आधुनिक भारत के इतिहास को अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के इतिहास के रूप में ही वर्णित किया है। ऐसे इतिहासकारों की नजर उन संघर्षों की ओर करीब-करीब नहीं ही गई, जो संघर्ष पिछड़ी-दलित जातियों के नेताओं और संगठनों के नेतृत्व में देशी साम्राज्यवादियों के खिलाफ चल रहे थे। ये संगठन और उनके नेता ब्रिटिश साम्राज्य के साथ ही देशी साम्राज्यवादियों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद को भी खत्म करने लिए संघर्ष कर रहे थे। वे चाहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे के साथ ही देशी साम्राज्यवाद के भी सभी रूपों का भी खात्मा होना चाहिए। हिंदी पट्टी में ऐसे पहले संगठन की स्थापना 30 मई, 1933 को बिहार के शाहाबाद जिले के करगहर प्रखंड में हुई। इसे त्रिवेणी संघ नाम दिया गया।
हालांकि इस संगठन की स्थापना 1933 में ही हो गई थी, लेकिन इसका मुकम्मल घोषणा-पत्र ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ नाम से 1940 में सामने आया, जिसे त्रिवेणी संघ के संस्थापकों में एक यदुनंदन प्रसाद मेहता ने लिखा था, जिन्हें हम चौधरी जे.एन.पी. मेहता के नाम से जानते हैं। त्रिवेणी संघ का यह घोषणा-पत्र तमिलनाडु में जस्टिस पार्टी द्वारा 1916 में जारी ब्राह्मणवाद विरोधी घोषणा-पत्र की याद दिलाता है। जिस तरह त्रिवेणी संघ का गठन पिछड़ी जातियों के नेताओं द्वारा इसलिए किया गया था ताकि सभी गैर-सवर्ण जातियां एकजुट हों, उसी तरह जस्टिस पार्टी का गठन भी पिछड़ी जातियों के नेताओं ने किया था।
लेकिन त्रिवेणी संघ अपने एजेंडे और विचारधारा में जस्टिस पार्टी से एक कदम आगे था। जहां जस्टिस पार्टी के निशाने पर मुख्यत: राजनीतिक ब्राह्मणवाद रहा, वहीं त्रिवेणी संघ ने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ब्राह्मणवाद को एक साथ अपने निशाने पर लिया। हालांकि उन्होंने कहीं ब्राह्मणवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन त्रिवेणी संघ के बिगुल को पढ़कर और उनके एजेंडे को देखकर बिलकुल स्पष्ट होता है कि वे वर्ण-जाति आधारित हर तरह के वर्चस्व और अधीनता के रिश्ते को खत्म कर देना चाहते थे। उन्हें शोषण-उत्पीड़न और अन्याय का कोई रूप स्वीकार नहीं था, चाहे उसका आधार धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक हो। त्रिवेणी संघ देशी शोषकों-उत्पीड़कों के साथ ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के संघर्ष को भी अपना एक मुख्य एजेंडा बनाए हुए था। त्रिवेणी संघ के लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी हर संघर्ष में हिस्सेदारी करते थे, जेल जाते थे और शहीद भी हुए।
त्रिवेणी संघ क्या चाहता था, उसे उसने अपने प्रोग्राम में इस रूप में प्रस्तुत किया है, “बंधुओं! आपने शोषित-शासित तथा दलित समाज को उन्नत बनाने के लिए, अन्याय और अत्याचारों का नाश करने के लिए, मनुष्य को मनुष्य-सा व्यवहार करने का पाठ पढ़ाने के लिए, परतंत्र हृदय में स्वतंत्रता का बिगुल फूंकने के लिए, मानव समाज का अधिकार बताने के लिए, देश को स्वतंत्र बनाने के लिए, किसान, व्यवसायी तथा मजदूरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए तथा कृषि, शिल्पकला आदि उद्योग-धंधों को उन्नत बनाने के लिए त्रिवेणी संघ को पैदा किया।”[1]

