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‘इन गलियों में’ : संप्रदायवादी सवालों से टकराती फिल्म में दिखा उच्च जातीय अंतर्द्वंद्व

फिल्मकार अविनाश दास ने एक साथ कई सवालों पर निशाना साधा है। मसलन, वह जाति-प्रथा पर भी चोट करते दिखाई देते हैं। यह ऐसे कि फिल्म में लखनऊ के रहमान गली की चर्चा है, जिसके बाशिंदे अमूमन पसमांदा जातियों के प्रतीत होते हैं। पढ़ें, यह समीक्षा

हिंदी सिनेमा या कहिए कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री इन दिनों तीन हिस्सों में बंट गई है। एक हिस्सा वह जो इन दिनों देश में सत्तासीन राजनीतिक ताकतों के नॅरेटिव का प्रतिनिधि है। दूसरा हिस्सा वह है जो सत्तासीन राजनीतिक ताकतों का मुखालफत कर रहा है। और तीसरा हिस्सा वह जो मध्यमार्गी है। पत्रकार से फिल्मकार बने अविनाश दास की हालिया रिलीज हुई फिल्म ‘इन गलियों में’ दूसरी श्रेणी की फिल्म है। एक मायने में यह फिल्म इसलिए भी खास है, क्योंकि हाल के वर्षों में हिंदी सिनेमा में इस तरह की कोशिशें नहीं दिखी हैं। हालांकि दक्षिण भारत के फिल्मकार पा. रंजीत आदि ने अपनी फिल्मों से छाप जरूर छोड़ी है।

खैर, अविनाश दास की फिल्म की कहानी ‘हिंदू-मुस्लिम’ विषय पर केंद्रित है, जिसकी जड़ में गंगा-जमुनी तहजीब है। फिल्म की बुनावट भी लगभग इसी तर्ज पर की गई है। फिल्म में मौजूदा राजनीतिक नारों का खूब जमकर उपयोग किया गया है। यहां तक कि ‘दिल्ली दंगे’ के दौरान इस्तेमाल किए गए विवादास्पद नारे को भी। इसके अलावा इस फिल्म के माध्यम से संप्रदाय आधारित राजनीति का समाधान भी बताया गया है। हालांकि पूरी फिल्म में संविधान का जिक्र तक नहीं है, लेकिन संवादों में इसकी उपस्थिति साफ-साफ दिखती है और फिल्म यह संदेश देने में कामयाबी हासिल करती है कि संप्रदायवादी ताकतों को लोकतंत्र के सहारे ही परास्त किया जा सकता है।

बतौर फिल्मकार अविनाश दास ने एक साथ कई सवालों पर निशाना साधा है। मसलन, वह जाति-प्रथा पर भी चोट करते दिखाई देते हैं। यह ऐसे कि फिल्म में लखनऊ के रहमान गली की चर्चा है, जिसके बाशिंदे अमूमन पसमांदा जातियों के प्रतीत होते हैं। यहां तक कि फिल्म की नायिका (शबनम) भी ठेले पर सब्जी बेचती है। बताते चलें कि मुसलमान जातियों में कुंजरा एक जाति है, जिसका पारंपरिक पेशा सब्जी बेचना है। बिहार सरकार द्वारा कराए गए जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में इस जाति की आबादी 18 लाख 28 हजार 584 है। फिल्म में अविनाश दास ने एक प्रयोग यह किया है कि एक ब्राह्मण जो कि हनुमान गली का बाशिंदा है, सब्जी केवल हरी राम उर्फ हरिया के ठेले से खरीदता है। हालांकि अविनाश दास ने हरिया की जाति का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन उसके घर की पृष्ठभूमि और स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ने आदि की वजहें यह बताती हैं कि वह किस समुदाय से संबंध रखता है। ऐसे ही फिल्म में विलेन अजय तिवारी की भूमिका निभानेवाले सुशांत सिंह जब एक संवाद में ‘तिवारी को अंसारी’ बनाने की बात कहते हैं तो यह साफ हो जाता है कि फिल्म की पृष्ठभूमि में पसमांदा मुसलमान हैं, न कि अशराफ मुसलमान।

फिल्म एक दृश्य में मिर्जा (चाय दुकानदार) की भूमिका में जावेद जाफरी व अन्य

फिर भी उच्च जातीय दृष्टिकोण दिखता है। इसका उदाहरण है हरिया की मां द्वारा कहा गया यह संवाद– “बाप पादे न जाने, बेटा शंख बजावे”। ध्यातव्य है कि इस तरह का संवाद बिहार और उत्तर प्रदेश के इलाकों में एक मुहावरे की तरह दलित और ओबीसी समुदायों के उन लोगों के लिए किया जाता है, जो पढ़-लिखकर आगे बढ़ना चाहते हैं। हनुमान गली के बाशिंदों में फिल्म का नायक हरि राम उर्फ हरिया व उसकी मां के अलावा केवल तिवारी और मिश्रा आदि ही क्यों हैं? और यह भी अखरता है कि पूरी फिल्म लखनऊ की पृष्ठभूमि पर आधारित है, लेकिन इसमें ‘नखलऊआ’ संस्कृति गायब है।

हालांकि फिल्म में कबीर एक साझा प्रतीक के रूप में दिखते हैं। इसकी वजह संभवत: यही कि कबीर एक तरफ हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक माने जाते हैं और दूसरी तरफ वे इन दोनों धर्मों के पाखंडों की पोल खोलनेवाले भी। इसमें जाति और वर्ण का विरोध भी शामिल है।

‘इन गलियों में’ फिल्म के माध्यम से अविनाश ने मुसलमानों में पर्दा प्रथा का भी विरोध किया है। पूरी फिल्म में कोई भी मुसलमान स्त्री बुरके में नजर नहीं आती है। जाहिर तौर पर यह इस कारण कि फिल्म के केंद्र में पसमांदा मुसलमान हैं, जिनके लिए बुरके का महत्व पारंपरिक रूप से उतना नहीं रहा है, जितना कि अशराफ मुसलमानों में रहा है।

फिल्म में मिर्जा की भूमिका निभाने वाले जावेद जाफरी ने जान डाल दी है। वहीं डेब्यू कर रहे विवान शाह और अवंतिका दसानी से मायूसी मिलती है। मौजूदा राजनीतिक सवालों का जवाब तलाशती यह फिल्म कुछ खामियों के बावजूद देखने योग्य बन पड़ी है। इसकी वजह है फिल्म का सीधा और सपाट होना। फिल्म में अतिरेक से बचने की हर संभव कोशिश की गई है। कहा जा सकता है कि स्वस्थ मनोरंजन के जरिए भी फिल्मकार चाहें तो गंभीर सवालों को बड़े पर्दे पर दिखा सकते हैं। इस लिहाज से अविनाश दास की यह कोशिश कामयाब ही मानी जाएगी।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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