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राजस्थान में दलित अब किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं : भंवर मेघवंशी

मूल बात यह है कि अवसर नहीं दिया जा रहा है। न दलितों को, न आदिवासियों को और न ही ओबीसी को। हमारी मांग तो यह है कि जॉब चाहे पांच दिन का ही क्यों न हो, अगर उसमें सरकार का पैसा लग रहा है तो उसमें आरक्षण मिलना चाहिए। सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान हम लोगों ने इस संदर्भ में लोगों से विचार-विमर्श किया। पढ़ें, भंवर मेघवंशी से साक्षात्कार का पहला भाग

[भंवर मेघवंशी राजस्थान के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे सुर्खियों में पहली बार तब आए जब उनकी किताब ‘मैं एक कारसेवक था’ प्रकाशित हुई। इस किताब में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जातिवाद और भेदभाव की पोल खोलते हैं। वर्तमान में मेघवंशी सामाजिक मुद्दों को लेकर सक्रिय रहते हैं। हाल ही में राजस्थान में सामाजिक न्याय यात्रा का समापन हुआ। इस मौके पर राजस्थान के दलित समुदायों की ओर से मांग पत्र जारी किया गया। सामाजिक न्याय यात्रा के फलाफल व राजस्थान में सियासी गतिविधियों के मद्देनजर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के संपादित अंश का पहला भाग]

हाल ही में राजस्थान में आप और आपके साथियों ने सामाजिक न्याय यात्रा निकाली। कृपया इसके बारे में बताएं और इसका फलाफल क्या रहा?

हमलोगों ने 19 अगस्त, 2023 से लेकर 17 सितंबर, 2023 तक पूरे एक महीने सामाजिक न्याय यात्रा की। करीब 7 हजार किलोमीटर लंबी यह यात्रा थी। हमलोगों ने 50 जिलों में 100 जगहों पर संवाद किया। हम दलित समाज के मुद्दों को 80 बिंदुवार मसौदा बनाकर लोगों के बीच लेकर गए। यात्रा के दौरान सभी बिंदुओं पर हमने उनसे चर्चा की। इसमें यदि आप ऐसे देखेंगे तो सबसे प्रमुख मुद्दा दलितों के ऊपर होनेवाले अत्याचार व उत्पीड़न की घटनाएं हैं। मैं यह मानता हूं कि दलित समुदाय को जो बहुत ही भावनात्मक रूप से उद्वेलित करता है या प्रभावित करता है तो वह मुद्दा है– मान, सम्मान और अपमान का या कहिए अन्याय, अत्याचार का। 

यह मुद्दा प्रमुख रूप से रहा ही। पूरे राज्य में इस पर चर्चा हुई कि उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं। जो अत्याचार के तरीके हैं, उसके भी नए-नए रूप सामने आ रहे हैं, तो इन पर कुछ-न-कुछ कार्रवाई होती रहनी चाहिए। और दूसरा यह कि इन घटनाओं को लेकर दलित समाज के लोग ‘एक्रॉस द पार्टी’ लाइन यानी दलगत राजनीति से परे जाकर संगठित हो रहे हैं। इसलिए हमारे मसौदा पत्र में पहला मुद्दा था–  2 अप्रैल, 2018 को भारत बंद के दौरान जो मुकदमे दर्ज हुए, उन सभी को वापस लेने का। वर्तमान सरकार ने ज्यादातर मुकदमों को वापस ले लिया है, लेकिन अभी भी 11 मुकदमे अटके हुए हैं। कुल 262 मुकदमे दर्ज हुए थे, उसमें से जो बचे हुए मुकदमें हैं, उनको वापस लिया जाना है। हमारी मांग यही थी कि हम आखिरी मुकदमा भी वापस चाहते हैं, क्योंकि जो लोग 2 अप्रैल को सड़कों पर उतरे, उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। वह व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं उतरे थे, बल्कि वो समाज के लिए लड़ रहे थे। जो समाज के लिए लड़ता है, उसके लिए समाज को लड़ना चाहिए। यह हमारी सोच है। दूसरा एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट को मजबूती से लागू करने की मांग हमारी मुख्य मांग थी, क्योंकि सरकार किसी की भी बने, समाज का और नौकरशाही का माइंड सेट नहीं बदलता है। प्रशासन में जो लोग बैठे हैं, अक्सर वे एट्रोसिटी एक्ट के तहत दर्ज मुकदमों में फाइनल रिपोर्ट लगाकर उन्हें झूठा साबित करने की कोशिश करते रहते हैं। जब एनसीआरबी के आंकड़े हैं तब कहते हैं कि देखो दलितों ने इतने झूठे मुकदमे दर्ज करा रखे हैं। जबकि इसके पीछे का कारण यह नहीं है कि मुकदमे झूठे होते हैं। 

