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सांवले लड़के से शादी से इंकार के मायने

लड़कियां अब खुद को गाय मानने से इंकार कर रही हैं, जिन्हें किसी के खूंटे पर बांधा जा सकता है। यदि हम इस दृष्टि से देखें तो यह बेहद सकारात्मक है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि क्या रंग के आधार पर भेदभाव नस्लवाद को बढ़ावा नहीं देता है? बता रहे हैं सुशील मानव

इस वर्ष लगन (हिंदू धर्म में विवाह के लिए उपयुक्त मुहुर्त) के दौरान उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में ऐसे तीन वाकिये हुए, जहां दुल्हन ने केवल इसलिए शादी करने से मना कर दिया, क्योंकि दूल्हा काला था। तीनों ही वाकिये पिछड़ा वर्ग समाज में घटित हुआ। महत्वपूर्ण यह कि घरवालों के लाख समझाने और मान-मनौव्वल के बाद भी लड़कियों ने शादी करने से इंकार कर दिया और बारात बैरंग लौट गयी। 

हिंदू धर्म के लिहाज से प्रयागराज एक धार्मिक महत्व रखता है और यहां पितृसत्ता की हनक भी है। इस दृष्टि से देखें ते तीनों वाकिये इस बात का संकेत देते हैं कि आज की पीढ़ी पितृसत्ता को चुनौती दे रही है। लड़कियां अब खुद को गाय मानने से इंकार कर रही हैं, जिन्हें किसी के खूंटे पर बांधा जा सकता है। उनका इंकार पितृसत्ता को करारा जवाब भी है जो सांवली लड़कियों को खारिज कर देता है। यदि हम इस दृष्टि से देखें तो यह बेहद सकारात्मक है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि क्या रंग के आधार पर भेदभाव नस्लवाद को बढ़ावा नहीं देता है?

वैसे भी सजातीय मामलों में यह नस्लवादी सोच और प्रवृत्ति तो होती ही है। इसी के आधार पर समाज में जातीय या नस्लीय श्रेष्ठता और निम्नता की हिंसक मनोवृत्ति की निर्मिति होती है। हालांकि ऐसा नहीं है कि एक ही जाति में दिखने वाली यह नस्लीय सोच अचानक ही कहीं से टपक पड़ी हो।

नस्लीय सोच ब्राह्मणीकरण का नतीजा

मसलन, एक हरियाणवी गीत तीन साल पहले राज्य की सरहदों को पार करके संक्रामक बीमारी की तरह दिल्ली और उत्तर प्रदेश में डीजे की पहली पसंद बना हुआ था। इस राजस्थानी गीत में एक नवब्याहता अपने पति से कहती है कि मैं तुझे छोड़ दूंगी क्योंकि सब मुझे ‘काले’ की बहू कहकर बुलाते हैं– “तन्ने छोड़ूंगी भरतार मन्ने ना लोड इसे घरवाले की, मन्ने कहवै बहू सब काले की …”

इसके जवाब में उसका पति अपना सामाजिक रौब झाड़ते हुए कहता है– “र झाल डाट तू मन्नै बता तन्नै कोण कहै बहू काले की / मैं खाल तार ल्यू …”

जवाब में दुल्हन सारा आरोप शादी करवाने वाले बिचौलिया पर डालकर उसे कोसती है– “मेरे फोड़े करम बिचोले न / हैंडसम कहवै था कोयले न /… घणी मोटी रिशवत खरया था, कति बात करै था चाले की/… तेरे किल्ला क मैं ब्याह दी हो/ याडैं कुंए बीच धका दी हो/ ब्यूटी प्लस आली फोटो दिखा छोरी लई अम्बाले की/ मन्ने कहवैं बहू सब काले की।” 

पुरानी हिंदी फिल्म ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का एक नस्लीय भाव बोध का गीत है– “यशोमति मैय्या से बोले नंदलाला, राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला।” तमाम हिंदी फिल्मीं गीत तो नस्लवाद से पीड़ित हैं, जहां ‘गोरे’ या ‘गोरी’ शब्दों को लेकर सैंकड़ों गाने होंगे। हमारे लोकगीतों में भी इस तरह के गीत हैं। शारदा सिन्हा का गाया एक बहुत प्रसिद्ध गारी लोकगीत है। इसमें सीता को ब्याहने आये राम से मिथिला की स्त्रियां कलेवां पर गाली देते हुए पूछती हैं– “राम जी से पूछें जनकपुर के नारी, बताय द बबुआ लोगवा देत काहे गारी। एक भाई गोर काहे, एक भाई काहे कारी।” 

यह सिर्फ़ गीतों या लोकगीतों की बात नहीं है, कविता जिसे सबसे चेतस कर्म समझा जाता है वहां भी अंधेरा या काला शब्द बुरा या भयावहता के अर्थ में ध्वनित होता है। मुक्तिबोध की बहुचर्चित कविता ‘अंधेरे में’ ऐसी ही एक कविता है–

“विचित्र प्रोसेशन,

गंभीर क्वीक मार्च….

कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने

चमकदार बैंड-दल–

अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति

आंतों के जाल से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर

गंभीर गीत-स्वप्न-तरंगें

उभारते रहते,

ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर।

कैवेलरी!

काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस,

चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ

आधा भाग कोलतारी भैरव,

आबदार!!”

