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साक्षात्कार : नेपाल में हम मांग रहे आबादी के अनुपात में दलित, आदिवासी और ओबीसी की हिस्सेदारी

जबसे नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना हुई है, इसके बाद ब्राह्मणवाद के खिलाफ आवाजों का उठना शुरू हो गया है। इसी के तहत वहां भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन के लिए बहुत सारे संगठन बने। जनजातीय महासंघ बना। वहां दलितों के अनेक संगठन बने। इसी कड़ी में पिछड़ा वर्ग उत्थान संघ का भी जन्म हुआ। पढ़ें, यह साक्षात्कार

[वीरबहादुर महतो ओबीसी अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान, काठमांडू, नेपाल के अध्यक्ष हैं। बीते दिनों वे भारत की राजधानी दिल्ली में थे। नवल किशोर कुमार व अनिल वर्गीज ने उनसे नेपाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी से जुड़े विभिन्न मसलों पर बातचीत की। प्रस्तुत है आंशिक तौर पर संपादित यह विस्तृत बातचीत]

भारत और नेपाल के ब्राह्मणवाद के बीच आप किस तरह का अंतर महसूस करते हैं? और यह भी कि भारत में लंबे समय से ब्राह्मणवाद के खिलाफ आवाजें उठाई जाती रही हैं, क्या आपको लगता है कि नेपाल में इसकी कोई कमी रही है? 

भारत और नेपाल की बात करने से पहले हम लोग यह समझ सकते हैं कि हम लोगों का भले ही राजनीतिक सीमाएं अलग रहा है, लेकिन सांस्कृतिक सीमाएं एक ही है। हालांकि नेपाल में भारत के जैसे सांस्कृतिक विविधता नहीं है। लेकिन जिस किस्म की संस्कृति हमारे नेपाल में है, वही संस्कृति भारत में भी है, तो यह [ब्राह्मणवाद] समस्या साझी समस्या है। जिस ब्राह्मणवाद की समस्या से भारत जूझ रहा है, उसी तरह की समस्या नेपाल में भी है। कोई खास अंतर नहीं है। जो यहां है, वही वहां पर भी है।

सवाल है कि भारत में समय-समय पर ब्राह्मणवाद के खिलाफ आवाज उठती रही है, क्या नेपाल में भी ऐसी आवाजें उठती रही हैं?

हां, नेपाल में भी ऐसी आवाजें उठीं। चूंकि नेपाल में पहले एक राजतंत्रात्मक व्यवस्था थी, राजा का शासन था। जब तक राजतंत्र था तब तक ऐसी आवाजों को दबाया जाता था। उठने के लिए आवाज उठती थी, लेकिन उसको दबा दिया जाता था। जबसे नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना हुई है, इसके बाद ब्राह्मणवाद के खिलाफ आवाजों का उठना शुरू हो गया है। इसी के तहत वहां भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन के लिए बहुत सारे संगठन बने। जनजातीय महासंघ बना। वहां दलितों के अनेक संगठन बने। इसी कड़ी में पिछड़ा वर्ग उत्थान संघ का भी जन्म हुआ। वही पिछड़ा वर्ग उत्थान संघ पांच वर्ष के बाद नेपाल पिछड़ा वर्ग महासंघ का रूप लेता है। और वहां पर नेपाल पिछड़ा वर्ग के बैनर तले पिछड़ा वर्ग हक-हुकूक और पहचान की बात उठती है। इन्हीं सब संघर्षों और पहल के बाद सरकार इस पर ध्यान देकर समिति बनाती है।

भारत में जाति तोड़क आंदोलन हुए। इन आंदोलनों का नेपाल में भी कुछ असर हुआ?

हां, इन आंदोलनों का व्यापक असर हुआ है। चूंकि मैं पहले ही बता चुका हूं कि हम सांस्कृतिक हिसाब से एक हैं। तो जो भी आंदोलन यहां [भारत में] चलता है, उसका सीधा असर नेपाल में भी पड़ता है। मसलन, नेपाल में भी अनेक संगठन हैं। जैसे– आर्य समाज वाले, कबीर पंथ वाले, रविदास सेवा समिति, लोकसत्य व मूलवासी संगठन। इन संगठनों ने यहां [नेपाल में] जाति-पाति तोड़ने का अभियान चलाए हैं। हालांकि जिस हद तक और जितनी सफलता मिलनी चाहिए थी, उतनी सफलता तो नहीं मिली, लेकिन समाज में काफी गहरा प्रभाव पड़ा है।

क्या नेपाल में ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों के बीच एकता है?

