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कौन और कैसे रोकेगा विश्वविद्यालयों में छात्राओं के साथ यौन शोषण?

लड़कियों और पिछड़े, दलित, आदिवासी छात्रों को तो वैसे ही उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए तरह-तरह के पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्षों से गुज़रना पड़ता है। घर परिवारवाले अपना काफी कुछ दांव पर लगाकर और कई शर्तों के साथ उनके यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए राजी होते हैं और शहरों में अकेले रहकर पढ़ने के लिए भेजते हैं। पढ़ें, सुशील मानव की रपट

बात पिछले सदी के अंतिम दशक की है। एक कहानी ने भारतीय अकादमिक जगत की पोल खोलकर रख दी थी कि कैसे विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर छात्राओं का यौन शोषण करते हैं। कहने को तो समय बीता है, लेकिन घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही हैं। हालांकि एक अंतर अवश्य आया है कि अब छात्राएं मुंह खोलने लगी हैं और शिकायतें भी दर्ज कराने लगी हैं।

मसलन, बीते 22 अप्रैल, 2024 को इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के एक सहायक प्रोफ़ेसर के खिलाफ़ चार्जशीट दाखिल किया गया है। इसके पहले 6 फरवरी को एक 23 वर्षीय छात्रा ने आरोप लगाया था कि 31 वर्षीय प्रोफ़ेसर उसे अपने घर ले गया और उसके साथ यौन हिंसा की। प्रोफ़ेसर ने दो साल पहले छात्रा को शादी का प्रस्ताव भी दिया था, जिसे उसने अस्वीकार कर दिया था। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि उक्त प्रोफेसर ने परीक्षा में अंक बढ़ाने के संबंध में फेवर करने की बात छात्रा से कही थी।

ऐसी ही एक घटना कोलकाता के विश्व भारती विश्वविद्यालय में तब प्रकाश में आई जब बीते 31 मार्च, 2024 को विश्वविद्यालय की तीन छात्राओं ने एक गेस्ट प्रोफ़ेसर पर यौन शोषण का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज़ करवाया। पीड़ित छात्राओं के मुताबिक आरोपी प्रोफ़ेसर ने सेमेस्टर परीक्षा में पास करने के लिए शारीरिक संबंध बनाने का दबाव बनाया और बात न मानने पर फेल करने की धमकी दी। इतना ही नहीं, प्रोफ़ेसर पर आरोप है कि उसने छात्राओं को अश्लील व्हाट्सऐप के जरिए संदेश भेजा और उन्हें ग़लत तरीके से छुआ।

एक घटना राजस्थान की भी है। बीते 23 फरवरी, 2024 को जोधपुर के एमबीएम इंजीनियरिंग कॉलेज की 38 छात्राओं ने एक साथ एक प्रोफ़ेसर पर यौन शोषण करने और धमकाने के आरोप लगाए। प्रोफ़ेसर छात्राओं को अच्छे नंबर देने का लालच देकर घर पर लेट नाइट पार्टी करने और लांग ड्राइव पर चलने के लिए बुलाता था। आठ सदस्यों वाली कमेटी की जांच में छात्राओं के आरोप सही पाए जाने के बाद 2 मार्च को प्रोफ़ेसर को निलंबित कर दिया गया। 

ऐसे ही 8 जनवरी, 2024 को हरियाणा के सिरसा स्थित चौधरी देवी लाल यूनिवर्सिटी की पांच सौ छात्राओं ने एक प्रोफ़ेसर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। पीड़ित छात्राओं ने बताया कि आरोपी प्रोफ़ेसर उनको अपने केबिन में बुलाकर बाथरूम में ले जाता था और गंदी हरकतें करता था। प्रोफ़ेसर की राजनीतिक रसूख के चलते कुलपति भी कुछ नहीं कहते थे। कार्रवाई करने के विपरीत कुलपति पीड़ित छात्राओं को लिखित और प्रायोगिक परीक्षाओं में अधिक नंबर दिलाने की बात कहकर मामले को दबा देते थे। 

विश्वविद्यालयों में छात्राओं के साथ यौन हिंसा की अनेक घटनाएं प्रकाश में नहीं आतीं

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब 9 फरवरी, 2024 को दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय की एक छात्रा को यूनिवर्सिटी में टॉप कराने का लालच देकर उसका यौन शोषण करने वाले प्रोफ़ेसर को निलंबित कर दिया गया। स्नातक की छात्रा ने विज्ञान संकाय के सहायक प्रोफ़ेसर पर आरोप लगाया था कि उऩ्होंने उसको 21 दिसंबर, 2023 की रात कॉल करके गंदी बातें की और उसके पास नहीं आने पर रिजल्ट और जीवन दोनों बर्बाद करने की धमकी दी। छात्रा ने सबूत के तौर पर 23 मिनट की कॉल रिकॉर्डिंग भी जांच कमेटी को सौंपी थी। इसी यूनिवर्सिटी की एक अन्य छात्रा ने 21 मई 2023 को एक दूसरे प्रोफ़ेसर पर जो कि बाद में विभागाध्यक्ष भी बने, पर यौन शोषण का आरोप लगाया था। 

