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सामने आई सरकारी स्कूलों की बदहाली, दलित-बहुजन बच्चे हो रहे प्रभावित

रिपोर्ट बताती है कि देश के लगभग 8 प्रतिशत स्कूलों में केवल एक शिक्षक है। शिक्षकों के पास आधुनिक शैक्षणिक तरीकों में प्रशिक्षण की कमी है। और उन्हें इंटरैक्टिव और आकर्षक शिक्षण तकनीकों को नियोजित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। पढ़ें, सुशील मानव की रपट

क़रीब 8-10 साल पहले एक सर्वे आया था कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा 8 के छात्र हिंदी नहीं पढ़ पाते, सवाल नहीं हल कर पाते, उन्हें अंग्रेजी का अल्फाबेट नहीं आता, गिनती व पहाड़ा नहीं आता आदि। इसके साथ ही सवर्ण समाज में एक जुमला चला कि प्राथमिक माध्यमिक सरकारी विद्यालयों में बच्चे केवल पंजीरी फांकने जाते हैं। बाद में लोगों ने यह भी कहना शुरू किया कि मध्याह्न भोजन खत्म कर दो तो सरकारी स्कूलों में एक भी बच्चे न दिखें। 

जाहिर है कि मध्यम आय वर्ग पहले ही अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिफ्ट कर चुका था। जो निम्न आय वर्ग था, विशेषकर दिहाड़ी पेशा उनमें भी जो ठीक-ठाक आमदनी वाले थे, उन्होंने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से निकालकर झट किसी प्राइवेट स्कूल में डाल दिया। ऐसे प्राइवेट स्कूलों में जिनकी फ़ीस थोड़ी कम थी। कम यानि तीन सौ से पांच सौ रुपए महीने के फ़ीस वाले स्कूलों में। इन स्कूलों में मूलभूत इन्फ्रास्ट्रक्चर का घोर अभाव होता है। बमुश्किल तीन चार कमरों में पूरा स्कूल चलता है। शिक्षक भी शिक्षण के ज़रूरी मानदंडों के अऩुरूप नहीं होते। यानि उनकी शिक्षा इंटरमीडिएट या स्नातक होती है तथा उनके पास शिक्षण की कोई ट्रेनिंग या डिग्री नहीं होती। और तो और इन स्कूलों के पास कोई मान्यता तक नहीं होती। 

इऩ स्कूलों का टारगेट वो दलित-बहुजन वर्ग होता है, जो अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा दिलवाना चाहते हैं। लेकिन उनके पास उतनी आमदनी नहीं है। 

गांव में जो बच्चे स्कूल जाते हैं, उनकी पढ़ाई का स्तर क्या है, इसे लेकर बीते 18 जनवरी को एक सर्वे रिपोर्ट फिर से आया है, जिसे एक गैर-सरकारी संगठन ‘प्रथम एजुकेशन फाउडेंशन’ ने किया है। इसे वार्षिक नागरिक नेतृत्व वाला घरेलू सर्वेक्षण बताया गया है। ‘बियांड बेसिक्स’ शीर्षक वाली यह रिपोर्ट ग्रामीण क्षेत्र के 14-18 आयु वर्ग के बच्चों पर केंद्रित है जो कि 8-12 कक्षा में पढ़ते हैं। सर्वे के चार बिंदु हैं। मसलन यह कि शिक्षा के दिशा में बच्चों की गतिविधियां क्या हैं, उनकी आकांक्षाएं क्या हैं, सामान्य तौर पर उनमें जागरूकता का स्तर क्या है और सामान्य चीजों को सीखने के लिए वे कितने जागरूक हैं। 

इस रिपोर्ट से यह निकलकर सामने आता है कि ग्रामीण भारत के किशोर युवा किन गतिविधियों में लगे हुए हैं और कितनों की स्मार्टफोन तक पहुंच है और वो इसका उपयोग किस काम के लिए कर रहे हैं। 

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 14-18 आयु वर्ग के 25 प्रतिशत ग्रामीण युवा अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ने में अक्षम हैं। केवल 76 प्रतिशत लड़कियां और 70.9 प्रतिशत लड़के ही कक्षा 2 की स्तर की चीजें पढ़ सकते हैं। वहीं 50 प्रतिशत से अधिक युवा कक्षा 3 और कक्षा 4 के स्तर का एक से तीन अंकों का घटाना नहीं हल कर पाते हैं। तीन अंक की संख्या में एक अंक की संख्या से भाग नहीं कर पाते। रिपोर्ट बताती है कि 51 प्रतिशत लड़को की तुलना में 41.1 प्रतिशत लड़कियां ही समय बताने में सक्षम हैं। करीब 43 प्रतिशत युवा अंग्रेजी का वाक्य नहीं पढ़ पाते हैं। केवल 57.3 प्रतिशत छात्र ही अंग्रेजी में वाक्य पढ़ने में सक्षम थे तथा उनमें से लगभग तीन-चौथाई ही उनका अर्थ समझने में सक्षम थे। 

