h n

मोदी दशक में मुसलमान

भाजपा की निगाह पसमांदा मुसलमानों के वोट पर है। गौरतलब है भाजपा एक विचारधारा आधारित पार्टी है, जिसका वैचारिक आधार आरएसएस के हिंदुत्व की विचारधारा पर निर्भर है। इसीलिए एक पार्टी के तौर पर वह लंबे समय की योजना बनाकर काम करती है और इसके केंद्र में हिंदुत्व की विचारधारा निहित होती है। पढ़ें, जावेद अनीस का यह आलेख

भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का घर है। इस घर में हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई सभी रहते हैं और संविधान के मुताबिक सभी को समान अधिकार हासिल है। लेकिन साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद से भारत के मुसलमानों के हालात राजनीतिक और सामाजिक, दोनों स्तरों पर विषम से विषम होती गई हैं। इनमें सबसे अधिक प्रभावित पसमांदा मुसलमान हैं, जिनकी आबादी कुल मुसलमानों की आबादी का करीब 85 प्रतिशत है। 

कहना अतिशयोक्ति नहीं कि पिछले एक दशक के मोदी राज में एक नागरिक के तौर पर मुसलमान चाहे वह पसमांदा मुसलमान हों या अशराफ, उनकी जगह और हैसियत कम हुई है और वे अपने ही वजूद की तलाश में भटकते रहे हैं। इस दौरान हुए घटनाक्रमों यथा गोकशी और लव जिहाद के बहाने मॉब-लिंचिंग की घटनाएं आदि संकेत देती हैं कि यह सब कुछ एक पूर्वनिर्धारित योजना के तहत अंजाम दिया गया।

हालांकि 2014 से पहले भी मुसलमानों को अक्सर भेदभाव, पूर्वाग्रह और हिंसा का सामना करना पड़ता था, लेकिन अब इसे संस्थानीकरण कर दिया गया है। सत्ता के शीर्ष से मुसलमानों को अलग-थलग करने की कोशिशें की जाती रही हैं। फिर चाहे वह प्रधानमंत्री का कपड़े से पहचानने संबंधी विवादित बयान हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून (सीएए)। 

वैसे भाजपा की छवि हमेशा से ही मुस्लिम विरोधी रही है। लेकिन मोदी के दशक में उसपर यह आरोप और गहरा होता गया है। इन आरोपों के पीछे ठोस वजूहात भी हैं जिनकी जड़ें, उनके हिंदुत्व की मूल विचारधारा में निहित है। और अब आलम है कि पिछले दस सालों के भाजपा के शासनकाल के दौरान मुसलमान लगातार हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। उनके खिलाफ डर व असुरक्षा का माहौल बना रहा है और वे लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं।

हर क्षेत्र में दोयम दर्जा

इतिहास के पास इसका साक्ष्य है कि आजाद भारत में हिंदुत्व राजनीतिक रूप से कभी एक सीमांत विचारधारा थी, अब वह मुख्यधारा की विचारधारा बना दी गई है। इस विचारधारा के मूल में 1923 में प्रकाशित विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित पुस्तिका ‘हिंदुत्व : हिंदू कौन है?’ में है, जिसमें ‘पुण्यभूमि’ और ‘पितृभूमि’ सिद्धांत पेश करते हुए बताया गया है कि “हिंदू ही इस धरती के ‘सच्चे पुत्र’ हैं, क्योंकि उनकी पवित्र भूमि भारत में है, जबकि ईसाई और मुस्लिमों की पवित्र भूमि इसके बाहर है।” आज भी सावरकर की इसी थ्योरी से हिंदू राष्ट्रवादी स्वयं को संचालित करते हैं, जो हम उनके नारों और व्यवहार में देख सकते हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक मतदान केंद्र के बाहर मतदाता सूची में अपना नाम खोजते इस्लाम धर्मावलंबी मतदातागण

