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आजाद भारत में जाति को चुनौती देनेवाली पहली फिल्म थी– ‘विद्या’

फिल्म की खासियत यह थी कि नायक चंद्रशेखर उर्फ चंदू (देवानंद द्वारा अभिनीत) एक चमार जाति के नौजवान के रूप में सामने आता है, जिसके पिता भोलाराम जूते गांठते और पॉलिश करते हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि चंदू अपने पिता के काम में सहयोग करता है। उसके पिता उसे खूब पढ़ाना चाहते हैं। ‘फिल्मों में जाति’ शृंखला के तहत यह पहली प्रस्तुति

फिल्मों में जाति

वह तारीख थी– 6 फरवरी, 1948। भारत आजादी के बाद बंटवारे का दंश झेल रहा था। गांधी बिहार और बंगाल में सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे और देश में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में संविधान के निर्माण की प्रक्रिया लगभग शुरू हो रही थी। ऐसे हालात में एक फिल्म बड़े पर्दे पर आई, जिसने लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। यह फिल्म थी– ‘विद्या’। इसके निर्देशक थे गिरीश त्रिवेदी।

दरअसल, इस फिल्म में मुख्य कलाकार देवानंद और सुरैया थे। देवानंद तब शीर्ष कलाकारों में माने जाने लगे थे। हालांकि उनके कैरियर की तीन फिल्में अपेक्षित सफलता अर्जित नहीं कर पाई थी। ये थीं– ‘हम साथ हैं’ (1946), ‘मोहन’ (1947), और ‘आगे बढ़ो’ (1947)। लेकिन इसके बाद रिलीज हुई फिल्म ‘जिद्दी’ (1948) देवानंद के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई। 

इसके बाद आई फिल्म ‘विद्या’ ने उन्हें प्रतिभा संपन्न कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया। दूसरी ओर सुरैया पहले ही फिल्म जगत में स्थापित हो चुकी थीं।

फिल्म के लोकप्रिय होने की एक बड़ी वजह इसका संगीत पक्ष भी था, जिसे सुरों से सचिन देव बर्मन ने सजाया था। मुख्य आवाजें मुकेश और सुरैया की थीं।  

खैर, सामान्य बंबइया फिल्म की तरह इस फिल्म में भी रोमांटिक ड्रामा था। यह पी.एल. संतोषी की कहानी पर आधारित थी, जिसकी पटकथा मुंशी रतनलाल और खंजर ने संयुक्त रूप से लिखी थी। डॉयलाग वाई.एन. जोशी ने लिखे थे। 

‘विद्या’ फिल्म के एक दृश्य में देवानंद व सुरैया

फिल्म की खासियत यह थी कि नायक चंद्रशेखर उर्फ चंदू (देवानंद द्वारा अभिनीत) एक चमार जाति के नौजवान के रूप में सामने आता है, जिसके पिता भोलाराम जूते गांठते और पॉलिश करते हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि चंदू अपने पिता के काम में सहयोग करता है। उसके पिता उसे खूब पढ़ाना चाहते हैं। 

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ऊंची जातियों के वर्चस्व के सापेक्ष देखें तो यह अलग तरह की फिल्म थी जिसमें नायक का संबंध अछूत समाज से था। इसके पहले 1936 में अशोक कुमार और देविका रानी की फिल्म ‘अछूत कन्या’ आई थी। इस फिल्म में नायिका अछूत समाज की थी।

फिल्म में सुरैया ने विद्या नामक युवती की भूमिका का निर्वहन किया है, जो कि एक जमींदार हरि सिंह की इकलौती बेटी है। स्वभाव से शराबी और अय्याश हरि सिंह स्त्री शिक्षा का विरोधी है और अपने घर में पत्नी के साथ हिंसक व्यवहार करता है। 

फिल्म में गांधीवाद के प्रभाव को दिखाया गया है। जमींदार हरि सिंह का भाई राम सिंह स्वतंत्रता सेनानी और गांधीवादी है। वह गांधी के अछूतोद्धार आंदोलन में शामिल रहा है। अपने भाई के जुल्म और अत्याचार को देख वह एक दिन घर छोड़ देता है। भोला राम उसे अपने यहां पनाह देता है।

कहानी आगे बढ़ती है और समय के साथ चंदू और विद्या जवान होते हैं। दोनों ग्रेजुएशन करके विद्या भवन स्कूल (जिसका निर्माण राम सिंह कराता है) में पढ़ाने लगते हैं। चंद्रशेखर और विद्या के बीच प्रेम होता है और जाति बाधक बनती है। हालांकि फिल्म में मदनलाल हरिलाल ऊर्फ हैरी के रूप में विलेन की भूमिका निभाते हैं। लेकिन उनके हिस्से केवल मामूली षडयंत्र है जो वे विद्या के पिता राम सिंह के कहने पर करते हैं।

फिल्म का क्लाइमेक्स नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देता है। दरअसल जमींदार हरि सिंह अपनी अय्याशी के लिए विद्या भवन स्कूल से एक लड़की उठवाता है। गुंडे उसके इशारे पर लीला नामक एक लड़की को उठा लेते हैं। लेकिन नायक चंद्रशेखर ऊर्फ चंदू उसकी साजिश को बेनकाब कर देता है। विद्या लीला की जगह ले लेती है, जिसे देखकर उसके पिता को पछतावा होता है और वह विद्या व चंद्रशेखर की शादी को पूरे समाज के सामने मंजूरी देता है।

बहरहाल, यह फिल्म अपने समय के लिहाज से महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिस पर गांधीवाद का प्रभाव दिखता है। इसके बावजूद आजाद भारत की यह पहली फिल्म साबित हुई, जिसमें जाति को चुनौती दी गई है। 

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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