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सांप्रदायिक व जातिगत सियासत का दंश झेल रहे गोरखपुर के बुनकर

हथकरघा उद्योग इस समूचे इलाक़े के लाखों लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है। इसके संकटग्रस्त होने से समूचा पूर्वी उत्तर प्रदेश भयानक आर्थिक संकट में फंस सकता है। पढ़ें, स्वदेश कुमार सिन्हा की यह रपट

राजनीतिक रूप से गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) का लोकसभा और विधानसभा क्षेत्र बहुत ही महत्वपूर्ण है। योगी आदित्यनाथ, जो कि आज सूबे के मुख्यमंत्री हैं, वे लंबे समय तक यहां के सांसद भी रहे तथा यहीं से वे पहली बार विधान पार्षद भी बने। आज भी वे यहीं से विधानसभा सदस्य हैं। गोरखपुर की लोकसभा और विधानसभा सीट पर राष्ट्रवाद, जातीय समीकरण और ‘बाहरी बनाम स्थानीय’ के राजनीतिक विमर्श में बुनकर समाज एक ऐसा वर्ग है, जिसकी बदहाली की कहीं कोई चर्चा नहीं है। इसकी वजह यह कि गोरखपुर सांप्रदायिक राजनीति का गढ़ बन चुका है और जातिगत भेदभाव भी यहां चरम पर है। हालात यह है कि इस क्षेत्र के बुनकर, जो जुलाहा जाति से आते हैं, उनके लिए वे पार्टियां भी चुप हैं, जो धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करती हैं। 

गौर तलब है कि गोरखपुर तथा समूचे पूर्वांचल में हथकरघा उद्योग की परंपरा बहुत पुरानी है। यहां क़रीब 16वीं-17वीं शताब्दी से ही हाथों से वस्त्र बनाने के प्रमाण मिलते हैं। गोरखपुर से क़रीब दस किलोमीटर दूर मगहर में कबीरदास की समाधि है। यह इलाक़ा पुराने समय से ही हथकरघा उद्योग का प्रमुख केंद्र रहा है। कबीरदास ख़ुद जाति के जुलाहा थे और कपड़ा बुनने का काम करते थे। लेकिन अब इस इलाक़े का पुराना हुनर तबाह होकर समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। 

कभी गोरखनाथ मंदिर के पीछे गूंजती थी हथकरघों की आवाज

दरहकीकत यह है कि योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद भले ही गोरखनाथ मंदिर व उस सारे क्षेत्र का सौंदर्यीकरण कर दिया गया हो, लेकिन गोरखनाथ मंदिर के ठीक पीछे पुराने गोरखपुर के मोहल्ले रसूलपुर, जमुनिया, जाहिदाबाद और तिवारीपुर जैसे इलाक़े जो बुनकरों का प्रमुख केंद्र रहे, वे बेहद बदहाल स्थिति में आ गए हैं। क़रीब दस वर्षों बाद जब मैं इन इलाक़ों में गया तब मालूम हुआ कि इन इलाक़ों में बुनकरों के हालात इन वर्षों में और ज़्यादा बुरे हो गए हैं। पहले इस समूचे इलाक़े में हथकरघों की आवाज़ गूंजती रहती थी। लेकिन अब इस उद्योग में बढ़ती समस्याओं और बदहाली को देखकर बुनकर बड़े पैमाने पर इस पुश्तैनी धंधे को छोड़कर अन्य व्यवसायों की ओर मुड़ रहे हैं।

जामिन मियां का गुजर जाना

इस उद्योग में क़रीब-क़रीब शत-प्रतिशत पासमांदा मुस्लिम जुलाहा जाति के हैं, लेकिन इनके सामानों के थोक खरीदार शेख-सैय्यद जैसी मुस्लिम उच्च जातियां तथा हिंदू मारवाड़ी हैं। एक समय में गोरखपुर में इन बुनकरों के बीच अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा आधार था। कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता जामिन अली का बुनकरों के बीच व्यापक प्रभाव था। कम्युनिस्ट पार्टी का गोरखपुर का ऑफिस ‘अजय भवन’ यहीं गोरखनाथ मंदिर के पीछे बुनकर बस्ती रसूलपुर में ही बना है। इसे ‘कौड़ी भवन’ भी कहते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि मज़दूरों और बुनकरों ने कौड़ी-कौड़ी जोड़कर इसे बनाया था, इसलिए इसका नाम ‘कौड़ी भवन’ पड़ा। पिछले दिनों यहां जाने पर पता लगा कि जामिन अली की मृत्यु के बाद सब कुछ बिखर गया है। यह ऑफिस भी किराए पर उठा दिया गया है और उनका बेटा ख़ुद अपने हथकरघे के पुश्तैनी व्यापार को छोड़कर गोरखपुर में ई-रिक्शा चलाने लगा है। 