त्रिवेणी संघ जातिवादी संगठन नहीं था और न ही उसके एजेंडे पर सिर्फ सामाजिक अन्यायों से मुक्ति का सवाल था। त्रिवेणी संघ की दृष्टि भारत के वर्ण-जातिवादी यथार्थ को समाहित करनेवाली वर्गीय दृष्टि थी। उनकी यह वर्गीय दृष्टि ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ और उसके नेताओं के भाषणों में साफ-साफ सामने आती है। त्रिवेणी संघ ने अपने दुश्मनों और दोस्तों को इन शब्दों में चिह्नित किया है– “त्रिवेणी संघ जमींदारों, बड़े व्यवसायियों और पूंजीपतियों तथा उच्च वेतनभोगी सरकारी अधिकारियों के बरखिलाफ किसानों, मजदूरों और व्यवसायियों का संश्रय है।”[2]
त्रिवेणी संघ से पहले बिहार में पिछड़े की अलग-अलग जातियों के संगठन बन गए थे और वे अपने-अपने तरीकों से वर्ण-जातिवादी वर्चस्व को चुनौती भी दे रहे थे। वर्ण-जाति व्यवस्था की गुलामी से मुक्ति के लिए विभिन्न तरह के आंदोलन भी चला रहे थे। जिनमें एक ‘जनेऊ धारण करो’ आंदोलन और ‘सिंह सरनेम’ लगाने का आंदोलन भी था। लेकिन पिछड़ी जातियों का कोई साझा मंच नहीं था। 1933 में गठित त्रिवेणी संघ पहला साझा मंच बना। यह सच है कि इस मंच के गठन की शुरुआत यादव, कुर्मी और कोईरी नेताओं ने किया, लेकिन यह जल्द ही सभी पिछड़ी जातियों और दलितों का साझा मंच और आवाज बन गया।
कुछ लोग तथ्यहीन आरोप लगाते हैं कि त्रिवेणी संघ दलितों की आवाज और मंच नहीं था। जबकि सच यह है कि त्रिवेणी संघ पुरजोर तरीके से दलितों की समस्याओं और उसका समाधान प्रस्तुत किया। संघ ने स्वयं को दलितों के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि दलितों से कहा कि आप में वह शक्ति है, जिससे अपनी मुक्ति की लड़ाई आप स्वयं लड़ सकते हैं।
‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में अछूतों (दलितों) को संबोधित करते हुए कहा गया है कि, “भाई! तुम्हारी दशा तो और भी दयनीय है, लेकिन हताश न हो, हिम्मत करो … खयाल रखो- जब तक तुम अपने पैरों पर अपनेआप तैयार नहीं होते हो, दुनिया में तुम्हारी सहायता करनेवाला कोई नहीं, क्योंकि दुनिया का स्वभाव है कि वह बिना स्वार्थ तथा भय के किसी तरह नजर भी नहीं उठाती।”[3]
गांधी के प्रति सम्मान रखते हुए त्रिवेणी संघ ने उनके द्वारा चलाए गए हरिजन उद्धार के कार्यक्रम को पाखंड, ढकोसले और उसके असली चरित्र को इन शब्दों में उजागर किया– “लेकिन क्या हुआ? आपका उद्धार हुआ? फिर वही रंगत, वही चाल और वही खजड़ी, वही ताल। इससे अधिक कुछ नहीं दिखलाई पड़ता। हां, आपके पढ़ने-लिखने के लिए तथा आपके पढ़े-लिखे लोगों को कुछ सुविधाएं तो अवश्य हुईं, पर ये सुविधाएं भी सरकार की हैं। समाज तो उसी अड़ियल टट्टू-सा अड़ा ही हुआ है।”[4]
‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ दलितों के सामने कांग्रेस और महात्मा गांधी के अछूतोद्धार की असलियत के संदर्भ में सवाल उठाते हुए दलितों से पूछता है कि, “आप अपनी छाती पर हाथ रखकर कहें, क्या आपको धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में हक मिले? हां, राजनीतिक क्षेत्र में अवश्य कुछ अधिकार मिला है, लेकिन धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में तो वही पुरानी बेढंगी चाल है। जो उस समय आपके लिए बड़ी-बड़ी स्पीचें झाड़ते थे, इस समय उनके मंदिर में आप घुस सकते हैं? कुंओं पर पानी भर सकते हैं? क्या आप पर होने वाली लात-मुक्कों की वर्षा और गालियों की बौछार छूट गई? नहीं जी, आप दूर तक दृष्टि फैलाकर देख लें।”[5]
अंत में त्रिवेणी संघ का बिगुल दलितों से कहता है कि कांग्रेस की छतरी तले और मुक्ति नहीं मिल सकती है, कांग्रेस आपका संगठन नहीं है। यथा– “भाई! धनी की सहायता धनी करता है और गरीब की सहायता गरीब ही। इसलिए आप सब त्रिवेणी संघ के झंडे के नीचे चले आओ; क्योंकि त्रिवेणी संघ गरीबों की ही संस्था है।”[6]
हिंदी पट्टी और बिहार में कांग्रेस जैसी मजबूत पार्टी और इतने सारे बिहार के नेताओं के होते हुए भी अलग त्रिवेणी संघ क्यों बनाने की पिछड़ी जाति के नेताओं को जरूरत पड़ी? इसका सीधा और साफ कारण था। पहला तो यह कि कांग्रेस पार्टी में पिछड़ी और दलित जाति के नेताओं के लिए कोई जगह बिहार में नहीं थी। दूसरी कांग्रेस पार्टी पर पूरी तरह बिहार में भूमिहारों, कायस्थों, ब्राह्मण और राजपूतों का नियंत्रण था। तीसरा कांग्रेस पार्टी ब्रिटिश सत्ता को तो हटाना चाहती थी, लेकिन देशी साम्राज्यवाद के खात्मे के लिए कोई उसके पास कोई ठोस कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ इस तरह की भावानात्मक बातें और भविष्य के लिए दिखाने जाने वाले सपने थे कि आजादी के बाद सबके शोषण-उत्पीड़न का खात्मा हो जाएगा, हर तरह का अन्याय खत्म हो जाएगा और किसी को भी अत्याचार का सामना नहीं करना पड़ेगा।
सच्चिदानंद सिन्हा, सहजानंद सरस्वती (भूमिहार), राजेंद्र प्रसाद (प्रथम राष्ट्रपति), श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह और कुछ शेख-पठान मुसलमाना नेता थे, जैसे डॉ. सैयद महमूद। कांग्रेस पार्टी पर कायस्थ-भूमिहार और राजपूत नेताओं का किस कदर वर्चस्व था, इसका अंदाज कांग्रेस नेतृत्व में बिहार में कांग्रेस संगठन, 1937 के पहले अंतरिम कांग्रेसी मंत्रिमंडल और विधान सभा सदस्यों की वर्ण-जाति से लगाया जा सकता है।
सन् 1937 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बिहार में जब पहली बार कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी तो, तो सरकार में एक भी मंत्री पिछड़ा समुदाय से नहीं था। हां, एक दलित (जगलाल चौधरी) कैबिनेट मंत्री जरूर बने।
कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस संगठन के भीतर भी थी। 1934 से 1947 के बीच सिवा 1937-38 के, बिहार प्रदेश कांग्रेस की कार्यकारिणी में पिछड़ी जातियों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। 1937 और 1938 में भी उनका प्रतिशत क्रमश: 7.70 और 5.58 ही था।[7] सच यह है कि 1934 से लेकर 1960 तक भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ जाति के नेता ही कार्यकारिणी (कांग्रेस) में काबिज रहे।
कोई यह कह सकता है कि जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी कांग्रेस के संघर्ष में पिछड़े-दलित नेता शामिल ही नहीं हुए, तो वे कांग्रेस पार्टी, विधान सभा और कांग्रेस के नेतृत्व में बने मंत्रिमंडल में कहां से समुचित जगह बना पाते? तथ्य इस तर्क के पक्ष में नहीं है। तथ्य यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोध संघर्ष में सबसे अधिक पिछड़े और दलित शामिल थे। इसके लिए सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में शहीद हुए लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है। सिर्फ एक शाहाबाद जिले का तथ्य यह है कि 1942 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में कुल 79 लोग शहीद हुए, जिसमें 51 लोग पिछड़ी और दलित जातियों के थे। करीब 75 प्रतिशत शहीद पिछड़े और दलित जातियों के लोग थे।[8] इस संघर्ष में जेल गए और सजा पाए लोगों की सूची देखकर कोई भी समझ सकता है कि बहुलांश लोग पिछड़ी-दलित जातियों के लोग थे।
