करीब 150 साल पहले जातिविरोधी समाज सुधारक जोतीराव फुले ने कहा था कि विभिन्न जाति समूहों/समुदायों को आबादी में उनके हिस्से के अनुपात में सरकारी तंत्र में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। अपनी किताब गुलामगिरी (1873) में फुले ने भटों या ब्राह्मणों द्वारा शूद्र और अतिशूद्र आमजनों – अर्थात आज के क्रमशः पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जातियां – के शोषण का वर्णन किया है। उन्होंने सभी विभागों में भट/ब्राह्मण कर्मचारियों की संख्या ज्यादा होने की बात कही और इसे यथार्थपूर्ण तरीके से विश्लेषित करते हुए लिखा कि – “मेरा मतलब यह कतई नहीं है कि सरकार को अपने कार्यालयों में भटों को नियुक्त ही नहीं करना चाहिए। मगर उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व होनी चाहिए।”
इसके आठ साल बाद, ब्रिटिश सरकार ने भारत में पहली जनगणना करवाई। जनगणना में विभिन्न जातियों के लोगों की संख्या और रहन-सहन के हालात का जायज़ा लिया गया। इसके बाद से हर दस साल के अंतराल पर इस तरह की पांच जनगणनाएं करवाई गईं, जिनमें अंतिम जनगणना वर्ष 1931 में हुई। यहां तक कि मुसलमानों की जातियों की भी पहचान की गई और उन्हें गिना गया। तब तत्कालीन हुकूमत ने यह ढोंग नहीं किया – जो आज भी किया जाता है – कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले मुसलमानों में जाति के लिए कोई स्थान नहीं है। द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण 1941 की जनगणना नहीं हुई। स्वतंत्रता के बाद जनगणनाओं का सिलसिला एक बार फिर शुरू हुआ मगर जातिवार आबादी की गिनती बंद हो गई।
जबकि फुले ने तर्कों और तथ्यों के आधार पर यह साबित किया था कि कुशासन और भ्रष्टाचार जाति व्यवस्था से जनित हैं, जो आम लोगों को सरकार में प्रतिनिधित्व हासिल नहीं करने देते। यह स्थिति आज भी कायम है। मगर हमारा पीछा न छोड़ने वालीं कुशासन और भ्रष्टाचार के कारण दमित वर्गों का सरकार में अल्प प्रतिनिधित्व, इन दोनों मसलों पर विचार ही नहीं किया जाता है। उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद ऊपरी आवरण को हटा कर अंदर की गंदगी में झांकने और उससे निपटने के प्रयासों का उन जातियों ने कड़ा विरोध किया, जो वर्ण के पारंपरिक पिरामिड के शीर्ष पर या शीर्ष के नज़दीक थीं – मुख्यतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियां, जो द्विज कहलाती हैं। इन जातियों की सार्वजनिक क्षेत्र (और निजी क्षेत्र भी) की नौकरियों में हिस्सेदारी, आबादी में उनके अनुपात में बहुत ज्यादा है। और सरकारी नीतियों तथा कार्यक्रमों पर उनका लगभग पूर्ण नियंत्रण है।
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां, जो क्रमशः दलितों और आदिवासियों के आधिकारिक नाम हैं और जो जातिगत पदक्रम में सबसे निचले पायदान पर हैं, की देश की कुल आबादी में हिस्सेदारी क्रमशः 16.5 प्रतिशत और 8.5 प्रतिशत है। सन् 2022 में भारत की संसद के उच्च सदन में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, इन दोनों समूहों का केंद्र सरकार के शीर्ष पदों में प्रतिनिधित्व काफी कम है– क्रमशः करीब 4 और 5 प्रतिशत। ग्रुप ‘ए’ के पदों – जो सिविल सेवाओं में सबकी चाहत होती हैं – में इन दोनों समूहों का प्रतिनिधित्व क्रमशः 13 प्रतिशत और 6 प्रतिशत है। मगर अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) की स्थिति और भी ज्यादा ख़राब है। ओबीसी मध्यम दर्जे की जातियों का समूह है, जिन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शूद्र माना जाता है और वे एससी व एसटी के ठीक ऊपर माने जाते हैं। ग्रुप ‘ए’ के पदों में ओबीसी का प्रतिशत 18 है, जबकि 1931 में हुई अंतिम जाति जनगणना के अनुसार, वे कुल आबादी का करीब 52 प्रतिशत हैं। ग्रुप ‘ए’ के शेष 63 प्रतिशत पदों पर किन जातियों के लोग काबिज़ हैं, इसके बारे में संसद को कुछ नहीं बताया गया, मगर यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि उनमें से अधिकांश ऊंची जातियों के होंगे (नौकरशाही में मुसलमानों और ईसाईयों की उपस्थिति बहुत ही कम है)। शिक्षा मंत्रालय के स्कूलों में दाखिले के आंकड़ों के आधार पर लगाये गए एक तार्किक अनुमान के अनुसार, उच्च जातियों के हिंदू देश की आबादी का करीब 10 प्रतिशत होंगे।
सच तो यह है कि सरकारी सेवाओं में ऊंची जातियों की आबादी के सापेक्ष प्रतिनिधित्व इससे भी ज्यादा हो सकता है। कारण यह कि कई लोगों का मानना है कि यदि आज कोई समग्र जाति जनगणना करवाई जाए तो पता यही चलेगा कि भारत की आबादी में उनका प्रतिशत घट रहा है। और ज़मीन पर मालिकाना हक और इसी तरह की अन्य संसाधनों से संबंधित आंकड़े यह उजागर करेंगे कि सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में आज भी वे सबसे आगे बनी हुई हैं।
सन् 2023 की शुरुआत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में दिल्ली से संचालित केंद्र सरकार को अंगूठा दिखाते हुए बिहार की राज्य सरकार ने ‘जाति-आधारित सर्वेक्षण’ शुरू किया। इसके पहले, केंद्र सरकार राज्य की कई पार्टियों के इस अनुरोध को स्वीकार करने से इंकार कर चुकी थी कि सन् 2021 की जनगणना, जिसमें पहले ही बहुत देरी हो चुकी है, में जातिवार आबादी भी गिनी जाए। थोड़े ही दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ एक याचिका दाखिल कर दी गई। याचिकाकर्ता का तर्क था कि यह सर्वेक्षण, दरअसल, जनगणना है और जनगणना करवाने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है। उच्चतम न्यायालय में सर्वेक्षण के खिलाफ याचिका के समर्थन में अन्य कई व्यक्ति भी शामिल हो गए। इनमें से एक थे– दक्षिणपंथी हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष। हिंदू सेना भले ही हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा का हिस्सा न हो मगर दोनों की विचारधारा एक ही है। तर्क यह दिया गया कि जाति सर्वेक्षण से सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होगा, विभिन्न जातियां एक-दूसरे से भिड़ जाएंगीं और देश की एकता व अखंडता प्रभावित होगी। मतलब यह कि वर्तमान में समाज में जो कथित सौहार्द बना हुआ है, उसे बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि ऊंची जातियों के विशेषाधिकारों को चुनौती न दी जाए!