सावरकर की उपरोक्त थ्योरी के चलते पिछले दस वर्षों में भारत की मुस्लिम आबादी को बहुत तेजी से हाशिए पर धकेला गया है। इस दौरान ऐसे विवादास्पद नीतियों को आगे बढ़ाया है, जो स्पष्ट रूप से मुसलमानों के हितों व अधिकारों की अनदेखी करते हैं और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को वंचित करने की मंशा रखते हैं।

उदाहरण के लिए दिसंबर, 2019 में, संसद में पारित सीएए एक ऐसा कानून है, जो नागरिकता के सवाल पर पहली बार धार्मिक मानदंड लागू करता है और बहुत ही खुले रूप से अपने दायरे से मुसलमानों को बाहर करता है। इसके पीछे मोदी सरकार का तर्क है कि यह कानून तीन मुस्लिम बहुल पड़ोसी मुल्कों – पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान – में उत्पीड़न का सामना करने वाले कमजोर धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया है, जिसमें हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शामिल हैं।

इस दौरान मुसलमानों को दंडित करने के लिए संविधान और न्यायालय से इतर एक भाजपा द्वारा शासित प्रदेशों में प्रणाली विकसित की गई, जिसे बेहयाई से ‘बुलडोजर न्याय’ कहा गया। इसके तहत बिना किसी उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए मुस्लिम नागरिकों की संपत्तियों, जिनमें उनके घर और आजीविका, दोनों शामिल हैं, को निशाना बनाया गया। यह पूरी प्रक्रिया अन्यायपूर्ण, गैरकानूनी और भेदभावपूर्ण है तथा एक प्रकार से मुसलमानों का कानूनी रूप से बहिष्करण है।

राजनीतिक क्षेत्र की बात करें तो पिछले एक दशक के दौरान मुस्लिम समुदाय राजनीतिक रूप से और हाशिये पर चला गया है। साथ ही संसद और राज्यों के विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व भी कम हुआ है। हालत यह हो गई है कि गैर-भाजपाई राजनीतिक दलों द्वारा भी उनके मसलों पर बात करने को राजनीतिक नुकसान के तौर पर देखा जाने लगा है। यही कारण है कि अब भाजपा के अलावा अन्य राजनीतिक दल भी मुस्लिम प्रत्याशी उतारने में कतराते हैं।

ध्रुवीकरण के औजार

भारतीय मुसलमान हमेशा से ही दक्षिणपंथियों के लिए ध्रुवीकरण के प्रमुख औजार की तरह रहे हैं। दुखद यह कि 2014 के बाद इसका सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा उपयोग भी किया जाने लगा है। इसका उदाहरण चुनाव जीतने के भाजपा का वह तरीका है, जिसके जरिए वे लोगों को ‘हम’ और ‘वे’ के खाके में बांटने की कोशिश कर रहे हैं। अपने चुनावी अभियान में भाजपा के नेतागण यह डर फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि विपक्ष के सत्ता में आने पर बहुसंख्यक हिंदुओं की संपत्ति को छीन कर ‘ज्यादा बच्चे वालों को’ और ‘घुसपैठियों’ को दी जाएगी। यहां यह समझना जरूरी है कि भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी द्वारा अपने देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ ऐसी बात करना सिर्फ चुनावी अभियान तक सीमित नहीं है, बल्कि यही उनकी दृष्टि है।

इसी कड़ी में लोकसभा चुनाव के बीच प्रधानमंत्री की इकोनॉमिक एडवाइज़री काउंसिल द्वारा भारत की ‘जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी’ विषय पर एक वर्किंग पेपर जारी किया, जिसकी टाइमिंग और मंशा पर सवाल उठना गैर-वाजिब नहीं है। इस वर्किंग पेपर के आधार पर दो नॅरेटिव पेश करने की कोशिश की गई है। पहला यह कि 1950 से लेकर 2015 के बीच हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी है और दूसरा मुसलामानों की बढ़ी हुई आबादी यह साबित करती है कि भारत में अल्पसंख्यक न केवल सुरक्षित हैं, बल्कि फल-फूल रहे हैं। यह रिपोर्ट मुसलामानों की बढ़ती आबादी को लेकर उस पुराने दुष्प्रचार अभियान को मजबूत करने की कोशिश करती है, जो संघ परिवार का पुराना अभियान रहा है। जबकि देखा जाय तो इस रिपोर्ट में आंकड़ों के वैज्ञानिक विश्लेषण के सभी मानकों का उल्लंघन किया गया है।

