अपने जीवंत राजनीतिक परिदृश्य के लिए जाने जाना वाला राज्य तमिलनाडु, एक बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है। जैसे-जैसे सन् 2026 में होनेवाले विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, राजनीति की बिसात पर मोहरे इधर से उधर खिसकाए जा रहे हैं, नए दल उभर रहे हैं और पुराने गठबंधनों को पुनर्परिभाषित किया जा रहा है। इस बदलते हुए परिदृश्य के केंद्र में है – विधुथालाई चिरुथैगल काची (वीसीके) – एक पार्टी, जो एक असाधारण यात्रा पूरी कर चुकी है। एक क्रांतिकारी दलित आंदोलन के रूप में जन्मी वीसीके आज राज्य में किंगमेकर बनने की स्थिति में पहुंच गई है।
इस लेख में तमिलनाडु की राजनीति के बदलते चेहरे की पड़ताल की गई है, जिसमें वीसीके का उदय, सत्ता के पारंपरिक दावेदारों – द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) – के समक्ष उपस्थित चुनौतियां एवं नई राजनीतिक ताकतों का उदय शामिल हैं। हम समकालीन राजनीति के ऐतिहासिक संदर्भों, हालिया घटनाक्रम और भविष्य की संभावनाओं का विश्लेषण करेंगे, जो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य को एक नया आकार दे सकते हैं।
वीसीके का उत्थान : क्रांति की हुंकार से राजनीति के मैदान तक
वीसीके की कहानी, परिवर्तन और गिर कर फिर उठ खड़े होने की कहानी है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक में महाराष्ट्र के दलित पैंथर आंदोलन से प्रेरित एक आंदोलन के रूप में हुई थी। महाराष्ट्र्र में 1970 के आरंभिक वर्षों में हुआ दलित पैंथर आंदोलन, अमरीका के ब्लैक पैंथर आंदोलन (1966-82) से प्रेरित था। थोल. थिरुमावलवन (1989 से) के नेतृत्व में वीसीके आंदोलन शुरुआत में चुनावों के बहिष्कार का पक्षधर था। उसने अपने-आप को मुख्यधारा की राजनीति से पृथक एक क्रांतिकारी ताकत के रूप में प्रस्तुत किया।
इस आंदोलन का शुरुआती दौर तमिलनाडु में अहम सामाजिक-आर्थिक बदलाव का दौर था। वैश्वीकरण, औद्योगीकरण और शहरीकरण के प्रभाव नज़र आने लगे थे। इनका एक नतीजा था – चेन्नई जैसे महानगरों का विकास। ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त कठोर जातिगत भेदभाव से शहर कुछ हद तक मुक्त थे और इसके चलते दलितों की नई पीढ़ी शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्रों में अवसरों का लाभ उठा सकी।
प्रो. ह्यूगो गोर्रिंज, जिन्होंने वीसीके का गहन अध्ययन किया है, के अनुसार इस कालखंड में तमिलनाडु की दलित राजनीति में एक नया और महत्वपूर्ण मोड़ आया। शहरी क्षेत्रों में रहने के अपने अनुभव के साथ जब युवा दलित अपने गावों में लौटे तो वे अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूकता से लैस थे और जातिगत भेदभाव को सहन करने के लिए पहले की तरह तैयार नहीं थे। नई ऊर्जा से भरे इन युवकों को लगा कि दलित पैंथर उनके सपनों को हासिल करने में उनका मददगार हो सकता है और उनकी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने और उनके आक्रोश का इज़हार करने का एक मंच बन सकता है।
गोर्रिंज द्वारा संकलित कुछ दस्तावेज वीसीके आंदोलन के प्रभाव का सजीव वर्णन करते हैं–
सन् 2012 में लिए गए एक साक्षात्कार में एक्स-रे मणिक्कम ने कहा– “इसमें कोई शक नहीं कि थिरुमावलवन के रहते हमें लगा कि आज़ादी आ गई है।”
एक अन्य साक्षात्कारदाता स्टालिन राजंगम ने कहा– “पिछले सौ सालों में वीसीके जितना मज़बूत ऐसा कोई आंदोलन खड़ा नहीं हो सका है, जिसने दलितों में बगावत का भाव पैदा किया हो।”
एक बात जो अधिकांश लोगों ने कही वह यह थी कि “अब हमारे पास ऐसा कोई है, जो हमारे लिए बोलता है।” एक पार्टी के रूप में वीसीके के बढ़ते कद से दलितों में शक्ति और गरिमा की भावना का संचार हुआ है।” (ह्यूगो गोर्रिंज, पैंथर्स इन पार्लियामेंट, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2017)
उदाहरण के लिए, वीसीके का झंडा केवल एक पार्टी का प्रतीक नहीं है। वह दलित समुदाय के प्रतिरोध, अपनी बात दृढ़ता से रखने के साहस और उसके सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया है। जहां अन्य पार्टियों के झंडे केवल उनके कार्यकर्ताओं में जोश भरते हैं, वहीं वीसीके के झंडे के संपूर्ण दलित समुदाय के लिए गहरे निहितार्थ हैं। वह उनके बढ़ते प्रभाव का द्योतक है और उन्हें गरिमा का भाव देता है।
एक सामाजिक आंदोलन से राजनीतिक दल बनने की यात्रा और चुनावी राजनीति में भागीदारी, वीसीके के विकास का एक नया चरण था। ऐसा भी नहीं था कि यह बदलाव बिना विवादों के हुआ हो। कुछ आलोचकों ने पार्टी पर यह आरोप लगाया कि उसने अपने क्रांतिकारी तेवर त्याग दिए हैं। मगर थिरुमावलवन और वीसीके के शेष नेतृत्व का मानना था कि व्यवस्था के भीतर रहते हुए परिवर्तन लाने के लिए यह एक ज़रूरी कदम था।