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया, लेकिन याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे पटना हाईकोर्ट में जाने के लिए स्वतंत्र हैं। ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ नामक एक समूह, जो सन् 2006 में ओबीसी को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है, ने भी हाईकोर्ट में जातिगत सर्वेक्षण के विरुद्ध याचिका दायर की। पहले तो कई दलीलों के बाद हाईकोर्ट ने इस मामले में स्थगन का आदेश दे दिया। फिर अगस्त में हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि सर्वेक्षण कानूनी दृष्टि से जायज़ है और राज्य सरकार उसे कर सकती है। हाईकोर्ट ने बिहार सरकार के इस तर्क को सही ठहराया कि राज्य सरकारें, जातिगत संरचना सहित विभिन्न मुद्दों पर सांख्यिकीय सर्वेक्षण करने के लिए सक्षम है। याचिकाकर्ताओं ने इसके खिलाफ फिर सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुनवाई के दौरान भारत सरकार ने अदालत से जोर देकर कहा कि केवल उसे ही इस तरह की कवायद करने का अधिकार है। मगर जल्द ही सरकार ने इस तर्क को वापस ले लिया।
मगर शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नीतीश कुमार, जो पहले भाजपा के साथ थे और 2022 में उससे अलग हो गए थे, के नेतृत्व वाली बिहार सरकार राज्य और उसके बाहर भी कई लोगों को यह विश्वास दिला चुकी थी कि सामाजिक न्याय को पूर्णरूपेण कायम करने के लिए जाति सर्वेक्षण एक आवश्यक कदम है और इससे शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्रों में अवसरों के अधिक निष्पक्ष और अधिक तर्कसंगत वितरण के लिए संख्यात्मक आधार प्राप्त हो सकेगा। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को लगा कि अगर वह बिहार में जातिगत गणना का पुरजोर विरोध करेगी तो उससे दमित जातियों के मतदाता उससे नाराज़ हो जाएंगे और पार्टी से दूर चले जाएंगे।
यह मानने के पर्याप्त कारण थे कि जातिगत सर्वेक्षण से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग जोर पकड़ेगी। वह इसलिए क्योंकि जातिगत संरचना के बारे में ताज़ा आंकड़ों का अभाव, सार्वजनिक शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक नियोजन में जाति-आधारित आरक्षण को सीमित रखने के लिए एक तर्क के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। यह तर्क उच्चतम न्यायालय द्वारा भी दिया गया था। देश की सबसे बड़ी अदालत में भी उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व बहुत अधिक है।
जब अक्टूबर की शुरुआत में बिहार के सर्वेक्षण के परिणाम सामने आए तो राज्य में जातियों के अनुपात के बारे में जो अनुमान लगाया जाता था, वही सच सिद्ध हुआ। और अगर तर्कसंगत तरीके से समग्र रूप में अनुमान लगाया जाए तो शायद यही शेष पूरे देश के बारे में भी सही निकलेगा। आज ऊंची जातियां कुल आबादी का करीब 15 प्रतिशत मात्र हैं, जबकि 85 प्रतिशत पिछड़े वर्ग, अति पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियां व अनुसूचित जनजातियां हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से बहुजन कहा जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अवसरों और संसाधनों में बहुजनों की भागीदारी इससे बहुत कम है और इस समूह में जिन समुदायों को शामिल किया जाता है, उनकी स्थिति में भी सापेक्षिक अंतर है। बिहार में सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ कि हिंदू उच्च जातियां कुल आबादी का करीब 10 प्रतिशत हैं। और यही अपेक्षित भी था। जाति सर्वेक्षण में कुलीन मुस्लिम जातियों की गिनती भी हुई और उन्हें जोड़कर उच्च जातियों का आबादी में कुल प्रतिशत 15 पाया गया।
कई अन्य राज्यों ने भी बिहार की तरह ही पहल किया हैं – तेलंगाना ने 2014 में अपनी जातिगत संरचना का जायज़ा लिया था और कर्नाटक ने 2015 में। ओडिशा और उत्तराखंड ने अपने यहां ओबीसी आबादी का सर्वेक्षण किया है। मगर बिहार जाति सर्वेक्षण, जिसे भाजपा-विरोधी विपक्ष के लिए एक बड़ी जीत बताया जा रहा है, ने जाति जनगणना के संघर्ष को राष्ट्रीय स्वरूप दे दिया है। महाराष्ट्र में शक्तिशाली मराठा जाति ओबीसी का दर्जा चाहती है और साथ ही उसके साथ मिलने वाला आरक्षण भी। ओबीसी समूह इस मांग का विरोध कर रहे हैं और जाति जनगणना चाहते हैं। इससे राज्य के सत्ताधारी गठबंधन, जिसमें भाजपा भी शामिल है, पर खासा दबाव है, विशेषकर इसलिए क्योंकि ओबीसी का समर्थन गठबंधन की पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है। भारत में 2024 में होने जा रहे आम चुनाव में भाजपा का एक साथ मिलकर विरोध करने के लिए गठित विपक्षी दलों के व्यापक आधार वाले समूह ‘इंडिया’ ने पहले ही राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना की मांग कर दी है। गठबंधन को लग रहा है कि ऐसा कर वह सत्ताधारी दल की संकीर्ण जातिवादी राजनीति को चुनौती दे सकेगा। बिहार में जातिगत सर्वेक्षण के नतीजों के सार्वजनिक होने और उन पर छिड़ी बहस के बाद ‘इंडिया’, जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी शामिल है, ने इस मांग को और जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया है। भारत में 2021 में होने वाली जनगणना को कोविड-19 महामारी के कारण स्थगित कर दिया गया था। यह जनगणना संभवतः 2024 के आम चुनाव के तुरंत बाद होगी। और यह तय है कि जाति जनगणना, आम चुनाव के अभियान के प्रमुख मुद्दों में से एक होगी।
अक्टूबर, 2023 में कांग्रेसी नेता राहुल गांधी ने मीडिया से बातचीत में अपनी पार्टी की मांग स्पष्ट कर दी : पहले जाति जनगणना और फिर आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व। भारत के इलाज के लिए फुले के नुस्खे का कोई डेढ़ सौ साल बाद ऊंची जाति के एक राष्ट्रीय नेता ने पूरे दिल से समर्थन किया। यह महत्वपूर्ण तो है, परंतु इससे ऐसा नहीं माना जा सकता कि फुले का सपना साकार होने जा रहा है। भाजपा की जड़ें काफी गहरी हैं और सन् 2024 के चुनाव में उससे पार पाने में इंडिया गठबंधन को खासी मुश्किलात का सामना करना पड़ेगा। और अगर एकबारगी हम यह मान भी लें कि इंडिया गठबंधन सत्ता में आ जाता है तब भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि विपक्षी दल के तौर पर किए गए वायदे, सत्ता में आने पर पूरे किए जाएं। कर्नाटक का उदाहरण हमारे सामने है। कांग्रेस ने मई, 2023 में वहां भाजपा को हराया और अपनी सरकार बनाई। इसके पहले जब कांग्रेस कर्नाटक में सत्ता में थी तब राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या ने जातियों की पूर्ण गणना करवाने का आदेश दिया था और सन् 2018 में सर्वेक्षण समाप्त भी हो गया था। मगर सिद्धारमैय्या और कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के पहले कार्यकाल के ख़त्म होने के पहले सर्वेक्षण के नतीजों को जारी करना उचित नहीं समझा और अब भी वे आंकड़े जारी करने के मूड में नहीं दिखते। डर यह है कि आंकड़े जारी करने से आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रदेश की दो सबसे बड़ी जातियां – लिंगायत और वोकलिंगा – नाराज हो जाएंगीं, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि सर्वेक्षण के अनुसार राज्य की अनुसूचित जाति आबादी, वोकलिंगा और लिंगायत समुदायों की आबादी से कहीं ज्यादा है। पूरे भारत में भी जाति जनगणना को शक्तिशाली समूहों और हितों के इसी तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा।
