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किसान आंदोलन के मुद्दों का दलित-भूमिहीनों से भी है जुड़ाव : मुकेश मलोद

‘यदि सरकार का नियंत्रण नहीं होगा तो इसका एक मतलब यह भी कि वही प्याज, जिसका वाजिब रेट किसान को नहीं मिल रहा है, वह एक मजदूर को डेढ़ सौ रुपए किलो मिलेगा। अगर कोई कहता है कि एमएसपी कानून से मजदूरों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो यह गलत है।’

पंजाब के लुधियाना में जन्मे मुकेश मलोद जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के अध्यक्ष हैं। वे वर्तमान में भूमिहीन दलितों और खेतिहर मजदूरों के हितों के लिए संगरूर जिले में संघर्षरत हैं। मौजूदा किसान आंदोलन के संदर्भ में फारवर्ड प्रेस ने उनसे दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश

पिछले कई वर्षों से आप बड़े जोत वाले किसानों और सरकार से गांवों में सरकारी जमीन (नजूल और पंचायती भूमि) में खेती के अधिकार को लेकर संघर्ष करते रहे हैं। अब आप उन किसानों के साथ खड़े हैं, जो कृषि संबंधी अपनी मांगों को लेकर सरकार के खिलाफ खड़े हैं। ऐसा क्यों?

देखिए, ऐसा है कि एक कानून बना हुआ है कि दलितों के लिए जो जमीन है, वह आरक्षित है। यह पंचायती जमीन की एक-तिहाई है। पहले होता ऐसा था कि जमीन की नीलामी होती थी, वह दलितों के नाम पर होती थी, लेकिन वह दलितों को मिलती नहीं थी। हमने उसके लिए संघर्ष शुरू किया कि जमीन जिन लोगों के लिए आरक्षित रखी गई है, उन लोगों को उस पर हक मिले। इसमें एक बड़ी समस्या यह थी कि ऐसी जमीनों के लिए बोली लगाई जाती थी। तो जो बड़े किसान थे, वे ऐसी जमीन पर खेती के लिए अधिक बोली लगाते थे। उनके मुकाबले जो दलित हैं, वे उतना दाम नहीं लगा सकते थे। इसलिए हमारी पहली लड़ाई इस बात को लेकर थी कि आरक्षित जमीन की कीमत कम-से-कम हो, क्योंकि अगर जमीन की कीमत कम होगी तो ही दलित जमीन ले सकेंगे। जिस जमीन की नीलामी दलित के नाम पर होती है, वह दलित को ही मिलनी चाहिए। एक तो वजह यह थी। लेकिन सरकार जो नीलामी का रेट बढ़ाने की बात करती थी और इसके लिए वह अपने कानून में लाती थी कि हर साल नीलामी के रेट में वृद्धि होगी। इस बात को लेकर टकराव होते थे। एक बात यह है कि गांव में जो दलित हैं, उनके पास कोई जमीन नहीं है। दलित औरतें दूसरों के खेत में काम करने जाती हैं – दलित गाय, भैंस आदि भी रखते हैं, पर जमीन नहीं होने की वजह से उन्हें दूसरे के खेत में जाना पड़ता है, जहां उनके साथ गाली-गलौज भी होता था। इसके अलावा औरतों का शोषण भी होता था। मतलब यह कि इन सभी मुद्दों को लेकर हमारी लड़ाई थी। 

अभी आप इन मुद्दों को एक तरफ रखकर बड़े किसानों के साथ मिलकर सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं, तो इसकी वजह क्या है?

हां, देखिए जो गांव के बड़े किसान थे, वे इस जमीन को हड़पना चाहते थे। इस जमीन के बदले में वे इन लोगों से बेगार भी करवाते थे जैसे किसी बड़े किसान के घर में अगर दस भैंसें हैं और दलित के पास एक है; अगर वह अपनी एक भैंस के लिए चारा लेने जाएगा तो बड़े किसान की दस भैंसों का भी चारा काटकर उनके घर तक पहुंचाता था। तो उन लोगों को लगता था कि उनका काम फ्री में चल रहा है। और अगर ये लोग [दलित] जमीन ले लेंगे तो हमें नहीं पूछेंगे। इसीलिए न तो गांव के बड़े किसान चाहते थे कि दलितों को जमीन मिले और न ही सरकार चाहती थी। इसी वजह से जो गांव के बड़े किसान है उनके खिलाफ भी और जो सरकार व उसके अधिकारी हैं, उनके खिलाफ भी हमारा संघर्ष था। 

अभी आप उन बड़े किसानों के साथ मिलकर केंद्र सरकार के खिलाफ संघर्ष के लिए सड़क पर आए हैं?