ब्राह्मणवाद के खिलाफ तो समाधान बहुत आसान है, लेकिन हम लोग उस पर अमल नहीं करते हैं। जैसे कि यह गणतंत्रात्मक व्यवस्था है और इस व्यवस्था में सबसे ज्यादा बहुमूल्य वोट होता है। संख्या के हिसाब से वे [सवर्ण जातियों के लोग] 15 फीसदी हैं और हमलोग 85 प्रतिशत हैं, जिन्हें दलित, आदिवासी और ओबीसी कहा जाता है।

वीरबहादुर महतो, अध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय ओबीसी अनुसंधान संस्थान, काठमांडू, नेपाल

तो इसका मतलब यह कि नेपाल में भी भारत के जैसे ही आंकड़े हैं?

हां बिल्कुल, नेपाल में भी समान आंकड़े हैं। वहां पर भी ब्राह्मण वर्ग में दो– खस [मूलवासी] और ब्राह्मण हैं। अगर खस और ब्राह्मण दोनों को एक जगह करें तो कुल आबादी में 75 प्रतिशत दलित, आदिवासी और पिछड़े हैं, बाकी 25 प्रतिशत में खस और ब्राह्मण है। अभी क्या है कि खस इधर यानी हमारे पक्ष में आ रहे हैं तो ब्राह्मण 15 प्रतिशत भी नहीं रह जाएंगे।

खस किन्हें कहते हैं? 

ऐसा है कि खस वहां के मूलवासी हैं। लेकिन ब्राह्मणवादियों ने जाल बिछाकर उन्हें अपने में शामिल कर लिया है। कुटिलता से इतिहास लिखकर उसके जो कुछ पूर्वज लोग थे, उनको समझा-बुझाकर कि तुम मेरे हो, खुद में शामिल किया हुआ है। और यह सब केवल अपनी शासन-सत्ता स्थापित करने के लिए। लेकिन वे लोग बोल रहे हैं कि हम लोग मूलवासी हैं। खस यह कह रहे हैं कि हमारी जड़ें ब्राह्मणवाद में हैं। ऐसा आंदोलन वहां शुरू हुआ है। 

नेपाल में कौन-कौन जातियां हैं? 

ऐसा है कि नेपाल सरकार का एक अध्ययन विभाग है। वहां से इस बार जो रिपोर्ट आई है, उसमें 144 जातियां हैं। उनमें से 60 आदिवासी जनजातियां हैं, जिनको भारत में शेड्यूल्ड ट्राइब कहते हैं। दलित जातियों की संख्या वहां 33 है। ओबीसी को अभी कुछ समावेशित किया है, तो उनकी जातियों की संख्या 44 है। और बाकी वहां अल्पसंख्यक हैं।

नेपाल में और कौन-सी उच्च जातियां हैं? 

ऐसा है कि वहां [नेपाल में] दो तरह की राष्ट्रीयताएं हैं। एक वे हैं जो अपने आपको पहाड़ी कहते हैं, जिसका वास स्थान हिमालय का पहाड़ रहा है। दूसरे वहां मधेसी हैं। मधेसी और तराइयन का मतलब उनलोगों से है जो मैदानी इलाके में निवास करते हैं। इनकी संख्या आधे से अधिक है। जो पहाड़ी भूभाग में वास करते हैं, वे करीब 40 प्रतिशत हैं। उनमें भी दलित, आदिवासी और ओबीसी हैं। इधर जो मधेसी हैं, उनमें भी दलित, आदिवासी व ओबीसी हैं। 

पहाड़ और तराई के इलाके में लोगों के बीच खाई पैदा करने में ब्राह्मणवाद की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं? 