वीसीके को चुनावी राजनीति में प्रवेश करने पर कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। मगर उसे सफलताएं भी हासिल हुईं। पार्टी अपने दम पर बहुत सीटें नहीं जीत सकी, मगर वह प्रमुख द्रविड़ पार्टियों, विशेषकर डीएमके, के लिए एक महत्वपूर्ण गठबंधन साथी बन गई। गठबंधन की इस रणनीति के चलते वीसीके अपनी अलग पहचान और विचारधारा को बनाए रखते हुए शासन में हिस्सेदारी – भले ही वह बहुत कम हो – हासिल कर सकी।
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
तमिलनाडु के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को समझने के लिए, हालिया चुनावों के नतीजों और निहितार्थों की पड़ताल करना आवश्यक है – विशेषकर 2016 एवं 2021 के विधानसभा और 2024 के संसदीय चुनावों की।
वर्ष 2016 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों ने राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाला। इन चुनावों के नतीजे इस प्रकार थे :
गठबंधन | सीटें | मत प्रतिशत |
---|---|---|
एआईएडीएमके गठबंधन | 134 | 41.8 |
डीएमके गठबंधन | 97 | 39.4 |
पीपुल्स वेलफेयर फ्रंट (पीडब्ल्यूएफ़) केवल वीसीके, कम्युनिस्ट और एमडीएमके शामिल[1] | 0 | 3.2 |
ये नतीजे कई कारणों से महत्वपूर्ण हैं। यथा–
1. मतों का कम अंतर : एआईएडीएमके और डीएमके गठबंधनों को मिले मतों में मात्र 2.5 प्रतिशत का अंतर था। इससे यह पता चलता है कि तमिलनाडु की राजनीति में ‘गठबंधन प्रबंधन’ कितना महत्वपूर्ण है।
2. पीडब्ल्यूएफ़ का प्रभाव : वीसीके की भागीदारी वाले पीपुल्स वेलफेयर फ्रंट (पीडब्ल्यूएफ़) का गठन डीएमके की हार का एक महत्वपूर्ण कारण बना। कुल 89 विधानसभा क्षेत्रों में जीत का अंतर पीडब्ल्यूएफ को मिले वोटों से कम था, जिससे ऐसा लगता है कि अगर विपक्ष एकजुट होता, तो परिणाम बदल सकते थे।
3. स्टालिन का गलत आंकलन : यह पहला चुनाव था, जिसमें एम.के. स्टालिन, डीएमके की चुनाव अभियान रणनीति के निर्धारण के लिए अकेले ज़िम्मेदार थे। वीसीके जैसे पार्टियों को अपने गठबंधन में शामिल न करना उन्हें बहुत भारी पड़ा। जाहिर है कि उन्होंने सबक सीख लिया होगा और यह सबक भविष्य में गठबंधनों को आकार देने में भूमिका निभाएगा।
सन् 2016 के चुनाव के नतीजे तमिलनाडु के नए राजनीतिक परिदृश्य में गठबंधनों के निर्माण के महत्व को रेखांकित करते हैं। इनसे यह भी साबित हुआ है कि कुल वोटों का बहुत छोटा हिस्सा हासिल करने वाले दल भी चुनाव नतीजों पर निर्णायक प्रभाव डाल सकते हैं।
सन् 2021 के विधानसभा चुनावों तक, राजनीतिक गणित काफी बदल चुका था। इस चुनाव पर प्रभाव डालने वाले प्रमुख कारक थे–
1. भाजपा-विरोधी माहौल : चुनाव अभियान का प्राथमिक लक्ष्य था हर उस गठबंधन का विरोध करना, जिसमें भाजपा शामिल है। इस नॅरेटिव से वीसीके जैसे छोटे दलों, जो भाजपा के कटु विरोधी थे, की मोलभाव करने की क्षमता सीमित हो गई।
2. एकजुट विपक्ष : 2016 के चुनाव से सबक सीख कर डीएमके ने 2019 के आम चुनाव तक अपने गठबंधन, जिसमें कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, वीसीके और अन्य छोटे दल शामिल थे, को बिखरने नहीं दिया।
3. एआईएडीएमके की आतंरिक चुनौतियां : जे. जयललिता की मृत्यु के बाद एआईएडीएमके में आतंरिक सत्ता संघर्ष शुरू हो गया, जिससे वह कमज़ोर पड़ गई।
2021 के विधानसभा चुनावों के नतीजे इन कारकों के प्रभाव को परिलक्षित करते हैं–
गठबंधन सीटें मत प्रतिशत
डीएमके गठबंधन 159 45.7
एआईएडीएमके गठबंधन 75 40
डीएमके गठबंधन की शानदार जीत : हालांकि उसे अपने प्रतिद्वंद्वी से करीब 6 प्रतिशत ही अधिक वोट हासिल हुए थे, मगर उसके के लिए बेहतर गठबंधन प्रबंधन, एआईएडीएमके सरकार के विरुद्ध एंटी-इंकंबेंसी और चुनावों को तमिलनाडु में भाजपा के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ जनमत संग्रह को श्रेय दिया जाना था।
2024 संसदीय चुनाव : एंटी-भाजपा नॅरेटिव जारी
2024 लोकसभा चुनाव में 2021 का राजनीतिक समीकरण जारी रहा। डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन, जिसमें वीसीके शामिल था, ने सभी 40 सीटें जीत लीं (39 तमिलनाडु और एक पुडुचेरी में)। इस जबरदस्त जीत के पीछे दो प्रमुख कारक थे–
- भाजपा और एआईएडीएमके के बीच टूट के कारण विपक्ष के वोटों का बंट जाना।
- तमिलनाडु में भाजपा-विरोधी नॅरेटिव की गूंज का बने रहना।
जाहिर तौर पर, चुनावों में लगातार जीत से डीएमके की स्थिति मज़बूत हुई है, मगर इससे उसके समक्ष उपस्थित चुनौतियां भी बढीं हैं और वीसीके जैसे सहयोगी दलों की अपेक्षाएं भी।
प्रमुख दलों के समक्ष उपस्थित चुनौतियां