उसने बताया कि “हथकरघे तथा पावरलूम से जुड़े हज़ारों कामगारों को कम मज़दूरी, कच्चे सामानों की कीमत अधिक होना, बिक्री की सही व्यवस्था का नहीं होना और बीमारियां होने जैसी कई समस्याओं का लंबे समय से सामना करना पड़ रहा है। यही कारण है कि ये लोग बुनकरी का अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर अन्य व्यवसायों की ओर जा रहे हैं। गोरखपुर में अधिकांश ई-रिक्शा चलाने वाले पहले बुनकर का ही काम करते थे।” 

गोरखपुर में बंद होने के कगार पर हथकरघा उद्योग

अब भी बीस साल पहले की मजदूरी

उत्तर प्रदेश बुनकर सभा से जुड़े मौलाना ओबैदुर्रहमान ने बताया, “बुनकरों की बदहाली का यह आलम है कि उन्हें बीस साल पहले की दर से ही मज़दूरी मिल रही है। बीस साल पहले भी उन्हें पांच रुपये प्रति मीटर की दर से मिलता था और आज भी तक़रीबन यही स्थिति है।” गोरखनाथ मंदिर के आसपास के इलाक़े यानी पुराने गोरखपुर में ही सैकड़ों पावरलूम चल रहे हैं, जिनमें कई हज़ार बुनकर काम करते हैं। ओबैदुर्रहमान के मुताबिक़ गोरखपुर में क़रीब 30-40 हज़ार लोग हथकरघा या पावरलूम उद्योग से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। बुनकरों को मज़दूरी कम मिलने और उनके तैयार कपड़ों के लिए बाज़ार के सिकुड़ने का सिलसिला 1990 के दशक के आख़िर से शुरू हुआ था और आगे यह बढ़ता ही गया। हथकरघा उद्योग से जुड़े इमामुद्दीन कहते हैं, “कभी पुराने गोरखपुर इलाक़े में तीन लाख से अधिक बुनकर हुआ करते थे, लेकिन संकट क़रीब 20-22 साल पहले उस वक्त शुरू हुआ जब चीन के लिए बाज़ार खोल दिया गया और उसने हमारे बाज़ार में घुसकर सस्ता सामान ठूंस दिया। अब जो कपड़ा हम सौ रुपए की लागत से तैयार करते हैं, वही कपड़ा चीन 80 रुपए में बेच रहा है। हमारी लागत ज़्यादा है। सरकार ने हमें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया है।” बुनकरों की आवाज़ उठा रहे सामाजिक कार्यकर्ता अशफाक अहमद का कहना है, “सभी प्रमुख पार्टियों ने बुनकरों की बेहतरी का वादा किया और सत्ता में आने पर अपने वादे भूल गईं। अगर इस बार राजनीतिक दलों द्वारा बुनकरों की बात नहीं हो रही है तो इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि हथकरघा उद्योग में काम करने वालों की संख्या कम होने से आज इनकी आवाज़ भी कमज़ोर हो गई है। बहुत सारे मज़दूरों को बीमारियां खासकर सांस से जुड़ी बीमारियां हो रही हैं, लेकिन उन्हें उचित स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पातीं।” 

उधर समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्ष रामानंद यादव ने कहा, “सपा की सरकार ने बुनकर समाज के कल्याण के लिए जनेश्वर मिश्र पावरलूम उद्योग विकास योजना और जनेश्वर मिश्र राज्य हथकरघा पुरस्कार योजना शुरू की थी, लेकिन योगी सरकार ने इस पर गंभीरता से काम नहीं किया।” 

रटा-रटाया सरकारी जवाब

बुनकरों की समस्याओं के बारे में पूछे जाने पर उपनिदेशक (हथकरघा विभाग) राम बढ़ई कहते हैं, “बुनकरों के तीन प्रमुख मुद्दे– मज़दूरी, कच्चा माल और मार्केटिंग हैं। वैसे हमने सरकारी योजनाओं को पूरी ईमानदारी से उन तक पहुंचाया है। बुनकरों द्वारा तैयार कपड़ों के लिए विपणन की उचित व्यवस्था से ही उनकी समस्याओं का स्थायी समाधान हो सकता है।”

लेकिन यहां के स्थानीय बुनकरों से बातचीत करने पर कुछ और ही कहानी सामने आती है। हज़ारों कुशल उद्यमियों को कठिन समय का सामना करना पड़ रहा है। उनका मानना ​​है कि यहां दशकों से विशाल उद्योग के रूप में मौजूद हथकरघा उद्योग को धीमी गति से मौत का सामना करना पड़ रहा है। बाज़ार का अभाव, बिजली के बढ़ते हुए दाम गरीबों के लिए बहुत कठिन साबित हुए हैं। 1984-85 के दौरान हथकरघा उद्योग से लगभग 25,000 से 30,000 श्रमिक जुड़े थे, लेकिन इसमें बढ़ते संकटों के कारण वे अन्य प्रदेशों में छोटा-मोटा काम करने के लिए मजबूर हो गए हैं। वर्तमान समय में हथकरघा उद्योग स्थानीय साहूकारों के चंगुल में फंसा हुआ है। किसी भी सरकारी सहायता के अभाव के कारण स्थानीय साहूकारों के शोषण का सामना करना पड़ रहा है। पहले हथकरघा निगम और सहकारी समितियां, जो स्थानीय बुनकरों का तैयार माल उचित मूल्य पर खरीदती थीं, लेकिन लगभग 15 वर्षों से उन समितियों ने इन छोटे-छोटे बुनकरों से हथकरघा सामग्री खरीदनी बंद कर दी है, जिससे उनको तैयार सामग्री बेचने में बहुत अधिक समस्या आ रही हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा संचालित 14 कपड़ा मिलें, जो स्थानीय बुनकरों के लिए रोजगार उपलब्ध कराने में बड़ी मददगार थीं, लेकिन कुछ साल पहले उनके बंद होने के बाद बिचौलियों या स्थानीय समितियों ने इसका भरपूर फायदा उठाया और जमकर शोषण करना शुरू कर दिया, जो आज भी बदस्तूर जारी है। 

रोजाना 10-30 रुपए ही कमा पाते हैं गरीब बुनकर

एक गरीब बुनकर रोजाना 10 से 30 रुपए ही कमाता है, जिससे घर में चूल्हा जलाना नाकाफ़ी है। साठ साल से ज़्यादा उम्र की अबीबू निशा एक स्थानीय हथकरघा इकाई द्वारा दिए गए एक छोटे से ऑर्डर को पूरा करने के लिए गेज तैयार करने में लगी हुई थी, जिसके लिए उसने अपनी स्वास्थ्य स्थिति की अनदेखी करते हुए लगभग चौबीस घंटे काम किया था। दशकों तक धागा बनाने के काम से जुड़े रहने के बावज़ूद उसकी आय जीविका के लिए भी मामूली रही है। उसके लिए ज़िंदगी आसान नहीं रही। उसका कहना है, “हम कई वर्षों से 60 हजार से ज़्यादा धागे बना रहे हैं। चालीस रील गेज बनाने के बाद हमें दस हज़ार रुपए से ज़्यादा कभी नहीं मिले हैं। हम एक दिन में 60 गेज बना सकते हैं, लेकिन वे बहुत अच्छे नहीं होंगे। अबीबू निशा ने आगे कहा, “कम आमदनी होने के कारण जीवन जीना मुश्किल हो रहा है। ऐसी कई लड़कियां हैं, जिन्होंने कम उम्र के बावज़ूद धागा बनाना परिवार की परंपरा के कारण शुरू किया।” एक युवा महिला श्रमिक ने कहा, “जब मैं स्कूल से लौटती हूं, तो पढ़ती हूं तथा हथकरघे पर काम भी करती हूं और इसी तरह मैं अपनी जीविका चलाती हूं। अगर मैं ऐसा नहीं करती हूं तो मैं अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाऊंगी।” बुनकर संघ गोरखपुर के महासचिव मोहम्मद मुसिल अंसारी ने बताया, “कुछ लोग नेपाल चले गए हैं तो कुछ लोग पानीपत, भिवंडी और भीलवाड़ा आदि चले गए हैं। जबकि कुछ लोग जो यहां रह गए हैं, उन्होंने अपनी ज़मीन और संपत्ति बेचकर पावरलूम की स्थापना की तथा कुछ लोग इन पावरलूमों में काम कर रहे हैं।” अंसारी ने आगे कहा, “पावरलूम मालिकों की स्थिति काफी दयनीय है, क्योंकि यहां निवेश किए गए धन महाजनों [स्थानीय साहूकारों] के हैं, जो आगे चलकर लोगों का बुरी तरह शोषण करते हैं।” उन्होंने कहा, “सरकार से हमारी एकमात्र मांग यही है कि कपड़ा उद्योग की बेहतरी के लिए वह केवल घोषणाएं करना बंद करे। उसे हथकरघा बुनकरों की समस्याओं को समझने के लिए एक आयोग का गठन करना चाहिए।” 

निस्संदेह हथकरघा उद्योग इस समूचे इलाक़े के लाखों लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है। इसके संकटग्रस्त होने से समूचा पूर्वी उत्तर प्रदेश भयानक आर्थिक संकट में फंस सकता है। समय रहते इसका निदान आवश्यक है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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