मगर समस्या चाहे जो हो, प्रगति चाहे कितनी ही रूक-रूककर क्यों न हो रही हो, यह साफ है कि जातिगत जनगणना भारत के आगे बढ़ने की दिशा में एक आवश्यक कदम है और आज नहीं तो कल देश को यह जनगणना करवानी ही होगी। दीर्घावधि में यह जनगणना विभिन्न जातियों को न्याय दिलवाने के लिए गोलबंदी की नई लहर पैदा करेगी। इससे दमित जातियों में एकजुटता बढ़ेगी, क्योंकि उन्हें यह समझ में आएगा कि उन सभी को पराधीन बनाकर रखा गया था। लघु अवधि में, भले ही जाति जनगणना लंबे समय तक न हो, परंतु उसकी मांग में ही एक भावनात्मक अपील है जो दमित जातियों के मतदाताओं को भाजपा की दकियानूसी और संकीर्ण जातिवादी राजनीति व सभी तरह की ब्राह्मणवादी राजनीति के विरूद्ध लामबंद करेगी। आश्चर्य नहीं कि विपक्ष इस मांग पर इतना जोर दे रहा है। उसे यह समझ में आ गया है कि सांप्रदायिक ‘हिंदू राजनीति’, जो हिंदुत्व की ताकतों को सत्ता में रखती है, की यह कमजोर नस है (मगर यह कहना भी जरूरी है कि विपक्षी पार्टियां भी ब्राह्मणवादी राजनीति से मुक्त नहीं हैं)। जातिगत जनगणना भारतीय समाज और राजनीति, दोनों में एक बड़ा उलटफेर लाने और उन्हें पूरी तरह बदल डालने में सक्षम है, जैसा कि कुछ दशक पहले मंडल आयोग की रपट के लागू होने के नतीजे में हुआ था। उस निर्णय से भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया था।
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भारत के संविधान का मसौदा लब्धप्रतिष्ठित दलित नेता और बुद्धिजीवी डॉ. बी.आर. आंबेडकर के नेतृत्व में तैयार हुआ था और इसे 1950 में लागू किया गया। इस संविधान में उन्होंने दलितों और आदिवासियों को आरक्षण उपलब्ध करवाने के प्रावधान शामिल करवाने के लिए विशेष प्रयास किए थे (हालांकि उसी वर्ष जारी एक संवैधानिक आदेश के तहत ईसाई व मुसलमान दलितों को आरक्षण की जद से बाहर कर दिया गया था)। आंबेडकर ने यह भी सुनिश्चित किया कि संविधान में इस आशय का प्रावधान हो कि सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की स्थिति की पड़ताल के लिए एक आयोग नियुक्त किया जा सके जो केंद्र और राज्य सरकारों से उनकी स्थिति में सुधार लाने हेतु सिफारिशें कर सके। लेकिन नौकरशाही और सार्वजनिक उच्च शिक्षण संस्थाओं में सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व दिलवाने की प्रक्रिया की शुरुआत 1970 के दशक में राजनीति के मैदान में ओबीसी की बढ़ती दखल से साथ हुई। इस मामले में सबसे आगे तमिलनाडु था, जहां ई.व्ही. रामासामी, जिन्हें पेरियार के नाम से पहचाना जाता है, ने गैर-ब्राह्मणों के लिए आरक्षण की वकालत की और सन् 1920 के दशक में तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में आरक्षण लागू करवाने में सफलता हासिल की। स्वतंत्रता के बाद तमिलनाडु के आरक्षण संबंधी प्रावधानों को अदालतों में चुनौती दी गई, मगर वे कायम रहे।
सन् 1970 के दशक में बिहार में हुए घटनाक्रम ने आरक्षण को एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। सन् 1978 में राज्य के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जतियों एवं अति-पिछड़ी जातियों के रूप में वर्गीकृत समूहों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे दिया। यह राज्य के एक अन्य मुख्यमंत्री दारोगा प्रसाद राय द्वारा 1970 में गठित मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों के अनुरूप था। दरोगा प्रसाद राय कांग्रेस पार्टी से थे और उनकी पार्टी पर राजनीतिक दबाव था कि वह बिहार और अन्य राज्यों में भी इन समूहों के स्थिति की पड़ताल करे। जैसा कि अपेक्षित था, ठाकुर के कदम का ऊंची जातियों ने जमकर विरोध किया और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधानों को कमज़ोर कर दिया गया।
इसके बाद केंद्र की गैर-कांग्रेस सरकार ने 1979 में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के अध्ययन के लिए एक आयोग गठित किया। इसकी अध्यक्षता एक ओबीसी नेता बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को सौंपी गई। (आरक्षण को कानूनी जामा पहनाने और उसे बनाये रखने के लिए तमिलनाडु द्वारा की गयी कवायद के बाद सन् 1953 में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने एक ब्राह्मण, काका कालेलकर, की अध्यक्षता में भारत का प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया था, मगर उसका कोई नतीजा नहीं निकला और उसकी रिपोर्ट को सरकार ने कुछ सालों बाद ख़ारिज कर दिया)। मंडल आयोग ने अपनी रपट अगले साल (1980) प्रस्तुत कर दी, जिसमें पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए जाने की सिफारिश की गई थी। कांग्रेस फिर केंद्र में सत्ता में आ गई, मगर जहां तक मंडल आयोग की रिपोर्ट का प्रश्न है, उसे लागू करने का इरादा 10 साल बाद एक गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकार ने पहली बार प्रकट किया। इसकी प्रतिक्रिया में बड़े पैमाने पर प्रतिक्रियावादी विरोध प्रदर्शन और हिंसा हुई मगर सरकार ने 1993 में सार्वजनिक नियोजन में ओबीसी के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी। मंडल आयोग द्वारा उच्च शैक्षणिक संस्थानों में भी ओबीसी को आरक्षण देने की सिफारिश की गई थी। लेकिन यह सन् 2006 में संभव हो सका और इसके लिए भी पिछड़े वर्गों को संघर्ष करना पड़ा। बहुत मुश्किल से हासिल आरक्षण को बचाने के लिए ओबीसी गोलबंद हो गए। वे प्रतिनिधित्व के अपने अधिकार के प्रति और जागरूक हो गए और अपनी बात खुलकर सामने रखने लगे। इसके साथ ही जाति जनगणना की मांग जोर पकड़ने लगी और इसमें सबसे आगे ओबीसी थे, जो आबादी की दृष्टि से जातियों का सबसे बड़ा समूह हैं और जिन्हें जातिगत जनगणना से सबसे ज्यादा फायदा होने की उम्मीद है।
तब से लेकर अब तक आरक्षण को कई अदालती चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और कई मौकों पर इस या उस समुदाय को आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर दाखिल याचिकाओं के जवाब में अदालतों ने यह साबित करने के लिए आंकड़ों की मांग की है कि उस समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व हासिल नहीं है। इस प्रतिक्रिया का एक उदाहरण है सुप्रीम कोर्ट का 1992 का वह निर्णय जो इंदिरा साहनी प्रकरण में सुनाया गया था। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण को तो उचित ठहराया मगर आरक्षण पर एक उच्चतम सीमा लगाते हुए कहा कि किसी भी संस्थान में समकक्ष पदों या सीटों में से 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षित नहीं किए जा सकते। इसके आलोक में भी सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत समूहों को जातिगत जनगणना की ज़रूरत महसूस हुई, क्योंकि केवल उसी से विभिन्न समुदायों की आबादी के आधिकारिक तुलनात्मक आंकड़े और उनकी स्थिति की जानकारी मिल सकेगी और ये आंकड़े उचित हिस्सेदारी की उनकी मांग का आधार बनेंगे।
