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पूर्व-औपनिवेशिक भारत में व्यापारी जातियों का उभार और हिंदूपन का उदय

मारवाड़ के व्यापारी वर्ग ने अन्य वर्गों, जिनका राजदरबारों के नेतृत्व का दावा और कमज़ोर था – जैसे ब्राह्मण – के साथ मिलकर, राज्य सत्ता के ज़रिए एक नई कुलीन पहचान को गढ़ा। और यह पहचान थी– ‘हिंदू’। ज़मीनी स्तर पर यह पहचान मुसलमानों के बरक्स नहीं थी, बल्कि जाति के संदर्भ में थी। बता रही हैं दिव्या चेरियन

दिव्या चेरियन द्वारा लिखित व नवयाना, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘मर्चेंट्स ऑफ वर्चू : हिंदूज, मुस्लिम्स एंड अनटचेबिल्स इन एटिंथ सेंचुरी साउथ एशिया’ के एक अंश का अनुवाद

दक्षिण एशिया के अतीत पर कई पीढ़ियों तक चले ऐतिहासिक शोध के नतीजे में अध्येता इस संकल्पना को आधारहीन मानने लगे हैं कि भारत ऐसा देश है, जिसमें अनंत काल से अपरिवर्तनशील वंशानुगत जाति व्यवस्था चली आ रही है और औपनिवेशिक प्रशासक व इतिहासविद अनादि काल से चली आ रही इस व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं कर पाए हैं। निकोलस डर्क्स और सुमित गुहा ने यह साबित किया है कि पूर्व-औपनिवेशिक दक्षिण एशिया में जातिगत राजनीति और पदक्रम में शासकों की भूमिका थी और यह भी कि जाति व्यवस्था में परिवर्तन होते रहे हैं और वह केवल ब्राह्मणवादी ग्रथों और आदर्शों से संचालित नहीं होती रही है। उन्होंने यह भी साबित किया है कि जाति, पहचान के कई निर्धारकों में से एक थी। इसके बावजूद जाति प्रथा के सनातन और शाश्वत होने का मिथक अब भी लोक विमर्श का हिस्सा बना हुआ है। आजकल कुछ लेखक इस पूर्व-औपनिवेशिक सनातन रूप को एक नया आकार दे रहे हैं, जैसे यह एक नुकसानरहित व्यवस्था हो, जो पेशे और योग्यता के आधार पर समाज को विभिन्न स्तरों पर बांटती हो। जो भी हो, जाति व्यवस्था के लचीलेपन और परिवर्तनशीलता की एक सीमा थी और उस सीमा पर खड़ा था भंगी (या हलालखोर), जो घर और शरीर के अपशिष्ट को ठिकाने लगता था। उसके और अन्यों के बीच एक स्पष्ट सीमा-रेखा थी और वह अछूत की पूर्व-औपनिवेशिक संकल्पना का प्रतिनिधि था। समाज के कुलीन वर्गों के लिए भंगी अछूत प्रथा का मूर्त स्वरूप था, जिसका जीता-जागता और ठोस संस्करण समाज के बीच रहता और काम करता था। मगर अछूत प्रथा के प्रतीक के रूप में भंगी को अन्य ‘नज़दीकी’ जातियों के साथ एक खांचे में रखा जा सकता था … ताकि सवर्णों को अवर्णों से पृथक करने वाली रेखा खींची जा सके। जाति व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान लोगों के लिए यह रेखा पत्थर की लकीर नहीं थी, बल्कि बदलते संदर्भों में इस रेखा को इस ओर या उस ओर खिसकाया भी का सकता था – इस हद तक भी कि उसकी दूसरी ओर केवल राजपूत, ब्राह्मण और व्यापारी (जो राजस्थान में महाजन कहे जाते थे) बचें। लेकिन भंगी बिला शक और हमेशा से अछूत ही था। 