कांग्रेस के द्विज-सवर्ण चरित्र को उपरोक्त तथ्यों के आलोक में अच्छी तरह समझा जा सकता है। यहां तक जब त्रिवेणी संघ ने 1936-1937 में कांग्रेस से अनुरोध किया कि पिछड़े वर्ग के लोगों को भी विधान सभा के टिकट दिए जाएं, लेकिन कांग्रेस ने पूरी तरह इंकार कर दिया, उनकी एक न सुनी। तब त्रिवेणी संघ को अपने उम्मीदवार खड़े करने पड़े। इसका नतीजा जरूर 1945-46 के विधान सभा चुनावों में कुछ हद तक सामने आया। कांग्रेस को मजबूर होकर कुछ पिछड़े वर्गों से लोगों को टिकट देना पड़ा।
उस समय के कांग्रेस संगठन, उनके नेतृत्व, उसकी सरकारों और उसके विधान सभा के प्रतिनिधियों के सामाजिक चरित्र और एजेंडे संबंधी तथ्यों से सहज ही अंदाज लगाय जा सकता है कि क्यों और किन जरूरतों के लिए त्रिवेणी संघ बना? कांग्रेस में उनके लिए किसी स्तर पर जगह नहीं थी, सिर्फ वे कांग्रेस के संघर्षों में शामिल होकर हिस्सेदारी कर सकते थे, जेल जा सकते और शहीद हो सकते थे, जो कि उन्होंने किया भी।
कांग्रेस के साथ त्रिवेणी संघ के रिश्तों का प्रसन्न चौधरी और श्रीकांत के शब्दों में इस रूप में रख सकते हैं– “त्रिवेणी संघ ने कभी भी आमतौर पर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार अभियान नहीं चलाया, न ही स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध किया।”[9]
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस पार्टी में दलितों-पिछड़ों के लिए कोई जगह नहीं थी, इसके साथ कांग्रेस पार्टी ने सहजानंद सरस्वती (भूमिहार ब्राह्मण, अपनी जाति की श्रेष्ठता के दावे उन्होंने खुद ही किया है) के नेतृत्व में किसानों का जो संगठन बनाया था, उसमें भी पिछड़ी जातियों के किसानों और दलित मजदूरों के लिए बहुत कम जगह थी। इस किसान संगठन के नेतृत्व में भी भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य द्विज-सवर्णों का कब्जा था। इस संदर्भ में प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत लिखते हैं, “किसान सभा पर इन्हीं भूमिहार-ब्राह्मण जाति के खुशहाल कायमी रैयतों का वर्चस्व था।”[10] सहजानंद के नेतृत्व में कांग्रेस के किसान सभा के वर्ण-जातिवादी चरित्र पर किसान सभा के नेतृत्वकारी लोगों की सूची प्रस्तुत करते हुए प्रसन्न चौधरी/श्रीकांत का कहना है कि, “जैसा कि आरंभिक दशकों में कांग्रेस पर कायस्थों का वर्चस्व था, वैसी ही, बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा किसान सभा पर भूमिहार ब्राह्मणों का। शायद ही ऐसा कोई संगठन था (जाति संगठन को छोड़कर) जिस पर किसी एक जाति का इतना निर्णायक प्रभुत्व था।”[11]
साफ है कि सहजानंद के नेतृत्व वाले किसान सभा पर पूरी तरह भूमिहार ब्राह्मणों का नियंत्रण था। उस संगठन में यदि किसी और को कोई जगह मिल पाई या मिल सकती थी, तो वे राजपूत, कायस्थ और ब्राह्मण थे।
इतना ही नहीं त्रिवेणी संघ हर तरह के सांप्रदायिक विभाजन और राजनीति को खारिज करता है। अपने बिगुल में यह संघ साफ कहता है कि भगवानों को लेकर झगड़ा करना बेकार है। राम-रहीम एक हैं। दोनों को अलग-अलग समझने के कारण सारे झगड़े हैं और लोग एक दूसरे का खून बहाने पर उतारू हो जाते हैं और सांप्रदायिक दंगे होते हैं। दंगों के लिए ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ पंडितों और मौलवियों को जिम्मेदार ठहराता है, “प्राय: इन दंगों को कराने वाले पंडित और मौलवी ही हुआ करते हैं, जो अपनी-अपनी जीभों को घुड़दौड़ की बाजी मारने के लिए सांप्रदायिक आग लगा देते हैं। जिससे गरीब हिंदू-मुसलमानों के खून की नदी बह चलती है तथा लाखों-करोड़ों की बर्बादी हो जाती है।”[12]