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एक प्राथमिक विद्यालय की तस्वीर

रिपोर्ट यह भी बताती है कि अंग्रेजी पढ़ने और अंकगणित के सवाल हल करनें में लड़कों का प्रतिशत लड़कियों से बेहतर है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 11वीं कक्षा में दाखिले के समय लड़कियां  विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित आदि विषय लड़कों की तुलना में कम चुनती हैं। सर्वे में यह भी बताया गया है कि 11वीं कक्षा के 55 प्रतिशत छात्र कला व मानविकी स्ट्रीम लेते हैं। केवल 5.6 प्रतिशत युवा ही व्यवसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं। 

रिपोर्ट में और क्या है?

रिपोर्ट यह भी बताती है कि 14-18 आयुवर्ग के 86.8 प्रतिशत छात्रों ने शिक्षण संस्थानों में दाखिला लिया है। किसी भी स्कूल में दाख़िला न लेने वाले युवाओं में 18 वर्ष के युवा सबसे ज़्यादा हैं, जो कि 32.6 प्रतिशत हैं। जबकि नामांकित न होने वालों में 14 वर्ष के बच्चे सबसे कम 3.9 प्रतिशत हैं। यानि 18 वर्ष की आयु वाले 32.6 प्रतिशत छात्र पढ़ाई नहीं कर रहे हैं। हालांकि सर्वेक्षण रिपोर्ट कहती है कि 17-18 आयुवर्ग की 23.6 प्रतिशत लड़कियों ने और 24.4 प्रतिशत लड़कों ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इसके कारणों की पड़ताल करते हुए रिपोर्ट कहती है कि लड़कियों में पढ़ाई छोड़ने का सबसे आम कारण पारिवारिक बाधा है। जबकि लड़कों के बीच सबसे आम कारण रुचि की कमी है। बेटों की तुलना में बेटियां 12वीं के बाद आगे की पढ़ाई ज़ारी रखने की इच्छुक होती हैं। हालांकि ये फैसला बेटियों के हाथ में न होकर परिवार के हाथ में होता है। 

सर्वे में कहा गया है कि पढ़ाई के साथ घर के बाहर काम करने वाले लड़कों का आंकड़ा 33.7 प्रतिशत है, जबकि साल 2017 में यह आंकड़ा 41.6 प्रतिशत था। पढ़ाई के साथ घर के बाहर काम करने वाली लड़कियों का आंकड़ा 28 प्रतिशत है जबकि 2017 में यह आंकड़ा 45.1 प्रतिशत था। सर्वे में बताया गया है कि लड़कों के दिमाग में जल्द-से-जल्द पैसा कमाने की चाहत होती है और वित्तीय संकट के समय बेटे अपनी स्कूल की फीस तक निकालने के लिए काम शुरू कर देते हैं।

गौरतलब है कि नई शिक्षा नीति-2020 के तहत डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देने की बातें कही गई थीं। ग्रामीण युवाओं की डिजिटल पहुंच और लैंगिक असमानता के बाबत यह सर्वे बताता है कि कुल 90 प्रतिशत युवाओं के घर में स्मार्टफोन है। जबकि 43.7 प्रतिशत लड़कों और 19.8 प्रतिशत लड़कियों के पास अपना खुद का स्मार्टफोन है। बावजूद इसके लड़कों में डिजिटल कौशल की कमी पाई गई। सर्वे में फोन संबंधी कार्यों को करने में लड़कों ने लड़कियों से बेहतर प्रदर्शन किया। सर्वे में दावा किया गया है कि युवाओं के दिमाग पर सोशल मीडिया और स्मार्टफोन का असर ज़्यादा है और 91 प्रतिशत बच्चे सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। 

