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विश्वविद्यालयों में ‘नॉट फाउंड सुटेबल’ : जातिवादी अत्याचार की पराकाष्ठा

आज जातिवाद शिक्षण संस्थानों में अपने नग्न रूप में सामने खड़ा है। वह तमाम तरह की साजिश कर जातिवाद के इस किले को सामाजिक न्याय के बरक्स सुरक्षित रखना चाहता है। इसके लिए ऊंची जातियों के तमाम लोग एकमत हैं। बता रहे हैं प्रो. अरुण कुमार

गत 6 दिसंबर को जब पूरा देश संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा था, उसी दिन देश की राजधानी में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर ओबीसी कैटेगरी की सभी सीटों को ‘नॉट फाउंड सुटेबल’ (एनएफएस) कर दिया गया। एनएफएस का मतलब पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लोग एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर इंटरव्यू देने की योग्यता तो रखते हैं, लेकिन नियुक्त होने की योग्यता नहीं रखते। 

विदित है कि एसोसिएट प्रोफेसर के लिए 8 साल अध्यापन का अनुभव और आठ आलेख यूजीसी द्वारा सूचीबद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित होना चाहिए। प्रोफेसर के लिए आवश्यक योग्यता 12 वर्ष का अध्यापन और कम-से-कम एक पीएचडी शोधार्थी का शोध-निर्देशन है। 

दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा ओबीसी कैटेगरी में एक प्रोफेसर और एक एसोसिएट प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए आवेदन मंगाए गए थे। इसी के साथ सामान्य श्रेणी में 5 एसोसिएट प्रोफेसर और एक प्रोफेसर की वैकेंसी निकाली गई थी। एसोसिएट प्रोफेसर का एक पद ईडब्ल्यूएस यानी ऊंची जाति के गरीबों के लिए आरक्षित थी। इन सभी सीटों पर ऊंची जातियों के उम्मीदवारों को नियुक्त कर दिया गया तथा ओबीसी की दोनों सीटों को एनएफएस कर दिया गया।

दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई बहाली के संदर्भ में इन बातों को जानना आवश्यक है कि इसके कुलपति प्रो. योगेश सिंह और हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. कुमुद शर्मा दोनों सवर्ण हैं। कहना अतिरेक नहीं कि ओबीसी सीटों को एनएफएस किन कारणों से किया गया है। देखिए यह सारणी–

पदनियुक्ति की स्थिति
प्रोफेसर1. किरण गोरे- सवर्ण

2. ओबीसी कैटेगरी- एनएफएस घोषित
एसोसिएट प्रोफेसर1. राजीव रंजन गिरी- सवर्ण

2. प्रवीण कुमार- सवर्ण

3. सत्यप्रकाश- सवर्ण

4. आशुतोष मिश्रा- सवर्ण

5. राजमणि उपाध्याय- सवर्ण

6. दिव्यांग श्रेणी, महात्मा पांडेय- सवर्ण

7. ओबीसी कैटेगरी- एनएफएस घोषित

एक बार भारत रत्न जननायक कर्पूरी ठाकुर मुजफ्फरपुर में डॉ. राम मनोहर लोहिया स्मारक कॉलेज में लोहिया जयंती पर भाषण देने आए थे। उन्होंने लोहिया कॉलेज के बारे में बताया कि जगदीश साहू नामक व्यक्ति विदेश से पीएचडी करके आए थे। वे बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में घूम-घूमकर असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति की गुहार लगाते रहे, लेकिन किसी ने उन्हें नौकरी नहीं दी। जबकि उस समय केवल एमए पास ऊंची जातियों के छात्रों को बुलाकर बिना किसी परीक्षा या बिना किसी इंटरव्यू के नौकरी दे दी जाती थी। (आज भी आप 1980 के दशक के आसपास नियुक्त जितने भी ऊंची जातियों के प्रोफेसरों को देखेंगे तो सब की नियुक्ति उसी दिन हुई है, जिस दिन उन्होंने एमए पास किया है) जब जगदीश साहू को नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने कॉलेज खोलने का प्रयास शुरू किया और शीघ्र ही उन्होंने मुजफ्फरपुर में डॉ. राम मनोहर लोहिया स्मारक कॉलेज की स्थापना की।

दिल्ली विश्वविद्यालय में एनएफएस का खेल

कर्पूरी ठाकुर ने आगे कहना शुरू किया कि हमारे देश में उच्च जातियों का व्यवहार ओबीसी/एससी/एसटी और मुसलमानों के साथ न्यायपूर्ण नहीं है, इसलिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। जननायक की इसी बात को बी.पी. मंडल ने मंडल आयोग की अपनी रिपोर्ट में उद्धृत करते हुए लिखा कि चूंकि हमारे देश में उच्च जातियों का व्यवहार न्यायपूर्ण नहीं है, इसलिए कम-से-कम 100 में 27 नौकरियां ओबीसी के लिए आरक्षित करने की संवैधानिक व्यवस्था की जाए ताकि ओबीसी को भी इस देश के संसाधनों का थोड़ा हिस्सा मिल सके। इस प्रकार जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया गया तो यह कहा गया कि 27 प्रतिशत नौकरियां ओबीसी के लिए आरक्षित की जाए। मंडल आयोग ने कई अन्य सिफारिशें भी की थीं लेकिन वे लागू नहीं हो पाई।

मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा के बाद ऊंची जातियों के लोगों ने इसका खूब विरोध किया, लेकिन वे ओबीसी की एकता के समक्ष जीत नहीं पाए। अब ऊंची जातियों के लोग सीधे-सीधे ओबीसी आरक्षण का विरोध नहीं करते, बल्कि अब षड्यंत्र करने लगे हैं ताकि ओबीसी को उनका 27 प्रतिशत हिस्सा नहीं दिया जा सके। पहले तो उन्होंने सामान्य वर्ग की सभी सीटों को ऊंची जातियों के लिए आरक्षित कर लिया फिर ईडब्ल्यूएस तो केवल उन्हीं के लिए लागू ही हुआ है। इस प्रकार 50 प्रतिशत सीटें ऊंची जातियों के लिए एक प्रकार से आरक्षित हो गई हैं। लेकिन इससे भी उनका पेट नहीं भर रहा है। अब वे एनएफएस लेकर आए हैं।

देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी/एससी और एसटी की सीटों को धड़ल्ले से एनएफएस किया जा रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय की लगभग 400 ओबीसी सीटों को एनएफएस कर दिया गया है। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की सीटों को जब एनएफएस किया गया तो सोशल मीडिया पर हंगामा हो गया। चूंकि हिंदी के प्रोफेसर और विद्यार्थी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, इसलिए जब भी हिन्दी की ओबीसी सीटों को एनएफएस किया जाता है तो हंगामा मच जाता है। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में ओबीसी की 4 में से 3 सीटों को एनएफएस किया गया तो किसी को पता भी नहीं चला। यहां लोग दबी जुबान में भी किसी ने विरोध करने की कोशिश नहीं की।

बहरहाल, आज जातिवाद शिक्षण संस्थानों में अपने नग्न रूप में सामने खड़ा है। वह तमाम तरह की साजिश कर जातिवाद के इस किले को सामाजिक न्याय के बरक्स सुरक्षित रखना चाहता है। इसके लिए ऊंची जातियों के तमाम लोग एकमत हैं। तभी धड़ल्ले से ओबीसी की सीटों को एनएफएस कर रहे हैं और कोई उनसे पूछने वाला नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भी जब ओबीसी की सीटों को एनएफएस किया गया तो किसी ने भी ऊंची जातियों के कुलपति, विभागाध्यक्ष और विशेषज्ञों से इसके बारे में पूछा तक नहीं।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अरुण कुमार

डॉ अरुण कुमार पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना में हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।

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