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अनुसूचित जाति का उपवर्गीकरण, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के उत्तरार्द्ध

अगर फैसले के बाद आरक्षण का आधार अस्पृश्यता से हटकर आर्थिक तंगी बनता है, तो संभव है कि दलितों के खिलाफ सामाजिक स्तर पर होने वाली हिंसक घटनाएं घटने की बजाय और अधिक तीव्र गति से बढ़ेंगीं। बता रहे हैं प्रमोद प्रखर

सर्वोच्च न्यायालय ने गत 1 अगस्त, 2024 को एक अहम फैसला सुनाया। मुख्य न्यायाधीश समेत सात सदस्यों वाली इस पीठ ने ‘पंजाब राज्य बनाम देविंदर सिंह’ मामले में 6-1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए राज्यों को अनुसूचित जाति को उपवर्गीकृत करने की अनुमति प्रदान की। इस फैसले ने 2004 में ‘ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश’‌ मामले में दिए गए अपने पूर्व के निर्णय को पलट दिया है, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जातियां एक ‘समरूप समूह’ के रूप में अधिसूचित हैं, जिन्हें श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता।

अब अगर इन दोनों वादों को इतिहास की रोशनी में देखा जाए तो दोनों ही आरक्षण की व्यवस्था में राज्यों के हस्तक्षेप से संबंधित हैं। आंध्र प्रदेश सरकार ने 1997 में कुछ दलित संगठनों के राजनीतिक दवाब में आकर अनुसूचित जाति को चार उपवर्गो में बांटने का फैसला लिया, जिसके विरोध में ई.वी. चिन्नैया ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। उच्चतम न्यायालय के आदेश के उपरांत अनुसूचित जाति का वर्गीकरण करने वाले आंध्र प्रदेश समेत सभी राज्य-निर्मित कानून अवैध हो गए। इसी महत्वपूर्ण फैसले के आधार पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 2006 में पंजाब सरकार द्वारा अनुसूचित जाति के आरक्षण में एक ही जाति (जिसका एक तबका सिख पंथ मानता है) को अनुसूचित जाति के लिए निर्धारित आरक्षण में दिए गए 50 प्रतिशत उपकोटा को खारिज कर दिया। इसके बाद यह मामला फिर से उच्चतम न्यायालय पहुंचा और अब उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार किया है कि ई.वी. चिन्नैया वाद पर आए फैसले पर पुनर्विचार होना चाहिए। इसी पुनर्विचार के आधार पर पीठ ने 1 अगस्त, 2024 को अपना फैसला सुनाया।

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि अनुसूचित जाति समूह में आने वाली जातियों में भी असमानता रही है। अनुसूचित जातियां एकीकृत रूप से समांगी नहीं हैं।

जबकि इस मामले में पीठ की सदस्या न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी की महत्वपूर्ण टिप्पणी यह रही कि चूंकि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित अनुसूचित जाति की सूची में उपवर्गीकरण करने, विभाजन करने और पुन:समूहीकरण करने की कार्यपालिका या विधायी शक्ति राज्यों के पास नहीं है, इसलिए इसके लिए क्वांटिफिएबुल डाटा (मात्रात्मक आंकड़े) आदि संग्रह की आवश्यकता पर विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।

फैसले से उठ रहे नए विमर्श

अनुसूचित जाति वर्ग में आने वाली जातियों ने सदियो से ‘अस्पृश्यता’ जैसी अमानवीय व्यवस्था को झेला है। इसी अमानवीय व्यवस्था के अंतर्गत एक ही सामाजिक स्तर पर रहते हुए अनुसूचित जाति वर्ग की सभी जातियां लगभग समान परंपराओं, रीति-रिवाजों व मान्यताओं का अनुसरण करती आई हैं। लंबे समय तक गांवों और शहरों में एक स्थान विशेष पर सामूहिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी बसने वाली इन जातियों ने किस तरह से साझी संस्कृति और सामाजिक नियमों का निर्माण किया, इसे डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रारंभ किए गए ‘नवयान’ आंदोलन में इन जातियों की सक्रिय भागीदारी से समझा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर के द्वारा अक्टूबर, 1956 में बौद्ध धर्म अपनाने के अगले चार वर्षों में लगभग बीस लाख दलितों ने उनका अनुसरण किया। धर्म-परिवर्तन की यह गति अब तक जारी है। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में बौद्ध जनसंख्या 84‌ लाख तथा वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत है। इसमें 87 प्रतिशत नवबौद्ध एवं महज 13 प्रतिशत ही परंपरागत बौद्ध हैं। अनुसूचित जाति में एक बड़ा संख्यावर्ग वह भी है, जो औपचारिक रूप से बौद्ध ना होते हुए भी विवाह तथा अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर बौद्ध रीति-रिवाजों को अपना रहा है। भारतीय संविधान में इन सभी जातियों को ‘अनुसूचित जाति’ की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया गया है।

इसके अलावा पिछले सात दशकों में दलित आंदोलनों ने आर्थिक व भौगोलिक असमानताओं के बावजूद दलित जातियों को एक साझा मंच पर लाने का काम किया है। इसका प्रमाण 2 अप्रैल, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में हस्तक्षेप के विरोध में पूरे देश में स्वत: स्फूर्त तरीके से हुआ आंदोलन है, जिसने केंद्र सरकार को नया संशोधन विधेयक लाकर सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप को प्रभावहीन बनाने के लिए बाध्य कर दिया। इस आंदोलन में अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग दस हजार दलितों की गिरफ्तारियां हुई थी। अतः दलितों के संबंध में किसी महत्वपूर्ण निर्णय का आधार ‘दलितों का एकीकृत समांगी’ ना होने को बनाना, दलितों की आपसी समझ से विकसित नवीन ऐतिहासिक बोध एवं संस्कृति के साथ-साथ आपसी सामाजिक समझ पर भी प्रश्नचिह्न लगाना भर नहीं है, बल्कि इन जातियों में मौजूद एकरूपता को नकारना भी है।

‘देविंदर सिंह बनाम पंजाब सरकार’ मामले में सहमति पक्ष में निर्णय देने वाले जस्टिस बी.आर. गवई ने क्रीमीलेयर का सूत्र सुझाते हुए कहा कि “राज्य को एससी/एसटी वर्ग में क्रीमीलेयर की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर करने के लिए नीति विकसित करनी चाहिए।” हालांकि उनका यह मंतव्य सात सदस्यीय पीठ का फैसला नहीं बन सका, क्योंकि इस संबंध में याचिकाकर्ताओं द्वारा अधियाचना नहीं की गई थी।

खैर, भारतीय न्यायिक इतिहास में ‘क्रीमीलेयर’ शब्द पहली बार 1992 के ‘इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ’ मामले में आया, जहां उच्चतम न्यायालय ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग में आर्थिक रूप से उन्नत लोगों को आरक्षण से बाहर रखने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया। ‘क्रीमीलेयर’ के निर्धारण के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर.एन. प्रसाद के नेतृत्व में समिति का गठन किया गया। ‘क्रीमीलेयर’ आर्थिक उन्नति का परिचायक रहा है, जिसमें शैक्षणिक प्रगति को शामिल करते हुए समान्यत: स्वीकार कर लिया जाता है कि व्यक्ति शिक्षा के सहारे एक निश्चित आर्थिक स्थिति को हासिल कर चुका है। लेकिन अनुसूचित जाति/जनजाति के संबंध में यह परिस्थिति उलट है। अनुसूचित जाति/जनजाति को प्रदत्त आरक्षण के अधिकार का आधार अस्पृश्यता है।

दलितों में शिक्षा के अलावा अगर आर्थिक उन्नति और सामाजिक उत्थान को एक तराजू में रखकर समझने का प्रयास किया जाए, तो दो महत्वपूर्ण घटनाओं को याद किया जाना चाहिए।

मसलन, राजस्थान के रहने वाले मणिपुर कैडर के आईपीएस अधिकारी सुनील धनवंता को फरवरी, 2022 में अपनी ही शादी के दिन घोड़ी पर बैठने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस बल को बुलाना पड़ा। वैश्वीकरण के कारण उपजे कॉरपोरेट सेक्टर की स्थिति तो और भी बदतर है। बेंगलूरू की एक आईटी कंपनी में काम करने वाले विवेक राज ने चार जून, 2023 को इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उन्हें अपने कार्यालय में बार-बार जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ रहा था। विवेक राज के वीडियो के रूप में सुसाइड नोट को भी यू-ट्यूब ने हटा दिया, जिसमें उन्होने कॉरपोरेट सेक्टर में हो रहे जातीय भेदभाव एवं उसके खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने की मांग की थी। यह दोनों ही क्रमशः सरकारी और कॉरपोरेट सेक्टर में ऊंचे पदों पर कार्यरत थे। आर्थिक उन्नति के लिए जिम्मेदार दोनों महत्वपूर्ण सेक्टरों की ये घटनाएं स्पष्ट करती हैं कि दलित-आदिवासियों के एक वर्ग के समृद्ध होने के दावे के साथ आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर करना न्यायसंगत नहीं है।

अगर फैसले के बाद आरक्षण का आधार अस्पृश्यता से हटकर आर्थिक तंगी बनता है, तो संभव है कि दलितों के खिलाफ सामाजिक स्तर पर होने वाली हिंसक घटनाएं घटने की बजाय और अधिक तीव्र गति से बढ़ेंगीं।

राज्यों को आरक्षण वर्गीकरण का अधिकार दिए जाने में दलितों की राजनीतिक एवं सामाजिक चिंताएं भी निहित हैं। क्षेत्रीय एवं जातीय राजनीति के प्रभाव में आ चुकी भारतीय राजनीति में यह कहना मुश्किल है कि राज्यों में सत्तारूढ़ दल इस महत्वपूर्ण अधिकार का दुरूपयोग नहीं करेंगे। यह संभव है कि सरकारें मन-मुताबिक पिछड़ी जातियों की बजाय वोट-बैंक वाली जातियों को आरक्षण से लाभान्वित करें। ऐसी स्थिति में आरक्षण सत्ता प्राप्ति का ‘राजनीतिक टूल’ बनकर रह जाएगा।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह कि आरक्षण का मूल उद्देश्य शासन-प्रशासन में सभी वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है, और सर्वोच्च न्यायालय को अनुसूचित जातियों के एक छोटे से हिस्से के आर्थिक उन्नयन की चिंता नहीं करनी चाहिए। जब तक शासन-प्रशासन और उच्च शिक्षा के शिखर पर वंचित समुदायों की पर्याप्त संख्या में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित नहीं होती है तब तक आरक्षण को न तो सीमित किया जाना चाहिए और न ही उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।  

दलितों और आदिवासियों के समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी प्रस्तुत कर दिया है कि आरक्षण के प्रावधान के बावजूद जो जातियां और जनजातियां अब तक वंचित हैं, उनकी समुचित भागीदारी की जिम्मेदारी कौन लेगा? 

बहरहाल, वंचित रह गई जातियों की भागीदारी बढ़े और उनकी प्रगति हो, इसमें आरक्षण प्राप्त कर चुकी जातियों और व्यक्तियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। इसका माध्यम डॉ. आंबेडकर का बताया ‘पै-बेक टू सोसायटी’ का मंत्र उपयोगी हो सकता हैं, जो न केवल दलित जातियों की समान प्रगति का पथ प्रशस्त करेगा, बल्कि दलित सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को भी मजबूत करेगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

प्रमोद प्रखर

लेखक अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में एम.ए. (डेवलपमेंट) के छात्र हैं

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