हिंदू-मुसलमानों को सावधान करते हुए ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ कहता है कि, “भाई हिंदू-मुसलमान। तुम लोग सावधान हो जाओ। अक्ल से काम करो। व्यर्थ के झगड़े में न फंसो। झगड़ा लगानेवाले ताली पीट-पीटकर अपना मतलब साधते हैं, लेकिन गरदन कटती है आप गरीब भाइयों की।”[13]
‘त्रिवणी संघ का बिगुल’ में त्रिवेणी संघ के एजेंडों और उनके संघर्ष को देखकर स्पष्ट तौर पर यह समझ में आता है कि यह संगठन ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति संघर्ष के साथ ही साथ देशी शोषण-उत्पीड़न और अन्याय एवं अत्याचारों के सभी रूपों को खत्म कर देना चाहता था। चाहे शोषण-उत्पीड़न और अन्यायों एवं अत्याचारों का आधार सामाजिक हो या वर्गीय। यह संघ जहां एक ओर दलितों-पिछड़ों का सवाल सामाजिक तौर पर उठाता है, तो वहीं किसानों-मजदूरों और छोटे व्यवसायियों की दुर्दशा और उनके शोषण-उत्पीड़न को उतने ही पुरजोर तरीके से उठाता है। ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में पृष्ठ-दर-पृष्ठ मेहनतकश किसानों, खेतिहर मजदूरों और छोटे व्यवसायियों की जीवन-स्थितियां प्रस्तुत की गई हैं, उनके शोषण-उत्पीड़न के कारणों का वर्णन किया गया है और उनके दुश्मन के रूप में जमींदारों, बड़े व्यवासियों और पूंजीपतियों को चिह्नित किया गया है।
त्रिवेदी संघ एक साथ जहां वर्ण-जाति आधारित वर्चस्व और इस वर्चस्व का कायम रखने वाली द्विज-सवर्ण जातियों को चुनौती देता है, वहीं पूंजीवाद और पूंजीपतियों के उत्पादक-शिल्पकार और मेहनतकश विरोधी चरित्र को सामने लाता है, लेकिन इसके साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की न केवल पैरवी करता है, बल्कि उसमें शामिल भी होता है।
वह ब्रिटिश साम्राज्य के साथ ही भारत के देशी शोषकों-उत्पीड़कों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद को भी खत्म करने का आह्वान करता है। इसके लिए वह पिछड़ी-दलित जातियों के साथ उत्पादक किसानों, खेतिहर मजदूरों और छोटे व्यवासायियों को बीच मोर्चा बनाने का एजेंडा प्रस्तुत करता है।
त्रिवेणी संघ ने अपने सांगठनिक स्वरूप, नेतृत्व, एजेंडा और संघर्ष के माध्यम से हिंदी पट्टी में जीवन के सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बहुत सारे बीज बोए थे। कुछ बीज अंकुरित भी हुए, कुछ पौधे बने, कुछ फूल और फल भी पैदा हुए। लेकिन विभिन्न कारणों से यह बीच एक मुकम्मल बगीचे का उस तरह से शक्ल नहीं ले पाए, जैसा कि तमिलनाडु में हुआ। हिंदी पट्टी में बहुजन आंदोलन को नए सिरे से खड़ा करने और उसे हर तरह के शोषण-उत्पीड़न और अन्याय-अत्याचार खत्म करने का उपकरण बनाने वाले लोगों के लिए त्रिवेणी संघ और उसका बिगुल आज भी सार रूप में मार्गदर्शक है।
संदर्भ :
[1] त्रिवेणी संघ का बिगुल, चौधरी जे.एन.पी. मेहता, प्रकाशक, महेंद्र सुमन एवं मनीलाल, पटना, 2020, पृ. 59
[2] बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, प्रसन्न कुमार चौधरी/ श्रीकांत, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2001, पृ. 133
[3] त्रिवेणी संघ का बिगुल, उपरोक्त, पृ. 48
[4] वही, पृ. 48
[5] वही, पृ. 48-49
[6] त्रिवेणी संघ का बिगुल, https://www.forwardpress.in/2019/10/history-triveni-sangh-bihar-hindi/
[7] बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, उपरोक्त, पृ. 152
[8] वही, पृ.153
[9] वही, पृ. 155
[10] वही, पृ. 157
[11] वही पृ. 155
[12] त्रिवेणी संघ का बिगुल, उपरोक्त, पृ. 47
[13] वही
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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