाने में फख्र महसूस करता है जो कि भले ही पत्रकारिता से कोसों दूर है या हो चुका है। यहां तक कि ‘प्रबंधन संपादक’ को भी पत्रकार मान लेने की छूट समाज ने दे रखी है। जबकि सच की परतों की तलाश से उनका कोई लेना-देना नहीं होता है।
पहली बात तो फिलहाल राजनीति में सत्यपाल मलिक की जो स्थिति है, वही पत्रकारिता की दुनिया में श्रवण गर्ग की है। सत्यपाल मलिक ने क्यों कहा, इतने दिन बाद क्यों कहा, आदि सवालों का कोई महत्व इस समय नहीं है। इस समय महत्व यह है कि सत्यपाल मलिक ने जो कुछ कहा है, उसमें सच की और कौन-सी परतें खोली जानी चाहिए और उसके लिए कौन-से सूत्र हो सकते हैं। पत्रकारिता व पत्रकारिता के प्रबंधन के अनुभवी श्रवण गर्ग के लेखन का यह दोष है कि उन्होने सच को उद्घाटित करने वाले व्यक्ति को ही निशाने पर रखा है।
मैं पत्रकार के नाते यह महसूस करता हूं कि सत्यपाल मलिक ने प्रधानमंत्री जी के जिस जवाब का उल्लेख किया है (‘तुम अभी चुप रहो! यह सब मत बोलो, यह कोई और चीज़ है, हमें बोलने दो’) इसमे सत्यपाल मलिक के सच की और परतों को खोलने के सूत्र छिपे हुए हैं। तुम अभी चुप रहो… हमें बोलने दो। सच की नई परतों के यहां सूत्र छिपे हैं और श्रवण गर्ग ने खुद ही अपनी पोस्ट में यह उल्लेख किया है कि पुलवामा पर विपक्ष के सवाल पर कोई जबाव नहीं आए।
देश में ऐसी कितनी घटनाएं हुई हैं, जब उन घटनाओं को लेकर एकतरफा बोला गया है?
श्रवण गर्ग ही नहीं, बहुत सारे लोग नैतिकता का सबसे बड़ा प्रमाण इस्तीफा को मानते हैं। सत्यपाल मलिक को भी इस्तीफा दे देना चाहिए था। भाई श्रवण गर्ग जी, सत्यपाल मलिक जी 21वीं सदी के चौथाई हिस्से को पार कर रहे राजनेता हैं और आप राममनोहर लोहिया के जीवनकाल के नैतिक मूल्यों को ही प्रमाण पत्र मान बैठे हैं। स्वयं से हमें यह पूछना चाहिए कि नैतिक जिम्मेदारी को हम सब कैसे प्रमाणित करते हैं और कैसे किया है। आपने स्वयं अपनी नैतिकता का क्या पैमाना बना रखा है और वह नैतिकता मीडिया कंपनियों में कभी आहत नहीं हुई?
दरअसल पत्रकार के लिए सच की परतें ही महत्वपूर्ण होती हैं, लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति के आचार-व्यवहार, जीवनशैली को सबसे उपर बैठाकर सच को दिखाने की कोशिश होती है तो उसे केवल गुमराह करने की लेखनशैली से विभूषित किया जा सकता है। श्रवण गर्ग ने खुद लिखा है कि अंग्रेज़ी दैनिक ‘द टेलिग्राफ’ ने मलिक को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि ‘मुझे लग गया था कि अब सारा ओनस (जिम्मेदारी) पाकिस्तान की तरफ़ जाना है तो चुप रहना चाहिए’! यानी यहां भी एक सूत्र है, जहां से सच की परतें सामने लाई जा सकती हैं। यहां तो उन समूहों को देश हित में सुरक्षित और सावधान करने के सूत्र हैं, जो मीडिया कंपनी में नौकरी करते हुए ट्रोल आर्मी के सदस्य बनने के लिए आतुर है या फिर मीडिया के जरिए मॉब लिचिंग में शामिल होने को अपनी जिम्मेदारी मानने लगे हैं। इससे यह जाना जा सकता है कि किसी घटना के सच को जानने के प्रयास को किस तरह से बुरी तरह भ्रमित किया जा सकता है।
एक अनुभवी पत्रकार सही मायने में इससे एक सबक का पाठ तैयार कर सकता है। गर्ग जी, आपको यह करना चाहिए। लेकिन श्रवण गर्ग वास्तव में प्रबंधक ही हैं। वे शब्दों का प्रबंधन करते हैं। लेकिन इनके प्रबंधन दोषपूर्ण हैं क्योंकि वह देश की तरफ से बोलकर खुद को जिम्मेदार और नैतिकवान के रूप में स्थापित करने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन सच का शिकार करते हुए सीसीटीवी में दिख जाते हैं।
(संपादन : राजन/नवल)
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