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दिल्ली विश्वविद्यालय : अब ‘ब्राह्मणाइजेशन’ से परहेज

दलित चिंतन से जुड़े श्रीराम मौर्य कहते हैं कि “यह सब सोची-समझी रणनीति है, क्योंकि संघ नहीं चाहता कि अतीत में कमज़ोर लोगों के साथ किए गए शोषण या ऐतिहासिक दमन का कहीं कोई ज़िक्र आए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह सब पढ़ेंगे तो दलित और पिछड़े नौजवान हिंदुत्व के एजेंडे से दूर रहेंगे।” पढ़ें, सैयद जै़गम मुर्तजा की खबर

दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में किए गए हालिया बदलावों को लेकर उठे विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। ताज़ा मामला ‘ब्राह्मणाइजेशन’ (ब्राह्मणीकरण) के संदर्भ पाठ्यक्रम से हटाने और ‘असमानता आधारित पाठ को वापस लिए जाने से जुड़ा है। हालांकि विश्वविद्यालय का कहना है कि पाठ्यक्रम में तमाम बदलाव नई शिक्षा नीति यानी एनईपी 2020 के मद्देनज़र किए जा रहे हैं।

जाहिर तौर पर अब यह सवाल नही है कि क्या दिल्ली विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम के भगवाकरण की नीति पर अब खुलकर चलने लगा है। वजह यह कि इस नीति के तहत क्या चुन-चुनकर उन संदर्भों को हटाया जा रहा है, जो बहुजन समाज के ऐतिहासिक उत्पीड़न का ज़िक्र करते हैं? ऐसा कर विश्वविद्यालय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के ‘उस विचार’ को आगे बढ़ा रहा है, जिसमें कहा जाता है कि देश में मुग़ल और अन्य विदेशी मूल के शासकों के अलावा किसी अन्य शासक ने कभी किसी वर्ग, जाति, या समूह का शोषण नहीं किया हैहालांकि ये मामले नए नहीं हैं, लेकिन डीयू में शैक्षणिक मामलों से जुड़ी सर्वोच्च संस्था अकादमिक परिषद (एकेडमिक काउंसिल) ने बीते दिनों पाठ्यक्रम में जिस तरह के बदलावों को मंज़ूरी दी है, उसके बाद तमाम प्रश्न फिर से उठने लगे हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

दरअसल हुआ यह कि बीते 26 मई, 2023 को डीयू की अकादमिक परिषद की बैठक हुई। इस बैठक में पाठ्यक्रम में बदलाव को लेकर जिस तरह ताबड़तोड़ फैसले लिए गए, उसके बाद विवाद उठना लाज़िम था। अकादमिक परिषद ने एनईपी के तहत शुरू होने वाले चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम के तहत इतिहास और राजनीति शास्त्र समेत तमाम विषयों के पाठ्यक्रमों में बदलाव किए। परिषद ने फैसला किया कि ‘सारे जहां से अच्छा’ लिखने वाले सर मुहम्मद इक़बाल की जगह विनायक दामोदर सावरकर के योगदान और दर्शन को पढ़ाया जाएगा। फिर तो 9 जून, 2023 को डीयू की कार्यकारी परिषद (एग्जीक्यूटिव काउंसिल) ने इन बदलावों को अपनी मंज़ूरी दे दी।

इस फैसले को मंज़ूरी मिलने के साथ ही विवाद शुरू हो गए। एकेडमिक काउंसिल के सदस्य आलोक रंजन के मुताबिक़ “शिक्षकों के एक वर्ग ने इस बात पर ऐतराज़ जताया कि सावरकर को पाठ्यक्रम में महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव आंबेडकर से पहले कैसे पढ़ाया जा सकता है?” उनकी नाराज़गी इस बात से है कि गांधी और अंबेडकर चौथे साल में पढ़ाए जाएंगे। यानी अगर कोई छात्र तीसरे साल में राजनीति विज्ञान आनर्स के कोर्स से बाहर होने का फैसला लेता है तो उसका आंबेडकर या गांधी से सामना होगा ही नहीं। हालांकि आलोक रंजन का कहना है कि ये शिक्षक सावरकर को पाठ्यक्रम में शामिल करने के ख़िलाफ नहीं हैं।

