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राजस्थान के दलित जाग चुके हैं, अब ओबीसी व अन्य वंचित समुदायों के साथ एकजुटता की पहल : भंवर मेघवंशी

अधिकांश दलित यह मानते हैं कि फुले दंपति के बिना हमारे आंदोलन का कोई आधार नहीं है। तो आप मान कर चलिए कि जो दलितों ने आत्मसात किया, उस विचार को, जिस दिन ओबीसी ने आत्मसात कर लिया, उस दिन बहुजन एकता बनने से कोई नहीं रोक सकता। पढ़ें, भंवर मेघवंशी से साक्षात्कार का अंतिम भाग

[भंवर मेघवंशी राजस्थान के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे सुर्खियों में पहली बार तब आए जब उनकी किताब ‘मैं एक कारसेवक था’ प्रकाशित हुई। इस किताब में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जातिवाद और भेदभाव की पोल खोलते हैं। वर्तमान में मेघवंशी सामाजिक मुद्दों को लेकर सक्रिय रहते हैं। हाल ही में राजस्थान में सामाजिक न्याय यात्रा का समापन हुआ। इस मौके पर राजस्थान के दलित समुदायों की ओर से मांग पत्र जारी किया गया। सामाजिक न्याय यात्रा के फलाफल व राजस्थान में सियासी गतिविधियों के मद्देनजर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के संपादित अंश का अंतिम भाग]

पहले भाग से आगे

राजनीतिक दलों से जो दलित समाज को अपेक्षाएं हैं, क्या लोगों ने सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान उन अपेक्षाओं को सामने रखा?

हां, बिल्कुल। राजनीतिक दलों से जो अपेक्षाएं रही हैं, उनको लेकर, खास तौर पर सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान जब लोगों ने बात की। यह पहली बार था कि पूरे राजस्थान में लोग यह कह रहे थे कि जो हमारी चिंता नहीं कर रहे हैं, उनकी हमें चिंता नहीं है। लोग कह रहे थे कि हमारे मुद्दे उनकी पार्टी के मैनिफेस्टो में जितना जगह पाएंगे, उतनी ही जगह हमारे समाज में उन्हें मिलेगी। लोग यह बात कर रहे थे कि जो हमारे उपर अत्याचार करते हैं, उनको अगर पार्टियां टिकट देंगी तो कोई भी पार्टी हो, हम उसका विरोध करेंगे। हम ऐसे लोगों को विधान सभा में नहीं जाने देंगे। यह बात इस पूरी यात्रा के दरम्यान ही निकलकर समझ में आई कि हमें राज्य के स्तर पर एक सामाजिक न्याय आधारित स्क्रीनिंग करेंगे, जैसे पार्टियां स्क्रीनिंग करती हैं। हमलोगों ने उम्मीदवारों की सोशल आडिट करने के लिए स्क्रीनिंग कमेटी बनाई है और इस कमेटी ने काम करना प्रारंभ कर दिया है। इसके जरिए हम यह देख रहे हैं कि पोलिटिकल पार्टियां जिन लोगों को टिकट दे रही हैं, उनका आचरण हमारे लोगों के प्रति कैसा है। जब उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं तब वो किधर खड़े रहते हैं। हमारे लोगों के साथ खड़े रहते है या उत्पीड़न करने वालों के साथ? जब हमारे लोगों की जमीनें छीनी जाती है, तब वे किसके पक्ष में खड़े होते हैं? हम यह भी देख रहे हैं कि हमारी बहन-बेटियों के साथ यौनिक दुर्व्यवहार हो रहा है, बलात्कार हो रहा है, तब वे किसके पक्ष में खड़े होते हैं? 

ऐसे ही हम यह देख रहे हैं कि विकास के काम में उनका कितना और कैसा योगदान रहता है? क्या उनका व्यवहार भेदभावपूर्ण है? यह पहली बार हो रहा है और एक बड़ा काम है, जो पूरे देश में किया जाना चाहिए। 

सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान यह बात सामने आई कि लोग भावनात्मक चीजों में नहीं फंसे हैं, बल्कि मुद्दों पर बात कर रहे हैं। और दूसरा यह कि समाज कह रहा है कि भले ही कोई दिल्ली से टिकट लेकर आ जाए, लेकिन उस टिकट पर जीत की मुहर वे लगाएंगे। यानी वे कह रहे हैं कि हम मुहर लगाएंगे कि तुम कहां खड़े थे, जब हमें तुम्हारी जरूरत थी। मुख्य बात यह कि ऐसा इक्का-दुक्का जगहों पर नहीं हुआ, बल्कि राज्य के सभी 50 जिलों में लोगों ने सवाल उठाया और वे निकलकर आगे आए। 