(स्रोत : कविता कोश, मुक्तिबोध की कविताएं)

दरअसल रूपक, उपमा और मुहावरों के ज़रिए नस्लवाद के बीज़ भाषा में इस तरह बोये गये हैं कि जब तब वो कविता कहानी गीत लोकगीत, फिल्मी गीत, राजनीति और अर्थशास्त्र में उग आते हैं।   

जनवादी अर्थशास्त्री और जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अरुण कुमार ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ किताबें लिखी हैं। उनके नाम हैं– ‘द ब्लैक इकोनॉमी इन इंडिया’, ‘डिमनेटाइजेशन एंड द ब्लैक इकोनॉमी’, ‘ग्राउंड स्कोर्चिंग टैक्स’ और ‘इंडियन इकोनॉमीज ग्रेटेस्ट क्राइसिस : इंमपैक्ट ऑफ कोरोना वाइरस एंड द रोड अहेड’। इसी साल अप्रैल महीने में प्रयागराज जिले में प्रोफ़ेसर अरुण कुमार का एक व्याख्यान हुआ। व्याख्यान का शीर्षक था ‘वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था, अडानी प्रकरण का असर’। इस व्याख्यान के उपरांत मैंने उनसे सवाल किया कि आपके व्याख्यान में बार-बार ग़लत और बुरी पूंजी या अर्थव्यवस्था के संदर्भ में ब्लैक मनी, ब्लैक इकोनॉमी, ब्लैक मार्केट, ब्लैकलैश जैसे टर्म क्यों आते हैं? आपने इन्ही शीर्षक से किताबों की रचना भी की है। जबकि यह नस्लवादी सोच के शब्द और रूपक हैं। इसके जवाब में प्रोफ़ेसर अरुण कुमार ने कहा कि सामान्य अर्थ में ब्लैक का मतलब गंदा और व्हाइट का मतलब अच्छा होता है। उन्होने कहा– “मैं कहता हूँ कि ब्लैक इकोनॉमी शब्द सही नहीं है। यह नस्लवादी योरोपियन शब्द है, जहां कि ‘ब्लैक इज डेविल एंड व्हाइट इज गुड’ है। ब्लैक इकोनामी का दुनिया में 33 अलग अलग नाम हैं। जैसे कि सबवे इकोनामी, पैरेलल इकोनामी, शैडो इकोनामी, ग्रे इकोनामी आदि। लेकिन क्योंकि लोगों को और कोई टर्म समझ नहीं आता है, इसलिए वो इसका [नस्लवादी शब्द] इस्तेमाल करते हैं।” उन्होंने आगे कहा कि अगर समझ बनानी है तो एक मुहिम छेड़नी होगी कि यह शब्द बदलने चाहिए। जब जागरुकता फैलेगी जब आम जनता में बदलाव होगा। 

यह तो अकादमिक जगत की बात है। लेकिन समाज में विशेषकर जो खेतिहर समाज के लोग हैं, जो खेत और मिट्टी से जुड़े हुए लोग हैं, उनकी मानसिकता में घर कर रही नस्लवादी सोच बढ़ती जा रही है। कहा जा सकता है कि यह नस्लीय सोच ब्राह्मणीकरण का नतीजा है। जब बहुजन समाज के लोग ब्राह्मणवादी-नस्लवादी संस्कृति अपनाएंगे तो उसके साथ उसकी सोच भी आएगी ही। 

एक उदाहरण देखिए। प्रयागराज जिले के ही फूलपुर तहसील के पाली ग्रामसभा के ब्रह्मप्रकाश पटेल (बदला हुआ नाम) खेतिहर समाज से आते हैं। वे सांवले हैं। फूलपुर में इफको कोऑपरेटिव बनने लगी तो उसमें उनकी ज़मीन भी चली गयी। विस्थापित होने के नाते उन्हें स्थायी नौकरी मिल गयी। जब वे आर्थिक रूप से सम्पन्न हुए तो उन्होंने अपने परिवार की नस्ल बदलने की सोची। पूंजी के दम पर उन्होंने अपने बड़े बेटे की शादी अपनी ही बिरादरी की एक गोरी लड़की से की। उनका बेटा बिल्कुल गहरी रंगत का है। लड़की निरक्षर और बहुत ग़रीब परिवार से है। इसके बावजूद सिर्फ़ गोरी रंगत के आधार पर वो खुद को सबसे श्रेष्ठ मानती है। इसी नस्लीय सोच के चलते वो कभी घर ससुराल के परिवार में सामंजस्य नहीं बना सकी है। वह दिन-रात, बात-बेबात जीवनसाथी को ताने मारती है कि पैसे के दम पर वे लोग उसे ब्याह लाए। ससुर ब्रह्मप्रकाश पटेल ने बहू को खुश रखने के लिए घर की चाभी बीबी से लेकर बहू को थमा दी। समय बीतने के साथ ही उनके तीन बच्चे हुए। दो लड़की और एक लड़का। लेकिन तीनों संतानों ने पिता की गहरी रंगत पाई है। अब बच्चों की रंगत देख देखकर भी वह अपने पति को दिन-रात कोसती रहती है कि कौन ब्याहेगा इनसे। वहीं पिता अपनी बच्चियों को शिक्षा देने में लगा हुआ है।          

सनद रहे कि यह सब तब हो रहा है जब पूरी दुनिया में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की अनुगूंज है।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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