देखिए ब्राह्मणवाद की भूमिका समाज में सब जगह तोड़ने-फोड़ने वाली ही रही है। वे समाज में ढोंग, पाखंड और अंधविश्वास फैलाते हैं। नेपाल में भी इन्होंने ढोंग-पाखंड खड़ा किया है। 

कैसे खड़ा किया? कृपया विस्तार से बताएं। 

जैसे मान लीजिए कि कोई यदि देवी-देवता में श्रद्धा न करे तो उसका भयादोहन करना। बाल विवाह प्रचलन को शुरू कर देना। स्त्री का दमन-शोषण करना। स्त्री को तुच्छ बताना और बार-बार इस किस्म की बातें लोगों के दिमाग में भरते हैं तो लोग उनके शिकार हो जाते हैं। यहां पर [भारत में] भी तो यही करते हैं। सभी जगह इनका काम ही यही है। और गलत-सलत साहित्य लिखना, जिसमें कोई यथार्थ व सत्यता नहीं है।

भारत में जो जंगल के इलाके हैं, जहां आदिवासी वास करते हैं, वहां पर आरएसएस के लोग उनका हिंदूकरण करने की कोशिशें कर रहे हैं। क्या नेपाल में भी ऐसा हो रहा है? 

हां, नेपाल में भी ऐसा ही है। वे जगह-जगह पर मंदिर बनवा रहे हैं। 

लेकिन, नेपाल तो हिंदू राष्ट्र शुरू से था? 

ऐसा है कि नेपाल हिंदू राष्ट्र नहीं है। पहले था, अब नहीं है। अभी तो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। पहले भी राजा का शासन था, तब भी राजतंत्र व्यवस्था में ऐसा नारा था– एक जाति-एक भेष-एक भाषा। राजा के शासनकाल में जो आवाज उठती थी, उसे दबा दिया जाता था। वहां सब दिन से बुद्ध का देश रहा है। वहां बौद्धों की भी संख्या रही है। मुसलमानों की भी संख्या रही है। अपने को हिंदू कहने वालों की भी संख्या रही है। कबीरपंथी लोगों की भी काफी संख्या रही है। रविदास को मानने वाले काफी संख्या में रहे हैं। बाेंन [तिब्बत में बौद्ध धर्म के पहले का धर्म] और प्रकृति पूजक भी रहते हैं। कुछ जनजातियां भी हैं, जो बोंन धर्म को मानते हैं। अभी नेपाल में दस धर्मों को माना गया है। इनमें हिंदू, बौद्ध, बोंन, प्रकृति पूजक, इस्लाम, बहाई, ईसाई आदि शामिल हैं।

आपके संविधान में सनातन को लेकर कोई बात हुई है? 

देखिए, सनातन का मतलब है– प्रकृति और पुराना। इधर आकर इन्होंने कहा कि जो हिंदू धर्म है, वही सनातन धर्म है। जबकि ऐसा है नहीं। सनातन और हिंदू अलग-अलग हैं। सनातन तो सबका है। जब मानव सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत होती है तो सब अपना रास्ता अपने-अपने हिसाब से बनाते हैं। तो यह सबके लिए कॉमन रहा है। लेकिन इन्होंने [ब्राह्मणों ने] अपना टैग लगा दिया है। तो वहां इस बीच काफी बहस भी हुई थी। लेकिन सनातन का मतलब वही है कि जो सबसे पुराना है, जिसे हम प्रकृति कहते हैं।

मतलब यह कि सनातन को उस अर्थ में रखा गया है? लेकिन उद्देश्य क्या है? 

हां, सनातन को प्रकृति और पुराने के अर्थ में ही रखा गया है। विश्लेषण करने वाले लोग सब अपने-अपने तरीके से कर लेते हैं। इन लोगों की व्याख्या होती है कि जो हमारा धर्म सनातन धर्म है और सनातन ही हिंदू है। लेकिन वास्तविक तो है नहीं। सनातन तो सबका धर्म है। चूंकि जब मानव सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ तब पहले से कोई धर्म नहीं था। जाति-व्यवस्था भी नहीं थी। वह तो गण-व्यवस्था से आई है। और गण-व्यवस्था में ऐसा कुछ नहीं देखा गया है। इसलिए सनातन धर्म की गलत व्याख्या की गई है। 

नेपाल में जातिवार जनगणना, जो कि वहां की जनगणना का हिस्सा है, यह कैसे मुमकिन हुआ? इसके हिसाब से जो शासन प्रशासन में समानुपातिक भागीदारी है, वह सुनिश्चित हो पाई है? 