यह जो दिल्ली आंदोलन की बात है; चाहे वह तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पहला किसान आंदोलन हो या अभी का हो, इसमें हमें लगता है कि दो-तीन बातें, जो हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण रहीं– पहला यह कि मोदी सरकार फासिस्ट एजेंडे के तहत लोगों के ऊपर हमलावर है। वह एक-एक करके सभी वर्गों को निशाना बना रही है। इसीलिए उनके खिलाफ इकट्ठे होकर लड़ने की बात थी। इसलिए हमने पहले वाले आंदोलन में साथ दिया और अभी भी हम लोग संयुक्त किसान मोर्चे (एसकेएम) का जब आह्वान होता है तो अपना समर्थन देते हैं। दूसरा, हमें लगता है कि जो कृषि कानून थे, उनका असर सिर्फ किसानों पर नहीं, बल्कि पूरे देश के लोगों पर पड़ता। मजदूरों को भी ज्यादा असर झेलना पड़ता, क्योंकि अगर मंडी का अस्तित्व खत्म होता है तो जो मंडियों में मजदूर हैं, वह भी खत्म हो जाएंगे। जैसे कोई चाय की दुकान लगाता है, कोई जूस का काम करता है, कोई पल्लेदारी (बोरी उठाने का) का काम करता है। इस प्रकार लाखों की संख्या में हमारे लोग मंडियों में काम करते हैं। मंडियों के खत्म होने से एक तो उनका काम चला जाएगा। दूसरा कारण यह कि, कुछ लोग कांट्रैक्ट फार्मिंग के नाम पर अपने हाथों में जमीन इकट्ठा करना चाहते हैं। इसलिए हम मांग कर रहे हैं कि पंजाब लैंड सीलिंग एक्ट-1972 है, जिसके मुताबिक 17.5 एकड़ से ज्यादा जमीन एक परिवार नहीं रख सकता। हम तो उस कानून को लागू करने की मांग को लेकर लड़ रहे हैं, लेकिन अगर कांट्रैक्ट फार्मिंग वाला कानून लागू होता है तो कुछ ही लोगों के हाथों में हजारों एकड़ जमीन इकट्ठी हो जाएगी। और गांव के जो बड़े किसान हैं, उनके हाथों से भी जमीन जाएगी और जिस बात के लिए दलित और मजदूर लड़ रहे हैं, उनकी मांग भी खत्म हो जाएगी। एक तो यह बात थी और दूसरा, जो जरूरी वस्तुओं का कानून है, उस पर भी इसका बड़ा असर होना था। इसलिए हमें लगता था कि यह लड़ाई अकेले किसानों की नहीं, हमारे लोगों की भी है। 

अगर खेती में बड़े पैमाने पर खेती होगी, जैसा कॉरपोरेट चाहते हैं, तो हरित क्रांति के नाम पर जो खेती मॉडल यहां पर आया, उसने पहले ही मजदूरों को खेत से बाहर कर दिया था। यदि यह कानून भी लागू होता है तो मजदूर बिलकुल ही बाहर हो जाएंगे। अभी तो फिर भी मजदूरों को गांवों में खेतों में काम मिल जाता है। बहुत सारी औरतें हैं, जो सब्जियां तोड़ने का काम करती हैं। कोई खेतों में दवा-ऊर्वरक छिड़काव का काम करता है। ये सारे काम जो मिल रहे हैं, वे भी बिल्कुल खत्म हो जाएंगे। इसलिए पहले भी हमलोगों ने दिल्ली आंदोलन में किसानों का साथ दिया था और अब भी हमें लगता है कि इकट्ठे होकर लड़ना पड़ेगा। इसीलिए हम फिर से किसानों के साथ इकट्ठे खड़े हैं।

मुकेश मलोद, अध्यक्ष, जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति

जरूरी चीजों से आपका आशय क्या जनवितरण प्रणाली के तहत गरीबों को मिलनेवाले राशन आदि से है? एक और बात यह कि अभी जो किसान एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की गारंटी की मांग कर रहे हैं, वह भूमिहीन दलितों और मजदूरों के हितों से कैसे जुड़ा है? 