जाति व्यवस्था की विभाजक रेखाओं का विस्तार संपूर्ण समावेशीकरण से लेकर पूर्ण बहिष्करण तक होता था और भंगी पूर्ण बहिष्कृत वर्ग का केंद्रक था। भंगी के साथ नजदीकी – चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक – आपको सामाजिक समावेशीकरण की सीमा से बाहर धकेल सकती थी। यही सोच शायद उस विचारधारा के पीछे थी, जिसे रामनारायण रावत और के. सत्यनारायण ‘गांधीवादी हरिजन विचारधारा’ कहते हैं और जो दलितों को “भंगी के खांचे में रखती है और उन्हें एक ऐसे पीड़ित वर्ग के रूप में देखती है जिसे कलंकित कर दिया गया है और जिसकी स्थिति में ऊपर से सुधार लाए जाने की ज़रूरत है।” मैं जिस काल के बारे में बात कर रही हूं उसके लगभग एक सदी बाद व्यापारी जाति के मोहनदास करमचंद गांधी पश्चिमी भारत में पले-बढ़े और उन्हें शायद अछूत प्रथा को देखने का वही परिप्रेक्ष्य विरासत में मिला होगा जो भंगी को इस प्रथा का मूर्त रूप मानता है और जो राठौड़ राज्य के अभिलेखों में भी परिलक्षित होता है। ऐसा लगता है कि भंगी को अछूत प्रथा के प्रतीक के रूप में देखने का इतिहास और पुराना और व्यापक है। इससे यह भी साफ़ है कि व्यापारी, ब्राह्मण और अन्य कुलीन जातियों, जो राज्य से विभिन्न मांगें कर रहे थे, के व्यवहार और प्राथमिकताओं का निर्धारण शुचिता और अपवित्रीकरण के रूढ़िगत सरोकारों से होता था, यद्यपि अपवित्रीकरण की यह चिंता जाति व्यवस्था के हर पहलू को अपने दायरे में नहीं लेती थी (आर्थिक, राजनीतिक, व अन्य लक्ष्य भी जाति-उन्मुख व्यवहार को प्रभावित करते थे)। शुचिता और अपवित्रीकरण की अवधारणाएं, मानव शरीर पर केंद्रित थीं और एक विशिष्ट प्रकार के बहिष्करण की जन्मदाता थीं, जिसके केंद्रीय तत्व थे– स्पर्श, शारीरिक पदार्थ, वंश परंपरा और व्यक्ति के अन्य दैहिक पहलू।

‘मर्चेंट्स ऑफ वर्चू’, नवायाना प्रकाशन, 2023 का आवरण पृष्ठ

इतिहासविदों ने औपनिवेशिक व उत्तर-औपनिवेशिक काल में अछूत समुदायों की स्थिति के बारे में बेशक लिखा है, लेकिन उनका ध्यान आधुनिकता के प्रभाव से इन समुदायों में आए परिवर्तनों पर ही केंद्रित रहा है। हालांकि इन अध्ययनों में जिन परिवर्तनों का लेखा-जोखा दिया गया है, उनके पूर्व-औपनिवेशिक संदर्भों को समझने की थोड़ी-बहुत कोशिश तो की ही गई है। मुझे उम्मीद है कि मैं इन कोशिशों को आगे बढ़ा सकूंगी। पूर्व-औपिनिवेशिक दक्षिण एशिया में हिंदूपन और जाति को समझने के लिए हमें अछूत प्रथा की कानून द्वारा निर्मिती और अनुपालन के इतिहास को गहराई से जानना होगा। राज्य, उसका कानून और उसका प्रशासनिक तंत्र, जाति व्यवस्था के परिचालन के आवश्यक औजार थे। वे न केवल श्रेष्ठी वर्ग को सम्मान और धन-धान्य से नवाजते थे, वरन् उसके पक्ष में हस्तक्षेप भी करते थे। इस इतिहास से हमें पता चलता है कि 18वीं सदी में अलग-अलग स्थानों में जाति व्यवस्था और बहिष्करण के जो अलग-अलग स्वरूप थे, उनकी धुरी केवल पूर्व-परिभाषित और धर्मग्रंथों में उद्धृत ब्राह्मणवादी मूल्य नहीं थी, बल्कि पूर्व-औपनिवेशिक दक्षिण एशिया में अन्य गैर-ब्राह्मण जातीय समूहों के आदर्श और आचरण, उच्च जातियों की नैतिक, सामाजिक और शारीरिक आवश्यकताओं को आकार देने व पवित्रता के वैचारिक आधार का निर्माण करने में भूमिका अदा करते थे।  