उपरोक्त कुछ घटनाओं को घटित हुए बहुत अधिक दिन नहीं हुए हैं। ऐसे कितने मामले होंगे, इस संबंध में बेशक कोई संख्यात्मक दावा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अधिकांश मामलों में पीड़ित छात्राएं शिकायत ही दर्ज नहीं कराती हैं। और यह हाल देश भर की तमाम विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में है, जहां छात्राओं को अच्छा नंबर देने, यूनिवर्सिटी में टॉप करवाने, कैंपस प्लेसमेंट करवाने का लालच देकर या फेल करने की धमकी देकर उनका यौन शोषण अध्यापकों द्वारा किया गया है। 

यह एक पहलू है। जबकि दूसरा पहलू यह है कि तमाम यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चाहे वो अकेले रहते हों या परिवार के साथ, छात्रों को अपने घर बुलाते हैं और फेवर करने का लालच देकर उनसे अपने घर के सारे काम करवाते हैं। इलाहाबाद में मैंने कई छात्रों को प्रोफ़ेसर के घर पर खाना बनाते, जूठे बर्तन मांजते, कपड़े धोते, झाड़ू पोछा करते देखा है। ऐसे मौकों पर जब पकड़े जाते हैं तो अक्सर प्रगतिशील प्रोफ़ेसर भी तर्क देते नज़र आते हैं कि घर का बच्चा है। अपना घर समझकर कर रहा है। कुछ तो इसके बदले में छात्र की आर्थिक मदद करने की भी दलील देते हैं। 

तीसरा पहलू यह है कि दलित छात्र आरोप लगाते हैं कि भले ही वो कितनी भी मेहनत कर लें, कितना भी अच्छा और सही लिख कर आयें, तमाम ग़ैर दलित प्रोफ़ेसर अपनी जातिवादी दुराग्रह के चलते दलित छात्रों को मूल्यांकन में कम अंक देते हैं। इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में तो छात्रों को उनकी जाति देखकर नंबर देने के आरोप पर बवाल भी हो चुका है। आरोप लगाने वाले दलित प्रोफ़ेसर को इस मामले में नोटिस जारी करके यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा जवाब तलब भी किया जा चुका है। 

चौथा पहलू यह है कि अध्यापकों द्वारा छात्रों से पैसे लेकर उनको पास किया जाता है या अच्छे अंक दिये जाते हैं। चार दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के वीर बहादुर सिंह यूनिवर्सिटी में ऐसा ही एक मामला सामने आया है। जहां फॉर्मेसी के चार छात्रों को 56 फीसदी अंको के साथ पास कर दिया गया। जबकि इन छात्रों ने उत्तर पुस्तिका में केवल ‘जय श्री राम’ के नारे लिखे थे या फिर क्रिकेट खिलाड़ियों का नाम लिखा था। यूनिवर्सिटी के ही एक पूर्व छात्र द्वारा सूचना के अधिकार के तहत 18 छात्रों की उत्तर पुस्तिका हासिल करने के बाद इस मामले का खुलासा हुआ। राजभवन द्वारा गठित कमेटी की जांच में 50 उत्तर पुस्तिकाओं में अधिक अंक दिए जाने की पुष्टि हुई है। बाद में यूनिवर्सिटी की परीक्षा समिति ने दोषी अध्यापक डॉ. आशुतोष गुप्ता और डॉ. विनय वर्मा को बर्खास्त कर दिया है। कुछ दिन पहले प्रोफ़ेसर विनय वर्मा का एक वीडियो भी वायरल हुआ था, जिसमें वह छात्रों से पास करने के नाम पर रिश्वत मांग रहे हैं। 

कई बार ऐसे मामले हद की सीमाओं को पार कर जाते हैं। मसलन, 31 जुलाई, 2021 को दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर में परीक्षा देने आई एक छात्रा का शव गृह विज्ञान विभाग के स्टोर में उसके ही दुपट्टे से लटका हुआ मिला। गृह विज्ञान की छात्रा प्रियंका कुमारी के पिता ने विभागाध्यक्ष के खिलाफ़ अपनी बेटी की हत्या का केस दर्ज़ करवाया था। और यह तो बीते 6 अप्रैल, 2024 की बात है जब रायपुर (छत्तीसगढ़) के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के छात्रावास में चेतना पटेल नामक एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली। इसके पहले 10 जनवरी, 2024 को लखनऊ यूनिवर्सिटी के तिलक हॉस्टल में छात्रा ने फंदे पर लटककर अपनी इहलीला खत्म कर ली। छात्रा का नाम अंशिका था और वह बीए तृतीय वर्ष की छात्रा थी। यूनिवर्सिटी और हॉस्टेल में छात्राओं और दलित छात्रों के खुदकुशी के कई मामले सामने आये हैं। गोरखपुर यूनिवर्सिटी वाले केस में पिता द्वारा विभागाध्यक्ष के खिलाफ़ केस दर्ज़ करवाना काफी कुछ मूल्यांकन और यौन शोषण वाले पैटर्न की ओर इशारा करता है। 