जी हां। अभी एमएसपी की जो मांग है, पहले उसे देखते हैं। जैसे कि अभी जो सब्जियां हैं, मसलन, लहसुन की कीमत को देखें तो मंडी में यह 200 रुपए किलो से अधिक है। किसान की फसल तो 5-10 रुपए किलो के भाव से खरीदी गई है, लेकिन बाजार में 200 रुपए प्रति किलो में मिल रही है। यदि यहां कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य होगा तो उसे सरकार ही निर्धारित करेगी। यहां सिर्फ एमएसपी तक ही बात सीमित नहीं है, बल्कि हम चाहते हैं कि सरकार ही उसे खरीदे भी। जो निजी क्षेत्र के खिलाड़ी हैं, वे बाजार से बाहर हों। यदि सरकार का नियंत्रण होगा तो जैसे किसी किसान से 20 रुपए किलो प्याज लेंगे तो वह 25 या 30 रुपए किलो बाजार में बिकेगी। कालाबाजारी कम-से-कम होगी। अगर सरकार का नियंत्रण नहीं होगा तो इसका एक मतलब यह भी कि वही प्याज, जिसका वाजिब रेट किसान को नहीं मिल रहा है, वह एक मजदूर को डेढ़ सौ रुपए किलो मिलेगा। इसलिए अगर कोई कहता है कि एमएसपी कानून से मजदूरों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो यह गलत है। इसका फर्क पड़ता है। इसीलिए हमें लगता है कि यह सरकार के नियंत्रण में होना चाहिए।

कुछ लोग एमएसपी लागू करने के दूसरे तरीके भी बता रहे हैं। जैसे जो किसान फसल बेच रहे हैं, उनके खाते में एमएसपी और बाजार भाव के अंतर की राशि को भेज दिया जाए या सरकार इतना जरूर खरीदे कि बाजार भाव एमएसपी के बराबर हाे जाए। आपकी क्या राय है?

देखिए, अकेले एमएसपी कानून से भी कुछ नहीं हाेगा। जैसे हमारी पंजाब सरकार ने कहा कि दालें उगाओ, हम एमएसपी देंगे। लेकिन दाल मंडियों में ही पड़ी रही। मक्के का एमएसपी तय किया जाता है, लेकिन कोई खरीदने वाला ही नहीं था। तो अकेले एमएसपी से भी कुछ नहीं होगा। इसलिए इसका संबंध सरकार के नियंत्रण से जुड़ा हुआ है। सरकार अपने नियंत्रण में ले, बजाय इसके कि निजी हाथों में या कारपोरेट को सौंप दे, ताकि किसान को भी फायदा हो और जो बाजार से खरीदकर खानेवाले लोग हैं, उनको भी फायदा हो।

अभी जो आप दाल का उदाहरण दे रहे हैं कि राज्य सरकार ने कहा कि दालें उगाओ, हम एमएसपी देंगे, इसका क्या मतलब है?

हां, ऐसे ही उन्होंने कहा कि आप मूंग की फसल लगाओ, हम खरीदेंगे। लेकिन किसी ने नहीं खरीदी। लोगों की फसल बर्बाद हो गई। 

अब यदि ऐसे होगा जैसा कि आप बता रहे हैं तो सब सरकार के नियंत्रण में होगा तो भी क्या फर्क पड़ेगा?

अगर सरकार के हाथ में होगा तो मुझे लगता है कि इसका फायदा सभी लोगों को मिलेगा। दाल वाले मामले में सरकार ने खरीदने की गारंटी नहीं ली थी। उसने कहा कि हम एमएसपी देंगे।  

कहा जाता है कि पंजाब में दलितों की आबादी 30 प्रतिशत के ऊपर है, लेकिन उनके हिस्से केवल 2 प्रतिशत जमीन है। मेरा प्रश्न यह है कि दलित अपना भविष्य कृषि क्षेत्र में जुड़ा हुआ देखते हैं या किसी और क्षेत्र में?