आनेवाले 2026 के विधानसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में, एआईएडीएमके और डीएमके के समक्ष कई ऐसी नई चुनौतियां हैं, जो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य को नया आकार दे सकती हैं।
डीएमके के सम्मुख चुनौतियां
1. उत्तराधिकार की राजनीति और वंशानुगत शासन के आरोप : हाल में मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र उदयनिधि स्टालिन को मंत्री से उपमुख्यमंत्री बनाये जाने से डीएमके के अंदर और उसके बाहर भी वंशानुगत राजनीति पर बहस एक बार फिर शुरू हो गई है। इस निर्णय को आम जनों, और विशेषकर युवाओं, द्वारा पसंद नहीं किया जा रहा है। अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर एक नवागंतुक को प्राथमिकता दिए जाने पर प्रश्न उठ रहे हैं।
परिवार के सदस्यों को उत्तराधिकारी बनाया जाना डीएमके में नया नहीं हैं। मगर मतदाताओं की जनसांख्यिकी में बदलाव और बढ़ती राजनीतिक जागरूकता के चलते यह मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण बन गया है।
एक युवा ने इन शब्दों में अपने विचार व्यक्त किए– “मेरे दादाजी ने करुणानिधि को वोट दिया, मेरे पिताजी ने स्टालिन को वोट दिया तो क्या मुझे भी करूणानिधि के पोते को वोट देना चाहिए? और क्या मेरे लड़के को उदयनिधि के पुत्र इनबानिधि को वोट देने के लिए तैयार रहना चाहिए? आखिरकार हम अपनी पारिवारिक परंपरा बरक़रार क्यों रखें?” यह प्रतिक्रिया, युवा पीढ़ी की सोच को प्रतिबिंबित करती है।
राजनीति में उदयनिधि का द्रुत गति से उभार, डीएमके के लिए चुनौती भी है और अवसर भी। इससे जहां एक ओर पार्टी के भविष्य के नेतृत्व के बारे में कोई शंका नहीं रह जाती है, वहीं इससे पुराने पार्टी कार्यकर्ताओं और दूसरी पंक्ति के नेताओं में अलगाव का भाव पैदा होने की आशंका भी रहती है, क्योंकि उन्हें लग सकता है कि उन्हें दरकिनार और नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। इसके अलावा, यदि पार्टी 2026 का विधानसभा चुनाव हार जाती है तो उदयनिधि का अपेक्षाकृत कम अनुभवी होना डीएमके के लिए समस्या बन सकती है, क्योंकि विपक्ष में रहते हुए सहयोगी पार्टियों को जोड़े रखना कठिन होता है।
2. गठबंधन के दलों की अपेक्षाओं को पूरा करना : हालिया चुनावों में डीएमके की शानदार जीतों के पीछे मुख्यतः गठबंधन का प्रभावी प्रबंधन रहा है। मगर आगे चलकर, गठबंधन के घटक दल शासन में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका की मांग कर सकते हैं और सत्ता में अधिक हिस्सा चाह सकते हैं। इससे डीएमके के ऊपर यह दबाव बनेगा कि वह अपने और गठबंधन दलों के हितों के बीच संतुलन कायम करे। वीसीके जैसे गठबंधन सहयोगियों की ओर से उठ रही गठबंधन सरकार बनाने की मांग ने डीएमके को दुविधा में डाल दिया है। अगर वह इस मांग को स्वीकार करती है तो इससे डीएमके की ताकत में कमी आएगी और अगर वह इसे अस्वीकार करती है तो गठबंधन दलों के परस्पर रिश्तों में खटास घुल सकती है और यह भी हो सकता कि कोई पार्टी या नेता गठबंधन छोड़ दे।
एआईएडीएमके के सम्मुख चुनौतियां
1. नेतृत्व का अभाव और आतंरिक गुटबाजी : जे. जयललिता की मृत्यु के बाद से ही एआईएडीएमके नेतृत्व के संकट और आतंरिक सत्ता संघर्ष से जूझ रही है। एडप्पाडी के. पलानीस्वामी (ईपीएस) पार्टी के नेता के रूप में उभरे हैं, मगर उनके सामने स्वयं को जयललिता के कद का नेता के रूप में स्थापित करने और विभिन्न गुटों को एक करने की चुनौतियां हैं।
2. पार्टी की छवि का पुनर्निर्माण : एआईएडीएमके के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी ‘रीब्रान्डिग’ करे और स्वयं को डीएमके के स्पष्ट विकल्प के रूप में प्रस्तुत करे। इसके लिए केवल सरकार की आलोचना करना पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि उसे भविष्य के तमिलनाडु की अपनी दमदार परिकल्पना प्रस्तुत करनी होगी।
3. गठबंधन रणनीति : भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबंध विच्छेद करने का एआईएडीएमके का निर्णय, रणनीतिक दृष्टि से लिया गया था ताकि इस धारणा को दूर किया जा सके कि वह ऐसी पार्टी के अधीन काम कर रही है, जिसे कई लोग तमिल-विरोधी मानते हैं। इसके अलावा, भाजपा की हिंदुत्व राजनीति पर निर्भरता, तमिलनाडु के लोगों को नहीं भाती है। मगर डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन को प्रभावी चुनौती देने के लिए एआईएडीएमके को नए गठबंधनों का निर्माण करना होगा।
4. एडप्पाडी पलानीस्वामी का भविष्य : ईपीएस के लिए 2026 का चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। अगर उनकी पार्टी इस चुनाव में हार जाती है, तो संभवतः उनका राजनीतिक भविष्य समाप्त हो जाएगा और एआईएडीएमके के और अधिक टुकड़े हो जाएंगे। चूंकि आने वाले चुनाव पर उनका भविष्य टिका हुआ है इसलिए यह संभव है कि वे अपने गठबंधन को मजबूती देने के लिए कुछ गैर-मामूली कदम उठा सकते हैं। ऐसी अफवाह है कि वे थिरुमावलवन को उपमुख्यमंत्री का पद देने का प्रस्ताव कर चुके हैं।