जो गणतंत्रात्मक संविधान की घोषणा हुई है, उसने बहुत सारी बातों को संबोधित किया है। तो जाति जनगणना को वहां लोग सरकारी तथ्यांक को मिथ्यांक बताते हैं। मिथ्यांक का मतलब है कि सही डाटा नहीं है। चूंकि प्रश्न भी उसी हिसाब से होता है, और जो डाटा लेने जाते हैं उन लोगों की भी थोड़ी कमी होती है। और राज्य सत्ता, के द्वारा भी कुछ गाइडलाइन मिलता है। तो इसलिए तथ्यांक सही है, कहना मुश्किल है। यद्यपि मानना तो पड़ेगा चूंकि सरकार का डाटा है तो कहा जा सकता है कि कुछ अच्छा प्रयास हुआ है।

क्या ओबीसी की गणना भी हुई थी? ऐसा सरकार ने क्यों किया? क्या सरकार से ऐसी मांग की गई थी? 

हां, नेपाल में ओबीसी की भी गणना हुई थी। सभी जातिगत संगठनों ने सरकार से जातिवार जनगणना को लेकर मांग किया था कि हमारे नेपाल में कौन-कौन सी जाति कितनी संख्या में हैं। इन संगठनों में ओबीसी महासंघ, दलित संगठन और जनजातीय संगठन शामिल रहे। 

यह कब शुरू हुआ? 

ऐसा है कि नेपाल में प्रत्येक दस वर्ष पर जनगणना होती है। इस बार की जनगणना को लेकर अनेक प्रश्न पूछे गए थे। सरकार ने उन्हें आसानी से स्वीकार कर लिया। कोई बहुत बड़ा आंदोलन का दबाव नहीं बनाना पड़ा। सरकार द्वारा आसानी से इसे स्वीकार कर लिया गया कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए। 

क्या इसी बार ऐसा हुआ? 

हां, इस बार ऐसा हुआ। इससे पहले भी जातिवार जनगणना हमारे यहां होती थी, लेकिन इस बार बहुत सारे प्रश्नों पर स्पष्ट रूप से ध्यान दिया गया। 

इसके कारण वहां शासन-प्रशासन में वंचित वर्गों की हिस्सेदारी बढ़ी है? 

ऐसा है कि कुछ हद तक तो बढ़ी है, लेकिन उसमें भी थोड़ा घालमेल होता है। होता यह है कि अनेक जातियों के लोग नाम में एक समान थर [सरनेम] लिखते हैं। कई ऐसे हैं जो अलग-अलग थर लिखते हैं। जैसे कि मैं कुशवाहा जाति का हूं तो मेरी जाति के लोग वहां टाइटिल में महतो भी लिखते हैं और मेहता भी। जबकि वे कुशवाहा हैं। ऐसे ही वहां एक थारू जाति है, जो महतो लिखता है। वहां नोनिया है, वह भी महतो लिखता है। तो आपको पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि यह कौन महतो है। ऐसे ही वहां ब्राह्मण भी ठाकुर लिखता है, हजाम और लोहार और सुनार भी ठाकुर लिखता है। तो कौन ठाकुर है, कहना मुश्किल हो जाता है। लेकिन अगर जनगणना में जाति दर्ज करा देता है कि वह ठाकुर, लोहार, सुनार तो स्थितियां सहज हो जाती हैं। एक हद तक यह भी देखा जाता है कि ऊंची जाति वाले भी समान थर का उपयोग करते हैं। थर का मतलब जैसे मेरा नाम वीरबहादुर महतो है तो मेरा असल नाम वीरबहादुर हुआ और मेरा थर महतो हुआ। मान लीजिए समान सरनेम वाले व्यक्ति को इसमें जोड़ लिया जाता है तो थोड़ा अंकगणितीय खेल होता है और तथ्यांक गलत हो जाता है। लेकिन इस बार बहुत हद तक निष्पक्ष हुआ है। जैसे हमारे यहां विक्रम संवत् 2068 [2011 ईसवी] में जनगणना हुई तब कुल 124 जातियां थीं। जातिवार जनगणना दूसरी बार हो रही है। अब अनेक जातियां बढ़ी हैं, जो अपनी पहचान को लेकर आगे बढ़ी थीं। यद्यपि अभी भी कुछ जातियां छूटी हुई हैं, लेकिन संख्या इस बार बढ़ी जरूर है। 

क्या नए संविधान से जातिवार जनगणना हुई?

