‘जाति’ हमारे जीवन को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित करती है। देश-प्रदेश के राजनीतिक व्यवहार में भी यह प्रबल पक्ष के रूप में सदा से दृष्टिगोचर होती रही है। हाल ही में राजस्थान में संपन्न लोकसभा चुनावों में यह अलग रूप में उभरी है। हालांकि इस बार पूरे प्रदेश में मतदान प्रतिशत में पिछले लोकसभा चुनावों की तुलना में 4.47 प्रतिशत कमी दर्ज की गई, लेकिन कुछ लोकसभा क्षेत्रों में यह प्रतिशत बहुत अच्छा रहा।
अगर हम इसके पीछे के कारणों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यहां चुनाव, लोकतंत्र का उत्सव नहीं, बल्कि जातीय-संघर्ष का अखाड़ा बन गया था। एक तरफ विभिन्न जातियों ने प्रत्याशी चयन के लिए अलग-अलग पैमाने गढ़े, वहीं दूसरी तरफ जातियों के भीतर उप-जातियों और गोत्रों तक में स्पष्ट तकरार देखने को मिली।
मसलन, राजस्थान में ‘अनाज का कटोरा’ कहा जाने वाला श्रीगंगानगर लोकसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट की श्रेणी में आता हैं। यहां भाजपा ने प्रियंका बालाण को टिकट दिया तो विवाद खड़ा हो गया, क्योंकि प्रियंका स्वयं अनुसूचित जाति से आती हैं, लेकिन उनका ससुराल पक्ष सामान्य वर्ग से आता है। वहां की अनुसूचित जाति के लोगों में इस बात का आक्रोश दिखा कि यह अप्रत्यक्ष रूप से आरक्षित सीटों पर दलितों के सुरक्षित अधिकारों पर हमला हैं। वहीं कांग्रेस के प्रत्याशी कुलदीप इंदौरा के संबंध में ऐसा कोई विवाद नहीं है। कांग्रेस ने कैंपेन में इस बात पर जोर दिया कि भाजपा अप्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक-आरक्षण को इस नए तरीके से खत्म करना चाहती है। परिणामस्वरूप, दलित वर्ग का एक बड़ा तबका कांग्रेस की ओर तुलनात्मक रूप से ज्यादा झुका नज़र आया और भाजपा के लिए सबसे ज्यादा सुरक्षित समझे जाने वाली लोकसभा के समीकरण बदले हुए नजर आ रहे हैं। यह यहां हुए मतदान के प्रतिशत से भी झलकता है क्योंकि यहां 66.25 प्रतिशत मतदान हुआ, जो पहले चरण में राजस्थान में सर्वाधिक था।
चूरू लोकसभा क्षेत्र में कस्वां परिवार के रामसिंह कस्वां और राहुल कस्वां ने लगातार पांच बार विजय प्राप्त किया है। इस बार भाजपा ने राहुल कस्वां का टिकट काटकर देवेंद्र झाझड़िया को दे दी। और राहुल कस्वां कांग्रेस में चले गए। दोनों ही जाट जाति से आते हैं, लेकिन राहुल कस्वां ने इस चुनाव को, वहां के कद्दावर भाजपा नेता राजेंद्र राठौड़ पर आरोप-प्रत्यारोप के सहारे जाट और राजपूत की राजनैतिक लड़ाई में तब्दील कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि इस जाट-बाहुल्य लोकसभा में जाट जाति, राहुल कस्वां के लिए अत्यंत मुखर दिखी और दूसरी ओर राजपूतों ने देवेंद्र को समर्थन दिया। यहां का चुनाव एक जाति में ही राजनीतिक सत्ता के साथ-साथ अपनी जाति के बड़े कद के नेता का राजनीतिक जीवन बचाने वाला दिखा। यह जातिगत-राजनीति का एक अगला स्तर कहा जा सकता है। यहां 62.98 प्रतिशत मतदान हुआ, जो पहले चरण के मतदान प्रतिशत को देखते हुए अच्छा कहा जा सकता है।
चूरू के ही पड़ोसी लोकसभा क्षेत्र सीकर में भाजपा के प्रत्याशी स्वामी सुमेधानंद और इंडिया गठबंधन की ओर से उतारे गए कॉमरेड अमराराम, दोनों ही वहां की बाहुल्य जाट जाति से आते हैं, परंतु दोनों के जाट होने की स्थिति में जब मुकाबला सीधा जाति का नहीं हो पाया तो ‘स्थानीय और बाहरी’ का मुद्दा बना। चूंकि, स्वामी सुमेधानंद मूलतः राजस्थान से नहीं हैं, तो यह प्रचारित करने के प्रयास किए गए कि यह बाहरी हैं और अमराराम स्थानीय। इस प्रचार का मतदाताओं पर कितना असर हुआ, यह देखना दिलचस्प होगा।