दरअसल जब कोई मुकदमा दर्ज कराता है तो पहली बात कि दलित कोई शिकायत करे यह अपनेआप में बहुत बड़ी हिम्मत की बात है। शिकायत दर्ज करवाकर जब वे गांव में लौटते हैं तो उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, उनके साथ मार-पीट होती है और कभी-कभी तो उनको इतना मजबूर कर दिया जाता है कि वे सुबह में मुकदमा दर्ज कराते हैं और शाम को मुकदमा वापस लेने के लिए समझौते करने पड़ते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि हमारे लोगों की निर्भरता बहुत हद तक दूसरे समुदाय के लोगों पर होती है। वे उनके खेतों में काम करते हैं। वे उनके ईंट-भट्ठों में काम करते हैं। वे उनकी दुकानों में काम करते हैं। वे उनके कर्जदार होते हैं। तो उनकी इस तरह की आर्थिक मजबूरियां होती हैं कि वे थोड़े-से प्रलोभन में आकर दबाव में आ जाते हैं और मुकदमा वापस ले लेते हैं। तो ये जो स्थितियां हैं, उनके कारण अंत में एक बड़ा आंकड़ा बनता है, और प्रशासन के लोग कहते हैं कि देखिए 50 प्रतिशत मुकदमे तो झूठे दर्ज हुए हैं। 

ऐसे मामलों में इस पूरी यात्रा के दौरान हमारा यह कहना था कि जो मुकदमे फाइनल स्टेज में पहुंचे या झूठे साबित हुए हैं, उनमें से कुछ मुकदमों को हमारे सामने लाइए, उनकी दोबारा जांच करिए और यह पता लगाइए कि ये मुकदमे झूठे कैसे हुए। अगर दलितों ने समझौता किया तो क्यों किया और यह भी सामने आना चाहिए कि यदि कोई कोई झूठा मुकदमा दर्ज हुआ तो ऐसे मुकदमे दर्ज करवाने वाले लोगों के पीछे कौन है। अगर कोई मुकदमा वाकई में झूठा है तो हम चाहेंगे कि उनलोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, जिन्होंने ऐसा मुकदमा दर्ज कराया।

क्या ऐसी कोई घटना सामने आई?

नहीं, ऐसी कोई घटना यात्रा के दौरान हमारे सामने नहीं आई, क्योंकि आप अगर बहुत सूक्ष्म तरीके से उनके पास जाएंगे तो आप पाएंगे कि पीड़ित पक्ष आर्थिक रूप से उत्पीड़क पक्ष पर आश्रित है। या फिर कई मामलों में व्यक्तिगत दुश्मनी सामने आती है और मालूम चलता है कि किसी गैर-दलित ने अपनी दुश्मनी निकालने के लिए किसी दलित का इस्तेमाल कर मुकदमा दर्ज करवाकर एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग किया। हम तो चाहते हैं कि यदि ऐसा दुरुपयोग हुआ है और दलित इस्तेमाल हुए हैं, तो उन्हें भी और उन लोगों को भी जिन्होंने उनका दुरुपयोग किया, सभी को एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट के दायरे में लाया जाना चाहिए।  

भंवर मेघवंशी, सामाजिक कार्यकर्ता, राजस्थान

लेकिन सच यह भी है कि कहीं से भी ऐसी कोई चीज आती नहीं है, ऐसी बातें कहकर केवल आम धारणा बनाई जाती है कि दलित झूठे मुकदमे दर्ज करा रहे हैं। यही परिस्थितियां तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं की है। महिला जब भी हक की लड़ाई लड़ेगी तो उसको कहा जाएगा कि वह झूठा मुकदमा दर्ज करा रही है। कोई भी पिछड़ा कोशिश करेगा तो कहा जाएगा कि यह झूठा मुकदमा करवा रहा है। दलित करेगा या आदिवासी करेगा तो यही कहा जाएगा कि झूठा मुकदमा दर्ज करा रहा है। 