नहीं, नया संविधान आने से पहले जातिवार जनगणना हुई थी, लेकिन इस बार थोड़ा स्पष्ट रूप से हुआ। कुछ और प्रश्नों को शामिल किया गया। 

कृपया नेपाल में ओबीसी आंदोलन का पूरा इतिहास बताएं। 

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं हमारे नेपाल में पहले राजतंत्रात्मक व्यवस्था थी। राजा का शासन था। … उस शासनकाल में एक जाति, एक भाषा और एक पोशाक का कॉन्सेप्ट था। वहां विक्रम संवत् 2047 (1990 ईसवी) काल में प्रजातंत्र आया। प्रजातंत्र आने के बाद जितनी जातियों के लोग, जितने भाषा-भाषी लोग रहे या धर्म-संस्कृति वाले लोग रहे, सभी ने अपनी-अपनी पहचान के लिए आवाज उठाना शुरू किया। उसी क्रम में बहुत सारे जातिगत संगठनों का गठन हुआ। जैसे– नेपाल कुशवाहा कल्याण समाज, कुशवाहा महासंघ, यादव समाज। जब भारत में संविधान बना था तब जैसे यहां के लोग संगठित होने लगे थे, और जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं हम लोग सांस्कृतिक रूप से एक हैं तो इसका प्रभाव हमारे नेपाल में भी पड़ा था। वहां पर भी विभिन्न जातियों के लोग गोलबंद होना शुरू हुए थे। भरत प्रसाद महतो जी के नेतृत्व में करीब आज से 25 वर्ष पहले संवत् 2055 (1998 ईसवी) में एक ‘पिछड़ा वर्ग उत्थान संघ’ नाम का संगठन बना। जब इस संगठन की स्थापना हुई तब ओबीसी के हक-अधिकार को लेकर संघर्ष शुरू हुआ। तो सबसे पहले वहां पर एक सुवेदी समिति बना। उस समय वहां का स्थानीय विकास मंत्रालय कहलाता था, जो जातिगत मुद्दों को देखता था। स्थानीय विकास मंत्रालय में सोमलाल सुवेदी उपसचिव थे। उन्होंने एक रिपोर्ट बनाई और सरकार को अनुशंसा कि कि दलित, आदिवासी और पिछड़ों के हक, हित संरक्षण और पहचान के लिए उसे आगे कदम बढ़ाना चाहिए। उस रिपोर्ट के बनने के बाद नेपाल में माओवादी संगठन का जन युद्ध शुरू हो चुका था। जन युद्ध विक्रम संवत 2052 (1996 ईसवी) से ही शुरू हो चुका था। जन युद्ध पहचान की मांग कर रहा था। इस हिसाब से थोड़ा और आंदोलन तेज हुआ। ओबीसी उत्थान संघ विक्रम संवत 2061 (2005-06 ईसवी) में नेपाल पिछड़ा वर्ग ओबीसी महासंघ के रूप में तब्दील हुआ। सुवेदी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक वहां के एक मधेसी पिछड़ा वर्ग व मुस्लिम उत्थान हेतु कार्य शुरू हुआ। वहां पहले जिला विकास समिति और गांव विकास समिति हुआ करती थी। उसमें कुछ प्रतिशत इसका बजट जाता था। तो इस वर्ग के लोगों के लिए सिलाई-कढ़ाई, कुछ शिक्षण-प्रशिक्षण का हो, कुछ सेमिनार का हो, ऐसा कार्यक्रम होता था। जब माओवादी द्वंद्व समाप्त हुआ और शांति प्रक्रिया शुरू हुई तो नेपाल में एक शांति मंत्रालय का निर्माण हुआ। शांति मंत्रालय विभिन्न आंदोलनरत समूहों से वार्ता करते हैं। उसी क्रम में शांति मंत्रालय से पिछड़ा वर्ग महासंघ की वार्ता हुई। इसके बाद समझौता हुआ। समझौता यह हुआ था कि जो पिछड़ा वर्ग समुदाय है, उसके मुद्दों को लेकर एक समिति बनाई जाय। जो समिति गठित हुई, उसे नेपाली में ‘पिछड़ीय को समुदाय ओबीसी उत्थान विकास समिति’ कहते हैं। राजपत्र में गठन आदेश प्रकाशित हुआ। गठन आदेश प्रकाशित होने के बाद पिछड़ा वर्ग महासंघ ने कई चरणों में आंदोलन किया। पहले तो गठन आदेश प्रकाशित करने के लिए आंदोलन हुआ, जब गठन आदेश प्रकाशित हुआ तो इसके बाद समिति बनाने की बात हुई। फिर समिति बनी। इस समिति की संरचना ऐसी थी जिसमें तत्कालीन स्थानीय विकास मंत्री अध्यक्ष होते थे और उपाध्य़क्ष होता था राज्यमंत्री। सलाहकार प्रमुख कार्यकारी होता था। समिति ने गठन के उपरांत अपना काम शुरू किया। इसकी भी लंबी-चौड़ी कहानी है।