… दक्षिण एशिया के आरंभिक आधुनिक (सन् 1450-1800) इतिहास में व्यापारी वर्ग की क्या स्थिति थी? और जाति के इतिहास में व्यापारी वर्ग कहां खड़ा था? उस काल में व्यापारिक और वाणिज्यिक गतिविधियों और कुछ हद तक राजनीति में व्यापारिक वर्ग की भूमिका पर अनेक अध्ययन हुए हैं, लेकिन जहां तक आरंभिक आधुनिक दक्षिण एशिया में सामाजिक परिवर्तन के बारे में सोच का प्रश्न है, उसमें व्यापारी वर्ग की भूमिका को शायद ही कोई महत्व दिया गया है। इस पुस्तक का दावा है कि 18वीं सदी में दक्षिण एशिया में व्यापारिक वर्ग ने राज्य की मशीनरी के पुर्जों के रूप में अपनी भूमिका से आगे बढ़कर सामाजिक परिवर्तन का नेतृत्व संभाल लिया। मारवाड़ के व्यापारी वर्ग ने अन्य वर्गों, जिनका राजदरबारों के नेतृत्व का दावा और कमज़ोर था – जैसे ब्राह्मण – के साथ मिलकर, राज्य सत्ता के ज़रिए एक नई कुलीन पहचान को गढ़ा। और यह पहचान थी– ‘हिंदू’। ज़मीनी स्तर पर यह पहचान मुसलमानों के बरक्स नहीं थी, बल्कि जाति के संदर्भ में थी। मुसलमानों की ‘भिन्नता’ को भी जाति के ज़रिए रेखांकित किया गया। अछूत एक सामाजिक समूह था, जिसे इन अभिलेखों में ‘अछेप’ कहा गया है। अछेप का अर्थ होता है, जिसका स्पर्श न किया जाय।                 

….

[1785] कोटवाली चौंतरे के सामने के कक्ष के लिए दो दस्तावेज : इन शहरों में सभी को यह निर्देश दिया जाए कि वे हर रोज़ रात्रि का प्रथम पहर शुरू होने के दो घड़ी बाद (अर्थात सूर्यास्त के करीब 45 मिनट बाद) श्री परमेश्वर का नाम लें। यह संदेश हिंदुओं को पहुंचाओ, लेकिन अछेप जातियों को नहीं, जिनमें तुरक, चमार, ढेढ़, थोरी, बावरी और हलालखोर हैं। श्री हुज़ूर का हुकुम है कि कोटवाली चौंतरे के लोगों को रोज़ शहर में घूमकर यह घोषणा करनी चाहिए कि उक्त नाम हमेशा रात्रि का प्रथम पहर शुरू होने के दो घड़ी बाद लिया जाना चाहिए।   

1 नागौर के लिए – संदेशवाहक के ज़रिए भेज दिया गया है।
1 मेड़ता के लिए – संदेशवाहक की डाक में शामिल है।
2 – पंचोली नंदराम द्वारा जारी, जिन्हें यह सुनाया गया था।  