रिपोर्ट इन कारणों की ओर इशारा करती है 

समस्या के कारणों पर बात करते हुए रिपोर्ट बताती है कि देश के लगभग 8 प्रतिशत स्कूलों में केवल एक शिक्षक है। शिक्षकों के पास आधुनिक शैक्षणिक तरीकों में प्रशिक्षण की कमी है। और उन्हें इंटरैक्टिव और आकर्षक शिक्षण तकनीकों को नियोजित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जिसके कारण छात्रों की अंकगणित की बुनियादी अवधारणाओं की समझ और पढ़ने की क्षमता पर असर पड़ा है। पाठ्य पुस्तकों और शिक्षण सामग्रियों तक सीमित पहुंच ने छात्रों की कक्षा के बाहर बुनियादी कौशल का अभ्यास करने और उन्हें सुदृढ़ करने की क्षमता में बाधा उत्पन्न की है। निम्न आय वाले परिवार के छात्रों को अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, घर पर शैक्षिक सहायता की कमी और उनके मूलभूत कौशल को बढ़ाने वाली पाठ्येतर गतिविधियों तक सीमित पहुंच जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिन क्षेत्रों में शिक्षा की भाषा छात्रों की मूल भाषा में नहीं है, वहां छात्रों को पाठ्यक्रम को समझने और खुद को अभिव्यक्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वहीं आदिवासी क्षेत्रों के छात्र अंग्रेजी पढ़ने में दिक्कत महसूस करते हैं। सर्वेक्षण से पता चलता है कि स्कूलों में छात्र और शिक्षक दोनों की उपस्थिति स्थिर रही है। बच्चों की उपस्थिति का आंकड़ा 72 प्रतिशत है। जबकि शिक्षकों की उपस्थिति का आंकड़ा 85 प्रतिशत है। 

यह उल्लेखनीय है कि स्कूली पाठ्यक्रम में डिजिटल साक्षरता शामिल नहीं है। और छात्रों को आधुनिक कार्यबल का हिस्सा बनने के लिए डिजिटल कौशल के साथ तैयार नहीं किया गया है। मूल्यांकन में मुख्य रूप से आलोचनात्मक सोच के बजाय याद रखने पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जिसके कारण छात्रों में मूलभूत अवधारणाओं को समझने के बजाय रटने को प्राथमिकता दी है।  

यूनेस्को की रिपोर्ट – ‘2021 स्टेट ऑफ द एजुकेशन रिपोर्ट इन इंडिया – नो टीचर नो क्लास’ भी दावा करती है कि भारत में 1,10,971 स्कूल ऐसे हैं, जहां केवल एक शिक्षक है। इनमें 89 प्रतिशत स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों में हैं।       

सरकार ने रिपोर्ट को नकारा

हालांकि इस रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने नकारते हुए कहा है कि कुछ जिलों में सर्वे कर देश की तस्वीर पेश करना ग़लत है। यह रिपोर्ट 26 राज्यों के 28 जिलों के 1664 गांवों के 34,745 छात्रों से बातचीत पर आधारित है। सर्वे में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 2 जिले, और अन्य राज्यों के एक एक जिलों को शामिल किया गया है जबकि देश भर में क़रीब 797 जिले हैं। 

गौरतलब है कि यह रिपोर्ट पहली बार साल 2005 में प्रकाशित की गई थी। अब तक कुल 16 रिपोर्ट आयी हैं। 

इस तरह की रिपोर्ट समस्या का समाधान नहीं, बल्कि पलायन को बढ़ावा देती हैं

प्रयागराज शहर के झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चों की शिक्षा और हितों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता किरण कहती हैं– “आप देखिए कि लगातार शहरों का विस्तार हो रहा है। शहर फैल रहे हैं। फैले हुए क्षेत्र में भी कार्पोरेट अपना विस्तार कर रहा है। वह अपनी स्कूलों की शाखाओं का विस्तार कर रहे हैं। इलाहाबाद शहर में स्थित तमाम बड़े निजी स्कूलों ने अपने तीन से चार ब्रांचेज महज पांच से 10 किलोमीटर के दायरे में खोले हैं। तो इनमें उन्हें बच्चे चाहिए। शहर में जितने बच्चे हैं उऩके लिए तो पहले से ही खुले स्कूल ही पर्याप्त हैं। रोज नए खुल रहे स्कूलों में बच्चे कहां से लाये जायें, तो अब उनका टारगेट ग्रामीण इलाके के बच्चे हैं।”

किरण आगे कहती हैं कि इस तरह की रिपोर्ट समस्या का समाधान ढूंढ़ने के बजाय समस्या को इतना ज़्यादा प्रचारित करती हैं कि लोग प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए भी गांव से पलायन करके शहरों की ओर भागें। 

बच्चों को अलग से ट्युशन न लेना पड़े, महंगे से महंगा स्कूल भी गारंटी नहीं देता 

दिल्ली से सटे ग़ाज़ियाबाद के राजेंद्र नगर में बच्चों को होम ट्युशन देने वाले सुशील कुमार बताते हैं कि वो दिल्ली पब्लिक स्कूल, होली एंजेल्स स्कूल, रेयॉन इंटरनेशनल जैसे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ट्युशन देते हैं। ये शहर के सबसे अच्छे प्राइवेट स्कूलों में गिने जाते हैं। इन स्कूलों की एक महीने की फ़ीस 5-8 हजार रुपए प्रति माह है। इन स्कूलों में प्रवेश परीक्षा के बाद ही बच्चों को एडमिशन होता है। यानि प्रवेश परीक्षा के ज़रिए वो तेज तर्रार बच्चों को फिल्टर करके ले लेते हैं। बावजूद इसके एक भी स्कूल यह गारंटी नहीं देता कि उसके यहां पढ़ने वाले बच्चों को अतिरक्ति ट्युशन या कोचिंग की ज़रूरत नहीं होगी। कहने का लब्बोलुआब यह कि स्थिति थोड़ी कम ज़्यादा करके हर जगह एक-सी है। बस फर्क है तो यह कि ऐसे स्कूल कार्पोरेट चलाते हैं, इसलिए इन पर कोई सर्वे रिपोर्ट नहीं आती है।   