वीसीके : तमिलनाडु की राजनीति में नए खिलाड़ी का उदय
प्रमुख पार्टियों के समक्ष उपस्थित चुनौतियों की पृष्ठभूमि में, वीसीके तमिलनाडु की राजनीति में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभर सकती है। इसके बढ़ते प्रभाव के पीछे कई कारण हैं। यथा–
1. विचारधारात्मक दृढ़ता : द्रविड पार्टियों, जिन पर अक्सर अपनी विचारधारा से पीछे हटने का आरोप लगाया जाता है, के विपरीत वीसीके जाति के विनाश, सामाजिक न्याय और हिंदुत्व की राजनीति के विरोध जैसे मसलों पर दृढ़ रही है। यह विचारधारात्मक दृढ़ता, मतदाताओं के उस तबके को भली लगेगी, जिसका मुख्यधारा की राजनीति से मोहभंग हो चुका है।
2. ज़मीनी उपस्थिति : चूंकि वीसीके की शुरुआत एक सामाजिक आंदोलन के रूप में हुई थी। इसलिए उसकी ज़मीनी स्तर पर अच्छी पकड़ है, विशेषकर दलित समुदायों में। पार्टी के काडर-आधारित ढांचे के चलते वह चुनावों के दौरान या सामजिक मुद्दों पर, अपने समर्थकों को प्रभावी ढंग से लामबंद कर सकती है।
3. थिरुमावलवन का नेतृत्व : थोल. थिरुमावलवन के चमत्कारिक नेतृत्व और उनकी वक्तृत्व कला ने पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जटिल सामाजिक मसलों को आसान भाषा में समझाने की उनकी क्षमता ने उनकी पार्टी के पारंपरिक समर्थकों के अतिरिक्त अन्यों को भी उनका प्रशंसक बनाया है।
4. गठबंधन राजनीति में सिद्धस्तता : वीसीके ने गठबंधन की राजनीति करने में अपनी सिद्धहस्तता साबित कर दी है। हवा किस ओर बह रही है, इसका अंदाज़ा लगाकर वह विभिन्न समूहों से जुड़ती रही है। इस लचीलेपन के कारण, राजनीति में उसका प्रभाव, उसकी वास्तविक ताकत से कहीं अधिक है।
5. विश्वस्त साथी की छवि : वीसीके अल्पसंख्यक समुदायों के विश्वस्त साथी के रूप में उभरी है। हिंदुत्व के बढ़ते बोलबाले के बीच वह इन समुदायों में सुरक्षा और आत्मविश्वास का भाव उत्पन्न करने में सफल रही है। फलस्वरूप, अल्पसंख्यक समुदाय, उस गठबंधन की ओर झुकते हैं, जिसमें वीसीके शामिल हो। इसका हासिल यह है कि पार्टी दलितों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के मतों का एक बड़ा हिस्सा भी आकर्षित करने में सक्षम बन गई है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि दलित (20 प्रतिशत) और अल्पसंख्यक (12 प्रतिशत) मिल कर, तमिलनाडु के कुल मतदाताओं के करीब एक-तिहाई हैं।
6. दलित राजनीति से आगे : दलित सशक्तिकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कायम रखते हुए, वीसीके ने पर्यावरणीय सरोकारों से लेकर भाषाई अधिकारों तक तमिलनाडु से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर अपनी बात रख कर अपनी पहुंच और प्रभाव को व्यापक किया है।
आधव अर्जुन प्रकरण : बदलाव की शुरुआत
वीसीके के उप महासचिव आधव अर्जुन द्वारा हाल में जारी बयान, जिसमें उपमुख्यमंत्री पद हेतु थिरुमावलवन के नाम पर विचार करने की मांग की गई थी, ने तमिलनाडु के राजनीतिक विमर्श में एक नया आयाम जोड़ा है। अर्जुन, सेंटिआगो मार्टिन के दामाद हैं, जो फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन है। सेंटिआगो इस साल की शुरुआत में चर्चा में आए थे जब यह पता चला था कि वे भाजपा और कांग्रेस सहित कई पार्टियों को धन देने वाले सबसे बड़े दानदाताओं में से एक हैं। उनके दान का अधिकांश हिस्सा डीएमके और तृणमूल कांग्रेस को गया था। अर्जुन, प्रशांत किशोर की राजनीतिक परामर्शदात्री फर्म आईपीएसी का भी हिस्सा रहे हैं और डीएमके के चुनाव रणनीतिकार भी। आधव की इस पृष्ठभूमि के कारण, डीएमके उनके विचारों को गंभीरता से लेती है।
आधव प्रकरण कई कारणों से महत्वपूर्ण है। जैसे कि–
1. कार्यकर्ताओं की इच्छा की अभिव्यक्ति : अर्जुन का बयान, वीसीके के कार्यकर्ताओं को बहुत पसंद आया, क्योंकि उन्हें लंबे समय से यह महसूस होता रहा है कि डीएमके गठबंधन में उनकी पार्टी की योगदान को कम करके आंका जाता जा रहा है। इस भावना को स्वर देकर, अर्जुन ने पार्टी कार्यकर्ताओं में व्याप्त असंतोष को व्यक्त किया है।
2. उचित समय : यह मांग ऐसे समय पर की गई है जब डीएमके और एआईएडीएमके दोनों कमज़ोर स्थिति में हैं। डीएमके उत्तराधिकार की राजनीति और वंशवाद से जूझ रही है तो एआईएडीएमके को जयललिता की मृत्यु और भाजपा से अलग होने के बाद अपने पांव ज़माने हैं।
3. व्यापक आधार : अर्जुन दलित नहीं हैं और एक गैर-दलित द्वारा यह मांग उठाने से वीसीके की छवि एक ऐसी पार्टी की बनती है, जिसका प्रभाव क्षेत्र उसके परंपरागत दलित आधार से ज्यादा व्यापक है। इससे एक अधिक व्यापक पृष्ठभूमि के वे मतदाता पार्टी की ओर आकर्षित हो सकते हैं, जो दोनों प्रमुख द्रविड़ पार्टियों से अलग हट कर विकल्प की तलाश में हैं।
