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उदयनिधि स्टालिन मामला : क्यों चुप हैं उत्तर भारत के दलित-बहुजन नेता?

सनातन के सवाल पर चल रहे बहस में उदयनिधि स्टालिन के पक्ष में बयान सामने आने लगे हैं। मसलन, वंचित बहुजन अघाड़ी के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने इस संबंध में फेसबुक पर पोस्ट जारी करते हुए कहा है कि सनातन धर्म का मतलब ही छुआछूत है। पढ़ें, यह रपट

उदयनिधि स्टालिन के हालिया बयान ने देश में लंबे समय से चल रही बहस को हवा दे दी है। अपने बयान में तमिलनाडु सरकार के मंत्री व मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र उदयनिधि स्टालिन ने कहा कि सनातन धर्म डेंगू और मलेरिया की तरह है, इसका उन्मूलन आवश्यक है। युवा स्टालिन के इस बयान पर जहां एक ओर भाजपा व आरएसएस के नेताओं ने उनकी निंदा की। वहीं अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों ने सोशल मीडिया एवं विभिन्न माध्यमों से उदयनिधि का समर्थन किया है। हालांकि यह उल्लेखनीय है कि अभी तक उत्तर भारत के दलित-बहुजन नेताओं ने अपना मुंह बंद रखा है। इसके विपरीत दक्षिण भारतीय नेताओं ने मुखर होकर अपनी बात कही है।  

मसलन, कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियंक खड़गे ने उदयनिधि स्टालिन के समर्थन में एशियन न्यूज् इंटरनेशनल (एएनआई) को दिए अपनी प्रतिक्रिया में कहा– “जो धर्म समानता का पोषण नहीं करता और सभी के लिए मनुष्योचित गरिमा सुनिश्चित नहीं करता, मेरे अनुसार वह धर्म ही नहीं है…जो धर्म सामान अधिकार नहीं देता और जो सभी के साथ मनुष्योचित व्यवहार नहीं करता, वह एक रोग की तरह ही है…”

वहीं महाराष्ट्र के वंचित बहुजन अघाड़ी के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने इस संबंध में फेसबुक पर पोस्ट जारी करते हुए कहा है कि सनातन धर्म का मतलब ही छुआछूत है।

वहीं कांग्रेसी सांसद कार्ति चिदंबरम ने आरएसएस और भाजपा नेताओं द्वारा हाय-तौबा मचाए जाने पर ‘एक्स’ पर जारी अपने संदेश में कहा कि– “तमिलनाडु में आम बोलचाल की भाषा में ‘सनातन धर्म’ से आशय होता है जातिगत पदक्रम पर आधारित समाज। ऐसा क्यों है कि जो लोग सनातन धर्म का बचाव कर रहे हैं, वे सभी उन विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों से हैं, जो इस पदक्रम के लाभार्थी है? किसी के भी कत्लेआम का आह्वान नहीं किया गया था। जो कहा गया था, उसे शरारतपूर्ण ढंग से तोड़ा-मरोड़ा गया है।” 

प्रियंक खड़गे, प्रकाश आंबेडकर, कार्ति चिदंबरम, थोल थिरुमावलावन, पा. रंजीत, कंवल भारती, वीरेंद्र यादव और प्रो. विलक्षण रविदास

उदयनिधि स्टालिन के बयान पर विदुथलाई चिरुथिगल काची (वीसीके) के प्रमुख थोल थिरुमावलावन ने महत्वपूर्ण टिप्पणी में डॉ. आंबेडकर के हवाले से आरएसएस व भाजपा के नेताओं को आड़े-हाथों लिया है। एएनआई को दिए अपने बयान में उन्होंने कहा कि–  “क्रांतिकारी डॉ. बी.आर. आंबेडकर कहते हैं कि सनातन धर्म और हिंदू धर्म छूत की बीमारी है, जिसे भविष्य में उखाड़ फेंकना, नष्ट कर देना होगा। केवल तभी हम लोगों के बीच एकता स्थापित कर सकेंगे। तो माननीय मंत्री उदयनिधि ने पेरियार की विचारधारा की बात की, आंबेडकर की विचारधारा की बात की, समानता की विचारधारा की बात की। यह हिंदू समुदाय के खिलाफ नहीं है। हिंदुओं की अपने-अपने देवों में श्रद्धा है – शिव, विष्णु आदि। हम उनकी आस्थाओं की आलोचना नहीं कर रहे हैं। हम तो संघ परिवार के एजेंडा का विरोध कर रहे हैं, उसकी आलोचना कर रहे हैं। उनका एजेंडा केवल और केवल हिंदुत्व है। हम हिंदुओं के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि हिंदुत्व के खिलाफ हैं, जो भाजपा और आरएसएस का राजनीतिक एजेंडा है। उदयनिधि ने सनातन विचारधारा के उन्मूलन की बात की, हिंदू धर्म के मानने वालों के उन्मूलन की नहीं।”

