h n

दौलता राम बाली : इंग्लैंड के बर्मिंघम में आंबेडकरवादी मिशन के समर्पित मिशनरी

दौलता राम बाली इंग्लैंड में अपने दौर के कई दिग्गज आंबेडकरवादियों को याद करते हैं, जिन्होंने वहां आंदोलन को आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण खुश राम झुम्मट थे, जिन्होंने डीएवी कॉलेज, लाहौर से एमए पास किया था और उस समय अपने साथियों में सबसे अधिक शिक्षित थे। बता रहे हैं विद्याभूषण रावत

दौलता राम बाली जी से मेरी पहली मुलाकात सन् 2011 में तब हुई जब मैं बर्मिंघम विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम मे भागीदारी के लिए वहां गया था और सम्मेलन के बाद मुझे ‘समाज वीकली’ पत्रिका के संपादक और आंबेडकरवादी देविंदर चंदर जी के घर पर रुकना था। देविंदर जी बहुत पुराने आंबेडकरवादी हैं, जिनके पिता कांशीराम जी के साथ काम कर चुके हैं। बर्मिंघम मे देविंदर जी ‘समाज वीकली’ और ‘एशियन इंडिपेंडेंस’ नामक दो पत्रों का संपादन करते हैं। देविंदर जी और डी.आर. बाली, दोनों मुझे यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में लेने आए थे, जहां मैं रह रहा था। 

पहले बाली साहब के घर गया। शाम के लगभग 7 बजे थे। उनकी पत्नी ने मेरे लिए समोसे और अन्य व्यंजन बनाए थे। फिर तो उन्होंने डिनर के बाद ही जाने की अनुमति दी। उन्होंने मुझे जो प्यार और स्नेह दिया, वह मुझे अद्भुत लगा। ऐसा लगा जैसे यह भारत में मेरा अपना परिवार है। बाली साहब ने पंजाबी में कई किताबें लिखी हैं और नवीनतम किताब ‘साडा गेडा’ है। वे एक अत्यंत समर्पित आंबेडकरवादी हैं। वह उन बहुत कम लोगों में से एक हैं, जिन्होंने विशेष रूप से बर्मिंघम और सामान्य रूप से ब्रिटेन में आंबेडकरवादी आंदोलन को मजबूत किया। वह विशेष रूप से पंजाब में आंबेडकरवादी बिरादरी के बीच बौद्ध धर्म के विकास में रुचि रखते हैं। उनकी पत्नी बलबीर कौर उनके लिए समर्थन का एक मजबूत स्तंभ रही हैं और वह भी अपने जीवन में आंबेडकरवाद और बौद्ध धर्म का पालन करती हैं। उनकी दो बेटियां और एक बेटा है।

वर्ष 2011 से बर्मिंघम मेरे लिए एक घर बन गया है और मैंने अब तक कई बार यात्रा की है। देविंदर जी और बाली साहब, दोनों ही वहां सबसे सम्मानित व्यक्ति रहे हैं और जितना अधिक मैंने उनसे बातचीत की, उनके बारे में जानने की मेरी उत्सुकता उतनी ही बढ़ती गई।

डी.आर. बाली का जन्म 12 अप्रैल, 1953 को पंजाब के फिल्लोर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता संत राम पंजाब में चमड़े का काम करते थे और उनके पास परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं थी। इसलिए वे पचास के दशक के में इंग्लैंड चले गए। साठ के दशक में उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ एक फाउंड्री (लोहे की फैक्ट्री) में काम करना शुरू किया। जब बाली साहब 9वीं कक्षा में थे, तब उनके पिता ने उन्हें 1968 में इंग्लैंड बुला लिया। 27 दिसंबर, 1975 को उनकी शादी बलबीर कौर से हुई, जो पंजाब से ब्रिटेन पहुंची थीं। भारत से बाहर अपनी पहली यात्रा के दौरान उन्होंने अकेले ही फ्रैंकफर्ट होते हुए दिल्ली से लंदन तक उड़ान भरी। उनके पिता एक आर्मी पर्सन थे और अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते थे, लेकिन बलबीर कौर को 9वीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। क्योंकि लड़कियों के लिए स्कूल उनके गांव से बहुत दूर था और दलित समुदाय की लड़कियों के लिए दूसरे गांव में पढ़ाई के लिए जाना बेहद असुरक्षित था। 