क्या उसने कोई गाइडलाइन तय किया जैसे कि सरकारी नौकरियों में या उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान हो?

मैं इसी मुद्दे पर आ रहा हूं। सुवेदी समिति बनने के बाद वहां पर बहुत सारे उपसमिति बनाए गए। हमलोगों ने भी ग्यारह उपसमितियों का गठन किया। इनमें से एक पिछड़ा वर्ग के सांस्कृतिक अध्ययन हेतु गठित उपसमिति का मैं संयोजक था। सभी उपसमितियों ने रिपोर्ट बनाकर सरकार को पेश किया। लेकिन दुखद यह कि सरकार चली गई और वह रिपोर्ट कार्यान्वित नहीं हो सकी। फिर समिति में फेरबदल होने लगा। तब तक वहां नया संविधान बना। नया संविधान विक्रम संवत 2072 (2015 ईसवी) में बना। जब नया संविधान बना तो उसमें ऐसा हुआ कि ओबीसी को जैसे भारत में मान्यता प्राप्त है और पोलिटिकल रिजर्वेशन के अलावा सब जगह रिजर्वेशन है, ऐसा सुनिश्चित किया गया है। दिक्कत यह है कि अभी जो नियमावली होनी चाहिए, वह नहीं बनी है। हमलोगों ने वहां पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करने की मांग की थी, लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग नहीं बना। मगर वहां समावेशी आयोग है। यही समावेशी आयोग बहुत सारे क्लस्टर को देखता है। पिछड़ा वर्ग को भी देखता है और हाल ही में चार-पांच महीने पहले समावेशी आयोग ने पिछड़ा वर्ग के जाति और सरनेम सरकार को सूचीकरण के लिए सरकार से सिफारिश की है। 44 जातियों को पिछड़ा वर्ग में स्थान दिया गया है। उस क्रम में रिसर्चर के रूप में मैंने काम किया था। 

अभी आपने पोलिटिकल रिजर्वेशन की बात की। इसका मतलब क्या है?

नहीं, मैंने पोलिटिकल रिजर्वेशन की बात नहीं की। वहां पोलिटिकल रिजर्वेशन तो बाद का रिजर्वेशन है। अभी तो नौकरियेां में आरक्षण मिलने का ही सवाल है। वहां नियमावली का निर्माण नहीं हुआ है। जब नियमावली बन जाएगी तभी यह स्पष्ट होगा। जातिगत जनगणना हुई है, तो इसके बाद यह तय किया जाएगा कि किसे कितनी हिस्सेदारी दी जाएगी।

आप लोगों ने कोई प्रतिशत के रूप में आरक्षण देने की मांग नहीं की है, जैसा कि भारत में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण है?

हम लोगों के यहां सीधा एजेंडा है– जितनी जिसकी जनसंख्या हो, उतना आरक्षण दे दिया जाए। अब देखते हैं कि नियमावली में क्या होता है। सरकार इस बात पर कितना ध्यान देती है, लेकिन हमारी मांग तो यही है कि जिसकी जितनी जनसंख्या हो, उतना उसको आरक्षण मिलना चाहिए। 

(संपादन : समीक्षा/राजन)

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लेखक के बारे में

एफपी डेस्‍क

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