फिल्मी जगत में समानांतर फिल्मों का अपना प्रभाव रहा है। इन फिल्मों की खासियत यह होती है कि ये दीर्घायु होती हैं। खासकर तब जब इनकी पृष्ठभूमि में इतिहास हो। और इतिहास भी ऐसा जो उसके अपने ऊपर पड़े परदों को उघाड़ दे। ऐसी ही फिल्म है अनंत महादेवन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘फुले’। यह फिल्म फुले दंपत्ति के जीवन उद्यम को समूर्त रूप में सामने लाती है। इसके पहले हिंदी पट्टी में फुले दंपत्ति लिखित दस्तावेजों में ही उल्लेखित किए गए। हाल ही में संजीव ने अपने उपन्यास ‘ज्योति कलश’ के जरिए एक सराहनीय प्रयास जरूर किया है, जिसमें वे सरल शब्दों में व सहज तरीके से फुले दंपत्ति का जीवन बताते हैं।
यह फिल्म हाल ही में विवादों में भी आई जब सेंसर बोर्ड ने इसके ऊपर कैंची चलाई और इसके ऊपर अस्थायी रोक लगा दी। तब इसके खिलाफ सवाल देश के दलित-बहुजनों ने लगभग एक साथ उठाया। यहां तक कि गत 11 अप्रैल, 2025 को फुले जयंती के मौके पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आधिकारिक ‘एक्स’ हैंडल पर श्रद्धांजलि सूचक पोस्ट साझा किया तब लोगों ने अपनी टिप्पणियों में सवाल उठाया।
उनका सवाल उठाना स्वाभाविक ही था कि जो बातें जोतीराव फुले की रचनाओं में पहले से मौजूद हैं, उन्हें उसी रूप में प्रस्तुत करने पर भारत सरकार और उसके संस्थान केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को आपत्ति क्यों है?
खैर, ‘फुले’ फिल्म गत 25 अप्रैल, 2025 को देश के सिनेमाघरों में रिलीज हुई और सफलता-असफलता के परे इस फिल्म ने हिंदी पट्टी के लोगों को फुले दंपत्ति के जीवन व उनके संघर्षों से समूर्त रूप में प्रस्तुत कर हलचल तो मचा ही दी है।
आधुनिक संगीत और मराठी लोक संगीत से सुमधुर बनी यह फिल्म सपरिवार देखे जाने योग्य है, जिसमें फुले दंपत्ति के सामाजिक और सांस्कृतिक उद्यम को एकदम बारीकी से दिखाया गया है। उनके उद्यम को संघर्ष की संज्ञा दी जा सकती है, लेकिन संघर्ष कहने से उनकी उपलब्धियां सीमित हो जाती हैं। संघर्ष उद्यम का हिस्सा है।
जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के उद्यम को व्यापक विस्तार देते हुए फिल्मकार अनंत महादेवन ने इसमें तात्या भिड़े, लहुजी साल्वे, नारायण लोखंडे के अलावा उस्मान शेख व उनकी बहन फातिमा शेख के योगदानों को प्रशंसनीय महत्व दिया है।
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी इसे पारंपरिक हिंदी फिल्मों से अलग बनाती है। इसके कथानक की कसावट को इसके सापेक्ष देखा जाना चाहिए कि फुले दंपत्ति के जीवन-संघर्ष फैलाव बहुत अधिक था। लड़कियों के लिए स्कूल खोलना, विधवा माताओं के लिए आश्रम की व्यवस्था, वर्ण व जाति आधारित कुरीतियों का सतत विरोध करते रहना, साहित्यिक तरीके से विचारों का प्रसार करने से लेकर सत्यशोधक समाज के आंदोलन तक। यह सब दिखाने के लिए 129 मिनट पर्याप्त नहीं हो सकते। लिहाजा फिल्मकार अनंत महादेवन ने कुछ प्रयोग अवश्य किए हैं, जिनसे फुले दंपत्ति के जीवन के कई हिस्से/पड़ाव फिल्म का हिस्सा नहीं बन सके। इन्हें तोड़ना-मरोड़ना नहीं कहा जा सकता। खासकर ऐसे समय में जब देश में प्रोपेगेंडा फिल्में बनाई जा रही हैं, जिनसे सत्तासीनों के नॅरेटिव को मजबूती मिलती है।

कुछ प्रसंग अवश्य हैं, जिन्हें फिल्म का हिस्सा बनाया जाना चाहिए था। खासकर जोतीराव फुले द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि की खोज करना और उन्हें शूद्रों व अतिशूद्रों के महानायक के रूप में स्थापित करना। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्मकार आरएसएस द्वारा शिवाजी महाराज का हिंदूकरण करने को चुनौती देने से बचना चाहते हैं। इसके अलावा यह भी कि अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ के पंद्रहवें अध्याय में जोतीराव फुले स्वयं कहते हैं कि 1857 में गदर के पहले ही उनके और उनके ब्राह्मण सहयोगियों के बीच असहमतियां उत्पन्न हो गई थीं। इन असहमतियों को भी फिल्म में नहीं दिखाया गया है। जबकि वास्तविकता यह है कि अपनी इस पुस्तक में फुले ने भटों-ब्राह्मणों पर चौतरफा हमला किया, जिसकी रचना उन्होंने 1873 में की थी। यह मुमकिन है कि फुले के क्रांतिकारी व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को फिल्म में दिखाया जाना फिल्मकार को चुनौतीपूर्ण लगा होगा। मसलन, ब्राह्मण सहयोगियों से असहमतियों के संबंध में फुले ने स्वयं लिखा है–