ऐसी बातों में कोई बहुत ज्यादा दम नहीं है। मेरा तो यह मानना है दलितों में वह हिम्मत ही नहीं आई कि वे एट्रोसिटी ऐक्ट का उपयोग कर पाएं। दुरुपयोग करना तो बहुत बड़ी बात है। अगर इस देश के 25 करोड़ दलित और आदिवासी एट्रोसिटी एक्ट का एक बार भी जीवन में उपयोग कर लेगा तो मेरा मानना है कि देश में दलितों व आदिवासियों के ऊपर होनेवाले आधे अत्याचार यूं ही खत्म हो जाएंगे। 

एक विषय आर्थिक क्षेत्र और नियोजन से जुड़ा है। देखिए क्या हो रहा है कि 98 प्रतिशत नौकरी के अवसर असंगठित क्षेत्र या निजी क्षेत्र में चली गई हैं, जिनमें आरक्षण का प्रावधान नहीं है। सरकारी* क्षेत्रों में महज दो प्रतिशत नौकरियों के अवसर हैं। उस दो प्रतिशत के लिए हम 100 प्रतिशत दम लगाए हुए हैं कि आरक्षण लेना चाहिए। जबकि जो सारे मौके थे, वे कहीं और चले गए। हमने इस दरम्यान निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठाई और पूरा जो संगठित क्षेत्र है, जो शराब के ठेके हैं, खनिज खनन के लीज हैं, या इंडस्ट्रीयल एरिया में व्यावसायिक भूखंड हैं, इन सबमें हमें 18 प्रतिशत हिस्सेदारी चाहिए। राजस्थान में एससी की जनसंख्या है और हिस्सेदारी भी इसी अनुपात में मिलनी चाहिए। अगर सरकार सरकारी वकील नियुक्त कर रही है तो उसमें भी 18 प्रतिशत दलित हों। मैं तो कहता हूं सहायक लोक अभियोजक से लेकर महाधिवक्ता तक के जो पद हैं, सभी में हमारी 18 प्रतिशत हिस्सेदारी होनी चाहिए। 18 प्रतिशत शराब के ठेके हमारे लोगों के पास होने चाहिए। यहां तक कि संविदा आधारित नौकरियों में भी हमें 18 फीसदी हिस्सेदारी चाहिए। 

अभी राजस्थान का परिदृश्य आप देखेंगे तो सूबे में लगभग 20 लाख कर्मचारी हैं। दस लाख स्थायी सरकारी कर्मचारी हैं, जो 2 प्रतिशत से आए और उनमें से ज्यादातर लोग रिटायर्ड हो गए। ये वे लोग हैं, जिनकी नियुक्तियां पहले हुई थीं। अब जितने भी लोग लिए जा रहे हैं वे संविदा के आधार पर एजेंसियों के माध्यम से सेवा में लिये जा रहे हैं। इसमें आरक्षण नहीं है और ऐसे लोगों की संख्या भी 10 लाख है। 

मूल बात यह है कि अवसर नहीं दिया जा रहा है। न दलितों को, न आदिवासियों को और न ही ओबीसी को। हमारी मांग तो यह है कि जॉब चाहे पांच दिन का ही क्यों न हो, अगर उसमें सरकार का पैसा लग रहा है तो उसमें आरक्षण मिलना चाहिए। सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान हम लोगों ने इस संदर्भ में लोगों से विचार-विमर्श किया।

लेकिन एक समस्या यह भी है कि निजी क्षेत्र में जॉब सिक्योरिटी नहीं होती। और आपको लगता है कि सरकारी नौकरियां नहीं बची हैं, एक फैलाया गया भ्रम है?

मेरा कहना है कि यदि शत-प्रतिशत सरकारी नौकरियां हमारे लोगों के लिए आरक्षित कर दिया जाय तब भी हमारे लोग 2 प्रतिशत जॉब ही पा सकेंगे। करीब 98 प्रतिशत जो आपका असंगठित क्षेत्र है और निजी क्षेत्र है, उसमें हिस्सेदारी होनी चाहिए। देखिए निजी क्षेत्र जैसा कुछ नहीं होता है। आज कोई एक फैक्ट्री लगाता है तो सरकार से रियायती दर पर जमीन लेता है। वह रियायती दर पर बिजली लेता है और रियायती दर पर ही उपकरण व कच्चे माल भी लेता है। तो इस तरह किसी उद्यमी को कई प्रकार के करों में छूट मिलती है, तो उसमें किसी का निजी क्या है? जो कुछ है, वह पूरे समाज का है और  देश का है। तो जब समाज और देश का है और हमारा आदमी यदि कोई उद्यम करना चाहे तो उसे बाधित क्यों किया जाता है। हम केवल फैक्ट्रियों में नौकरियों में आरक्षण की बात नहीं कर रहे। यदि गैर दलित यहां रियायती दर पर प्लॉट, व्यावसायिक भूखंड आदि का लाभ उठा रहे हैं, अपना उद्यम स्थापित कर रहे हैं तो यह अधिकार हमारे लोगों को भी मिलना चाहिए और एक तरह से इसमें भी आरक्षण मिलना चाहिए।