वैसे स्थानीय और बाहरी का नॅरेटिव जोधपुर लोकसभा क्षेत्र में भी गढा गया। लेकिन यहां मामला गोत्र से जुड़ा था। वहां से कांग्रेस के उम्मीदवार करण सिंह उचियारड़ा और भाजपा से गजेंद्र सिंह शेखावत एक ही जाति (राजपूत) से आते हैं। लेकिन करण सिंह अपने चुनावी-प्रचार में बार-बार गजेंद्र सिंह को बाहरी बताते रहे, क्योंकि गजेंद्र सिंह शेखावत राजपूत जाति के ‘शेखावत’ गोत्र से आते हैं। इस गौत्र की उत्पत्ति शेखावटी में मानी जाती हैं, जबकि जोधपुर मारवाड़ का क्षेत्र है।
‘जातीय अस्मिता’ का गहरा असर बांसवाड़ा सीट पर देखा जा सकता है। यहां भारतीय आदिवासी पार्टी की ओर से राजकुमार रौत उम्मीदवार बनाए गए थे और भाजपा की ओर से महेंद्रजीत मालवीय पर दांव खेला गया। राजकुमार रौत, दो बार से विधायक हैं। वहीं महेंद्रजीत सिंह मालवीय भी लोकसभा सांसद एवं राजस्थान सरकार में मंत्री रह चुके हैं। वे पहले कांग्रेस में थे, फिर लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले भाजपा में शामिल हो गए। राजकुमार रौत आदिवासी पार्टी के सहारे आदिवासियों में राजनीतिक चेतना को जागृत करने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर महेंद्रजीत सिंह मालवीय के पास राजनैतिक पदों पर रहने का अनुभव एवं सुदृढ़ जमीनी पकड़ थी। लेकिन, एक युवा विधायक का राजनैतिक रूप से इतने सुदृढ़ नेता को चुनाव में मजबूती से टक्कर देना, आदिवासी एकता पर नजर डालने को मजबूर करता है। इस चुनाव की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर भी रही हैं। जानकारों की मानें तो महेंद्रजीत सिंह मालवीय को खूब आर्थिक संसाधनों का सहारा लेना पड़ा, जबकि राजकुमार रौत ने यह चुनाव कम संसाधनों में ही लड़ लिया। इसका परिणाम देखना वाकई रोचक होगा, लेकिन यह कहा जा सकता है कि बाकी जातियों और समुदायों की भांति, आदिवासी समुदाय भी राजनीति की इस नई बिसात को भली-भांति समझने लगे हैं।
सनद रहे कि दूसरे चरण के चुनाव में बांसवाड़ा 73.88 प्रतिशत मतदान के साथ दूसरा सबसे ज्यादा मतदान करने वाला लोकसभा क्षेत्र रहा।
अगर स्पष्ट रूप से दो जातियों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा की बात करनी हो, तो बाड़मेर लोकसभा का जिक्र सर्वथा उपयुक्त होगा। बाड़मेर का चुनाव त्रिकोणीय मुकाबले से शुरू हुआ। लेकिन अंत तक आते-आते दो उम्मीदवारों की ऐसी टक्कर बनी कि उसमें पार्टियां, विकास के मुद्दे और वादे सब गौण होते गए और जाति का तत्व प्रमुखता से आगे आता गया। यहां से भाजपा से केंद्रीय राज्य मंत्री कैलाश चौधरी उम्मीदवार थे। शिव विधानसभा क्षेत्र के विधायक रवींद्र सिंह भाटी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में और कांग्रेस की तरफ से उम्मेदाराम बेनीवाल मैदान में थे। निर्दलीय रवींद्र सिंह भाटी को न केवल लोकसभा क्षेत्र के बल्कि देशभर से राजपूतों ने खुला समर्थन दिया, परिणामस्वरूप मतदान से पहले ही प्रचार से लेकर आर्थिक रूप से चुनाव का मैनेजमैंट एक ही जाति-विशेष के लोगों ने संभाल लिया। जहां क्रिया होगी, वहां प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी, इसलिए जाटों ने उम्मेदाराम और कैलाश चौधरी में बंटने की बजाय स्पष्ट रूप से उम्मेदाराम बेनीवाल का हाथ थाम लिया। यहां का चुनाव सबसे महंगे और चर्चित चुनावों में से एक रहा है। बाड़मेर में दूसरे चरण में हुए 73.68 प्रतिशत मतदान पड़े, जो सबसे अधिक थे।
बहरहाल, अभी तक हुए चुनावों में जाति जिस तरह से महत्वपूर्ण साबित हुई है, वह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं कहे जा सकते। इसके परिणाम बड़े भयानक हो सकते हैं। चुनाव संपन्न होने के बाद भी राजस्थान भर से आती हिंसा की खबरों से सीख लेने की आवश्यकता है। शायद इन्हीं राजनीतिक दशाओं को ध्यान में रखकर डॉ. आंबेडकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में लिखा है– “सामाजिक सुधारों के बगैर राजनीतिक सुधारों की बात बेमानी है!”
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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