महाराजा विजय सिंह, जिनका शासनकाल 1752 से लेकर 1793 तक था, ने यह आदेश सन् 1785 में उनके राज्य की दो प्रांतीय राजधानियों – नागौर और मेड़ता – को भिजवाया था। ये शहर विजय सिंह के मारवाड़ साम्राज्य के 16 प्रांतों में से सबसे अधिक आबादी वाले दो प्रांतों की राजधानियां थीं। यह साम्राज्य, जिसे उसकी राजधानी जोधपुर के नाम से भी जाना जाता है, आज के राजस्थान के दक्षिणी और मध्य भाग में फैला हुआ था। ये दोनों शहर क्षेत्रीय व्यापार केंद्र भी थे। इसके अलावा, नागौर में बड़ी संख्या में सूफी तीर्थयात्री भी आते थे, क्योंकि वहां संत/पीर हमीदुद्दीन चिश्ती की दरगाह थी। आदेश में साफ़ कहा गया है कि इन दोनों शहरों के हिंदू निवासियों को एक निश्चित समय पर श्री परमेश्वर के पवित्र नाम को जपना चाहिए। आदेश की भाषा से साफ है कि ‘हिंदू’ एक व्यापक अवधारणा थी, जिसमें अनेक जातियां सम्मिलित थीं। लेकिन आदेश से यह भी साफ़ हैं कि ‘हिंदू’ में जातिच्युत अछेप (अछूत) शामिल नहीं थे। इस आदेश में ‘हिंदू’ कौन है, यह तो स्पष्ट नहीं किया गया है, लेकिन यह साफ़ तौर पर बताया गया है कि अछूत कौन हैं– मुसलमान (तुरक), मृत पशुओं की खाल उतारने वाले और चमड़े का काम करने वाले (ढेढ़ और चमार, जो गांवों में कृषि श्रमिक के रूप में भी काम करते थे), घुमंतू शिकारी (थोरी और बावरी) और मानव अपशिष्ट को साफ़ करने वाले हलालखोर, जिन्हें इन अभिलेखों में भंगी भी कहा गया है। 

राठौड़ राज्य के अभिलेखों में शामिल अनेक आदेशों और अर्जियों से यह साफ़ है कि यह आदेश, भले ही वह इस दृष्टि को एकदम साफ़-साफ़ शब्दों में बताता है, उसके भावार्थ के संदर्भ में अकेला नहीं था। अठारहवीं सदी में दक्षिण एशिया के इस हिस्से में जाति की हदों को अधिक स्पष्ट रूप में चिह्नांकित करने के इस प्रयास का उल्लेख करते हुए मैं तीन तर्क प्रस्तावित करतीं हूं – पहला यह कि दक्षिण एशिया के कुछ भागों में जाति व्यवस्था के तीव्र ध्रुवीकरण के लिए अंतरक्षेत्रीय और वैश्विक आर्थिक परिवर्तनों के स्थानीय प्रभाव ज़िम्मेदार थे। मेरा दूसरा प्रस्ताव है कि उभरते हुए हिंदूपन को जाति के आधार पर परिभाषित किया गया था और मुसलमान व अछूत दोनों संयुक्त रूप से हिंदूपन की सीमाओं के निर्धारक थे। मेरा तीसरा तर्क यह है कि उच्च जातियों को शाकाहार और निम्न जातियों को मांसाहार से जोड़ने में दक्षिण एशिया के आरंभिक आधुनिक काल के इतिहास के इस दौर, जिसमें व्यापारी वर्ग स्थानीय स्तर पर सत्ता केंद्र के रूप में उभरा, की महती भूमिका थी। गोपाल गुरु और सुंदर सरुक्कई ने समाज को समझने में शरीर और रोज़मर्रा के संवेदी अनुभवों को केंद्रित रखने की बात की है। इस पुस्तक में मैं रोज़मर्रा के जीवन और विभिन्न संवेदी-नैतिक व्यवस्थाओं के स्थानीय स्तर तक सीमित टकरावों से सामाजिक संस्थाओं के पुनर्निर्माण के इतिहास को प्रस्तुत कर रही हूं। निम्नता और मांसाहार को एक-दूसरे से जोड़ कर ऐसे लोगों को ‘हिंदू’ के घेरे से बाहर करने का यह काम, जो अठारहवीं सदी में पूर्व-औपिनिवेशिक दक्षिण एशिया में किया गया, अब भी भारत में जाति की राजनीति और रोज़मर्रा के जीवन और विदेशों में बसे दक्षिण एशियायियों के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

(यह संपादित अंश है, जिसमें से अकादमिक टिप्पणियां और संदर्भ हटा दिए गए हैं। यह अंश नवयाना की अनुमति से यहां प्रकाशित है) 

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)


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लेखक के बारे में

दिव्या चेरियन

दिव्या चेरियन प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, अमेरिका के इतिहास संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं तथा ‘मर्चेंट्स ऑफ वर्चू : हिंदूज, मुस्लिम्स एंड अनटचेबिल्स इन एटिंथ सेंचुरी साउथ एशिया’ (नवयाना, 2023) की लेखिका हैं

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