आज भी अगर देखें तो जो दलित हैं, कृषि क्षेत्र से ही ज्यादा जुड़े हैं, तुलनात्मक रूप से अन्य क्षेत्रों के। और यह बात आपकी सही है कि पंजाब में दलित आबादी लगभग 35 प्रतिशत है, लेकिन 2 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास ही जमीन है। इस बात को लेकर हमलोग संघर्ष कर रहे हैं कि यहां पर जो लैंड सीलिंग एक्ट-1972 है, उसमें संशोधन हो। जब यह एक्ट बना था तब उस जमाने में उतनी पैदावार नहीं होती थी और उसके हिसाब से अधिक से अधिक 17.5 एकड़ जमीन रखने का कानून बना। लेकिन आज जितनी पैदावार होती है, हम उसके हिसाब से मांग कर रहे हैं कि भूमि हदबंदी की सीमा घटाकर 10 एकड़ तक कर दी जाय। बाकी जो इसके ऊपर की जमीन है, उसे भूमिहीन लोगों और दलितों में बांट दिया जाय। इसलिए आज भी हमलोगों ने प्रदर्शन किया है। इससे पहले भी हमलोग लगातार इस बात को लेकर संघर्ष कर रहे हैं और सरकार से मांग कर रहे हैं। योजना आयोग द्वारा 2007 में जारी जो रिपोर्ट है, उसमें भी इसका जिक्र है कि देश की तरक्की में यह [हदबंदी की सीमा से अधिक जमीन रखना] बहुत बड़ी बाधा है। यदि भूमिहीन लोगों के पास जमीन होगी तो ही देश का विकास होगा। 

आप देखिए कि कोविड के समय में भी दिखा था कि जिनके पास जमीन थी, वे लोग बचे और बाकी लोगों को बड़ा नुकसान हुआ। और अगर यह कानून है तो उसे अमल में लाया जाना चाहिए। इस तरह जो यहां भूमिहीन दलित हैं, उनके पास भी जमीन आ जाएगी। हमने इस बात को लेकर एक सर्वे भी किया। हालांकि कुछ ही गांव का सर्वे किया। कुछ ही लोगों के पास जमीनें मिली। किसी के पास 100 एकड़, किसी के पास 150 एकड़। यहां तक कि पंजाब के जो बड़े राजनीतिज्ञ हैं, वे मीडिया में खुलेआम बोलते हैं। जैसे सुखवीर सिंह बादल एक साक्षात्कार में बोलते हैं कि हम 2500 एकड़ की खेती करते हैं। तो यहां की सरकार को पूछना चाहिए कि 2500 एकड़ पर कब्जा कैसे है जबकि कानून कहता है कि एक आदमी 17.5 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रख सकता है। 

एक जनसभा को संबोधित करते मुकेश मलोद

अभी किसान आंदोलन को लेकर जो बाहरी टिप्पणीकार हैं या फिर नीति निर्धारक हैं या राजनेता हैं, जो बातें कर रहे हैं, क्या आपको लगता है कि उन्हें पंजाब के वास्तविक आर्थिक और सामाजिक हालात की जानकारी नहीं है?

देखिए, पंजाब सरकार ने अभी जो सभी किसान संगठनों से बातचीत की तो उसमें कहा गया कि वह कृषि मॉडल में कुछ बदलाव करना चाहती है। उस पर किसानों से सुझाव देने को कहा गया। उसने सुझाव तो लिये, लेकिन जब उसे लागू करने की बात आई तो किसी मल्टीनेशनल कंपनी से सलाह ली। यह तो किसानों को कम आंकने की बात है। 

दरअसल, मौसम के हिसाब से पंजाब को अगर देंखे तो एक इलाका ऐसा है जहां बहुत पानी है, उसे सेम का इलाका (दलदली इलाका) बोलते हैं। यहां पर पानी आज भी ऊपर है। एक इलाका वह भी है, जहां बिल्कुल पानी नहीं है। अगर सरकार चाहे तो पूरे वातावरण को ध्यान में रखकर खेती का जो नया मॉडल है, उस पर अमल कर सकती है। उसके बिना कोई हल नहीं है। जो कम पानी वाला इलाका है, वहां पांच-दस साल में और बुरा हाल हो जाएगा। पंजाब जिसका नाम ही नदियों के नाम पर है, पानी न मिले तो क्या हालत होगी, आप सोच सकते हैं। 

पिछली बार के किसान आंदोलन के बाद बड़े किसान और मजदूरों के बीच के संबंध में क्या बदलाव आया है?