प्राख्यात फिल्म निर्देशक पा. रंजीत ने एक्स पर जारी संदेश में कहा है– “मंत्री उदयनिधि स्टालिन का सनातन धर्म के उन्मूलन का आह्वान सदियों से जाति-विरोधी आंदोलन का मूल आधार रहा है। जातिगत और लैगिक भेदभाव पर आधारित अमानवीय प्रथाओं और आचरणों की जड़ में सनातन धर्म है। यह मान्यता क्रांतिकारी नेता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और जाति-विरोधी सुधारकों जैसे ज्योतिदास पंडितार, थन्थई पेरियार, महात्मा फुले और संत रविदास की विचारधारा का हिस्सा रही है। मंत्री के वक्तव्य को तोड़ने-मरोड़ने के कपटपूर्ण प्रयास और उसे नरसंहार के आह्वान के रूप में प्रस्तुत किया जाना कतई अस्वीकार्य हैं। मंत्री के खिलाफ बढ़ती नफरत और द्वेषभाव बहुत चिंताजनक है। मैं उदयनिधि के इस वक्तव्य  का समर्थन करता हूं कि सामाजिक न्याय और समानता पर आधारित समाज की स्थापना के लिए सनातन धर्म का उन्मूलन होना चाहिए। मैं मंत्री उदयनिधि स्टालिन के साथ एकजुट हूं।”

उत्तर भारत के राजनीतिक गलियारे में दहाड़ने वाले दलित-बहुजन नेताओं ने इस मामले में चुप्पी लगा रखी है। हालांकि अनेक दलित-बहुजन चिंतकों और बुद्धिजीवियों ने उदयनिधि स्टालिन का समर्थन किया है। मसलन, प्राख्यात समालोचक कंवल भारती ने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा– “सनातन धर्म की प्रशंसा द्विजों के सिवा कोई नहीं करता। क्योंकि उसका निर्माण ही ब्राह्मणों ने अपने सुख के लिए किया है। वह द्विजों का स्वर्ग है। पर सनातन धर्म क्या है, इसका वास्तविक साक्ष्य शूद्र ही दे सकते हैं। लोहे का स्वाद लुहार को नहीं, घोड़े को मालूम होता है। सनातन धर्म से जो वर्ग सदियों से अब तक पीड़ित है, उस वर्ग का अनुभव जाने बिना द्विज लोग सनातन धर्म को महान कैसे कह सकते हैं? शूद्रों को शिक्षा, संपत्ति और अधिकारों से वंचित रखने का आदेश किसी ईसाई या इस्लाम धर्म ने नहीं दिया था, बल्कि इसी तथाकथित महान सनातन धर्म ने दिया था,  जो वास्तव में ब्राह्मण धर्म का ही नाम है।”

उदयनिधि स्टालिन

वहीं समालोचक वीरेंद्र यादव ने फेसबुक पर अपने पोस्ट में शरण कुमार लिंबाले के उपन्यास ‘सनातन’ का उल्लेख करते हुए कहा– “तमिलनाडु के प्राग्रेसिव राइटर्स आर्टिस्ट एसोसिएशन द्वारा  ‘सनातन उन्मूलन’ विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में डीएमके नेता व मंत्री उदयनिधि स्टालिन द्वारा दिए गए वक्तव्य पर उत्तर भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया है। दरअसल उत्तर भारत की राजनीति जिस तरह हिंदू धर्म की पवित्र लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण नहीं करती, उसके चलते यह होना ही था। दक्षिण भारत की राजनीति हिंदू धर्म की कथित सनातनी वर्णाश्रमी व्यवस्था के नकार और तीखी आलोचना की जिस परंपरा में विकसित और समृद्ध हुई है, उसमें ‘सनातन’ ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था का पर्याय रहा है। कर्नाटक में वासवन्ना ने इसे सदियों पूर्व चुनौती दी थी। तमिलनाडु में पेरियार के चिंतन व अन्नादुराई, करुणानिधि की द्रविड़ राजनीति ने इसकी गहरी जड़ें जमाई। पिछले दिनों जब तमिलनाडु के राज्यपाल ने सनातन का गुणगान करते हुए हिंदुत्ववादी राजनीति को गरमाने का प्रयास किया तो यह बहस फिर तेज हुई। प्रोग्रेसिव राइटर्स आर्टिस्ट एसोसिएशन के सनातन उन्मूलन आयोजन का यही संदर्भ है। उत्तर भारत के ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थानी’ सवर्ण मानस द्वारा इसे नही समझा जा सकता। इसे समझने के लिए भारतीय समाज के हिंदू क्षत्रप के विविधवर्णी स्वरूप को समझना आवश्यक है। यह जानना जरूरी है कि आखिर क्यों गोविंद पंसारे, दाभोलकर, कालबुर्गी और गौरी लंकेश सनातन नामधारी संगठनों द्वारा निशाने पर लिए जाते हैं? आखिर क्यों कांचा आइलैय्या यह लिखने को विवश होते हैं कि ‘व्हाई आई एम नॉट हिंदू’? जरूरत है कि हिंदी बुद्धिजीवी व हिंदी समाज खुद को उत्तर भारतीय सोच का हिंदू होने तक सीमित न रखकर व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में वर्णाश्रमी सनातन पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करे। पिछले दिनों ऐतिहासिक संदर्भ में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व का क्रिटिक रचते हुए यह अनायास नही है कि शरण कुमार लिंबाले ने अपने उपन्यास का शीर्षक ही ‘सनातन’ रखा। और नहीं तो फिलहाल इस उपन्यास को ही इस संदर्भ में पढ़ लिया जाय।”