“…हालांकि उस समय भी मुझे कुछ भट सदस्यों को साथ लेना पड़ा। इसके अंदरूनी कारणों पर मैं फिर कभी चर्चा करूंगा; लेकिन जब मैं आगे चलकर इन स्कूलों में भटों के पूर्वजों द्वारा लिखे गए झूठे ग्रंथों की धूर्तताएं बच्चों के सामने उजागर करने लगा, तब इन भटों और मेरे बीच बोलचाल में तनाव दिखने लगा।” (ब्राह्मणवाद की आड़ में गुलामगिरी, जोतीराव फुले, अनुवादक : उज्ज्वला म्हात्रे, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2021, पृष्ठ 155)
जब देश में एक तरफ गदर का माहौल रहा, फुले दंपत्ति इस देश को हजारों सालों की गुलामी से मुक्त कराने की दिशा में ठोस पहल करते हैं। फिल्म की खासियत यह भी है कि तत्कालीन समय व परिवेश को दिखाने की हरसंभव कोशिश की गई है। फिर चाहे वह एक अतिशूद्र द्वारा अपनी बेटी को कचरे के ठेले में छिपाकर स्कूल पहुंचाना हो या फिर फुले परिवार द्वारा फूलों की खेती व उसका व्यापार। फिल्मकार अनंत महादेवन ने कई दृश्यों में मराठी संवादों को भी शामिल किया है, जिससे फिल्म और यथार्थ रूप में आगे बढ़ती है।
फुले दंपत्ति के जीवन और उनके उद्यम से आज हिंदी पट्टी के बौद्धिक और सियासी गलियारे अपरिचित नहीं है। खासकर 1990 के दशक में अस्मिताओं की खोज के परिणास्वरूप फुले गाहे-बेगाहे दलित-बहुजन विमर्श का हिस्सा रहे हैं। जाहिर तौर पर उनकी अपनी जाति को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। ‘फुले’ फिल्म इस सवाल से बचने की कोशिश नहीं करती। वह ‘गोन्हे’ परिवार का ‘फुले’ बनना भी बताती है और यह भी कि जब फुले दंपत्ति घर से निर्वासित होती है तो उनकी जहन में उस्मान शेख की याद आती है। जबकि वह चाहते तो अपने अन्य मित्रों, जिनमें कुछ ब्राह्मण भी शामिल थे, के घर जा सकते थे। ठीक उसी तरह जैसे फुले दंपत्ति ने अपना पहला स्कूल भिड़ेवाड़ा में अपने एक ब्राह्मण मित्र के घर में खोला था।
फिल्म में इतिहास को ध्यान में रखा गया है। फ्रांस की क्रांति से जुड़ी थॉमस पेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मैन’ का महत्व फिल्मकार ने बहुआयामी तरीके से कई दृश्यों में दिखाया है। मसलन, एक जगह जोतीराव फुले सावित्रीबाई फुले को फ्रांस की क्रांति के बारे में बताते हैं कि किस तरह फ्रांस के मेहनतकशों ने जो शासक वर्गों द्वारा शोषित व शासित थे, के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया और सफलता पाई। इसमें थॉमस पेन की किताब का महत्व बताते हुए वे कहते हैं कि इस किताब में मनुष्य के अपने जन्मसिद्ध अधिकार होते हैं, जिनके लिए किसी राज्य सत्ता का होना अनिवार्य नहीं है। ऐसे ही एक दृश्य में उस्मान शेख फुले के बारे में बताते हैं कि स्कॉटिश स्कूल में पढ़ने के दौरान फुले चिकित्सक बनकर लोगों की सेवा करना चाहते थे, लेकिन थॉमस पेन की किताब पढ़ने के बाद उन्होंने अपनी राह बदली।
इस फिल्म के हर फ्रेम में इतिहास है। हालांकि हर फिल्मकार की अपनी सीमाएं होती हैं, जिसके कारण उसे कुछ जगहों पर आगे बढ़ जाना होता है। वैसे भी फिल्मकार अनंत महादेवन का मकसद गैर-मराठी क्षेत्र के भाषा-भाषियों के बीच फुले का इतिहास बताना है, इसलिए वह मूल कथानक में अनेक प्रसंगों को नजरअंदाज करते हैं। कुछ बातें जरूर खलती हैं। मसलन, यह कि जोतीराव फुले के निधन के बाद करीब छह साल तक सावित्रीबाई फुले जीवित रहीं और सक्रिय रहीं। उन्होंने सत्यशोधक समाज का नेतृत्व किया। यदि इस हिस्से को भी थोड़ा विस्तार दिया जाता तो यह मुमकिन था कि उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व उभर कर सामने आता। ऐसे ही फिल्मकार ने सावित्रीबाई फुले के साहित्यिक योगदानों को भी नजरअंदाज किया है।
बहरहाल, इस फिल्म ने फुले दंपत्ति के जीवन व उद्यम को हिंदी पट्टी के बौद्धिक और सियासी गलियारे से बाहर निकालकर आम लोगों के बीच लाने का प्रयास किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब भारत के इन दो क्रांतिकारी व्यक्तित्वों के विचारों का प्रसार और अधिक गति से होगा। इसी के साथ मानवीय अधिकारों के लिए सामाजिक संघर्ष भी तेज होगा।
(संपादन : राजन/अनिल)
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