सन् 2006 से लेकर 2017 तक बिहार से भारत की संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, के सदस्य रहे अली अनवर जाति जनगणना की मांग करने वाले अग्रणी राजनेता रहे। उस समय वे नीतीश कुमार की अध्यक्षता वाली जनता दल (यूनाइटेड) की ओर से राज्यसभा सांसद थे। उन्होंने यह मांग राज्यसभा में तब उठाई थी जब 2011 की जनगणना केवल एक साल दूर थी। मगर किसी ने भी – न तो उनकी पार्टी के नेताओं ने और ना ही ओबीसी के प्रतिनिधियों ने – उनका समर्थन किया।
उसके करीब एक दशक पहले, अनवर ने मुसलमानों की जातिगत संरचना को समझने और दमित मुस्लिम जातियों के हालात को जानने के लिए पूरे बिहार में घूम-घूम कर अभिलेखागारों से औपनिवेशिक काल की मानव-वैज्ञानिक और जनगणना रपटें खोद निकालीं। इनमें से बहुत-सी जातियां ऐसे लोगों की थीं जो मूल रूप से ब्राह्मणवादी जातिप्रथा के निचले पायदानों के हिंदू थे और दमन से मुक्ति की तलाश में मुस्लिम शासनकाल में मुसलमान बन गए थे। मगर उनका दमन बदस्तूर जारी था। अनवर के अध्ययन और मैदानी यात्राओं का एक परिणाम थी उनकी पुस्तक मसावत की जंग, जो सन् 2001 में हिंदी में प्रकाशित हुई। उन्होंने दमित जातियों के मुसलमानों का पसमांदा आंदोलन भी शुरू किया (पसमांदा का मतलब होता है– ‘जो पीछे छूट गया’) यह पुस्तक उनके खुद एक पसमांदा मुसलमान बतौर बिहार में बड़े होने और एक छात्र नेता और पत्रकार की रूप में उनके अनुभवों पर आधारित थी। इसके बाद वे राजनीति में दाखिल हो गए।
जातिगत जनगणना की अली अनवर की मांग और सरकार और उनके स्वयं के साथियों की इसमें दिलचस्पी का अभाव – ये दोनों बातें सामाजिक न्याय आन्दोलन के कुछ युवा कार्यकर्ताओं के ध्यान में आईं। उन्होंने जदयू नेता शरद यादव से संपर्क किया। शरद उन दिनों संसद के निचले सदन (लोकसभा) के सदस्य थे और उन्होंने इस मांग के लिए समर्थन जुटाने का प्रयास किया। इसके बाद इस मांग के समर्थन में अलग-अलग पार्टियों और कई राज्यों के सांसद आगे आए। इनमें लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे कद्दावर नेता भी थे और भाजपा के गोपीनाथ मुंडे भी। कांग्रेस, जो उस समय सत्ताधारी गठबंधन की मुखिया थी, सैद्धांतिक तौर पर 2011 में जाति जनगणना करवाने के लिए तैयार हो गई। मगर सरकार ने जाति को मुख्य जनगणना में शामिल नहीं किया और इसकी जगह अलग से एक सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण करवा लिया, जो जनगणना अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप नहीं था। यह कवायद – जो गणना न होकर सर्वेक्षण थी – के नतीजे दोषपूर्ण करार दे दिए गए और कभी प्रकाशित नहीं हुए।
सन् 2014 के आम चुनाव, जिससे भाजपा सत्ता में आई, के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने खुद की ओबीसी पहचान का जमकर ढोल बजाया था। मगर प्रधानमंत्री बतौर उनके कार्यकाल में वंचित वर्गों के आरक्षण के मामले में अब तक कुछ भी सकारात्मक घटित नहीं हुआ है। सार्वजानिक नियोजन में पदोन्नति में और स्थानीय निर्वाचित संस्थाओं में आरक्षण को अदालतों में चुनौती दी गई और उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के आरक्षित पदों में कटौती करने का प्रयास किया गया। दमित जाति समूहों को उपलब्ध आरक्षण को कम करने के प्रयासों के बीच, मोदी सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी। ईडब्ल्यूएस में अनारक्षित श्रेणी (यानि जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में नहीं आते) के अपेक्षाकृत कम संपन्न परिवार सम्मलित हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो ऊंची जातियां।
सन् 2017 में मोदी सरकार ने सरकारी नौकरियों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को उपलब्ध 27 प्रतिशत आरक्षण को ओबीसी की विभिन्न उप-श्रेणियों में बांटने के लिए एक आयोग का गठन किया। इस आयोग ने काफी मंथर गति से अपना काम किया और उसके कार्यकाल में 14 बार बढ़ोत्तरी की गई। अंततः आयोग ने जुलाई, 2023 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। मगर उसे आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। ऐसा बताया गया था कि आयोग की नियुक्ति इसलिए की गई थी ताकि शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षित पदों पर तुलनात्मक रूप से समृद्ध और शक्तिशाली ओबीसी जातियों का वर्चस्व तोड़ा जा सके और ओबीसी के हाशियाकृत समूहों को बेहतर प्रतिनिधित्व दिया जा सके। मगर सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में अपने फैसले के जरिए इस तरह की संभावना पहले ही समाप्त कर दी थी। अदालत ने ‘क्रीमी लेयर’ के प्रावधान के जरिए, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से अगड़े ओबीसी को आरक्षण के लिए अपात्र घोषित कर दिया था।
वैसे भी, ओबीसी के लिए आरक्षित सीटें और नौकरियां उनकी आबादी के मान से बहुत कम हैं। इसके अलावा, जो आरक्षण उपलब्ध है, उसके कार्यान्वयन में भी बहुत लेटलतीफी और लापरवाही हुई है। पिछले एक हज़ार सालों में जातिप्रथा के कारण जिस तरह की असमानताएं हमारे समाज में घर कर गईं हैं उन्हें मिटाने के लिए दमित जातियों को जो कोटा दिया गया है, वह अत्यंत अपर्याप्त है और उसे भी ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि जाति प्रथा भी एक तरह की आरक्षण व्यवस्था है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह ऊंची जातियों के पक्ष में झुकी हुई है।
मगर आरक्षण का कोटा बढ़ाने और आरक्षण संबंधी नीतियों में सुधार लाने की बजाय, मोदी सरकार का ध्यान आरक्षित कोटे और उससे लाभान्वित होने वाले समूहों – दोनों के उप-विभाजन पर ज्यादा है।
सच तो यह है कि केंद्र सरकार ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपना रही है। वह चाहती है कि बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों के विशाल ओबीसी जनाधार को बांट दिया जाए। ये पार्टियां मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद उभरी हैं और अपनी ओबीसी-केंद्रित राजनीति के चलते वे आरक्षण का समर्थन करती आईं हैं।