बांटो और बहिष्कृत करो की नीति

एक समय ब्राह्मण वर्गों और अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति रही। लेकिन अब यह तरकीब पुरानी पड़ चुकी है। पिछले एक दशक के दौरान ‘बांटो और बहिष्कृत करो’ की नीति अपनाई गई है। गत 23 अप्रैल, 2024 को राजस्थान के टोंक में जब नरेंद्र मोदी अपने एक चुनावी रैली के दौरान यह कहते हैं कि “कांग्रेस पार्टी दलितों और पिछड़ों का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देना चाहती है” तो उनकी मंशा पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है। दरअसल ऐसा करते हुए वे सामाजिक न्याय की राजनीति पर प्रहार कर रहे होते हैं, जिसके केंद्र में दलित, आदिवासी और पिछड़ों के साथ मुसलमान शामिल रहे हैं।

ऐसे ही भाजपा शिया मुसलमानों को आकर्षित करने की कोशिशें करती रही है और जिसमें हालिया सबसे बड़े मुस्लिम चेहरों जैसे मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज़ हुसैन जैसे नेता शामिल रहे हैं। लेकिन अब भाजपा की इस रणनीति में बदलाव देखने को मिल रहा है। साल 2022 में भाजपा द्वारा पसमांदा मुस्लिमों के लिए स्नेह यात्रा की घोषणा की गई थी। इसके बाद जनवरी 2023 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी द्वारा मुस्लिम समुदाय के बोहरा, पसमांदा और पढ़े-लिखे लोगों तक सरकार की नीतियों को लेकर जाने की बात कही गई।

गौरतलब है कि जाति भारतीय उपमहाद्वीप की एक पुरानी बीमारी है। इलाकाई और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में लगभग सारे धार्मिक समूहों में पायी जाती है। हालांकि मजहबी तौर पर इस्लाम में जाति की कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं। और परिणाम यह है कि भारत के मुस्लिम समाज का 85 फीसदी हिस्सा पसमांदा हैं, जिसका  का अर्थ है– ‘पीछे छोड़ दिए गए’ या ‘दबाए गए लोग’। दरअसल पसमांदा शब्द का उपयोग मुसलमानों के बीच दलित और पिछड़े मुस्लिम समूहों के संबोधन के लिए किया जाता है। ज्यादातर पसमांदा मुसलमान हिंदू धर्म में व्याप्त कुप्रथाओं से पीड़ित होकर मुसलमान बने हैं। इनमें से अधिकतर की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति हिंदू दलितों एवं आदिवासियों के सामान या उनसे भी बदतर है। संख्या में अधिक होने के बावजूद पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी काफी कम है।

इसी गैर-बराबरी को ध्यान में रखते हुए पसमांदा मुस्लिम समाज लंबे समय से अपनी सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के लिए संघर्ष भी कर रहा है। आजादी से पहले अब्दुल कय्यूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी जैसे लोगों द्वारा इसकी शुरुआत की गई। मौजूदा दौर में पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर जैसे नेता इस मुहिम की अगुवाई कर रहे हैं, जिन्होंने ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज की स्थापना की है और वे इस विषय पर ‘मसावात की जंग’ जैसी किताब लिख चुके हैं। इस सिलसिले में मसूद आलम फलाही की किताब ‘हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान’ भी काबिले जिक्र है, जो भारत के मुस्लिम समाज के अंदर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का बहुत प्रभावी तरीके से खुलासा करती है।

