h n

देश में पत्रकारों को सच बोलने से रोका जा रहा है : उर्मिलेश

ब्रिटिश पीरियड में ऐसा होता होगा। लेकिन आजाद भारत में यह इस तरह की पहली घटना है कि एक मीडिया संस्थान से जुड़े 46-47 लोगों की जांच एक साथ की गई। दिल्ली और मुंबई में तो छापेमारी की ही गई और केरल में भी की गई। इस तरह किसी मीडिया संस्थान को बंद करने कोशिश सरकार के स्तर पर पहले कभी नहीं हुई। पढ़ें, उर्मिलेश से यह साक्षात्कार

[राज्यसभा टीवी के संस्थापक संपादक रहे उर्मिलेश देश के चर्चित पत्रकारों में एक हैं। उनकी किताबें– ‘बिहार का सच’ (1991), ‘योद्धा महापंडित’ (1993), ‘राहुल सांकृत्यायन : सृजन और संघर्ष’ (1994), ‘झारखंड : जादुई जमीन का अंधेरा’ (1999), ‘झेलम किनारे दहकते चिनार’ (2004), ‘कश्मीर : विरासत और सियासत’ (2006), ‘भारत में आर्थिक सुधार के दो दशक’ (संपादन, 2010), ‘क्रिस्टेनिया मेरी जान’ (2006) और ‘गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’(2021) चर्चित रही हैं। हाल ही में ‘न्यूजक्लिक’ प्रकरण में दिल्ली पुलिस व केंद्रीय जांच एजेंसियों ने उनके घर पर छापेमारी की और उन्हें पूछताछ के लिए थाने ले गई। बता दें कि इस प्रकरण में ‘न्यूजक्लिक’ के मुख्य संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और एचआर मैनेजर अमित चक्रवर्ती को न्यायिक हिरासत में रखा गया है। इस प्रकरण को भारतीय मीडिया पर सरकार की ओर से हमला माना जा रहा है। इसी संबंध में फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने उर्मिलेश से दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश]

आपके साथ दिल्ली पुलिस ने किस तरह का व्यवहार किया?

दिल्ली पुलिस और जांच एजेंसी के लोगों का व्यवहार चाहे वह मेरे घर के अंदर हो या बाहर ठीक रहा। उन्होंने मेरे साथ कोई बदसलुकी नहीं की। वे मेरे प्रति पोलाइट रहे। यहां तक कि मेरे घर पर जांच के दौरान उन्होंने अच्छा व्यवहार किया और मेरे घर से जब्त किए गए सामानों की सूची दी। मेरे लैपटॉप और दो फोन सेट उठाकर ले जाया जाना बहुत बुरा अनुभव रहा। मेरी लिखी जा रही दो नई पुस्तकों की पांडुलिपि भी उसी लैपटॉप में थी। पुलिस दस्ते और उसको निर्देशित करने वालों का यह कदम सबसे अलोकतांत्रिक, आपत्तिजनक और निरंकुश रहा। इसके अलावा वे मेरे घर से कुछ किताबें ले गए हैं। मुझे नहीं पता कि दिल्ली पुलिस और जांच एजेंसी के लोगों ने मेरे घर से कौन-कौन सी किताबें ले गए हैं। लेकिन इतना जरूर है कि मेरी आलमारियों से किताबें निकालने के बाद उन्हें फैला नहीं रहने दिया, उन्होंने शेष किताबों को वापस आलमारी में रखा। यहां तक कि जहां पूछताछ के लिए मुझे ले जाया गया, वहां भी उनका मेरे प्रति सद्-व्यवहार बना रहा। मुझे इस बात पर आपत्ति जरूर हुई कि उन्होंने मेरे घर पर जांच करने से पहले सर्च वारंट नहीं दिखाया। हालांकि उन्होंने जरूर कहा कि यह ऊपर का आदेश है। 

आप चार दशक से पत्रकारिता में सक्रिय रहे है। क्या पहले भी सरकारों का हस्तक्षेप इस तरह होता था?

नहीं, कभी नहीं। ब्रिटिश पीरियड में ऐसा होता होगा। लेकिन आजाद भारत में यह इस तरह की पहली घटना है कि एक मीडिया संस्थान से जुड़े 46-47 लोगों की जांच एक साथ की गई। दिल्ली और मुंबई में तो छापेमारी की ही गई और केरल में भी की गई। इस तरह किसी मीडिया संस्थान को बंद करने कोशिश सरकार के स्तर पर पहले कभी नहीं हुई। यह तो कहा ही जा सकता है।  

अब सरकार न्यूजक्लिक से जुड़े लोगों पर जो आरोप लगा रही है, उसे आप किस तरह विश्लेषित करेंगे?  

मैं अपने बारे में केवल इतना ही कह सकता हूं कि मेरा इस संस्थान के साथ केवल फ्रीलांसर के रूप में संबंध रहा है। मैं उनके लिए यूट्यूब पर शो पेश करता हूं। जहां तक न्यूजक्लिक का सवाल है, अभी तक लगाए गए आरोपों का कोई आधार सामने नहीं आया है। 

उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार

देखा जाय तो यह वैकल्पिक मीडिया के ऊपर एक बड़ा हमला है। क्या आप मानते हैं कि वैकल्पिक मीडिया का प्रभाव बढ़ा है?

निश्चित रूप से। जिसे आप वैकल्पिक मीडिया या फिर ऑनलाइन मीडिया कहते हैं, उसका दर्शक वर्ग बढ़ा है। देखिए आज देश में जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है, उस हिसाब से कहें तो ऑनलाइन मीडिया ने लोगों को अपनी बात रखने का अवसर प्रदान किया है। 

लेकिन न्यूजक्लिक से जुड़ी सरकारी कार्रवाई की रिपोर्टिंग जिस तरह से मीडिया संस्थानों द्वारा की गई है, उसे आप किस रूप में विश्लेषित करेंगे?