मोदी सरकार जो कर रही है, वह भाजपा के पितृसंगठन और हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे बड़े झंडाबरदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मिशन के अनुरूप है। संघ पारंपरिक रूप से ऊंची जातियों का गढ़ रहा है। वह हमेशा से, और विशेषकर मंडल आयोग लागू होने के बाद से, अल्पसंख्यक ऊंची जातियों की बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभुता को मजबूती देने में संलिप्त रहा है। वह हिंदू धर्म और ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को अपना आदर्श मानता है। उसे पता है कि उसके सामने केवल वैचारिक ही नहीं, बल्कि चुनावी चुनौती भी है। आरएसएस भाजपा के ज़रिए देश पर शासन करती है और भाजपा चाहती है कि सभी समुदायों के हिंदू अपने हितों की रक्षा के लिए गोलबंद होकर एक हिंदू पार्टी को वोट दें। वह मानती है कि अगर दमित जातियों में राजनीतिक जागरूकता फैलाई जाती है और अगर उन्हें लामबंद किया जाता है, तो इसका सीधा मतलब होगा ‘हिंदू’ समुदाय का बिखराव और इसका नतीजा होगा भाजपा के जनाधार में दरारें। भाजपा के लिए इससे भी ज्यादा डरावना परिदृश्य यह होगा कि बहुजन, जो बहुसंख्यक हैं, एकजुट होकर ऊंची जातियों के दमन के खिलाफ खड़े हो जाएं। इसके नतीजे में तो ब्राह्मणवादी राजनीतिक प्रभुत्व ही समाप्त हो जाएगा। मोदी का स्वयं को ओबीसी बताना संख्याबल में सबसे बड़े समूह ओबीसी को भाजपा की ओर खींचने की एक युक्ति है। ठीक इसी तरह, ओबीसी कोटा को कई टुकड़ों में बांटने का उद्देश्य है– ओबीसी के एक होकर संयुक्त राजनीतिक कार्यक्रम चलाने की संभावना को समाप्त करना।
सन् 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान मोदी को अचानक याद आया कि वह ओबीसी हैं। इसके पहले, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने 10 साल से भी लंबे कार्यकाल में उन्होंने यह बात कभी नहीं बताई थी। यह भावनात्मक स्तर पर ओबीसी को भाजपा से जोड़ने का प्रयास था। इसी कड़ी में 2018 में – आम चुनाव से एक साल पहले – केंद्रीय गृहमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता राजनाथ सिंह ने कहा था कि 2021 की जनगणना में ओबीसी की पहचान और गिनती की जाएगी। हो सकता है कि इस घोषणा ने मई, 2019 में भाजपा की सत्ता में वापसी में भूमिका निभाई हो। अभी हम 2024 में हैं और इस साल होनेवाला आम चुनाव बहुत नज़दीक है। मगर देश में ओबीसी गणना तो दूर, जनगणना तक नहीं हुई है।
इस बीच, 2024 के चुनाव के ठीक पहले, अयोध्या में ढाहे गए बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर बने राम मंदिर का उद्घाटन होना है। सत्ताधारी भाजपा सरकार को उम्मीद होगी कि राम पर केंद्रित हिंदू पहचान के उत्सव के शोर और चमक-दमक में खोकर दमित वर्ग अपना अतीत भुला देंगे। राम को विष्णु का अवतार माना जाता है और रामचरितमानस के अनुसार विष्णु ने ब्राह्मणों, गायों, देवों और ऋषियों की खातिर मनुष्य रूप में जन्म लिया था। मंदिर का उद्घाटन, भाजपा-आरएसएस के सन् 1980 के दशक में शुरू हुए मुस्लिम-विरोधी अभियान का चरमोत्कर्ष होगा। यह आंदोलन कांशीराम, चौधरी चरण सिंह, शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव आदि जैसे नेताओं के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों व दलितों की बढ़ती मुखरता से मुकाबला करने के लिए शुरू किया गया था।
ऐसा नहीं है कि जाति जनगणना के संभावित परिणामों से केवल आरएसएस, भाजपा और उच्च जाति के हिंदू ही चिंतित हैं। हिंदू महासभा आज़ादी के पहले हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाला सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन था। मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा का मुस्लिम संस्करण थी। अली अनवर ने हमें बताया, “सन् 1931 में जाति जनगणना हो चुकी थी। सन् 1941 में होने वाली अगली जनगणना से पहले हिंदू महासभा ने हिंदुओं से अपील की कि गिनती करने के लिए आने वालों को वे अपनी जाति न बताएं और उनसे सिर्फ इतना कहें कि वे हिंदू हैं।” इसके साथ ही, मुस्लिम लीग ने भी मुसलमानों से कहा कि वे अपनी पहचान केवल मुसलमान बताएं। मुस्लिम लीग का मुसलमानों से कहना था, “हम लोग पहले से ही अल्पसंख्यक हैं और ऐसे में हम और छोटे टुकड़ों में बंट जाएंगे।” हिंदू महासभा भी यही कह रही थी कि “अगर हम अपने आप को कई जातियों में बंटा दिखाएंगे तो हम अल्पसंख्यक लगेंगे, बहुसंख्यक नहीं।” अधिकतर मामलों में महासभा और लीग में गंभीर और कटु मतभेद थे, मगर इस मामले में वे एक ही राह के राही थे। अली अनवर का कहना है कि आज भी स्थिति वही है। उनके मुताबिक, “सभी उच्च जातियां – चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान – दिल से नहीं चाहतीं कि जाति जनगणना हो।” अनवर कहते हैं कि उन्हें [आरएसएस व भाजपा को] सांप्रदायिक राजनीति भली लगती है, क्योंकि उससे दमित जातियों के हिंदुओं या मुसलमानों पर उनका वर्चस्व बना रहता है। इसके विपरीत, जाति जनगणना से सांप्रदायिक राजनीति का अंत हो सकता है और उनका वर्चस्व खतरे में पड़ सकता है।
अली अनवर अब न संसद में हैं और ना ही जदयू में। सन् 2021 में उन्होंने एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था– सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का यही इलाज, जाति जनगणना के लिए हो जाओ तैयार। तर्क यह है कि जाति जनगणना, जातिगत न्याय के लड़ाई में नई जान भर देगी और ‘हिंदू’ दमित जातियां, अपने असली दमनकर्ताओं के खिलाफ लामबंद हो जाएंगीं न कि काल्पनिक मुसलमान शत्रु के। बल्कि दमन की शिकार मुस्लिम और हिंदू जातियां एक-दूसरे से नफरत करने की बजाय, एक-दूसरे से हाथ मिला लेंगीं। अनवर ने इस पुस्तिकाके प्रचार के लिए प्रेस कांफ्रेंसें की और बिहार, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और झारखंड के लिए अलग-अलग पुस्तीकाएं निकालीं, जिनमें संबंधित क्षेत्रों की पसमांदा जातियों की सूची थी। उन्होंने प्रधानमंत्री, सभी विपक्षी पार्टियों और सभी भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठियां लिखकर जाति जनगणना की मांग का समर्थन करने को कहा। बिहार में पांच पार्टियों ने राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अनुरोध किया कि वे प्रधानमंत्री से मिल कर जाति जनगणना के बारे में चर्चा करने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करें।
उस समय नीतीश जिस सत्ताधारी गठबंधन के नेता थे, उसमें भाजपा के सदस्यों की संख्या सबसे ज्यादा थी। सत्ता में बने रहने के लिए वे भाजपा पर निर्भर थे और सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण, उन्हें भाजपा की सुननी ही पड़ती। नीतीश को लगा कि अगर यही चलता रहा तो वे जल्दी ही अप्रासंगिक हो जाएंगे। वे एक प्रतिनिधिमंडल के साथ मोदी से मिले और जाति जनगणना की मांग की। और फिर, मोदी सरकार द्वारा जातिवार गणना को 2021 की जनगणना का हिस्सा बनाने से इंकार करने को आधार बनाकर उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया (बिहार के अलावा, महाराष्ट्र और ओडिशा ने भी केंद्र सरकार से अनुरोध किया था कि जाति के बारे में जानकारी, जनगणना में शामिल की जानी चाहिए)।
इसके बाद नीतीश कुमार ने तत्कालीन विपक्ष के साथ एक नया गठबंधन बना लिया और राज्यव्यापी ‘सर्वेक्षण’ शुरू करवा दिया।