दरअसल लड़कियों और पिछड़े, दलित, आदिवासी छात्रों को तो वैसे ही उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए तरह-तरह के पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्षों से गुज़रना पड़ता है। घर परिवारवाले अपना काफी कुछ दांव पर लगाकर और कई शर्तों के साथ उनके यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए राजी होते हैं और शहरों में अकेले रहकर पढ़ने के लिए भेजते हैं। पूरे परिवार के सपनों का बोझ लिए जब ये लड़कियां और छात्र यूनिवर्सिटी पहुंचते हैं तो वे अपने शोषण का प्रतिरोध करने लायक स्थिति में नहीं होते हैं। 

कई बार तो ऐसा होता है कि यौन उत्पीड़न का नाम सुनते ही परिजन अपनी लड़कियों की पढ़ाई छुड़ाकर घर में बैठा देते हैं और कोई ठीक-ठाक लड़का देखकर झट शादी कर देते हैं। ऐसे में लड़कियों के सामने अपने शोषक अध्यापकों की हर बात मान लेना और समझौते करते जाना ही एकमात्र विकल्प बचता है। जबकि दलित-आदिवासी छात्रों को भी घर के काम से लेकर बिस्तर तक की यातना झेलना पड़ता है। इन छात्र-छात्राओं की मनोवैज्ञानिक मजबूरी को अध्यापक भली-भांति वाकिफ़ होते हैं, इसलिए भी वो फायदा उठाते हैं और फेल करने का डर दिखाकर उनका तरह-तरह से उत्पीड़न करते हैं। कई बार इसके चलते कैंस में छात्र-छात्राओं द्वारा आत्महत्या करने जैसा क़दम उठा लिया जाता है। जबकि कई बार तो अपने सपनों को मारकर यूनिवर्सिटी की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। 

उपरोक्त चारों तरह के मामलों में जो एक बात साझी है और वह है– उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन करने के अधिकार का दुरुपयोग। जो छात्र-छात्राओं को कैंस से खींचकर प्रोफेसर के घर तक ले जाता है और कई तरह के समझौतों और शोषण के लिए विवश करता है। लेकिन हमेशा, हर बार आरोपी अध्यापकों के खिलाफ़ मामले को या तो जांच कमेटी बनाकर दबा दिया जाता है या फिर कार्रवाई के नाम पर कुछ दिनों के लिए निलंबित कर दिया जाता है। बावजूद इसके कि इन कार्रवाईयों से छात्र-छात्राओं के उत्पीड़न का सिलसिला रुकने के बजाय दिन-ब-दिन बढ़ता गया और देश के तमाम विश्वविद्यालय और महाविद्यालय इसकी जद में आते गए। दरअसल इसे रोकने के लिए कोई ठोस नीति या योजना बनाने को लेकर यूनिवर्सिटी प्रशासन और प्रबंधन ने कभी सोचा ही नहीं। न ही यूजीसी ने कोई कारगर कदम उठाने की इच्छाशक्ति दिखाई। 

अध्यापकों द्वारा भेदभाव पूर्ण मूल्यांकन को लेकर कई विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं लंबे समय से मांग करते आ रहे हैं कि उऩकी उत्तर पुस्तिकाओं को दिखाया जाय और हर साल उत्तर पुस्तिकाओं को यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर अपलोड किया जाय। इससे न सिर्फ़ पारदर्शिता बढ़ेगी बल्कि छात्र-छात्राओं के दिलो-दिमाग से कॉपी मूल्याकंन में अधिक अंक पाने का लोभ और जबर्दस्ती फेल कर दिए जाने का डर भी खत्म हो जाएगा, जिसे हथियार बनाकर प्रोफ़ेसर इऩका उत्पीड़न करते हैं। उल्टा इन प्रोफ़ेसर के मन में भय होगा कि अगर उऩ्होंने मूल्याकंन में कुछ भी ग़लत या अनैतिक किया तो उत्तर पुस्तिका वेबपोर्टल पर अपलोड होते ही वे पकड़े जाएंगे। और फिर उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में अध्यापकों की मनमानी, सामंतवादी, जातिवादी, नस्लवादी और मर्दवादी दुराग्रह भी नहीं चल पाएगा। 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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