गत 28 सितंबर, 2023 को जयपुर में जब एक बड़े जनमंच का आयोजन के जरिए सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान उठाए गए सवालों का मसौदा दलित समाज के घोषणापत्र के रूप में लोकार्पित हुआ तो राजनीतिक पार्टियों के लोगों को हमलोगों ने बुलाया। हमारी घोषणापत्र कमेटी ने, उनके सामने सबसे पहले तो यह बताया कि घोषणापत्र बना कैसे। फिर इस घोषणापत्र को महिलाओं के समूह ने लोकार्पित किया। सभा का संचालन और अध्यक्षता महिलाओं द्वारा ही किया गया। 

देखा जा रहा है कि हिंदुत्ववाद को चुनाव के मौके पर बढ़ावा दिया जा रहा है। इसकी धमक राजस्थान में भी देखने-सुनने को मिल रही है। सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान आप लोगों ने क्या महसूस किया?

देखिए, सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान एक विषय पर हर जगह संकल्प लिया गया कि जो लोकतंत्र के विरोधी हैं और संविधान के विरोधी हैं, यदि वे यूं कहिए पूरा घोषणापत्र ही छाप दें, तब भी हम उनके विरोधी रहेंगे। 

यह फैसला तो आप लोगों का होगा। लोगों का क्या कहना है?

यह लोगों का ही कहना है। लोगों ने ही संकल्प लिया, क्योंकि हर जगह पर हर संवाद में बात आई कि प्रधानमंत्री का आर्थिक सलाहकार यह कह रहा है कि संविधान पुराना पड़ गया हैं, हमें नया संविधान बनाना चाहिए। मतलब यह कि समता-स्वतंत्रता-बंधुता और न्याय का लक्ष्य जो 1950 में था, वो तब का लक्ष्य था। या पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू कह रहे हैं कि संविधान का कोई मूल ढांचा नहीं होता है। उपराष्ट्रपति कह रहे हैं कि संविधान का मूल ढांचा नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायधीश रह चुके एक व्यक्ति, जो कि राज्यसभा का सदस्य हैं, वह कह रहे हैं कि संविधान का मूल ढांचा नहीं होता। देखिए, संविधान के मूल ढांचे पर आरएसएस और भाजपा ने जो प्रहार किया है, वह लोगों को बहुत अच्छे से समझ में आ रहा है। उनको अब समझ में आ रहा है कि धीरे-धीरे देश तानाशाही की तरफ जा रहा है, और अगर हम नहीं चेते तो हम बहुत कुछ खो देंगे। सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान लोगों ने खड़े होकर हमारे सामने कहा कि एक अकेले बाबा साहब ने इतना बड़ा संविधान दिया, उन्होंने जो दिया यदि उसको हम नहीं बचा पा रहे हैं तो हमरे ऊपर लानत और धिक्कार है। यह समझ आम समाज की बन रही है। आप मान के चलिए लोग संविधान के पक्ष में खड़े होंगे और उनको नकारेंगे जो संविधान के भी पक्ष में नहीं हैं।

अच्छा यह बताइए कि पूरे सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान जो दलित-बहुजन एकता की बात की जाती है, वह जमीन पर कैसी दिखी?

देखिए, हमने सबसे पहले शुरुआत की दलितों को एकजुट करने से पहले हम अपना घर सुधारेंगे। जब वे एकजुट हो जाएंगे, फिर हम तमाम उत्पीड़ित समुदायों को एकजुट करने का प्रयास करेंगे। हम प्रयासरत हैं कि आदिवासियों को अपने साथ लें, अति पिछड़ों को अपने साथ लें और उन सभी लोगों को साथ लें, जो सामाजिक न्याय की विचारधारा में हमारे साथ खड़े होते हैं या बात करते हैं। हम अल्पसंख्यक समाज को भी अपने साथ लाएंगे। पूरी यात्रा के दरम्यान यह बात चली और आप यह देखिए कि जिस दिन जनमंच आयोजित हुआ उस दिन संयुक्त किसान मोर्चे के लोग वहां हमें समर्थन देने के लिए पहुंचे। हमें लोहियावादी लोग समर्थन देने के लिए पहुंचे। यहां तक कि गांधीवादी लोग भी पहुंचे। सिविल सोसाइटी के लोग पहुंचे। तो यह जो हम बीज बो रहे थे, उसका असर दूसरे समाजों में भी गया। ओबीसी में भी यह संदेश गया कि जब दलित अपना काम कर रहे हैं और ये जो कर रहे हैं, ऐसा हमें भी करना है और इनके साथ खड़ा होना होगा। 

गत 8 सितंबर, 2023 को राजस्थान के चूरू जिले में सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान सभा को संबोधित करते भंवर मेघवंशी