यही वह समय था जब उनके पिता ने उनकी सगाई दौलता राम बाली से कर दी, जो जालंधर के ही रहने वाले थे और इंग्लैंड में एक फाउंड्री में काम करते थे। क्योंकि दौलता राम बाली शादी के लिए जालंधर आने में असमर्थ थे, बलबीर अकेले ही लंदन चली गईं और वहां उन्होंने शादी की। 

अपनी बेटी और पत्नी के साथ दौलता राम बाली

दौलता राम बाली फाउंड्री में काम करते थे जो बेहद कठिन था और अधिक श्रम की मांग करता था। उनके मजबूत शरीर संरचना के कारण उन्हें हमेशा कठिन काम दिया जाता था। ज्यादातर वे सात दिनों तक 12-12 घंटे तक काम करते थे, जिसके बदले उन्हें प्रति सप्ताह 4.5 ब्रिटिश पाउंड मिलता था, जो उस समय काफी अच्छी रकम मानी जाती थी। हालांकि उनके भाई को प्रति सप्ताह लगभग 9 पाउंड मिलते थे। जबकि एक बार जब कोई व्यक्ति नौकरी में पक्का हो जाता था तो उसे प्रति सप्ताह 8.50 पाउंड मिलते थे।

खैर उनकी मेहनत रंग लाई। तीनों सदस्यों– उनके पिता, भाई और उन्हें नौकरी मिल गई। वे साथ-साथ जाते और घर वापस आते। उस समय हालात बहुत ख़राब थे। सप्ताह का अंत होने पर वे पब में बीयर पीने जाते थे और फिल्में देखने भी जाते थे। श्रम कार्य मुख्य रूप से बर्मिंघम, वॉल्वरहैम्प्टन, कोवेंट्री और डार्बी जैसे मध्य क्षेत्रों तक ही सीमित था। “हमें जो काम दिया गया, वह ज्यादातर भारी लोहे का काम था, जो ज्यादातर पंजाबियों द्वारा किया जाता था और क्योंकि वे अधिक से अधिक काम करते थे, इसलिए आर्थिक रूप से ‘समृद्ध’ हो गए।” 

बाली जी कहते हैं कि “सभी भारतीयों को भारी काम पसंद था, क्योंकि इसमें पैसा अधिक था।” वह श्रमिक आंदोलन का हिस्सा थे, लेकिन उन्हें लगता था कि श्रमिक संगठन जातिगत भेदभाव के बारे में कम ही बात करते हैं।

उन्होंने एक दोस्त के साथ व्यापार में भी निवेश किया और लगभग 10 वर्षों तक एक जनरल स्टोर शुरू किया। स्थिर आय के साथ, वह लगभग 35 साल पहले बर्मिंघम में अपने लिए एक अच्छा घर पाने में सक्षम हुए। 1969 में, उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के बारे में सोचा, लेकिन मौका नहीं मिला। परंतु 1974 में उन्होंने उस समय के जाने-माने बौद्ध भिक्षु एच. सदातिसा, जो डॉ. आंबेडकर के करीबी सहयोगी थे, द्वारा अपने घर में आयोजित एक विशेष समारोह में दीक्षा ली। वे श्रीलंका से आए थे। बाली कहते हैं, “मेरे भाई ने मेरे फैसले का विरोध किया। वह बाबा साहेब का सम्मान करते थे, लेकिन बौद्ध धर्म के प्रति उत्सुक नहीं थे। मेरे सभी रिश्तेदारों ने मेरे फैसले का विरोध किया और मुझसे बात तक करना बंद कर दिया। कई रविदासियों ने मेरा विरोध किया और वास्तव में मुझे रविदास महासभा का महासचिव बनाने की पेशकश की।” जब सब कुछ विफल हो गया तो एक दिन उनके ऊपर भारी डंडे से हमला किया गया, लेकिन वह बच गए। यह सत्य है कि व्यक्ति को सबसे बड़ी चुनौती अपने ही समुदाय और परिवार से मिलती है, खासकर तब जब किसी कार्य को समुदाय या परिवार में पारंपरिक मूल्यों और पदानुक्रमित व्यवस्था के लिए चुनौती माना जाता है।

