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अपने आदिवासी पड़ोसियों की उपेक्षा करता एक विश्वविद्यालय

पश्चिम बंगाल के विद्यासागर विश्वविद्यालय में मानवविज्ञान के पूर्व प्राध्यापक याद कर रहे हैं कि कैसे विश्वविद्यालय ने उस समुदाय के लिए कुछ भी नहीं किया, जिसकी ज़मीन पर उसके भवन सीना ताने खड़े हैं और जो उसके कारण अपने पारंपरिक अधिकारों से वंचित हो गया

पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले में विद्यासागर विश्वविद्यालय के परिसर से सटे गांव के एक मुंडा रहवासी से अपनी बात शुरू करता हूं। सन् 1987 में जब मेरी उससे पहली बार मुलाकात हुई थी, तब वह करीब 60 साल का रहा होगा – दुबला-पतला, काला-सा आदमी, जिसमें तब भी इतनी ताकत थी कि वह शहर में सवारियों को साइकिल रिक्शे से ढोता था। उसने मुझे बताया कि जब वह बच्चा था, तब विद्यासागर विश्वविद्यालय का कैंपस उसके गांव का साझा स्वामित्व वाला हिस्सा हुआ करता था। “तुम्हारे विश्वविद्यालय के मैदान में हमारे मवेशी चरते थे, हमारी महिलाएं यहां से जलावन की लकड़ी इकठ्ठा करती थीं और हमारे बच्चे यहां खेलते थे। हम सब एकजुट होकर अपने तीर-कमान की मदद से अपने गांव की चोरों से रक्षा कर लेते थे। लेकिन अब तुम्हारे गार्ड हमें परेशान करते हैं।” 

रघुनाथ हमारे गरीब और अनपढ़ मुंडा पड़ोसियों में से एक था। मुंडा पुरुषों में शराबखोरी आम थी। महिलाएं, विशेषकर जो थोड़ी ज्यादा आयु की थीं, भी गांव में चावल से बनाई जाने वाली शराब पीती थीं। जब भी हम अध्ययन के सिलसिले में गांव में जाते, वे लोग सिंचाई सुविधाओं के अभाव और मवेशी चराने व जलावन इकठ्ठा करने में होने वाली परेशानियों का ज़िक्र ज़रूर किया करते थे। 

जब एक आदिवासी ने कर दिया बे-जवाब

अपनी निर्धनता, निरक्षरता और संघर्षपूर्ण जीवन के बावज़ूद गांव के मुंडा शांत प्रवृत्ति के थे। वे मीठा बोलते और अक्सर बातचीत में मुझे बे-जवाब कर देते थे। एक बार मैंने मुंडा पुरुषों और महिलाओं के एक समूह से पूछा कि सूर्य-ग्रहण क्यों लगता है? उन्होंने बताया कि बहुत पहले एक मुंडा ने हिंदू धर्म की एक निम्न जाति की दाई का मेहनताना नहीं चुकाया था, इसलिए सूर्य-ग्रहण लगता है। सन् 1995 के 24 अक्टूबर को सूर्य-ग्रहण था। मैंने मुरदंगा की एक बूढ़ी महिला से पूछा, “क्या दाई के पैसे अब भी बकाया हैं?” उसका जवाब था, “बिलकुल! आखिर कोई दूसरा उस आदमी की उधारी कैसे चुका सकता है? उसके पुराने पाप के कारण बार-बार सूर्य-ग्रहण होता है।” जैसा कि एक मानवविज्ञानी को करना चाहिए, मैंने प्रश्न पूछना जारी रखा। “पर ग्रहण ख़त्म क्यों हो जाता है और सूरज फिर से चमकने क्यों लगता है?” कुछ देरी के बाद जवाब आया, वह भी प्रश्न के रूप में।  “अगर ग्रहण ख़त्म नहीं होगा, तो वह फिर से लगेगा कैसे?” पैसे-पैसे को मोहताज और अनपढ़ मुंडाओं ने मुझे बे-जवाब कर दिया!