वहीं बिहार के बहुजन चिंतक प्रो. विलक्षण रविदास ने फेसबुक पर अपने लंबे पोस्ट में लिखा है– “भारत में सबसे प्राचीन या सनातन धर्म तो श्रमण धम्म और संस्कृति है। ब्राह्मणवादियों का आर्य-ब्राह्मण धर्म तो केवल 1750 ईसापूर्व में भारत पर आर्य ब्राह्मणों के आक्रमण के बाद आया है और अभी तक केवल लगभग 3500 वर्ष पुराना है, जबकि श्रमण धम्म और संस्कृति लगभग 5500 वर्ष पुराना है।

“ब्राह्मणवादी सनातन धर्म (तथाकथित हिंदू धर्म) का सामाजिक एवं सांस्कृतिक आधार ही हैं ऊंच-नीच पर आधारित वर्ण-व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था, लिंग-विभेद पर आधारित परिवार एवं समाज व्यवस्था और ब्राह्मण पुरुषों की पवित्रता-श्रेष्ठता एवं अन्य लोगों की अपवित्रता-हीनता, छुआछूत, झूठ, अंधविश्वास और अवैज्ञानिक विचारों पर आधारित देवी- देवताओं के लिए जीवन भर चलने वाले कर्मकांड एवं पूजा-पाठ, हिंसा और नफरत आदि।

“लेकिन सनातन श्रमण धम्म एवं संस्कृति का आधार ही है– मानवता, बराबरी, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय। श्रमण धम्म एवं संस्कृति के शील, नैतिकता और विचार ही भारतीय संविधान की प्रस्तावना में वर्णित हैं। उदयनिधि स्टालिन एवं अन्य लोगों ने ब्राह्मणवादी, अमानवीय और असंवैधानिक ब्राह्मणवादी सनातन धर्म को उन्मूलन करने की बातें कही हैं, क्योंकि यह धर्म मानवता, संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध हैं। ये बातें तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(1) में भी अंतर्निहित हैं कि संविधान लागू होने के पहले भारत में प्रवृत्त (चल रही) विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी, जो संविधान के भाग-3 में नागरिकों के मौलिक अधिकारों से असंगत होगी। यानी जो धार्मिक नियम, परंपरा, प्रथाएं और रुढ़ियां समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय के विरुद्ध हैं, वे शून्य (खत्म) किए जाते हैं।

“वास्तव में अगर हम संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करते हैं और भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने के लिए संकल्प लिए हैं तो हमें ब्राह्मणवादी सनातन धर्म, संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था को खत्म कर समानता, भाईचारा और न्याय को स्थापित करना ही होगा।”

बहरहाल, इस मामले में उत्तर भारत के दलित-बहुजन नेता चाहे वे बिहर के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों, राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद हों, बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती हों या फिर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, सभी ने चुप्पी साध रखी है। क्या तमिलनाडु में हुए सांस्कृतिक और सामाजिक बदलावों पर उन्हें विचार नहीं करना चाहिए? साथ ही, यह भी कि इस मामले में चुप रहकर क्या वे ब्राह्मणवाद को शह नहीं दे रहे हैं?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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