दरअसल, आंबेडकरवाद लंबे समय तक दौलता राम बाली के पालन-पोषण का हिस्सा था, लेकिन परिवार के अधिकांश लोग बौद्ध धर्म अपनाने को इच्छुक नहीं थे। यह एक सामान्य अंतर है जो आंबेडकरवादी परिवारों में होता है, क्योंकि कई लोग बौद्ध धर्म में चले गए, जबकि कई अन्य लोगों को धर्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई और उन्होंने रविदासियों के रूप में अपनी मूल पहचान बरकरार रखी।

दौलता राम बाली इंग्लैंड में अपने दौर के कई दिग्गज आंबेडकरवादियों को याद करते हैं, जिन्होंने वहां आंदोलन को आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण खुश राम झुम्मट थे, जिन्होंने डीएवी कॉलेज, लाहौर से एमए पास किया था और उस समय अपने साथियों में सबसे अधिक शिक्षित थे। ऐसे अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति संसारी लाल, मलूक चंद, केरू राम, दर्शन राम सरहरे थे, जो 1960 के दशक से बर्मिंघम की बौद्ध सोसायटी के अहम सदस्य थे और वे हर साल यहां बुद्ध पूर्णिमा और अन्य समारोहों का आयोजन करते थे। जून, 1973 में, वह धम्म प्रवर्तन समारोह के लिए बर्मिंघम टाउन हॉल गए, जिसमें 500 से अधिक लोगों ने भाग लिया। इसे लेकर काफी चर्चा हुई थी। यह ब्रिटेन में आंबेडकरवादियों का बौद्ध धर्म में पहला धम्म प्रवर्तन था और इसे संभव बनाने वाले श्री बिशन दास महे, रतन लाल सांपला, परमजीत रत्तू उर्फ पहलवान, देबूराम महे, सुरजीत सिंह महे, गुरमुख आनंद और फकीर चंद चौहान थे। बौद्ध समाज के लोगों ने भी मदद की। पहला कार्यक्रम, जिसमें उन्होंने 1968 में ग्लासगो में रतन लाल सांपला द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया था। और दूसरा बर्मिंघम में आयोजित किया गया। प्रख्यात आंबेडकरवादी भगवान दास 1975 में यहां आए और एक महीने से अधिक समय तक यहां रहे और बर्मिंघम, बेडफोर्ड और वॉल्वर हैम्प्टन में विभिन्न कार्यक्रमों में भाषण दिया।

उन्होंने मुझे बताया कि यहां कई लोग आए थे, उनमें सबसे प्रमुख थे आरपीआई के नेता श्री बी.पी. मौर्य, डॉ. गुरुशरण सिंह पंजाब, वयोवृद्ध आंबेडकरवादी डॉ. सुरेश अंजत। डॉ. अंजत दो बार आए थे। वामन राव गोडबोले, प्रकाश आंबेडकर और कांशीराम भी यहां आए। एल.आर. बाली यहां बहुत लोकप्रिय शख्सियत रहे हैं। आपातकाल के समय वे यहीं थे। 1975 में जब इंदिरा गांधी बर्मिंघम आईं तो भारतीय मजदूर संघ और आंबेडकरवादियों ने उनका विरोध किया।

मैं उनसे सबसे महत्वपूर्ण सवाल पूछता हूं, जो इंग्लैंड की स्थिति के बारे में हमेशा हमारे दिमाग में आता है और वह यह कि क्या समाज में भेदभाव था? क्या उन्होंने व्यक्तिगत रूप से कभी जातिगत भेदभाव का सामना किया है?