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अपनी पुस्तक ‘द द्रविड़ियन मॉडल’ में अध्येताओं ए. कलैयासरन एवं एम. विजयभास्कर ने आर्थिक आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह साबित किया है कि सार्वजनिक संस्थानों में जाति-आधारित प्रतिनिधित्व ने किस प्रकार तमिलनाडु के समग्र विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है। कारखानों की संख्या के हिसाब से तमिलनाडु आज देश का सबसे ज्यादा औद्योगीकृत राज्य है और स्वास्थ्य व शिक्षा से जुड़े सूचकों और समाज के समग्र कल्याण की दृष्टि से वह उसके और उससे बड़े आकार के भारतीय राज्यों से कहीं आगे है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जो जातियां तमिलनाडु में हमेशा से पिछड़ी मानी जाती थीं, वे इस विकास में भागीदार और इसकी लाभार्थी दोनों रही हैं और वहां आर्थिक असमानता में नाटकीय कमी आई है। हम इसकी तुलना गुजरात से कर सकते हैं, जिसे मोदी और भाजपा पूरे देश के लिए मॉडल बताते हैं। गुजरात के आर्थिक और वित्तीय आंकड़े निश्चित तौर पर प्रभावित करने वाले हैं, मगर वह राज्य समानता और मानव विकास सूचकांकों में काफी पीछे है। कलैयासरन एवं एम. विजयभास्कर ने भारत के तीन सबसे औद्योगीकृत राज्यों – तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र – में 100 से अधिक कर्मियों वाले उद्यमों के मालिकाना हक संबंधी आंकड़ों की तुलना कर बताया है कि तमिलनाडु में ऐसे उद्यमों में से 73 प्रतिशत के स्वामी एससी, एसटी अथवा ओबीसी हैं। गुजरात में यह आंकड़ा 23 प्रतिशत है और महाराष्ट्र में 14 प्रतिशत।
तमिलनाडु की दो प्रमुख द्रविड़ पार्टियां, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके), सन 1967 से लेकर अब तक तमिलनाडु में लगातार सत्तासीन रहीं हैं। ये दोनों पार्टियां जिस आंदोलन से उभरी थीं, उसके मुख्य प्रणेता थे– पेरियार, जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को सीधे चुनौती देने के लिए सन् 1925 में आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया था। सन् 1960 में जाति-आधारित आरक्षण लागू होने के बाद से तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति आय में आशातीत वृद्धि हुई है। ‘द द्रविड़ियन मॉडल’ के लेखक लिखते हैं, “द्रविड़ आंदोलन ने द्रविड़-तमिल अस्मिता को जागृत किया और इसके सहारे एक द्रविड़ सामान्य समझ का विकास किया, जो इन सभी समूहों को एक साथ ले आई, भले ही उनमें से कुछ के हित परस्पर विरोधाभासी रहे हों। इस सामान्य समझ के घटकों में शामिल थे– जाति-आधरित आरक्षण की आवश्यकता, उत्पादन से जुड़ी संस्कृति के महत्व का स्वीकार, आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने का मौका अधिक लोगों को देना और हिंदी का विरोध क्योंकि हिंदी, जातिगत और लैंगिक पदक्रम को धार्मिक ग्रंथों के हवाले से उचित ठहराने की प्रवृत्ति से जुड़ी हुई थी तथा इस तरह व्यापक और वास्तविक लोकतंत्र का नकार करती थी।”
फुले की ‘गुलामगिरी’, उनके द्वारा सन् 1873 में उनके कार्यक्षेत्र पुणे में शुरू किये गए सत्यशोधक आंदोलन का घोषणापत्र बन गई। पुस्तक के प्रकाशन के तुरंत बाद आरंभ हुए ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन (सत्यशोधक समाज) का उस पूरे इलाके – जिसे हम आज महाराष्ट्र के रूप में जानते हैं – पर व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ा। इसने ही वह भूमि तैयार की, जिससे आगे चल कर आंबेडकर उभरे, जिन्होंने अगली पीढ़ियों को जाति के खिलाफ युद्ध के लिए लामबंद किया। लेकिन फुले की ब्राह्मणवाद-विरोधी समझ की पैठ कभी उतनी गहरी न हो सकी, जितनी कि उसके एक सदी बाद तमिलनाडु में उभरी द्रविड़ समझ की थी। फुले केवल करीब 15 सालों तक सत्यशोधक समाज आंदोलन का नेतृत्व कर सके। वे बीमार पड़ गए और 1890 में उनकी मृत्यु हो गई। वे जिस शूद्र-अतिशूद्र एकता को आकार देना चाहते थे, वह साकार न हो सकी। इसके विपरीत, आत्मसम्मान आंदोलन और द्रविड़ आंदोलन तमिलनाडु की विशाल पिछड़ी जाति आबादी को एक करने में सफल रहें और कुछ हद तक पिछड़ी जातियों और अछूतों को एक करने में भी। आज़ादी के पहले अपने संघर्ष और भारतीय संविधान के प्रावधानों के ज़रिए आंबेडकर दलितों और आदिवासियों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिलवाने में सफल रहे। मगर द्रविड़ आंदोलन वह पहला आंदोलन था जिसने शूद्रों – जिन्हें अब पिछड़ा वर्ग कहा जाता है – को प्रतिनिधित्व दिलवाने के लिए संघर्ष किया और उसमें सफलता पाई।
द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की एम. करुणानिधि के नेतृत्व वाली सरकार ने सन् 1969 में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। आयोग ने शूद्र जातियों के विकास के लिए अनेक क़दमों की सिफारिश की और अगले कई दशकों तक राज्यतंत्र में शूद्रों को उचित प्रतिनिधित्व दिलवाना वहां की सरकारों की पहली प्राथमिकता बनी रही।
1992 में उच्चतम न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में अपने निर्णय में जब आरक्षण पर 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा लगाई, उस समय तमिलनाडु में आरक्षण का प्रतिशत 69 था। राज्य द्वारा निर्धारित कोटा को बनाए रखने किए लिए एआईएडीएमके, जो उस समय सत्ता में थी, ने एक नया आरक्षण विधेयक प्रस्तावित किया और उसे कानून का स्वरूप दे दिया। उस समय एआईएडीएमके केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस की गठबंधन में शामिल थी और उसने यह सुनिश्चित किया कि तमिलनाडु आरक्षण अधिनियम को संविधान की नौवीं अनुसूची का हिस्सा बना दिया जाय, जिससे यह अधिनियम न्यायिक समीक्षा की जद से बाहर हो गया और तमिलनाडु की आरक्षण व्यवस्था यथावत बनी रही।
तमिलनाडु के आंकड़ों से साफ़ है कि जाति-आधारित आरक्षण का राज्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। सभी समुदायों के प्रतिनिधित्व ने शासकीय संस्थाओं को और जवाबदेह बनाया है और सामाजिक यथार्थ से जोड़ा है। कलैयासरन एवं विजयभास्कर ‘द द्रविड़ियन मॉडल’ में लिखते हैं, “निम्न जातियों के नौकरशाही में प्रवेश से सरकार को ज़मीनी हकीकत के बारे में मूल्यवान अंतर्दृष्टि हासिल हुई, जिससे स्वास्थ्य नीतियों को बेहतर बनाने और उनके बेहतर कार्यान्वयन में मदद मिली।” भारत सरकार के शीर्ष थिंकटैंक नीति आयोग के स्वास्थ्य सूचकांक श्रेणीक्रम में तमिलनाडु दूसरे स्थान पर है। केवल उसका पड़ोसी राज्य केरल उससे आगे है।”
पिछड़ी जातियों को उचित प्रतिनिधित्व मिलने से उत्पादन संस्कृति, जिस पर पेरियार बहुत जोर देते थे, का विस्तार हुआ और उसे मजबूती मिली। अब पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि सरकारी नीतियों के ज़रिए इस संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। (इसके विपरीत ब्राह्मणवादी संस्कृति पारंपरिक रूप से श्रम और उत्पादन को निचले दर्जे का काम मानती आई है। यह दृष्टिकोण वर्ण व्यवस्था के पदक्रम में भी झलकता है, जिसमें पारंपरिक रूप से खेती, लकड़ी, धातु व चमड़े का काम करने वालों और साफ-सफाई और जीवन के लिए ज़रूरी अन्य काम करने वाली जातियों को शूद्र का दर्जा दिया गया। उसी तरह ब्राह्मणवाद ने वैज्ञानिक सोच से भी दूरी बनाये रखी जबकि दमित जातियों के उत्पादकों ने उत्पादन प्रक्रिया को बेहतर बनाने और नवाचार के लिए इसका उपयोग किया।) इसके नतीजे में तमिलनाडु में पिछड़े वर्गों की विनिर्माण क्षेत्र में भागीदारी में भारी वृद्धि हुई और अब वे सेवा क्षेत्र में भी प्रवेश कर रहे हैं। कलैयासरन एवं विजयभास्कर लिखते हैं कि “गुजरात और महाराष्ट्र के साथ-साथ तमिलनाडु भी देश के सबसे औद्योगीकृत राज्यों में से एक है मगर जो चीज़ उसे अन्य दोनों राज्यों से अलग करती है, वह है उसके औद्योगीकरण की प्रकृति, जो श्रम प्रधान है, सामाजिक एवं अवस्थिति की दृष्टि से समावेशी है और जो आबादी के अपेक्षाकृत बड़े हिस्से को कृषि से बाहर ला सकी है।”