बात यह है कि जब आप खुद संगठित होते हैं तभी आप दूसरों को संगठित कर सकते हैं। लोग भी कहते हैं कि पहले अपना घर संभालो। हमने इस बार यही किया। यह प्रक्रिया जो राजस्थान में शुरू हुई है, देशव्यापी बनती जा रही है। अभी हमने नागपुर में ऑल इंडिया इंडिपेंडेंट शिड्यूल कास्ट एसोशिएशन का नेशनल कंवेंशन किया। वहां भी हमने यही कहा कि हम पहले अपने लोगों को एकजुट करेंगे फिर हम पूरे बहुजन समाज को एकजुट करेंगे। अन्ततः देखिए कि केवल दलित अकेले कुछ नहीं कर सकते। यह निर्वाचन की राजनीति या और भी कुछ हो, अकेले तो नहीं कर सकते, हमें एकता तो बनानी पड़ेगी और वो एकता दलित-बहुजन और आदिवासी सारे लोगों की एकता के बगैर नहीं बनेगी। इसीलिए हम किसी थ्योरी में नहीं उलझ रहे हैं। इसलिए हम इसको कह रहे हैं कि उत्पीड़ितों की एकता, शोषितों की एकता, कमेरों की एकता और ऐसी एकता जब आप बनाते हैं तो उसमें जातियों का गठबंधन नहीं वर्गीय चेतना का गठबंधन होता है। उसमें ओबीसी आएगा ही आएगा। और ओबीसी ने जिस दिन सांप्रदायिक ताकतों को लात मार दिया, तब सांप्रदायिक ताकतें एक दिन में दम तोड़ देंगी, क्योंकि आज की तारीख में सांप्रदायिक ताकतों के पास ओबीसी का वर्ग अभी भी है। उन्हें हिंदुत्व के नाम पर भ्रमित कर रखा गया है। लेकिन ओबीसी ने जिस दिन स्वयं को फुले, ललई सिंह यादव, अर्जक संघ से जोड़ लिया और जिस दिन पेरियार को अपना आइकन मान लिया, यह समाज बदलेगा और सांप्रदायिक ताकतें हारेंगी। दलित तो यह मान चुके हैं। आप यह देखिए कि उनके यहां कबीर, पेरियार, रैदास, ललई सिंह यादव सभी की तस्वीरें हैं। अधिकांश दलित यह मानते हैं कि फुले दंपति के बिना हमारे आंदोलन का कोई आधार नहीं है। तो आप मान कर चलिए कि जो दलितों ने आत्मसात किया, उस विचार को, जिस दिन ओबीसी ने आत्मसात कर लिया, उस दिन बहुजन एकता बनने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन इसके लिए बड़ा आंदोलन चलाना पड़ेगा, क्योंकि ओबीसी की कुछ जातियों और दलित जातियों के बीच हितों का टकराव है। दलित, जहां खेतिहर मजदूर भी हैं और एकदम छोटी जोत के मालिक भी हैं, वहां उत्पीड़न और भेदभाव है।

राजस्थान में कांग्रेस की सरकार ने जाति आधारित गणना का आदेश दिया है। हालांकि चुनाव के बाद किसकी सरकार बनेगी और क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन प्रथम दृष्टया आपकी प्रतिक्रिया क्या है?

मुझे लगता है कि जाति आधारित गणना तात्कालिक राजनीति को प्रभावित करने वाला काम हो या न हो, मैं उसकी चिंता नहीं करता। मैं इसकी भी चिंता नहीं करता कि उसका क्या असर पड़ेगा या नहीं पड़ेगा। लेकिन देश में सामाजिक न्याय को पुनर्स्थापित करने के लिए यह बहुत जरूरी कदम है और मैं अशोक गहलोत जी के इस निर्णय के साथ हूं। भले ही उन्होंने यह देर से किया। लेकिन यह देखिए कि उन्होंने केवल इसकी घोषणा नहीं की, बल्कि उनके आदेश पर सामाजिक न्याय आधिकारिता विभाग नोडल विभाग बन चुका है और वहां से सचिव से लेकर निचले स्तर तक आदेश दिया जा चुका है। अब सरकार में कोई भी आए, ऑर्डर हो चुका है तो उसको करना ही पड़ेगा। आज समाज जाग गया तो आप मानकर चलिए किसी की भी सरकार आए राजस्थान में जाति आधारित गणना करनी ही पड़ेगी। न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में। इस सवाल को कालीन के नीचे अब कोई भी नहीं दबा सकता। 

एक बार फिर से पिछड़े समाज के लोग कमंडल के भ्रम से निकलकर फिर से सामाजिक न्याय की तरफ जा रहे हैं। और राजस्थान सरकार ने जो किया है, उसके बड़े असर होंगे। मुझे लगता है कि ‘इंडिया’ गठबंधन को एकजुट रखने में जातिगत जनगणना का मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण साबित हाेगा। 

समाप्त

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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