“हमारे पास एक मिक्स टीम थी। वहां ऊंची जाति के सिख और हिंदू थे। उनके बीच अच्छे संबंध थे, लेकिन उनके मन में जातिगत भावना भी थी। डी.आर. बाली के मुताबिक, कबड्डी खेल के दौरान वे उन्हें चमार कहकर बुलाते थे और फिर भी वे अपने सिख दोस्त को भाई साहब कहकर बुलाते थे। बाली बताते हैं कि वे उनके इस बयान से आहत हुए और टीम से बाहर होने का फैसला किया। वे बताते हैं कि वे ऐसा नहीं कर पाए। वे तो फाउंड्री का काम भी छोड़ना चाहते थे, लेकिन मैनेजर ने उसका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया। 

बाली का कहना है कि उन्हें इस बात से दुख है कि लोग आंबेडकरवाद को संस्कृति के साथ नहीं अपनाते और अपनी महिलाओं को पराधीन बनाकर रखते हैं। उनका कहना है कि जब उनकी शादी हो रही थी तो उन्हें पंजाब की एक परंपरा का पालन करने के लिए कहा गया था, जहां पत्नी का घूंघट परिवार के बुजुर्ग लोगों जैसे ससुर और साले द्वारा उठाया जाता है। बाली का कहना है कि उन्होंने इस प्रथा को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, जबकि उनके कई रिश्तेदार उनके फैसले से बेहद नाराज थे। 

बाली साहब और उनकी पत्नी, दोनों ने अपने परिवार को मजबूत करने के लिए मिलकर काम किया। उनकी दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी शादी का विकल्प चुना। मैंने पूछा कि क्या उन्हें अपने दामादों, जो गोरे अंग्रेज़ हैं, से कभी परेशानी या असहजता महसूस हुई। बाली साहब और उनकी पत्नी दोनों का स्पष्ट रूप से कहना है कि वे अपनी बेटियों की पसंद का सम्मान करते हैं और इससे खुश हैं। उन्हे कभी कोई अंतर नहीं महसूस हुआ। हकीकत यह है कि भारत मे तो अंतर्जातीय विवाह लगभग असंभव है, लेकिन इंग्लैंड और पश्चिम के अन्य देश व्यक्तिगत प्रश्नों पर हमसे बहुत आगे हैं और किसी की व्यक्तिगत पसंद नापसंद के सवाल व्यक्तिगत ही रहते हैं और उनके आधार पर परिवारों में तलवारें नहीं खिंचती और यदि ऐसा होता भी होगा तो वो एशियाई मूल के लोगों मे ही होता होगा।

दौलता राम बाली को बोधगया की चिंता है और उनका मानना है कि यह बौद्धों का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है और इसे उन्हें ही सौंप दिया जाना चाहिए। उनका मानना है कि आंबेडकरवादियों को बौद्ध धर्म को मजबूत करने और बोधगया को मुक्त कराकर अपने सांस्कृतिक पहलू पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि बिना सांस्कृतिक बदलाव के कुछ भी संभव नहीं है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

संबंधित आलेख

यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)
चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे।...
जब मैं एक उदारवादी सवर्ण के कवितापाठ में शरीक हुआ
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और वे जिस दुनिया में रहते थे मैं उससे वाकिफ था। एक दिन जब...
When I attended a liberal Savarna’s poetry reading
Having read Om Prakash Valmiki and Suraj Pal Chauhan’s works and identified with the worlds they inhabited, and then one day listening to Ashok...
मिट्टी से बुद्धत्व तक : कुम्हरिपा की साधना और प्रेरणा
चौरासी सिद्धों में कुम्हरिपा, लुइपा (मछुआरा) और दारिकपा (धोबी) जैसे अनेक सिद्ध भी हाशिये के समुदायों से थे। ऐसे अनेक सिद्धों ने अपने निम्न...
फिल्म ‘फुले’ : बड़े परदे पर क्रांति का दस्तावेज
यह फिल्म डेढ़ सौ साल पहले जाति प्रथा और सदियों पुरानी कुरीतियों और जड़ रूढ़ियों के खिलाफ, समता की आवाज बुलंद करनेवाले दो अनूठे...