तमिलनाडु ने दिखा दिया है कि अधिक प्रातिनिधिक शासन और दमित जातियों को राजनीतिक और आर्थिक जीवन में न्यायोचित मौके देना, सदियों पुराने जातिगत पदक्रम को ख़त्म करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। जातिगत पदक्रम, समानता का निषेध तो करता ही है, वह भारत की सामाजिक-आर्थिक उन्नति की राह में रोड़ा भी है। अब तक प्रतिनिधित्व से जुड़े तर्क-वितर्क मुख्यतः सार्वजनिक शिक्षा, रोज़गार और सरकार के कुछ महकमों तक सीमित रहे हैं। मगर वास्तव में प्रतिनिधित्व की ज़रूरत सभी क्षेत्रों में है – कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका, शासकीय नौकरशाही के सभी स्तर और सार्वजानिक व निजी संस्थानों में शिक्षा और रोज़गार। जाति जनगणना और सभी जातियों की सही-सही आबादी और प्रतिनिधित्व की जानकारी अन्याय और असमानता, जो भारत में जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त हैं, से लड़ने के दिशा में पहला आवश्यक कदम है।
और यह बात केवल भारत के बारे में ही आवश्यक नहीं है, बल्कि यह दक्षिण एशिया के एक बड़े हिस्से में भी अनिवार्य रूप से प्रासंगिक है। जाति भारतीय उपमहाद्वीप की पुरानी निवासी है। वह तबसे यहां है जब उन सरहदों का कोई अता-पता नहीं था जो आज इस उपमहाद्वीप को अलग-अलग देशों में बांटतीं हैं। यही कारण है कि जाति सरहदों के दोनों तरफ अलग-अलग स्वरूपों में मौजूद है। जाति ने विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेशों के अनुरूप खुद को ढाल लिया है। पाकिस्तान में प्रताड़ित किए जा रहे ईसाई अल्पसंख्यकों में से अधिकांश एक समय दमित हिंदू जातियों के सदस्य थे। उन्हें उम्मीद थी कि धर्म बदलने से उन पर लगा नीची जाति का ठप्पा मिट जाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। उनमें से हजारों आज भी हाथ से मैला साफ़ करने को मजबूर है – वह काम, जो परंपरा से अछूत जातियों के लिए आरक्षित रहा है। वे बिना सुरक्षा उपकरणों और आधुनिक मशीनों के जान खतरे में डालने वाला काम करते हैं। यही बात बांग्लादेश के ईसाईयों के बारे में भी सही है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में यह काम आज भी दमित जातियों या दमित-जातियों के धर्म परिवर्तितों द्वारा किया जाता है और ऊंची जातियों के नौकरशाहों और नेताओं को उनकी कोई फिक्र नहीं है।
भारत ने मुश्किल से ही सही, मगर यह स्वीकार कर लिया है कि यहां जाति-आधारित अन्याय होता है। मगर पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो स्थिति और भी ख़राब है। इन दोनों मुस्लिम-बहुल देशों की जनता और सरकारें यह मानती हैं कि जाति की समस्या वहां हो ही नहीं सकती, क्योंकि इस्लाम अपने सभी मानने वालों को बराबर दर्जा देता है और इस्लाम में जाति को धर्म का अनुमोदन हासिल नहीं है। मगर यह सिर्फ दिल बहलाने वाली बात है। धार्मिक अनुमोदन का अभाव, अन्य धार्मिक समुदायों के जाति की विरासत को स्वीकार करने की राह में बाधक नहीं बन सका है। यह इससे साफ़ है कि भारतीय उपमहाद्वीप में जाति-आधारित भेदभाव न केवल इस्लाम वरन ईसाई, सिक्ख और बौद्ध धर्मों में भी व्याप्त है। बांग्लादेश में करोड़ों दलित हैं और उनमें से 10 लाख से ज्यादा सड़कों की सफाई करते हैं। पाकिस्तान में दसियों लाख दलित मुसलमानों के साथ-साथ बड़ी संख्या में हिंदू दलित भी हैं।
बंटवारे के बाद इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही पाकिस्तान सरकार ने एक कानून बनाकर हिंदू सफाईकर्मियों के भारत जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। सरकार को चिंता थी कि अगर वे लोग चले गए तो ये गंदे काम कौन करेगा। पाकिस्तान की सरकार को इन लोगों के धर्म से कोई मतलब नहीं था। उसे उनकी जाति और जाति-आधारित पेशे से मतलब था। एक सर्वेक्षण के अनुसार, पाकिस्तानी दोस्ती करते समय या रूमानी रिश्ते बनाते समय जाति का बहुत ख्याल रखते हैं। पाकिस्तान ने सन् 1957 में जारी एक राष्ट्रपति अध्यादेश (उस समय बांग्लादेश भी पाकिस्तान का हिस्सा था) में 40 जातियों की सूची जारी की थी, जिसमें से 32 अनुसूचित जातियां थीं। ऐसा बताया गया था कि ये सभी हिंदू जातियां हैं, ताकि इस ढोंग को बनाए रखा जा सके कि इस्लाम जाति-मुक्त है। आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में विभिन्न धर्मों में कितनी और कौन-कौन सी जातियां हैं, उनकी कितनी आबादी है और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है, इस बारे में हम कुछ नहीं जानते।
श्रीलंका में भी वहां के तमिल समुदायों में जातियां हैं – हालांकि पूरा तमिल समुदाय ही देश के सिंहली बौद्ध बहुसंख्यकों के हाथों प्रताड़ित है। वेल्लर, जो एक पारंपरिक कृषक समुदाय हैं, तमिलों के वर्चस्व वाले श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी हिस्से में जातिगत पदक्रम में सबसे ऊपर है। विभिन्न सेवाएं प्रदान करने वाली जातियां, शिल्पकार जातियां और परंपरा से अछूत माने जाने वाले समुदाय, सामाजिक पदक्रम में उनके नीचे है। श्रीलंका में 1960 और 1970 के दशक में कई जाति-विरोधी संघर्ष उभरे, मगर वे जल्द ही मृतप्राय हो गए। जहां तक सिंहलियों का सवाल है, उनमें गोविगामा नामक एक पारंपरिक कृषक समुदाय न केवल आबादी की दृष्टि से सबसे बड़ा है बल्कि राजनीति में भी उसका गैर-आनुपातिक वर्चस्व है। गौतम बुद्ध जाति-मुक्त समाज और सबको समान दर्जा देने वाले संघों में विश्वास रखते थे। मगर बौद्ध मठों के संचालकों का चुनाव जाति के आधार पर होता है। सियम निकाय, जो बौद्धों की सर्वोच्च संस्था है, में गोविगामा समुदाय का लगभग पूरा कब्ज़ा है। मूर नामक एक अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में भी जातिगत भेदभाव आम है।
अपनी पुस्तक ‘कास्ट इन श्रीलंका: फ्रॉम एनसिएंट टाइम्स टू द प्रेजेंट डे’ में पत्रकार आसिफ हुसैन लिखते हैं कि ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा 1871 से श्रीलंका में हर दस साल में जनगणना करवाने का क्रम शुरू किया गया। मगर उसमें जाति के लिए कोई स्थान न था। यह क्रम ब्रिटिश शासन के अंत तक चलता रहा। इसके बाद से सरकार ने एकसार सिंहली पहचान को बढ़ावा देना शुरू कर दिया और जातिगत विभेद को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया। राजनीतिक अर्थशास्त्री अहिलन कदीरगमार लिखते हैं कि तमिलों के गढ़ जाफना में “कोई जातिगत जनगणना नहीं हुई है और आधिकारिक अभिलेखों में जाति का नहीं ज़िक्र नहीं है।” श्रीलंका में विश्वविद्यालयों में प्रवेश में सकारत्मक विभेद की व्यवस्था है, मगर उसके अंतर्गत पिछड़े क्षेत्रों के विद्यार्थियों को प्राथमिकता दी जाती है और जातिगत भिन्नतओं का ख्याल नहीं रखा जाता।