यह जो जाति का सवाल है, वह इतना आसान नहीं है कि एक आंदोलन से बहुत बड़ा फर्क पड़ गया हो। देखिए इस बात को हम खुलकर बोलते हैं कि जो जाति का सवाल है, उसके लिए हमें सामाजिक स्तर पर लड़ना होगा। जब मजदूरों के पास जमीन-जायदाद होगी, तो आर्थिक बराबरी आएगी। सामाजिक तौर पर अंतरजातीय विवाह हो या इस प्रकार की अन्य चीजों से सांस्कृतिक बदलाव आएगा। तभी इसका हल निकाला जा सकता है। अगर कोई कहे कि दिल्ली के आंदोलन के बाद किसानों और मजदूरों में बहुत ज्यादा नजदीकियां आ गईं, तो ऐसा कुछ भी नहीं है। हां, जब तक आंदोलन चला, तब तक यह अवश्य था। वहां मंच पर किसान-मजदूर एकता का नारा था, लेकिन जीतने के बाद, वह नारा नहीं रहा। यह भी एक सच्चाई है। यह एक अलग लड़ाई है और इसे लड़ना पड़ेगा। इसके बिना हल नहीं होगा। 

आपको नहीं लगता कि पिछली बार हुए आंदोलन ने समानता के आंदोलन को थोड़ा आसान कर दिया है?

देखिए, यह तो होता ही है कि किसी आंदोलन को इतना बड़ा समर्थन मिलता है तो उससे सुविधा तो होती ही है। चूंकि हर वर्ग का समर्थन था, इसलिए किसान आंदोलन संभव हुआ। केंद्र सरकार धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर लोगों को बांट कर ही तो अपने एजेंडे को अमल में लाती है, इसलिए हमारी कोशिश है कि उस चीज को जितना रोका जा सकता है, रोका जाए। दलितों में इस बात का खूब प्रचार किया गया कि यह कानून बहुत अच्छा है, और किसान भी उनके खिलाफ हैं। जबकि ऐसा नहीं है। बहुत सारे किसान संगठन मजदूरों के संघर्ष में साथ भी देते रहे हैं। यदि हम ऐसा कहें कि सभी एक जैसे हैं, तो ऐसा नहीं है। कुछ लोग, जो आरएसएस के इशारे पर काम करनेवाले हैं, हमेशा लोगों के बांटने के लिए जोर लगाते रहते हैं। वहीं बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो इनको इकट्ठा करने की भी कोशिश कर रहे हैं, चाहे वो किसान संगठन हों या मजदूर संगठन हों। 

अभी मौजूदा आंदोलन में किसानों और सरकार के बीच में क्या बात हुई?

अभी तो कोई भी बात संपूर्ण रूप से नहीं हुई है। उन्होंने कहा था कि कुछ फसलों पर हम पांच साल की एमएसपी दे देते हैं, उसके बाद हम कर लेंगे। अध्यादेश लाने की भी बात उन्होंने कही। उनकी बात से जो किसान संगठन हैं, सहमत नहीं हुए। एक बात और है कि यह संयुक्त किसान मोर्चे (एसकेएम) का आह्वान नहीं है। बातचीत में बैठने वाले लोग एसकेएम का हिस्सा नहीं हैं। इसलिए कुछ लोगों के कहने से कुछ नहीं होगा। सभी लोगों का विश्वास एसकेएम पर है। वे उन्हीं की तरफ देख रहे हैं। हां, अगर कहीं जबर (दमन) होता है तो सरकार के खिलाफ सभी लोग बोलते हैं। अभी आंदोलन रूका नहीं है। अभी फिर से शुरुआत हुई है। देखिए, आगे-आगे क्या होता है। 

(संपादन : समीक्षा/राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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