4. मीडिया का फोकस और एजेंडा का निर्धारण : अर्जुन का बयान काफी चर्चा में है और इससे वीसीके मीडिया के फोकस में आई है और उसे यह मौका मिला है कि 2026 के चुनाव के पहले वह राजनीतिक विमर्श का एजेंडा तय कर सके। मीडिया की खबरों में बने रहने से वह भविष्य में गठबंधन का स्वरुप तय करने के लिए होने वाली चर्चाओं में अपनी बात मनवाने की बेहतर स्थिति में रहेगी।
5. पार्टी की आतंरिक खींचतान उजागर : अर्जुन के बयान पर वीसीके की दूसरी पंक्ति के नेताओं के प्रतिक्रिया से पार्टी के आतंरिक विभाजन उजागर हुए हैं। जहां एक ओर रविकुमार, वन्नीयरासु एवं सिंथानई सेल्वन जैसे कुछ नेताओं ने संदेह व्यक्त किया है तो दूसरी ओर थिरुमावलवन द्वारा परोक्ष रूप से अर्जुन का समर्थन करने से, स्वयं अर्जुन की स्थिति मज़बूत हुई है।
यहां इन अफवाहों पर चर्चा भी ज़रूरी है कि पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं को डीएमके ने खरीद रखा है और अगर थिरुमावलवन ने डीएमके से गठबंधन तोड़ा, तो वे पार्टी के दो फाड़ कर देंगे। मगर ह्यूगो गोर्रिंज की पुस्तक ‘पैंथर्स इन पार्लियामेंट’, जो वीसीके पर गहन शोध और अध्ययन पर आधारित है, के अध्याय ‘पैराडॉक्स ऑफ़ पराली पुथुर’ के अनुसार, इस दावे में कोई सच्चाई नहीं है।
पराली पुथुर प्रकरण अध्ययन[2], वीसीके की आतंरिक राजनीति, और विशेषकर सारी शक्तियों के थिरुमावलवन के हाथों में केंद्रित होने और दूसरी पंक्ति के नेताओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर गहराई से प्रकाश डालती है। यह उदाहरण और गोर्रिंज द्वारा लिए गए साक्षात्कारों से जाहिर है कि वीसीके भले ही आतंरिक आलोचना और चुनौतियों का सामना कर रही हो, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि बाहरी प्रभाव या धनबल से उसकी एकता को कोई खतरा है।
6. कार्यकर्ताओं में असंतोष : अर्जुन की मांग एक सोचा-समझा कदम है, जिसका उद्देश्य वीसीके के कार्यकर्ताओं में डीएमके के बरक्स गहरा असंतोष को दूर करना है। इस असंतोष के पीछे कई कारण हैं। यथा–
क) वेंगीवायल की घटना, जहां दलितों द्वारा पानी भरने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले पोखर में मानव मल मिला था और इस मामले में सरकार ने वांछित कार्यवाही नहीं की।
ख) वीसीके व अन्य दलित अधिकार संस्थाओं द्वारा लगातार मांग करने के बावजूद, राज्य सरकार ने ऑनर किलिंग्स के खिलाफ अलग कानून नहीं बनाया।
ग) आंबेडकरवादी नेता व बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के राज्य अध्यक्ष के. आर्मस्ट्रांग की क्रूर हत्या और उनके शव के दफ़न पर उठा विवाद, जिसे वीसीके के कई समर्थक असम्मानपूर्ण एवं जातिगत भेदभाव के जारी रहने का संकेत मानते हैं।
(घ) यह धारणा कि डीएमके सरकार की मशीनरी वीसीके के ध्वजदंड स्थापित करने में बाधाएं खड़ी कर रही है। इसे केवल वीसीके को प्रभावित करने वाले एक प्रशासनिक मुद्दे के रूप में नहीं देखा जा रहा है, बल्कि इसे दलितों के गरिमा और उसकी अभिव्यक्ति पर सीधा हमला माना जा रहा है। ये ध्वजदंड, दलित सशक्तिकरण के प्रभावी प्रतीक माने जाते हैं और इनकी स्थापना में बाधा उत्पन्न करना, दलितों की आवाज़ को दबाने के समान समझा जाता है।
ङ) यह धारणा कि डीएमके के साथ सीटों के बंटवारे के बारे में वार्ताओं में वीसीके के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है, जिससे वीसीके को लगता है कि गठबंधन में उसके मूल्यवान योगदान की अनदेखी की जा रही है।
इन सारे मुद्दों से वीसीके के कार्यकर्ताओं में मोहभंग का भाव जन्म ले रहा है और उनमें से कई अब डीएमके गठबंधन को त्यागने की संभावना पर विचार करने के लिए तैयार हैं। आधव अर्जुन शायद ज़मीनी स्तर के सर्वेक्षणों और विश्लेषण के आधार पर इस भाव से अवगत थे और अब इस असंतोष का इस्तेमाल गठबंधन में अधिक स्वीकार्यता और सत्ता में बेहतर हिस्सेदारी हासिल करने के लिए कर रहे हैं।
7. दबाव की राजनीति : इस मांग को सार्वजनिक रूप से उठाकर, दरअसल, अर्जुन और वीसीके का नेतृत्व, डीएमके के ऊपर दबाव डाल रहा है। भविष्य में गठबंधन छोड़ने की धमकी और कार्यकर्ताओं में वास्तविक कुंठा और असंतोष से वीसीके की मोलभाव करने की क्षमता बढ़ी है।
8. दीर्घावधि की रणनीति : त्वरित लाभ हासिल करने के अलावा, यह प्रकरण वीसीके की दीर्घावधि की रणनीति का भाग हो सकता है, जिसका उद्देश्य पार्टी को गठबंधन के कनिष्ठ सदस्य से बेहतर दर्जा दिलवाना हो। उपमुख्यमंत्री पद की मांग कर पार्टी तमिलनाडु के शासन में बड़ी भूमिका निभाने की अपने महत्वाकांक्षा को अभिव्यक्त कर रही है।
गठबंधन शासन का आह्वान : एक नया राजनीतिक प्रतिमान
वीसीके द्वारा गठबंधन शासन और सत्ता में भागीदारी की पैरोकारी, तमिलनाडु की राजनीति में एक नए प्रतिमान के आगाज़ का प्रतिनिधित्व करती है। यह एक पार्टी के वर्चस्व वाले उस मॉडल को चुनौती देती है, जो दशकों से राज्य की राजनीति का प्रमुख लक्षण रहा है।
गठबंधन शासन के पक्ष में तर्क
1. अधिक समावेशी प्रतिनिधित्व : गठबंधन सरकार विभिन्न सामाजिक समूहों और क्षेत्रों के हितों का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकती है।
2. नियंत्रण और संतुलन : सत्ता में भागीदारी से किसी एक पार्टी या परिवार के हाथों में सत्ता का केंद्रीयकरण रोका जा सकता है और इससे वंशवाद संबंधी चिंताओं का समाधान भी हो सकता है।
3. एकमत से नीति निर्धारण : गठबंधन शासन की नीतियां अधिक संतुलित होने की संभावना है, क्योंकि विभिन्न पार्टियों को परस्पर सहमति से काम करना होता है।
4. द्वयाधिकार का अंत : इससे डीएमके और एआईएडीएमके के बारी-बारी से सत्ता में आने का क्रम टूटेगा, जिससे शासन को एक नया परिप्रेक्ष्य मिलेगा।
गठबंधन शासन लागू करने में चुनौतियां
एक बड़ी चुनौती होगी डीएमके और एआईएडीएमके जैसी बड़ी पार्टियों का विरोध, जो नहीं चाहेंगी कि उन्हें महत्वपूर्ण पद अपने गठबंधन साथियों के साथ साझा करने पड़े और जिससे उनकी अपनी शक्ति कमज़ोर हो। मगर राजनीति के नए खिलाड़ी जैसे अदाकार विजय एक नई सोच ला सकते हैं। एक नए विकल्प के रूप में उभर सकते हैं। इसके अलावा एआईएडीएमके को मजबूरी में यह मांग माननी पड़ सकती है, क्योंकि ईपीएस को गठबंधन राजनीति में अपने नेतृत्व और प्रभाव को साबित करना है।
शराबबंदी सम्मेलन : एक रणनीतिक चाल
वीसीके ने घोषणा की थी कि वह गांधी जयंती के मौके पर 2 अक्टूबर, 2025 को एक सम्मेलन का आयोजन करेगा जिसमें तमिलनाडु में शराब पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाएगी। यह एक रणनीतिक कदम है, जिसके एक से ज्यादा उद्देश्य है। यथा–
1. सदाचरण की पैरोकार : शराबबंदी की मांग कर वीसीके यह दिखाना चाहती है कि वह सदाचरण और लोककल्याण की पैरोकार है, विशेषकर त्रासद कल्लाकुरुचि ज़हरीली शराब कांड की पृष्ठभूमि में, जिसमें कई जानें गईं थीं।
2. सरकार के नीति को चुनौती : तमिलनाडु स्टेट मार्केटिंग कारपोरेशन (टीएएसएमएसी) द्वारा संचालित शराब की दुकानों को बंद करने की मांग कर पार्टी शराब की बिक्री से अर्जित आय पर सरकार की निर्भरता पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहती है और लोक स्वास्थ्य बनाम आर्थिक लाभ विषय पर बहस शुरू करवाना चाहती है।
3. पहुंच का विस्तार : नशाखोरी और उसके सामाजिक दुष्प्रभावों के खिलाफ खड़ा होकर वीसीके मुख्यतः दलितों तक सीमित अपने जनाधार को विस्तार देना चाहती है। उसे लगता है कि इससे उसे महिलाओं सहित जनता के उन वर्गों का समर्थन हासिल हो सकेगा जो अब तक उससे दूर थे।
4. मीडिया में बने रहना : यह सम्मेलन और उसकी तैयारियां वीसीके को ख़बरों में बनाए रखेंगी और उसे अपनी सांगठनिक क्षमता और विचारधारात्मक लक्ष्यों को जनता के सामने रखने का अवसर मिलेगा।
5. गठबंधन का निर्माण : लोक-कल्याण में रूचि रखने वाली सभी पार्टियों को सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित कर, वीसीके नए राजनीतिक गठजोड़ों के अवसरों की तलाश कर सकेगी।
वीसीके: चुनौतियां और अवसर
वीसीके की स्थिति तो मजबूत हुई है मगर उसके सामने कई चुनौतियां हैं, जिनका सामना उसे करना होगा। यथा–
1) गठबंधन की राजनीति और पार्टी के विकास के बीच संतुलन : वीसीके को एक विश्वसनीय गठबंधन सहयोगी बने रहने और अपनी अलग पहचान और आकांक्षाएं बनाए रखने के बीच एक नाजुक संतुलन बनाना होगा। बहुत अधिक समझौते करने से उसके मूल समर्थकों का उससे मोहभंग हो सकता है, वही बहुत अधिक आक्रामकता से उसके गठबंधन सहयोगियों के साथ उसके रिश्ते तनावपूर्ण हो सकते हैं।
2) मूलभूत विचारधारा से डिगे बिना अपने प्रभावक्षेत्र का विस्तार : पार्टी चाहती है कि उसका आधार केवल दलितों तक सीमित न रहकर और विस्तृत हो। मगर यहां चुनौती यह है कि उसे मतदाताओं के अधिक व्यापक समूह को अपने ओर आकर्षित करते समय यह ध्यान में रखना होगा कि उसकी मूलभूत विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं कमज़ोर न पड़ें।
3) आतंरिक एकजुटता: अर्जुन के वक्तव्य पर पार्टी के दूसरी पंक्ति के नेताओं की अलग-अलग प्रतिक्रियाओं से जाहिर है कि पार्टी में संभवतः आतंरिक विभाजन हैं, जिनसे निपटना ज़रूरी है। यह महत्वपूर्ण है कि पार्टी के अंदर अलग-अलग राय व्यक्त करने की इज़ाज़त तो हो, लेकिन पार्टी एकजुट दिखे।
4) संसाधनों की कमी : वीसीके एक छोटी पार्टी है, जिसका मुकाबला बड़ी द्रविड़ पार्टियों से है, जिनके पास अकूत धन है। ऐसे में वीसीके को अपने चुनाव अभियान और सांगठनिक ढांचे का खर्च उठाने के लिए संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
5) मीडिया में उपस्थिति : मीडिया में उचित और पर्याप्त उपस्थिति सुनिश्चित करना भी एक चुनौती है, क्योंकि प्रमुख चैनल बड़ी पार्टियों को अधिक तवज्जो देते हैं।
मगर ये चुनौतियां एक अर्थ में अवसर भी हैं। जैसे कि–
1) स्वयं को विश्वसनीय साथी साबित करना : वीसीके को अपनेआप को प्रमुख द्रविड़ पार्टियों के शक्तिशाली और विश्वसनीय साथी के रूप में स्थापित करना है। उसे अपने मूलभूत सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए, उन मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करना है, जो बदलाव चाहते हैं। मगर उसे एआईएडीएमके और डीएमके में से किसी भी एक के साथ जुड़ने का विकल्प हासिल है और इसलिए वह परिवर्तित होते राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप इस संबंध में फैसला ले सकती है।
2) गठबंधन का निर्माण : वीसीके को किसके साथ गठबंधन बनाए रखना है, इस संबंध में वह पुनर्विचार कर सकती है। वह एआईएडीएमके या डीएमके में से किसी के भी साथ जुड़ सकती है, जिससे उसे अपनी राजनीतिक भागीदारियों के संदर्भ में अधिक विकल्प उपलब्ध हो सकते हैं। इसके साथ ही, वह गठबंधन शासन की पैरोकार बन सकती है और अन्य छोटे दलों और नई उभरती राजनीतिक ताकतों के साथ समझौते कर सकती है, जिससे विभिन्न पार्टियों के बीच बराबरी का मुकाबला हो सके।
3) मुद्दों पर आधारित राजनीति : हिंदुत्व की राजनीति के बरक्स सामाजिक न्याय और शराबबंदी की पक्षधारिता जैसे मुद्दों के सहारे पार्टी स्वयं को दूसरों से अलग साबित कर सकती है और ऐसे मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है जो मुद्दों की राजनीति के पक्षधर हैं।
4) सोशल मीडिया और वैकल्पिक मंचाें का उपयोग : पारंपरिक मीडिया में उचित स्थान न मिलने की समस्या से निपटने के लिए वीसीके सोशल मीडिया और वैकल्पिक मंचों का उपयोग कर मतदाताओं तक अपनी सीधी पहुंच बना सकती है और राजनीतिक आख्यानों को आकार दे सकती है।
5) नए नेतृत्व का विकास : आधव अर्जुन जैसे नेताओं का उदय, नेतृत्व की एक नई पीढ़ी विकसित करने का अवसर प्रदान करता है। ऐसे नेताओं की पीढ़ी, जो पार्टी के मूलभूत मूल्यों को संरक्षित रखते हुए, पार्टी की पहुंच को और व्यापक बना सके।
नए राजनीतिक युग का उदय
वर्ष 2026 में होनेवाले विधानसभा चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं और ऐसे समय में तमिलनाडु एक बड़े राजनीतिक परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है। बदलती जनसांख्यिकी, नई राजनीतिक शक्तियों के उदय और समाज में परिवर्तन के कारण एआईएडीएमके और डीएमके की पारंपरिक द्वयाधिकार को चुनौती मिल रही है। इस संदर्भ में, वीसीके का उत्थान, केवल किसी भी एक पार्टी की प्रगति का प्रतीक नहीं है। वह एक अधिक विविधतापूर्ण, समावेशी और विचारधारा-आधारित राजनीतिक परिदृश्य का प्रतिनिधित्व करता है।
गठबंधन शासन की मांग – चाहे वह 2026 में पूरी हो जाए या दीर्घावधि लक्ष्य बना रहे – एक अधिक प्रतिनिधिक और संतुलित राजनीतिक प्रणाली की बढ़ती चाहत इंगित करता है। यह मांग तमिलनाडु में राजनीति के स्थापित मानकों को चुनौती देती है और नए तरह के राजनीतिक संबंधों और शासन व्यवस्था की स्थापना की संभावनाएं खोलती है।
थिरुमावलवन के नेतृत्व और आधव अर्जुन जैसे नेताओं के रणनीतिक सुझावों के चलते वीसीके नए राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को तत्पर है।
इससे थिरुमावलवन को उपमुख्यमंत्री का पद हासिल होता है या नहीं, या पार्टी के राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि होती है या नहीं, यह देखा जाना बाकी है। मगर जो साफ़ है वह यह है कि तमिलनाडु में एक पार्टी के एकछत्र वर्चस्व का युग समाप्ति की ओर है।
राज्य के इस राजनीतिक भंवर में फंसे होने से कई प्रश्न उभरते हैं। यथा–
1. क्या प्रमुख द्रविड़ दल, बदलते हुए राजनीतिक यथार्थ के अनुरूप अपने-आप को ढालेंगे या वे अधिक समावेशी शासन की बढ़ती चाहत और मांग का प्रतिरोध करेंगे?
2. क्या वीसीके, अपनी मूलभूत विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं को संरक्षित रखते हुए, अपने प्रभाव क्षेत्र को अधिक व्यापक बना पाएगी?
3. फिल्म कलाकार विजय की पार्टी जैसे राजनीति में नवागंतुक, स्थापित राजनीतिक समीकरणों को किस तरह प्रभावित करेंगे?
4. क्या गठबंधन सरकारों के पक्ष में बनते वातावरण से तमिलनाडु को अधिक स्थायी और प्रतिनिधिक सरकारें मिल सकेगीं जो आर्थिक प्रगति, सामाजिक न्याय और समावेशी विकास सुनिश्चित करने जैसी राज्य के समक्ष उपस्थित जटिल चुनौतियों का मुकाबला कर सकें?
इन प्रश्नों के उत्तर हमें आने वाले वर्षों में मिलेंगे और ये न केवल 2026 के चुनाव के नतीजों का निर्धारण करेंगे वरन तमिलनाडु के दीर्घकालिक राजनीतिक और आर्थिक विकास की दिशा भी तय करेंगे। मगर यह तो निश्चित है कि वीसीके जैसी पार्टियां, जिनका ज़मीनी आधार है, जिनकी विचारधारा स्पष्ट है और जिनमें रणनीतिक कौशल है, नए नॅरेटिव के आकार लेने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे।
इस प्रकार, एक संभावित राजनीतिक बदलाव के मुहाने पर खड़ा तमिलनाडु, भारत में क्षेत्रीय राजनीति के उद्भव पर एक दिलचस्प प्रकरण अध्ययन (केस स्टडी) है। अगर राज्य, परिवर्तन के इस दौर से गुज़रते हुए भी उसकी विविधवर्णी जनता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकेगा, तो उसके इस कौशल के न केवल तमिलनाडु के लिए वरन संपूर्ण भारत में संघवाद, सामाजिक न्याय और प्रजातांत्रिक प्रतिनिधित्व के लिए अहम निहितार्थ होंगे।
वीसीके जैसी पार्टियों के उदय, प्रमुख द्रविड़ पार्टियों में हो रहे आतंरिक परिवर्तनों और मतदाताओं की बढ़ती अपेक्षाओं के चलते ऐसा लगता है कि आने वाले समय में राज्य का राजनीतिक परिदृश्य और अधिक जटिल, सूक्ष्म विभेदों वाला और संभवतः अधिक प्रतिनिधिक होगा। जैसे-जैसे इस नए अध्याय के पन्ने खुलते जाएंगे, हम निस्संदेह भारत के विविधतापूर्ण और गतिशील जनतंत्र के बारे में बेहतर समझ विकसित कर सकेंगे।
नोट –
[1] पीडब्ल्यूएफ को करीब 6.1 फीसद वोट हासिल हुए थे।. इसमें पीडब्ल्यूएफ की केवल उन पार्टियों को मिले वोट शामिल किये गए हैं, जो वर्तमान में डीएमके के साथ गठबंधन में हैं। विशिष्टतः इसमें दिवंगत विजयकांत की देशीया मुरपोक्कु द्रविड़ कड़गम को मिले मत शामिल नहीं हैं।
[2] पराली पुथुर, मध्य तमिलनाडु का एक छोटा-सा गांव है, जो वीसीके की आंतरिक राजनीति और उसके नेतृत्व से जुड़े मसलों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। सन् 2012 में इसे वीसीके की कथित असफलता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। इस गांव में दलितों पर हमले हुए थे और ऐसा दावा किया गया था कि पार्टी ने हमले के शिकार दलितों को अकेला छोड़ दिया था। मगर गोर्रिंज के शोध से यह साबित हुआ कि दरअसल पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इस मामले में सबसे पहले कार्यवाही की थी। उन्होंने दलितों की मदद की और पुलिस पर रपटें दर्ज करने के लिए दबाव डाला।
गांववालों की सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि थिरुमावलवन वहां नहीं पहुंचे। इससे दो बिंदु सामने आते हैं–
पहला यह कि लोग चाहते हैं कि थिरुमावलवन एक कार्यकर्ता के रूप में अपनी वह पुरानी भूमिका निभाते रहें जब वे सभी बाधाओं के बावजूद प्रभावित इलाकों में स्वयं पहुंचते थे।
दूसरे, पराली पुथुर का घटनाक्रम दिखाता है कि पार्टी थिरुमावलवन पर केंद्रित और निर्भर है और उसकी दूसरी पंक्ति के नेताओं को ज़मीनी स्तर पर स्वीकार्यता और मान्यता हासिल नहीं है। नेतृत्व का यह केंद्रीयकरण, 2012 में प्रो. ह्यूगो गोर्रिंज को अर्त्रल अरासु द्वारा दिए गए साक्षात्कार से जाहिर है–
“मैं कुछ नहीं कह सकता। दूसरी पंक्ति का लोकप्रिय नेता बनना असंभव है। मैं थिरुमा के साथ कई सालों से काम कर रहा हूं। मगर लोग अन्नन (थिरुमावलवन) की उपस्थिति ही चाहते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि लोग मेरा सम्मान इसलिए नहीं करते क्योंकि मेरे हाथों में पर्याप्त शक्तियां नहीं हैं। यही स्थिति सिंधनई सेलवन के साथ है। रविकुमार चिंतक और लेखक हैं। वे विधायक थे और कुछ समय के लिए सत्ता में भी थे, मगर उनकी स्थिति भी यही है।”
इस केंद्रीयकरण और दूसरी पंक्ति के नेताओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का एक और उदाहरण है पार्टी के एक सदस्य तमिज्ह मुरासु द्वारा गोर्रिंज को दिया गया साक्षात्कार, जिसमें उसने कहा–
“एक मोटरसाइकिल (टीवीएस 50) की आगे की सीट पर बैठे तमिज्ह मुरासु ने वीसीके और विशेषकर थिरुमावलवन की आलोचनाओं की झड़ी लगा दी। उसने कहा, ‘अन्नन नहीं चाहते कि दूसरी पंक्ति के नेता जैसे सिंधनई सेल्वन आगे बढ़ें।’” उसने यह भी जोड़ा– ‘… यह वैसा ही है जैसे करूणानिधि नहीं चाहते थे कि एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) आगे बढ़ें।’ जब उससे पूछा गया कि इस सबके बावजूद वह पार्टी में क्यों बना हुआ है, तो उसका जवाब था, ‘देखिए, अगर मेरा पिता शराबखोर है तो इसका यह मतलब तो नहीं हैं कि वो मेरा पिता ही नहीं रहा …… मुझे कोई बेहतर पार्टी बताइए। मैं उसमें शामिल हो जाऊंगा।’”
इस विवरण से यह साफ़ है कि वीसीके भले ही आतंरिक आलोचना और चुनौतियों का सामना कर रही हो, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि बाहरी प्रभाव या धनबल से उसकी एकता को कोई खतरा है।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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