आपको याद होगा कि जब देश में यूपीए की सरकार थी तब एक बार सरकार ने कहा था कि वह निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए कानून बनाएगी। तब आपने पढ़ा होगा कि बजाज और उन तमाम उद्यमियों ने कहा कि हम घर बैठे आरक्षित वर्ग के लोगों को पैसा देंगे। लेकिन काम नहीं देंगे, क्योंकि इससे मेरिट प्रभावित होती है, गुणवत्ता प्रभावित होती है। जैसे सारी मेरिट का ठेका इनके पास है। जबकि आज हमारे लोग इतना सारा काम कर रहे हैं, आज कौन-सा काम है जो हमारे लोग नहीं कर सकते? केवल बुद्धिजीविता की जो मेरिट है, केवल अंक लाने की जो क्षमता है, वह मेरिट नहीं है। मैं आपको कहता हूं कि हमारे यहां एक समुदाय है कालबेलिया, जो संपेरा भी कहा जाता है। कालबेलिया समुदाय को जो बच्चा है वह पांच साल की उम्र में ही सांप पकड़ लेता है। तो क्या यह उसकी योग्यता नहीं है? दूसरी तरफ अगर कोई परमवीर चक्र प्राप्त किसी सैन्य अधिकारी के घर में सांप घुस जाए तो वह सीमा पर लड़ सकता है, लेकिन उस समय संपेरे को बुलाता है। आप योग्यता के मापदंड को दोबारा देखिए और पुनर्विचार कीजिए कि क्यों और कैसे चल रहा है। 

इस यात्रा में दलित-बहुजन युवाओं के साथ कैसा अनुभव हासिल हुआ? उन्होंने क्या मांगें रखीं?

देखिए हमारे युवाओं के लिए रोजगार बड़ा मुद्दा है। उनको कहीं जगह नहीं मिल रही है, कोई काम नहीं मिल रहा है। और दूसरा यह है कि सम्मान-स्वाभिमान-गरिमा वह बहुत बड़ा मुद्दा है आज भी। मुझे लगता है कि बाबा साहब के वक्त में जो सम्मान का मुद्दा था वह मुद्दा आज भी युवाओं में बना हुआ है, क्योंकि राजस्थान में कहीं घोड़ी पर चढ़ने के लिए लोगों को मारा जा रहा है, कहीं मुंछ रखने के लिए मारा जा रहा है, कहीं पानी छूने के लिए मारा जा रहा है, कहीं अच्छी पढ़ाई के लिए मारा जा रहा है, कहीं जमीन पर अधिकार के लिए मारा जा रहा है। लेकिन युवा अब विराेध कर रहे हैं। वे पीछे हटने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। वे कह रहे हैं कि हम हर जगह दिखेंगे। हम अच्छे कपड़े भी पहनेंगे। हम अच्छी जगह भी जाएंगे। हमें नौकरियां भी चाहिए। हम घोड़ी पर भी चढ़ेंगे। हम डीजे भी बजायेंगे। हम अपनी जगह भी बनाएंगे। तो युवा अब बिल्कुल भी तैयार नहीं है दबकर रहने के लिए। किसी भी कीमत पर नहीं। फिर उसके लिए कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े। जिंदगी चाहे जेलों में कट जाय, बर्बाद हो जाय, भविष्य कुछ भी हो जाय, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं कि वे दबकर रहेंगे। कोई उसको दबाएगा और उनके पूर्वजों के साथ जो हुआ, वह कर लेगा, इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। और यह सामाजिक न्याय की यात्रा में ये बात बड़े पैमाने पर आई।

क्रमश: जारी

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)

* ‘संगठित’ से ‘सरकारी’ संशोधित, 30 अक्टूबर, 2023 03:31 PM


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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