ख़ैर, इस फैसले का विरोध हुआ तो दक्षिणपंथी झुकाव वाले इतिहासकार, साहित्यकार, पत्रकार, पूर्व जज, पूर्व राजनयिक और नौकरशाह भी खुलकर इस फैसले समर्थन में आगे आ गए। पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एस.एन. ढींगरा, जस्टिस एम.सी. गर्ग और जस्टिस आर.एस. राठौड़ आदि ने दिल्ली विश्वविद्यालय के इस फैसले को सराहा। इन लोगों ने दावा किया कि सावरकर दलित अधिकारों के समर्थक थे। यहां तक दावा किया गया कि सावरकर ने जाति उन्मूलन और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए दृढ़ता से काम किया। ज़ाहिर है, ज़िक्र सावरकर का किया गया लेकिन आधार दलितों के सिर पर रखा गया और कहा गया कि सावरकर को पाठ्यक्रम में इसलिए जोड़ा गया, क्योंकि वह दलित हितों के पैरोकार थे।

लेकिन सावरकर के दलित प्रेम के दावों के बीच दो और मज़ेदार बदलाव पाठ्यक्रम में कर दिए गए। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक रपट के मुताबिक़ दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र अब असमानता जैसे टॉपिक नहीं पढ़ पाएंगे। डीयू की अकादमिक परिषद ने पाठ्यक्रम से ‘ब्राह्मणाइजेशन’ (ब्राहमीकरण) का संदर्भ भी हटा दिया है। इसकी जगह छात्र अब ‘शैव’, ‘शाक्त’ और ‘वैष्णव’ शब्द पढ़ेंगे। चौथे सेमेस्टर के छात्रों को पढ़ाए जाने वाले ‘इनइक्वलिटी एंड डिफरेंस’ (असमानता और अंतर) नामक पाठ भी अब पाठ्यक्रम में नहीं रहेंगे।

विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का कहना है कि ये शब्द यानी ‘ब्राह्मणीकरण’ और ‘ब्राह्मणवादी’ कुछ ऐसे नहीं हैं, जिनका इस्तेमाल किसी ऐतिहासिक शोध में हो सके। नाम न छापने की शर्त पर विभाग की एक शिक्षिका ने कहा– “अकादमिक परिषद के कुछ सदस्यों का मानना है कि स्नातक के छात्रों को इतिहास में ऐसा कुछ नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, जो आगे किसी काम का न हो, या भ्रमित करने वाला हो।” लेकिन दलित चिंतन से जुड़े श्रीराम मौर्य का कहना है कि बात इतनी सीधी नहीं है, जितनी बताई जा रही हैं। मौर्य कहते हैं कि “यह सब सोची-समझी रणनीति है, क्योंकि संघ नहीं चाहता कि अतीत में कमज़ोर लोगों के साथ किए गए शोषण या ऐतिहासिक दमन का कहीं कोई ज़िक्र आए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह सब पढ़ेंगे तो दलित और पिछड़े नौजवान हिंदुत्व के एजेंडे से दूर रहेंगे।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस के निदेशक और अकादमिक मामलों की स्थाई समिति के सदस्य प्रकाश सिंह का कहना है, “पाठ्यक्रम में बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है। ये बदलाव हर तीन साल में होने चाहिएं।” उन्होंने आगे दावा किया कि “इन बदलावों का मक़सद कोई एजेंडा लागू करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि छात्रों को जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है, वह समग्र, समावेशी, प्रतिनिधि और वैचारिक रूप से परिपूर्ण है।”

हालांकि विश्वविद्यालय की अकादमिक काउंसिल से जुड़े लोग यही दावा कर रहे हैं कि मौजूदा बदलाव एनईपी-2020 के मद्देनज़र किए गए हैं। पाठ्यक्रम में बदलाव पर विश्वविद्यालय का कहना है कि वर्ण, जाति, वर्ग, लिंग की अवधारणाओं की जांच करने के बाद ही पाठ्यक्रम में यह बदलाव हुए हैं। सुनने में यह सब बहुत सामान्य लग रहा है, लेकिन क्या सच में ही यह बात इतनी सीधी और सामान्य है?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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