विद्यासागर विश्वविद्यालय की दुविधा 

विद्यासागर विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1981 में पश्चिम बंगाल विधानसभा के एक अधिनियम के ज़रिए हुई थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उसे इस शर्त पर मान्यता दी थी कि वह ऐसे पाठ्यक्रम विकसित करेगा, जो ग्रामीण विकास से जुड़े हों। तदनुसार, 1985-86 शैक्षणिक सत्र से “अर्थशास्त्र एवं ग्रामीण विकास”, “राजनीतिशास्त्र एवं ग्रामीण प्रशासन”, “मानवविज्ञान एवं आदिवासी संस्कृति” और “वाणिज्य एवं खेत प्रबंधन” जैसे पाठ्यक्रम शुरू किये गए। 

विद्यासागर विश्वविद्यालय अधिनियम, 1985 के खंड 4(2), जिसका शीर्षक ‘विश्वविद्यालय और उसके अधिकार’ है, कहता है कि “संस्था को यह अधिकार होगा कि वह ऐसे विषयों यथा आदिवासियों की भाषाओं, उनके प्राकृतिक वासस्थलों और रीति-रिवाजों, ग्रामीण प्रशासन, वानिकी, क्षेत्रीय संसाधन नियोजन, परिस्थितिकी व पर्यावरण अध्ययन पर विशेषीकृत डिप्लोमा, स्नातक या स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम बना सके।” अधिनियम का खंड 4(5) विश्वविद्यालय की प्राथमिकताओं को और साफ़ कर देता है। वह कहता है, “विश्वविद्यालय को ऐसे अकादमिक अध्ययन करने का अधिकार होगा, जो सामान्यजनों और विशेषकर आदिवासियों की आर्थिक स्थिति में बेहतरी और उनके कल्याण में योगदान दे सके।”    

पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के निर्धनों और आदिवासियों की हिमायत करते इस बिल के पारित होते ही विद्यासागर विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ गया। उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध समाजसुधारक पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर के नाम पर स्थापित इस गैर-पारंपरिक विश्वविद्यालय से शुरुआत में कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले ऐसे 30 स्नातक महाविद्यालयों को संबद्ध किया गया, जो तत्कालीन मेदिनीपुर जिले में थे।

विद्यासागर विश्वविद्यालय का परिसर जिस 150 एकड़ गैर-कृषि भूमि पर बना था, आसपास के गांवों के निवासी तब भी उसे अपना साझा संसाधन समझते रहे, जिस पर उनका पीढ़ियों से रहने-सहने का अधिकार था। आसपास के गांव – मुरदंगा, तांतीगेरिया और फूलपहारी – में अत्यंत गरीब मुंडा, उरांव और अन्य अनुसूचित जनजातियों के लोग रहते थे।

विद्यासागर विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन : विश्वविद्यालय के कैंपस से जलावन इकठ्ठा करता एक दंपत्ति

कैंपस के उत्तरपूर्व दिशा में रोगमुक्त हो चुके कोढ़ के मरीजों की बस्ती थी। वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों के थे। वे समाज के हाशिए पर जी रहे थे और शायद उस इलाके के सबसे कमज़ोर वर्ग थे। ध्यान से देखने पर हमें समझ में आया कि विद्यासागर विश्वविद्यालय के आसपास बसे समुदाय आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से एकरूप नहीं थे, लेकिन इनमें तीन समानताएं थीं, जो इस लेख के लिए अहम हैं।

पहली यह कि विद्यासागर विश्वविद्यालय के निर्माण के पूर्व इन सभी समुदायों को उस ज़मीन पर बिना किसी रोकटोक के अपने मवेशी चराने, जलावन के लिए लकड़ी और अन्य गैर-सागौन वनोपज इकठ्ठा करने और आने-जाने का अधिकार था। 

विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद यह सब बदल गया और जब भी इन समुदायों के लोग अपने रहने-सहने के अधिकारों का उपयोग करने का प्रयास करते, तब उन्हें विश्वविद्यालय के निषेध का सामना करना पड़ता था।

ये सभी समुदाय अपने आपको विश्वविद्यालय से अलग करके देखते थे। वे अपने को विश्वविद्यालय के समुदाय का हिस्सा नहीं मानते थे। हालांकि उनकी शब्दावली में दोनों विरोधी पक्षों – विश्वविद्यालय समुदाय और स्थानीय समुदाय – के लिए शब्द विकसित नहीं हुए थे।   

वे और हम 

रघुनाथ के अनुसार, गोप के राजाओं ने यह ज़मीन उसके समुदाय को दी थी। वह अक्सर शिकायत करता था कि उसकी गांव के निवासियों की सामूहिक ताकत में तेजी से गिरावट आ रही है। बाद में मुझे पता चला कि रघुनाथ के लड़के ठीक से उसकी देखभाल नहीं करते थे। हमारी पहली बातचीत के चार या पांच साल बाद वह अचानक एकदम बूढ़ा दिखने लगा। वह अब रिक्शा नहीं चला पाता था। उसने मेदिनीपुर के सड़कों पर भीख मांगना शुरू कर दिया। हर इतवार की सुबह, वह एक लकड़ी की मदद से लंगड़ा कर चलते हुए विश्वविद्यालय कैंपस के मकानों में जाता और वहां से चंद सिक्के इकठ्ठा कर शहर की तरफ निकल जाता।  

एक दिन मुझे ख्याल आया कि रघुनाथ बहुत दिनों से दिखा नहीं। मैंने मुरदंगा के एक लड़के से पूछा तो उसने बताया कि रघुनाथ की कुछ दिन पहले मौत हो गई है। 

रघुनाथ की मौत के कुछ साल बाद विश्वविद्यालय ने कैंपस की ‘अतिक्रमणकारियों’ से रक्षा करने के लिए कलकत्ता की एक सिक्यूरिटी एजेंसी की सेवाएं ली। विश्वविद्यालय ने कैंपस के पश्चिमी हिस्से, जहां मकान थे, में अकाशमोनी, युकलिप्टिस, शिरीष और फलदार पेड़ों के पौधे रोपे। सिक्यूरिटी एजेंसी का सालाना बिल 4,80,000 रुपए का था। करीब तीन दशक पहले तो छोड़िए, आज भी किसी विश्वविद्यालय के लिए यह मामूली रकम नहीं है। सिक्यूरिटी गार्ड्स का मुख्य काम था पड़ोसी गांव मुरदंगा और सालटोला के मवेशियों को कैंपस में चरने से रोकना। गांव वालों ने साझा स्वामित्व की अपनी पारंपरिक भूमि में अपने जानवरों का चराना जारी रखने के लिए कई तरीके अपनाए। दिन में वे और उनके मवेशी गार्ड्स के साथ लुकाछिपी का खेल खेलते थे। एक दूसरा तरीका यह था कि वे अपने मवेशी रात में कैंपस में घुसा देते थे। अंधेरे में गार्ड्स के लिए जानवरों को देखना और उन्हें खदेड़ना बहुत मुश्किल काम था। विश्वविद्यालय ने जो पौधे लगाए थे वे बचे नहीं। कुछ को मवेशी खा गए, कुछ को गांव वाले ले गए और जो बचे, वे देखभाल के अभाव में सूख गए। विश्वविद्यालय ने पौधे रोपने और उनकी सुरक्षा के काम में आदिवासी ग्रामवासियों को शामिल नहीं किया। यह इसके बाद भी कि विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग ने इस बारे में एक प्रस्ताव प्रशासन के समक्ष प्रस्तुत किया था। 

सालटोला की कथा 

कोढ़ के मरीजों की बस्ती सालटोला विश्वविद्यालय के कैंपस की पूर्वी चारदीवारी के किनारे थी। अगर कोई रात में तांतीगेरिया सड़क से विश्वविद्यालय की ओर आता तो उसे यह पता भी नहीं चलता कि वहां ऐसे लोग लोग रहते हैं, जिन्होंने आसपास बड़ी संख्या में देसी प्रजातियों के पेड़ लगाए थे। उनकी बस्ती में न तो बिजली थी और ना ही नगरपालिका वहां जलापूर्ति करती थी। बस्ती में शौचालय भी नहीं थे। लेकिन वे मतदाता थे और जिला प्रशासन और जन-सामान्य को पता था कि वहां ‘कुष्ठापल्ली’ अर्थात कुष्ठ रोगियों की बस्ती है। वे लोग भी विश्वविद्यालय के कैंपस में अपने मवेशी चराते थे और जलावन इकठ्ठा करते थे। बतौर मानवविज्ञानी इस बस्ती के रहवासियों से बातचीत में मुझे पता चला कि वे अपनी बस्ती को ‘ठूटापारा’ अर्थात ‘शारीरिक रूप से विकलांग लोगों की बस्ती’ कहते थे। आम बोलचाल की बांग्ला में ‘ठूटा’ का अर्थ होता है, ऐसा व्यक्ति जिसके हाथ-पैर, विशेषकर हाथ, काम नहीं करते। ‘ठूटा’ शब्द कुष्ठ रोग से ग्रस्त व्यक्ति के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है। इस अर्थ में यह एक अपमानकारी शब्द है। बस्ती के निवासी आपसी चर्चा में तो इस शब्द का इस्तेमाल करते थे, लेकिन किसी बाहरी व्यक्ति के सामने इसके उपयोग से बचते थे। दूसरी ओर ‘सालटोला’ से आशय होता है, एक ऐसा टोला (बस्ती) जहां साल के वृक्ष हों।  

एक दिन शाम को जब मैं इस बस्ती के लोगों से उन्हें पट्टा (भूमिहीन और गरीब परिवारों को राज्य सरकार द्वारा दिया जाना वाला भू-अधिकार प्रमाणपत्र) हासिल करने में होने वाली परेशानियों पर चर्चा कर रहा था, तब एक उत्साही किसान, नागेन अरी, जो कि साबर जनजाति से था, ने एक घटना सुनायी। “जब मैं गोकुलपुर से यहां रहने आया तब यहां साल का एक बहुत बड़ा पेड़ था। हम लोग उसकी छाया में बैठते थे और हमारे बच्चे उसके नीचे खेलते थे। यह करीब 20 साल पहले की बात है। फिर एक दिन तांतीगेरिया पंचायत कार्यालय से कुछ लोग आए और कहा कि वे इस पेड़ को काटेंगे क्योंकि उन्हें अपने ऑफिस के लिए फर्नीचर बनाने के लिए लकड़ी की ज़रूरत है। हमलोगों ने इसका विरोध किया। हमने कहा कि उन्हें पेड़ से ज्यादा लकड़ी नहीं मिलेगी, क्योंकि पेड़ में दीमक लगी हुई है। पर उन्होंने हमारी एक न सुनी और पेड़ को काट दिया। फिर उन्हें पता चला कि हम ठीक कह रहे थे। उन्हें बहुत कम लकड़ी मिली।” इसके बाद नागेन ने मुस्कुराते हुए कहा, “पेड़ तो चला गया पर हम अब भी इस जगह को सालटोला कहते हैं।”  

तीन साल पहले जिला प्रशासन ने सालटोला के रहवासियों को वहां से करीब एक किलोमीटर दूर तांतीगेरिया में एक जगह बसा दिया। प्रशासन की रूचि उन्हें विश्वविद्यालय से दूर करने में ज्यादा थी, उन्हें जमीन के पट्टे देने में कम। विश्वविद्यालय समुदाय का भी कोढ़ से मुक्त हो चुके इन लोगों के प्रति कोई ख़ास अच्छा रवैया नहीं था। हमने सन् 1997 में कुष्ठ रोगियों के लिए अस्पताल चलाने वाले एक एनजीओ के साथ मिलकर सालटोला और उसके पास की एक दूसरी बस्ती में सामाजिक-जनसांख्यकीय अध्ययन किया था। इससे पता चला था कि बस्ती के 74 परिवारों में कुल 100 व्यक्ति (47 पुरुष और 53 महिलाएं) ऐसे थे, जिनके शरीर कुष्ठ रोग के कारण विकृत हो गए थे। बीस साल से कम उम्र का एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिसका शरीर विकृत हो या जो कुष्ठ रोगी हो। जिला प्रशासन ने सालटोला से 12 परिवारों को नई कॉलोनी में बसा दिया। ये परिवार सालटोला की ग्रामीण जिंदगी को खो कर प्रसन्न नहीं थे। सन् 2004 में प्रशासन ने उन लोगों को पट्टे दे दिए, जिनका पुनर्वसन नहीं हो सका था।   

स्वतंत्रता दिवस समारोह

सन् 1997 में विश्वविद्यालय समुदाय ने देश की स्वाधीनता की पचासवीं वर्षगांठ के मौके पर एक जुलूस निकालना तय किया। यह भी तय हुआ कि उस मौके पर आसपास के गरीब लोगों में मिठाई और फल बांटे जाएंगे। यह दिलचस्प है कि न तो मुरदंगा और ना सालटोला को इसके लिए चुना गया। कुछ लोगों ने सालटोला का नाम लिया, पर यह प्रस्ताव इसलिए मंज़ूर नहीं हुआ, क्योंकि विश्वविद्यालय समुदाय के कई सदस्य ऐसे मौके पर ‘कोढ़ियों’ की बस्ती में जाना नहीं चाहेंगे। 15 अगस्त, 1997 को तत्कालीन कुलपति अमिय कुमार देब के नेतृत्व में जुलूस निकला। मैं भी उसमें शामिल था। जुलूस सालटोला के बगल से होते हुए मेदिनीपुर पहुंचा। वहां के प्रमुख रास्तों से होते हुए हम जिला अस्पताल पहुंचे, जहां मरीज़ों के बीच फल और मिठाईयां बांटी गईं। 

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन :राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अभिजीत गुहा

प्रो. अभिजीत गुहा विद्यासागर विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल के नृवंश शास्त्र संकाय के प्राध्यापक रहे हैं। उन्होंने शांतनु पांडा के साथ मिलकर “‘क्रिमिनल ट्राइब’ टू ‘प्रिमिटव ट्राइबल ग्रुप’ एंड द रोल ऑफ वेलफेयर स्टेट : दी केस ऑफ लोढाज इन वेस्ट बेंगाल, इंडिया” (2015) सहलेखन किया है।

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