खैर, भाजपा की निगाह पसमांदा मुसलमानों के वोट पर है। गौरतलब है भाजपा एक विचारधारा आधारित पार्टी है, जिसका वैचारिक आधार आरएसएस के हिंदुत्व की विचारधारा पर निर्भर है। इसीलिए एक पार्टी के तौर पर वह लंबे समय की योजना बनाकर काम करती है और इसके केंद्र में हिंदुत्व की विचारधारा निहित होती है। इसीलिए भाजपा पसमांदा मुसलमानों तक अपनी पहुंच बनाकर एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है। जाहिर तौर पर सबसे पहला और बाहरी तौर पर दिखाई पड़ने वाला निशाना तो उनका वोट हासिल करना है। साथ ही, मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से के भाजपा से जुड़ने के और भी फायदे हैं। इससे मुस्लिम वोटों का बिखराव होगा और समुदाय का एक हिस्सा चुनावों में जातिगत आधारों पर बंट कर वोट कर सकता है। मुस्लिम वोटों का बिखराव का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को ही मिलेगा।

इस पहल के पीछे एक और छिपा मकसद हो सकता है, जो संघ के लंबे समय की रणनीति का एक हिस्सा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत लंबे समय से यह दोहराते रहे हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं, भले ही उनकी पूजा और इबादत का तरीका अलग हो। यहां संघ द्वारा हिंदू को रहन-सहन के तरीके और संस्कृति के तौर पर परिभाषित किया जाता है। आजकल संघ और भाजपा के लोग यह कहते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं।

बहरहाल, पसमांदा आंदोलन का एक नारा है– “हिंदू हो या मुसलमान, पिछड़ा-पिछड़ा एक समान”। यह नारा पसमांदा आंदोलन की मूल आत्मा है। यह नारा धार्मिक पहचान की जगह सभी समुदायों के सामाजिक या जातीय रूप से संगठित करने की वकालत करता है। यह एक प्रगतिशील नारा है, लेकिन भाजपा और संघ इसका अपनी तरह से फायदा उठाना चाहते हैं। हालांकि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा, क्योंकि पसमांदा आंदोलन के नेता इस बात को लेकर सचेत नजर आ रहे हैं।

अब सवाल यह कि मुसलमानों के लिए केंद्र में भाजपा की जीत के मायने क्या हो सकते हैं? इस बात को असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा बिहार के सीवान में दिए गये उस चुनावी भाषण से समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा कि “अगर एनडीए 400 सीटों के साथ सत्ता में लौटती है तो समान नागरिक संहिता लाया जाएगा, मुल्ला पैदा करने वाली दुकानें यानी मदरसे बंद होंगे, मुस्लिम आरक्षण खत्म होगा और चार बार शादी करने के कारोबार को समाप्त कर दिया जाएगा।” जबकि असलियत यह है कि भारतीय संविधान में आरक्षण का आधार धर्म नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है।

 (संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

जावेद अनीस

भोपाल निवासी जावेद अनीस मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर नियमित रूप से लेखन करते हैं

संबंधित आलेख

केशव प्रसाद मौर्य बनाम योगी आदित्यनाथ : बवाल भी, सवाल भी
उत्तर प्रदेश में इस तरह की लड़ाई पहली बार नहीं हो रही है। कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के बीच की खींचतान कौन भूला...
बौद्ध धर्मावलंबियों का हो अपना पर्सनल लॉ, तमिल सांसद ने की केंद्र सरकार से मांग
तमिलनाडु से सांसद डॉ. थोल थिरुमावलवन ने अपने पत्र में यह उल्लेखित किया है कि एक पृथक पर्सनल लॉ बौद्ध धर्मावलंबियों के इस अधिकार...
मध्य प्रदेश : दलितों-आदिवासियों के हक का पैसा ‘गऊ माता’ के पेट में
गाय और मंदिर को प्राथमिकता देने का सीधा मतलब है हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति को मजबूत करना। दलितों-आदिवासियों पर सवर्णों और अन्य शासक...
मध्य प्रदेश : मासूम भाई और चाचा की हत्या पर सवाल उठानेवाली दलित किशोरी की संदिग्ध मौत पर सवाल
सागर जिले में हुए दलित उत्पीड़न की इस तरह की लोमहर्षक घटना के विरोध में जिस तरह सामाजिक गोलबंदी होनी चाहिए थी, वैसी देखने...
फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)
मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण...