आज के दौर में पढ़ने का क्या अर्थ है? इस प्रश्न का आशय यह नहीं है कि हम पढ़ नहीं रहे हैं। मगर जानना यह है कि हम क्या पढ़ रहे हैं। पढ़ना सिर्फ पढ़ते जाना नहीं होता। उसमें समझना, जानना, महसूस करना और अपनाना – ये सब शामिल होते हैं। पढ़ने से हमें तसल्ली और उम्मीद मिलती है। पढ़ने से हम जीवन का अर्थ ढूंढ पाते हैं और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, अपनी बुद्धि को जीवंत कर पाते हैं।
लेकिन आज हम पढ़ने की क्रांतिकारी संभावनाओं को समझ नहीं पा रहे हैं। पढ़ना सिर्फ ज्ञान हासिल करने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह आपको कुछ करने की प्रेरणा भी देती है।
समझना, जानना, महसूस करना, अपनाना और उसके अनुरूप काम करना – पढ़ने के इन सभी पक्षों को अपनाने का मौका हमें महात्मा जोतीराव फुले देते हैं। उनका जीवन और लेखन ‘ज्ञान हासिल करने में रूचि’ के महत्व से हमें परिचित करवाते हैं। इस शब्द का वे अपनी कृतियों में कई बार प्रयोग करते हैं।
असहिष्णुता और प्रतिगामी सोच के इस दौर में फुले को पढ़ना और समझना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव हो सकता है क्योंकि उनके लेखन को ईशनिंदा माना जा सकता है।
हाल में ‘फुले’ फिल्म की रिलीज़ को लेकर हुआ विवाद इसका एक उदाहरण है। ब्राह्मण समुदाय का मानना है कि यह फिल्म उनकी छवि को धूमिल करती है। मगर सवाल यह है कि अमानवीय जाति प्रथा और उसे चिरायु बनाने वाले लोगों के बारे में एक चिंतक पहले ही लिख चुका है, उसे मिटाया या छुपाया कैसे जा सकता है? दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार ने विधानसभा में एक संकल्प पारित कर जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले को ‘भारत रत्न’ सम्मान से नवाज़े जाने की मांग की है।

क्या राज्य और केंद्र सरकारों को नहीं पता कि फुले दंपत्ति ने क्या लिखा है और उन्होंने किस चीज़ के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी? अब सवाल यह कि जातिगत जनगणना और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के उप-वर्गीकरण की मांग को ध्यान में रखते हुए सरकार फुले दंपत्ति को ‘भारत रत्न’ सम्मान से सम्मानित करती है तो भी क्या ब्राह्मण समुदाय की प्रतिक्रिया यही रहेगी? इस मामले में अगर सरकार उन पर बनी फिल्म का विरोध करने वालों से किसी तरह का संवाद करती है तो वह भी विरोधाभासी होगा।
मगर सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि यह देश फुले दंपत्ति को किस तरह देखना और समझना चाहता है? अगर सावित्रीबाई और जोतीराव दोनों को ‘भारत रत्न’ सम्मान दे दिया जाता है तो इससे उनकी लोकप्रियता में तो वृद्धि होगी। मगर क्या सरकार उनकी जीवनियों को देश भर के सभी स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएगी?
सरकार उन्हें किस स्वरुप में प्रस्तुत करेगी? क्या वह उन्हें मात्र समाज सुधारक बताएगी या क्रांतिकारी शिक्षाविद? क्या सरकार यह स्वीकार करेगी कि फुले दंपत्ति सार्वभौमिक लोकशिक्षण (विशेषकर प्राथमिक शिक्षा) को ‘कुछ लोगों को ज़रूरत से ज्यादा शिक्षित करने’ (उच्च शिक्षा) से अधिक महत्वपूर्ण मानते थे? क्या सरकार ब्राह्मण महिलाओं की भलाई में फुले दंपत्ति के योगदान को मान्यता देगी? क्या वो सत्यशोधन के उनके आदर्श को समझेगी? क्या सरकार फुले दंपत्ति के इस आदर्श को स्वीकार करेगी कि सत्य ही ज्ञान है और ज्ञान ही सत्य है?
ये सभी प्रश्न इसलिए अहम हैं क्योंकि फुले दंपत्ति को शैक्षणिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों से पूरी तरह गायब कर दिया गया है। कई सरकारी संस्थान बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती को आधिकारिक रूप से मनाते हैं, मगर जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस पर कोई आयोजन नहीं करते। आज भी कई सार्वजनिक संस्थानों को फुले दंपत्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानने में कोई रूचि नहीं है। मगर आज के दौर में बढ़ती अतार्किकता और घटती नैतिकता से मुकाबला करने के लिए फुले दंपत्ति से बेहतर कोई नहीं हो सकता।
हम कुछ ऐसे दार्शनिक और राजनीतिक मसलों पर चर्चा करें, जिन्हें जोतीराव फुले ने अपने लेखन में उठाया और जो आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलामगिरी’, जो 1873 में प्रकाशित हुई थी, में वे पौराणिक अवतारकल्पना (विष्णु के दस अवतार) को ख़ारिज करते हैं। फुले वैज्ञानिक ढंग से सत्यशोधन करते हैं।
अगर आप ‘गुलामगिरी’ को ध्यान से पढ़ें तो आप कुछ ऐसे प्रश्नों को ढूंढ सकते हैं जो फुले ने उठाए थे और जो अब भी प्रासंगिक हैं। जैसे– ‘नामकरण की राजनीति’ का किसी व्यक्ति या समूह पर क्या असर पड़ता है? विभिन्न रीति-रिवाजों के ब्राह्मणों और शूद्रों-अतिशूद्रों द्वारा पालन में अंतर को समझना क्यों महत्वपूर्ण है? और यह कि कैसे पुरोहित वृत्ति, जो अपनी प्रकृति और परिचालन दोनों में अत्यंत नागवार है, किस प्रकार फुरसत की ज़िंदगी को प्रतिमान बना देती है?
किस तरह झूठ, मिथकों और कहानियों को गढ़ कर अबोध आमजनों को ठगा जाता है? भारत के रैयत (शूद्र-अतिशूद्र किसान और भूमिहीन खेतिहर मजदूर सभी) आज भी दुधारू गाय क्यों बने हुए हैं? क्या ब्राह्मण अब भी शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए सब कुछ हैं?
‘गुलामगिरी’ हमें यह पूछने के इज़ाज़त भी देती है कि अगर उच्च शिक्षा अध्येताओं को जन्म देती है, जिससे उन द्विजों को लाभ होता है जो कलम के सहारे जीते हैं (फुले उन्हें कलम कसाई कहते हैं), तो फिर प्राथमिक शिक्षा के प्रति इतनी गहन उपेक्षा का भाव क्यों है, जिससे आमजनों (शूद्रों और अतिशूद्रों) को लाभ होता है?
तब क्या होता है जब किसी को उसके स्वतंत्रता और ज्ञान से वंचित कर दिया जाए? युवाओं को अब भी क्यों यह बताया जाता है कि धर्मग्रंथों को ईश्वर ने लिखा है न कि ब्राह्मण पुरुषों ने? हम सामाजिक व नैतिक मुआवजा दिलवाने की दिशा में बंधुत्व का भाव कैसे जगाएं? क्या बौद्धिक स्वतंत्रता से लिखना और बोलना सुगम हो जाता है और इससे कोई अपने अधिकारों पर दावा कर सकता है?
यह क्यों महत्वपूर्ण है कि नगरपालिकाओं, शिक्षा, इंजीनियरिंग, राजस्व विभागों और पत्रकारों आदि में दमित जातियों का कम-से-कम एक व्यक्ति होना चाहिए? शूद्रों और अति-शूद्रों की एकता क्यों और कैसे समाप्त हो गई?
सर्वविदित है कि भारत में श्रम की गरिमा का मुद्दा जाति से जुड़ा हुआ है और जब हम फुले दंपत्ति को पढ़ेंगे तो हमें यह समझ में आएगा कि उन्होंने यह क्यों लिखा कि भट्ट ब्राह्मण इत्मीनान और फुरसत का जीवन जीते हैं। ‘गुलामगिरी’ हमें यह पूछने के लिए भी प्रेरित करती है कि श्रम ही जीवन है, इसे कैसे अमल में लाएं और फुरसत की ज़िंदगी के बजाय श्रम की गरिमा को कैसे अपनाएं?
यद्यपि फुरसत, ज्ञान उत्पादन से जुड़ी हुई है, मगर क्या हमें फुरसत की ज़िंदगी हासिल होने का उत्सव मनाना चाहिए, विशेषकर जब कि यह विशेषकर महिलाओं को घरेलू काम की चक्की में पीस डालती है? और इस अशांत दौर में फुले दंपत्ति का लेखन हमें यह पूछने के लिए मजबूर करता है कि क्या हम ‘भले लोग’ बन गए हैं, जो फुले दंपत्ति का भारतीयों के लिए सपना था?
चाहे वह सांस्कृतिक आंदोलन हो या समुचित प्रतिनिधित्व की राजनीतिक मांग, ये आज भी उपरलिखित प्रश्नों से जुड़े हुए हैं, उनसे उपजते हैं। और इन्हीं से लोकतांत्रिक राजनीति में सामाजिक और राजनीतिक मसले उभरते हैं। समाज और राष्ट्र के रूप में फुले दंपत्ति और उनके द्वारा उठाये गए प्रश्नों को मान्यता नहीं देना हमारी अज्ञानता ही कही जा सकती है।
जोतीराव फुले ने अपना अधिकांश लेखन संवाद की शैली में किया। पाउलो फ्रेरे ने कहा था– चूंकि शब्द संवाद का मूल है, इसलिए एक सही शब्द बोलना दुनिया को बदल डालना है। जोतीराव फुले ने अपने शब्दों से ठीक यही किया।
अगर हमें फुले दंपत्ति के जीवन और लेखन को अपनाना है तो हमें संस्कृति के मोर्चे पर ज्यादा से ज्यादा काम करने की ज़रूरत है ताकि लोगों में दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के साहस का संचार हो सके। हमारे समय में फुले को पढ़ना, किसी समुदाय तक सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि हमें संवाद के अभाव और असहिष्णुता की खिलाफत के लिए फुले को पढ़ना चाहिए।
फुले ने सामाजिक और नैतिक मुआवज़ा हासिल करने के लिए बंधुत्व और प्रेम के विचार को प्रस्तुत किया, जो न्याय के लिए ज़रूरी है। ‘सत्य ही ज्ञान है’ के सिद्धांत पर जोर देकर उन्होंने ईश्वर, आध्यामिकता और कर्म के सिद्धांत के घेरे से बाहर निकल कर संघर्ष शुरू किया। इसलिए इस दौर में फुले को पढ़ कर हम केवल जाति-विरोधी सोच को ही नहीं अपनाएंगे, बल्कि हम फुले के ‘भले लोग’ बनेंगे, जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विरोधाभासों को पकड़ना और उनके खिलाफ कार्यवाही करना जानेंगे।
(मूल आलेख अंग्रेजी में पूर्व में न्यूजमिनट द्वारा प्रकाशित। यहां इसका हिंदी अनुवाद हम लेखक की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं।)
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)