शिक्षाविद् रोहित धनखड़ कहते हैं कि हमारा मूलभूत ढांचा बेहद कमजोर हैं। अधिकांश स्कूलों में जितने चाहिए उतने शिक्षक नहीं हैं न ही उतने कमरे हैं। ऩई शिक्षा नीति आने के बाद शिक्षकों में एक डर है कि उनका स्कूल बंद हो सकता है। तो वे गांव में मीटिंग करते हैं कि ज्यादा-से-ज़्यादा बच्चे स्कूल आएं। गांव वाले सवाल उठाते हैं कि क्या गारंटी है कि पढ़ाई होगी। शिक्षक और अभिभावकों के बीच एक संवाद शुरू हुआ है। उम्मीद है इससे आने वाले वक्त में चीजें बेहतर होंगीं। 

थोड़ा-थोड़ा करके सरकारी स्कूल बंद कर रही है सरकार

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था शिक्षामित्र जैसे संविदाकर्मियों के कंधों पर है। जो घोर सामाजिक असुरक्षा में जीते है। उन्हें बेहद मामूली और महज 11 महीने का वेतन दिया जाता है। इसके अलावा उनसे जनगणना, मतदान करवाने, पोलियो ड्रॉप पिलाने, मंदिरों में रामायण और सप्तशती का पाठ करवाने, दीया जलाने जैसे काम करवाए जाते हैं। इस तरह वो अपनी सारी ऊर्जा और समय दूसरे कामों में ख़र्च कर देते हैं। दूसरा कारण यह है कि नई शिक्षा नीति और आर्थिक नीति के तहत सरकार शिक्षा के बजट में कटौती करने के साथ ही सरकारी बुनियादी शिक्षा व्यवस्था को खत्म करना चाहती है। बीते 7 जनवरी, 2024 को एक ख़बर प्रमुखता से छपी कि हरियाणा के विभिन्न जिलों के 832 स्कूलों को बंद कर दिया जाएगा। इन स्कूलों में कुल 7349 बच्चे हैं। इन्हें दूसरे स्कूलों में शिफ्ट कर दिया जाएगा। 

दरअसल शिक्षा विभाग ने ऐसे स्कूलों की सूची मांगी थी, जहां छात्रों की संख्या 20 या उससे कम है। सवाल है कि आखिर एक शिक्षक को पढ़ाने के लिए 20 से अधिक छात्र क्यों चाहिए। 

इसी तरह मध्य प्रदेश में पिछले पांच वर्षों में 29,281 सरकारी स्कूलों को बंद किया गया है। स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग भारत सरकार की वेबसाइट की मुताबिक साल 2015-16 में मध्य प्रदेश में स्कूलों की संख्या 1,21,976 थी, जो कि साल 2021-22 तक घटकर 92,695 हो गई। 

केंद्रीय शिक्षा विभाग की इकाई, यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन, हर साल देश में मौजूद स्कूलों का डेटा उपलब्ध करवाती है। यूडीआईएसई रिपोर्ट 2018-19 के मुताबिक देश में सरकारी स्कूलों की संख्या में कमी आई है और निजी स्कूलों की संख्या बढ़ी है। चौंकाने वाला एक तथ्य यह भी है कि कोरोना महामारी के दौरान सरकारी स्कूलों में निजी स्कूलों के मुक़ाबले अधिक एडमिशन हुआ था, क्योंकि कई अभिभावकों को कोविड काल में आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा था, जिसके कारण उन्होंने अपने बच्चों को निजी स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में डाला। 

बहरहाल, विभिन्न रिपोर्टों में दर्ज उपरोक्त आंकड़ों से यह साफ जाहिर होता है कि एक योजना के साथ दलित-बहुजन वर्ग के छात्रों का शिक्षा प्राप्त करने का अवसर लगातार खत्म होता जा रहा है। ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि देश के सरकारी स्कूल क्या केवल दलित-बहुजन बच्चों के वास्ते हैं और इस कारण ही इन स्कूलों की गुणवत्ता को दरकिनार किया जा रहा है? 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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