आप यदि टीवी चैनलों की बात कर रहे हैं तो उनकी तो पत्रकारिता की दिशा ही अलग है। रही बात प्रिंट मीडिया की तो कुछ अंग्रेजी अखबारों ने तथ्यपरक रिपोर्टिंग की है। हिंदी अखबारों की पत्रकारिता निराश करती है। आप इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि हिंदी के ज्यादातर अखबारों ने सतही रिपोर्टिंग की, जिसमें एजेंसियों द्वारा उपलब्ध सामग्री को ही रिपोर्टिंग का ब्यौरा बनाया गया।

इस तरह की घटना के बाद देश में पत्रकारिता की संभावित दशा और दिशा को लेकर आप क्या कहेंगे?

देखिए, मैंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत नवभारत टाइम्स से की। इसके पहले मेरी रिपोर्ट सबसे पहले ‘दिनमान’ में तब प्रकाशित हुई थी, जब मैं बीए पार्ट-वन या पार्ट-टू का छात्र था। उस समय उसके संपादक रघुवीर सहाय थे। मैंने हमेशा पत्रकारिता के उच्च स्तरीय मानदंडों का पालन किया है। कभी कोई हल्की बात नहीं की। मुझे लगता है कि देश में पत्रकारों को सच बोलने से रोका जा रहा है। यह निराशाजनक स्थिति है। मैं फिर कहता हूं कि हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी अखबारों की पत्रकारिता का स्तर ऊंचा है।  

आपको नहीं लगता है कि सरकार की इस कार्रवाई से वे युवा जो दलित-बहुजन समाज से आते हैं और पत्रकारिता में सक्रिय हैं, उनके मनोबल पर असर पड़ेगा? उन्हें क्या करना चाहिए?

मैं तीन बातें कहता हूं। पहली तो यह कि दलित-बहुजन समाज से आनेवाले युवा अधिक से अधिक अंग्रेजी मीडिया में अपने लिए स्पेस बनाएं। यदि अच्छा कंटेंट तैयार करेंगे तो उनका अनुवाद भी कई भाषाओं में होता है। इसलिए यह कि वे पढ़े नहीं जाएंगे, ऐसा सोचना ठीक नहीं। आपलोग [फारवर्ड प्रेस] कांचा आइलैय्या के आलेख छापते हैं जो या तो तेलुगु में लिखते हैं या फिर अंग्रेजी में। आप उन्हें हिंदी में छापते हैं तो वे हिंदी क्षेत्र में भी पढ़े जाते हैं। ऐसे भी आजकल अच्छे कंटेंट अन्य भाषाओं में अनूदित होती ही हैं। दूसरी बात यह कि मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हिंदी की जो मुख्य धारा की मीडिया है, उसमें जब तक सामाजिक और व्यवस्थागत संरचना में बदलाव नहीं आएगा, तब तक दलित-बहुजनों के लिए स्पेस नहीं के बराबर है। आप चाहे जितना संघर्ष कर लें। तीसरी बात यह कि नए पत्रकार हिंदी के उन संस्थानों में जगह तलाशें जो वैकल्पिक मीडिया के रूप में आज काम कर रहे हैं। इसके अलावा वे अपने स्तर पर ऑनलाइन मंच तैयार करें। इसके लिए ट्रस्ट बनाएं या कोआपरेटिव बनाकर प्रयास करें। मुख्य बात यह है कि दलित-बहुजन युवा जो पत्रकारिता करना चाहते हैं, वे हिंदी की मेनस्ट्रीम मीडिया में जगह बनाने के फेर में अपनी जवानी बर्बाद न करें, बल्कि अच्छा कंटेंट तैयार करने में अपनी ऊर्जा लगाएं।

आखिरी सवाल, आपने कहा है कि आप डरेंगे नहीं। इससे आपका आशय क्या है?

हां, मैं बिल्कुल भी नहीं डरा हूं। मैं पूर्व की तरह अपना काम करता रहूंगा। मैं जिस तरह की पत्रकारिता करता रहा हूं और जिसके कारण मेरी अपनी पहचान रही है और सत्य के प्रति मेरी प्रतिबद्धता रही है, उस पर कायम रहूंगा।

(संपादन : राजन/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

केशव प्रसाद मौर्य बनाम योगी आदित्यनाथ : बवाल भी, सवाल भी
उत्तर प्रदेश में इस तरह की लड़ाई पहली बार नहीं हो रही है। कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के बीच की खींचतान कौन भूला...
बौद्ध धर्मावलंबियों का हो अपना पर्सनल लॉ, तमिल सांसद ने की केंद्र सरकार से मांग
तमिलनाडु से सांसद डॉ. थोल थिरुमावलवन ने अपने पत्र में यह उल्लेखित किया है कि एक पृथक पर्सनल लॉ बौद्ध धर्मावलंबियों के इस अधिकार...
मध्य प्रदेश : दलितों-आदिवासियों के हक का पैसा ‘गऊ माता’ के पेट में
गाय और मंदिर को प्राथमिकता देने का सीधा मतलब है हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति को मजबूत करना। दलितों-आदिवासियों पर सवर्णों और अन्य शासक...
मध्य प्रदेश : मासूम भाई और चाचा की हत्या पर सवाल उठानेवाली दलित किशोरी की संदिग्ध मौत पर सवाल
सागर जिले में हुए दलित उत्पीड़न की इस तरह की लोमहर्षक घटना के विरोध में जिस तरह सामाजिक गोलबंदी होनी चाहिए थी, वैसी देखने...
फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)
मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण...