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तीन तलाक कानून के पांच साल पूरे, लेकिन जस-की-तस हैं पीड़ित मुस्लिम महिलाओं की चुनौतियां

तीन तलाक़ की लड़ाई लड़ने वाली औरतों की जो मंशा थी, वह सरकार की मंशा नहीं थी। केवल राजनीतिक हित साधने के इरादे से क़ानून बना, जिसके अनुपालन में आज भी बहुत-सी खामियां हैं, जिनके बारे में सरकार उदासीन है, और जिसका कोई लाभ मुस्लिम महिलाओं को नहीं मिल पा रहा है। बता रही हैं नाइश हसन

परसों 30 जुलाई थी। ठीक 5 साल पहले इसी दिन हिंदुस्तान में मुसलमान औरतों की ज़िंदगी को लेकर लंबी हंगामाखेज बहसें चल रहीं थीं। एक तरफ मज़हबी तंजीम मुस्लिम औरतों को सुप्रीम कोर्ट में कम अक़्ल और तीन तलाक को आस्था बता रही थी, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार का दर्द मुस्लिम औरतों के लिए छलका जा रहा था। दो अध्यादेशों से गुजरते हुए आखिर तीन तलाक पर कानून ‘मुस्लिम महिला का विवाह में संरक्षण अधिनियम-2019’ 30 जुलाई 2019 को बन ही गया था। कानून बनना तो बहुत जरूरी था ही, क्योंकि इस नाइंसाफी को औरतें सदियों से अपने कंधे पर ढो रही थीं। यह अलग बात है कि जब कानून बना तो उसमें कई बड़े सुराख रह गए, जिन्हें आज तक भरा नहीं गया।

क़ानून बनने के एक साल तक हमने ज़मीन पर इस क़ानून को टेस्ट करने की नीयत से कुछ काम किया तो पाया कि एक साल गुज़र जाने के बाद भी औरतों को घर से बेदखल किए जाने के मामले कम नहीं हुए। अगर हम सिर्फ उत्तर प्रदेश के मामलों को ही लें तो पाते हैं कि कानून बनने के महज 28 दिन के अंदर कुल 216 मामले दर्ज हुए। इनमें मेरठ में 26, सहारनपुर में 17, शामली और वाराणसी 10-10 मामले शामिल थे। इनमें से मात्र 2 केस में गिरफ्तारी हुई। तत्कालीन डीजीपी ओम प्रकाश सिंह का कहना था कि इस कानून को और प्रभावी बनाने और इसके आरोपियों की गिरफ्तारी की हम संभावनाएं तलाश रहे है। वह संभावना 5 साल बाद भी पूरी न हो सकी, और औरतें बेदर-बेघर भटकती ही रहीं।

इसके बाद बाराबंकी में 6, लखनऊ में 9, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, फतेहपुर, आगरा, बलिया, कुशीनगर, मथुरा, हाथरस, बदायूं से 1-1 मामले संज्ञान में आए, जिनमें प्रथम सूचना तो लिखी गई, लेकिन वहां भी एक-दो मामलों को छोड़कर किसी में गिरफ्तारी नहीं हुई।

इसके अलावा और भी न जाने कितने मामले होंगे, जो न तो थाने और न ही महिला संगठनों तक पहुंच पाए होंगे। पुलिस की इतनी ढीली-ढाली कार्यवाही का लाभ भी पतियों ने उठाया और वह धार्मिक संगठन से तलाक ले आए। यह बिल्कुल वैसे ही जैसे घरेलू हिंसा के अन्य मामलों में महिला आज भी भटकती रहती है और थाने प्राथमिकी तक दर्ज करने से बचते हैं। वहीं लखनऊ के हुसैनगंज, सआदतगंज, व ऐशबाग निवासी एक-एक महिला सहित लखनऊ में पहले से चल रहे मामलों में से 13 में समझौता भी हो गया।

तीन तलाक कानून तो बना, लेकिन जमीन पर अनुपालन नहीं

इधर क़ानून बना और उधर मजहबी अदालतों (दारूल क़जा) में एक नया ट्रेंड नजर आने लगा। ‘मुस्लिम महिला का विवाह में संरक्षण अधिनियम-2019’ कानून के अस्तित्व में आने के बाद अब दारूल इफ्ता (फतवा केंद्र) ने ऐसे मामलों में तीन तलाक की जगह एक नया चोर दरवाजा खोल लिया है, जो तलाक़ कभी 3 सेकेंड में हो रहे थे, अब वे 3 महीने में होने लगे। अब पति, पत्नी को तलाक-ए-अहसन के तहत एक तलाक़ का नोटिस भेज रहा है। उस एक तलाक़ के नोटिस भेजने के बाद अगर तीन माह तक लड़की भी रूजू (संपर्क) नहीं करती है, आपस में कोई सुलह-समझौता नहीं हो जाता है तो तलाक़ मान लिया जाता है।

यहां यह जानना भी ज़रूरी है कि तलाक-ए-अहसन का उल्लेख कुरान में नहीं है। लेकिन धार्मिक संगठनों द्वारा तैयार किए गए कानून में है। मुस्लिम विधि में भी तलाक़-ए-अहसन का उल्लेख आज भी है, जिसके तहत पति अपनी पत्नी को ‘शुद्ध काल’ (जब मासिक धर्म न हो रहा हो) में केवल एक बार उसे संबोधित करते हुए कहता है कि मैंने तुम्हें तलाक दिया, या वह लिखित रूप में देता है। इसके बाद पत्नी तीन मासिक धर्म तक इद्दत (एकांत) का पालन करे, इस बीच संभोग भी न हो, पत्नी उसी घर में रहे और तीन माह पूर्ण होने पर यदि उनके बीच समझौता न हो, केवल वक्त बीत गया हो तो भी तलाक पूर्ण मान लिया जाता है। तलाक की यह विधि भी अनिवार्य मध्यस्थता की बात नहीं करती। इसी का परिणाम दिख रहा है कि पति अब तीन तलाक न देकर तलाक-ए-अहसन दे रहे हैं। मुफ्ती ऐसे मामलों में फतवे भी दे रहे हैं।

नूरी बानो (बदला हुआ नाम) ने हमें बताया कि लाॅकडाउन में वह अपने मायके में थी। उन्हें एक स्पीड पोस्ट से फतवा प्राप्त हुआ कि उन्हें उनके पति ने तलाक-ए-अहसन दे दिया है। एक अन्य खतीजा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उनके पति ने उन्हें पत्र भेजा कि उन्होने उन्हें ‘एक’ तलाक दे दिया है। उसके बाद से वह गायब है। एक अन्य पीड़िता सलमा बेगम (बदला हुआ नाम) ने बताया कि वह घर में ही थी और पति ने एक दिन अचानक ही कहा कि वह उन्हें तलाक-ए-अहसन दे रहा है।

ऐसे अनेक मामले, जो मजहबी अदालत में गए, उनका तलाक हो चुका है। पड़ताल में एक प्रतिशत महिलाएं भी मजहबी संगठन के फतवे को चुनौती देने की हिम्मत नहीं कर पाईं, जबकि 1988 में केरल हाईकोर्ट ने सनाउल्लह गनाई बनाम मौलवी अकबर के केस में भी फतवों को अमान्य किया था, जिसके माध्यम से सनाउल्लाह गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया था।

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक और फैसले में फतवों को अमान्य करार दिया था, और उन्हें जबरन लागू कराने वाले पर कठोर कार्यवाही करने के संकेत दिए थे।

खैर, ये तो हैं तीन तलाक़ क़ानून आने के बाद के हालात। पड़ताल अभी भी जारी है। नतीजे में बस इतना कहा जा सकता है कि मुस्लिम औरतों को घर में प्रताड़ित करने के मामले अभी भी आ रहे हैं। वह जब थाने जाती हैं तो पहले तो उसकी प्राथमिकी ही नहीं लिखी जाती। अगर लिख भी ली गई तो आरोपियों की गिरफ़्तारी आज भी नहीं होती है। वे कभी पुलिस तो कभी दारुल क़ज़ा के चक्कर लगाती रहती हैं। लेकिन इंसाफ कभी नहीं पातीं। सवाल ज़हन में यह उठता ही है कि तीन तलाक़ के खिलाफ औरतों की इतनी कड़ी मेहनत को सरकार ने निष्प्रभावी क्यों हो जाने दिया?

महिलाओं की ऐसी स्थिति सरकार की असफलता के कारण ही है। यदि पुलिस सक्रिय रूप से ऐसे मामलों में अपना दखल देती तो महिला को इंसाफ तो मिलता ही, साथ ही धार्मिक संगठनों द्वारा दिए जा रहे ऐसे फैसलों से भी समाज को बचाया जा सकता था।

लखनऊ निवासी नेटबाॅल की नेशनल खिलाड़ी सुमैरा जावेद ने कहा कि पुलिस ने उनकी एफआईआर तो दर्ज की, लेकिन उनके केस को लगातार कमजोर कर दिया। जनसुनवाई (आईजीआरएस) पोर्टल पर भी उनकी शिकायत को निस्तारित बता दिया गया। इसी तरह अफरोज निशां भी पुलिस पर सवाल खड़ा करते हुए कहती हैं कि पुलिस ने उनके केस में मदद नहीं की। एक स्वयंसेवी संस्था उनका मामला लड़ रही है। रूबीना मिर्जा भी ऐसा ही आरोप लगाती है कि जब उनके पति ने उन्हें मार-पीट कर घर में कैद कर दिया था तो पुलिस की मदद से वह बाहर तो निकलीं। लेकिन पुलिस ने उनके ही घर में उन्हें चोरी का आरोपी बना दिया। यह हाल तब है जबकि उत्तर प्रदेश सरकार अपने मातहतों को क़ानून को सख्ती से पालन करने की घुड़की गाहे-बेगाहे देती रहती है।

हमें एक बात और समझनी पडे़गी कि शरीयत और शरीयत कानूनों में फर्क है। जिन्हें हम शरीयत कानून कहते हैं, वह कुरान के आधार पर नहीं बनाए गए है। वह इंसानों के बनाए गए कानून हैं, विशेषकर पारिवारिक कानून। इनमें कुरान का 5 प्रतिशत नियम भी लागू नहीं है। यह हदीसों पर आधारित है और हदीसें कुरान आने के 250 से 300 साल बाद लोगों द्वारा लिखे गए दस्तावेज हैं, जिनका कोई प्रमाणिक स्रोत भी नहीं मिलता।

हमारे सामने जो कानून अभी मौजूद है, वह है– मुस्लिम विधि। समय के साथ यह मुहम्मडन लाॅ और बाद में एंग्लों मोहम्मडन लाॅ कहलाया। मौजूदा मुस्लिम विधि को इस्लामिक लाॅ कहना या समझना एक भूल है, लेकिन दुखद यह है कि इसे ही इस्लामिक लाॅ समझा जाता है। यह मुस्लिम विधि भी इंसाफ आधारित नहीं है। कम-से-कम कुरान में जो हक औरत को दिए गए, इस विधि में उनका उल्लेख तक नहीं है। इस नाइंसाफी भरे कानून के साथ ही हिंदुस्तान की मुसलमान औरते लंबे समय से जी रही हैं।

एक लंबे समय के बाद इस सदी की मुस्लिम महिलाओं ने यह बीड़ा जरूर उठाया और यह महसूस भी किया कि जो अधिकार उन्हें संविधान और कुरान से मिले, मुस्लिम विधि उन अधिकारों को उनसे छीन लेना चाहती है। आवाज उठी और उसका असर दूर तलक हुआ।

तीन तलाक कानून बन जाने के बाद भी हमने देखा कि दूसरे रास्ते अख्तियार कर उन्हें घर से बेदखल किया जा रहा है। इसलिए उनकी अगली मांग यही है कि संविधान के आलोक में एक भारतीय पारिवारिक कानून बने जिसकी बुनियाद इंसाफ पर हो, किसी धर्मग्रंथ पर नहीं। इसी दिशा में प्रयास किए जाने की जरूरत है। टुकड़ों-टुकड़ों में कानून बनाना और उसका प्रयोग महिला हित नहीं, बल्कि राजनीतिक हित साधने के लिए करना महिलाओं के साथ छलावा है। वह अपने आपको समाज के हवाले नहीं करना चाहती ताकि कोई भी उनके जीवन का फैसला करता रहे।

कुल मिलाकर अगर देखा जाय तो तीन तलाक़ क़ानून बने 5 साल हो गए, लेकिन ज़मीन पर इस क़ानून का कोई प्रभाव नज़र नहीं आ रहा है। इससे यह बात साफ़ हो जाती है कि तीन तलाक़ की लड़ाई लड़ने वाली औरतों की जो मंशा थी, वह सरकार की मंशा नहीं थी। केवल राजनीतिक हित साधने के इरादे से क़ानून बना, जिसके अनुपालन में आज भी बहुत-सी खामियां हैं, जिनके बारे में सरकार उदासीन है, और जिसका कोई लाभ मुस्लिम महिलाओं को नहीं मिल पा रहा है। वह इंसाफ के लिए कल भी भटक रही थीं और आज 2024 में भी उसी तरह भटक रही हैं।

(संपादन : जै़ग़म/राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

नाइश हसन

लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और ‘हलाला’ कानून पर पीएचडी करनेवाली प्रथम शोधकर्ता रही हैं

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