इस मामले में नेपाल, अन्य दक्षिण एशियाई देशों से आगे है। वहां जनगणना में विभिन्न जातियों और नस्लीय समूहों से संबंधित आंकड़े एकत्रित किये जाते हैं। सबसे हालिया जनगणना, जो 2021 में हुई थी, में समग्र जातिगत गणना शामिल थी। आकड़ें तो उपलब्ध हैं मगर विषमताओं के शिकार समुदायों और दमित जातियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है। नेपाल में ब्राह्मण और छेत्री, जो सबसे बड़ी द्विज जातियां हैं, का कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सहित सार्वजानिक जीवन के सभी क्षेत्रों में वर्चस्व कायम है।
बीर बहादुर महतो, जो नेपाल में जातिगत समावेशिता के अध्येता और कार्यकर्ता हैं, ने हमें बताया कि “गणतंत्रात्मक संविधान ने इस मुद्दे पर ध्यान दिया है।” नेपाल में गणतंत्रात्मक संविधान 2015 में लागू हुआ। उसने पूर्व के उस संविधान की स्थायी रूप से जगह ली जो दकियानूसी हिंदू राजपरिवार को व्यापक अधिकार देता था। इस राजपरिवार को 2008 में एक गृहयुद्ध और जनता के विद्रोह के नतीजे में सत्ताच्युत कर दिया गया। गृहयुद्ध के बाद के संक्रमण काल और नए संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान “यह मांग उठी कि हर जाति की आबादी के आंकड़े एकत्रित किया जाने चाहिए।” यह मांग उन अनेक संगठनों द्वारा उठाई गई जो पिछड़ी जातियों, दलितों और जनजातियों अर्थात देशज समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थीं। “इन सभी संगठनों ने जाति-आधारित जनगणना की मांग की और सरकार ने इस मांग को आसानी से स्वीकार कर लिया।”
महतो अंतर्राष्ट्रीय ओबीसी अनुसंधान संस्थान के मुखिया हैं और उन्होंने नेपाल के नेशनल इन्क्लूशन कमीशन (राष्ट्रीय समावेशिता आयोग) की उन जातियों की सूची तैयार करने में मदद की, जिन्हें पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाना चाहिए था। महतो ने बताया, “नए संविधान में सार्वजनिक नियोजन और उच्च शिक्षा में आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन इन प्रावधानों के कार्यान्वयन के लिए मार्गनिर्देश तैयार किये जाना शेष है।” उन्होंने बताया, “हमनें सरकार से पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करने की मांग की थी मगर उसकी जगह, सरकार ने समावेशिता आयोग का गठन किया, जिसे विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के जिम्मेदरी सौंपी गई है और पिछड़े वर्ग उनमें से एक समूह हैं।” उन्होंने बताया कि आयोग ने “44 जातियों और उनसे जुड़े उपनामों वाले व्यक्तियों को पिछड़ा वर्ग के रूप में मान्यता देने की सिफारिश की थी। अब, क्योंकि 2021 की जनगणना ने हमें विभिन्न जातियों की आबादी में हिस्से की जानकारी उपलब्ध करवा दी है, अतः अब हमारी मांग है कि उन्हें आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया जाए।”
नेपाल की जाति जनगणना में सुधार की गुंजाइश है। महतो के अनुसार, कुछ लोगों की मान्यता है कि विभिन्न जातियों की आबादी के बारे में सरकारी आंकड़े सही नहीं हैं। कारण यह क आंकड़ों के संकलन में गड़बड़ियं हुईं हैं, क्योंकि “सरकार के मार्गनिर्देशों और जो प्रश्न लोगों से पूछे गए उनमें कमियां थीं और गिनती का काम करने वाले कर्मचारियों ने ठीक से काम नहीं किया।” किसी व्यक्ति की जाति की पहचान करना एक जटिल कार्य है। वे कहते हैं, “उदाहरण के लिए, अनेक अलग-अलग जातियों के लोग एक ही उपनाम का प्रयोग करते हैं और कई बार, अलग-अलग उपनाम वाले लोग एक ही जाति के होते हैं।” महतो, कुशवाहों का उपनाम है मगर कुशवाह जाति के लोग विभिन्न उपनामों का प्रयोग करते हैं जैसे महतो, मेहता और कुशवाह। थारू, जो नेपाल का एक देशज नस्लीय समूह है, के सदस्य भी महतो उपनाम का प्रयोग करते हैं और नोनिया जाति के कुछ लोग भी। “इसलिए यह कहना मुश्किल होता है कि कोई महतो किस जाति का है।” इसी तरह ‘ठाकुर’ उपनाम का प्रयोग ब्राह्मण भी करते हैं और कुछ हज्जाम, लोहार और सुनार भी। इन जातियों की पारंपरिक जातिगत पदक्रम में अलग-अलग स्थिति है। महतो कहते हैं “अगर ठाकुर उपनाम वाले लोग बता देते हैं कि वे हज्जाम, लोहार या सुनार हैं तब तो ठीक है अन्यथा गड़बड़ी हो जाती है।”
इस सबके बावजूद, महतो के अनुसार, “जाति जनगणना काफी हद तक निष्पक्ष रही है।” वे बताते हैं, “सन 2011 में हुई पहली जनगणना में 125 जातियां चिह्नित की गईं थीं। सन् 2021 की जाति जनगणना – जो नए संविधान के लागू होने के बाद पहली थी – में जातियों की संख्या बढ़ कर 142 हो गई क्योंकि लोगों ने अपनी जातिगत पहचान को खुलकर स्वीकार किया और जिस प्रश्नावली का प्रयोग किया गया था वह अधिक विस्तृत थी और उसमें विशिष्ट प्रश्न पूछे गए थे।” सन 2021 की जनगणना में कुल आबादी में वंचित समूहों का पहले से हिस्सा अधिक पाया गया।
अगर नेपाल यह कर सकता है तो दूसरे देश क्यों नहीं कर सकते? अनुभव हमें बताता है कि दकियानूसी समूहों के दावे के विपरीत, जाति जनगणना सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा नहीं है। बल्कि नेपाल में जाति जनगणना ने दमित समूहों को अपने लिए न्यायोचित प्रतिनिधित्व और अवसर उपलब्ध करवाने की मांग करने का एक स्पष्ट आधार दिया है। और यही भारत में भी होगा, यह जाति जनगणना के समर्थकों का तर्क है। पूरे दक्षिण एशिया में जहां-जहां भी जाति है, वहां विभिन्न जातियों की आबादी, उनके प्रतिनिधित्व और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के सही आंकलन का यही परिणाम होगा। जाति जनगणना, सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा नही है। खतरा तो है वे प्रतिगामी समूह जो जातिगत न्याय की ओर हर कदम का विरोध करते हैं और जाति जनगणना न होने देने के लिए कुछ भी करने को उद्यत हैं।
अगर भारत को उसके बहुसंख्यक निवासियों के साथ सदियों से चले आ रहे भेदभाव को समाप्त करना है और उसी तरह की प्रगति करना है, जैसी कि तमिलनाडु ने अधिक प्रातिनिधिक और न्यायपूर्ण शासन स्थापित करके की है, तो जातियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व देना अपरिहार्य है। और केवल जाति जनगणना ही आनुपातिक प्रतिनिधित्व की राह प्रशस्त कर सकती है। निश्चित रूप से ओबीसी कोटा, जो पहले से ही बहुत कम है, को सत्ताधारी पार्टी की चुनावी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उपविभाजित करना, सकारात्मक कदम नहीं है। और मजे की बात यह है कि इसके लिए नियुक्त आयोग को भी अपना काम करने के लिए जाति जनगणना की ज़रूरत होगी। न केवल भारत, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया को जाति और जातिगत बहिष्करण से डटकर मुकाबला करना ही होगा। इसमें पहले ही बहुत देरी हो चुकी है।
(यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी में हिमाल साउथ एशियन वेब पत्रिका द्वारा 13 जनवरी, 2024 को प्रकाशित, हिंदी में अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन)
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