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नीतीश की प्राथमिकता में नहीं और मोदी चाहते नहीं हैं सामाजिक न्याय : अली अनवर

जातिगत जनगणना का सवाल ऐसा सवाल है कि आरएसएस का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का जो गुब्बारा है, उसमें सुराख हो जाएगा, उसकी हवा निकल जाएगी। वह धड़ाम हो जाएगा। नरेंद्र मोदी इस बात को बखूबी समझते हैं तो जितना उसमें घालमेल हो सकता है, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। पढ़ें, पूर्व राज्य सभा सांसद अली अनवर से यह साक्षात्कार

सामाजिक न्याय के मुद्दों में आबादी के अनुपात में भागीदारी का सवाल बहुत अहम रहा है। जातिगत जनगणना के बाद यह सवाल और जोर पकड़ेगा। इसकी उम्मीद पहले से की जा रही है। हालांकि केंद्र की भाजपा सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का एलान किया है, लेकिन जनगणना 2027 के लिए हाल ही में जारी अधिसूचना में स्पष्ट रूप से जातिगत जनगणना की बात नहीं कही गई है। इस देरी व अस्पष्टता को आप किस रूप में आकलित करते हैं?

देखिए नरेंद्र मोदी सरकार और खासकर स्वयं मोदी जी का जो चाल-चरित्र है तो उनकी किसी बात पर भरोसा करना मुश्किल है। वे कहते कुछ हैं और करते कुछ। एक तो यह कि जाति जनगणना वाली बात उन्होंने दबाव में आकर किया है। अगर बिहार में विधानसभा का चुनाव नहीं होता और चूंकि बिहार के लिए यह सबसे ज्यादा ज्वलंत सवाल रहा है, इसलिए अगर दबाव नहीं होता तो जातिगत जनगणना करवाने की बात वे नहीं करते। दूसरी बात यह है कि बिहार में ऑलरेडी जनगणना की गई है, हालांकि उसे एक सर्वे ही कहिए, उसमें कई त्रुटियां भी हैं। अगर आप पूछेंगे तो वह भी हम बताएंगे। दूसरी एक बात यह कि राहुल गांधी जी, जो कि एक अखिल भारतीय स्तरीय पार्टी व मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता हैं, ने इस सवाल पर इतना जोर दिया और यहां तक कि उन्होंने खूंटाठोक अंदाज में कहा था कि इसी सदन में (लोकसभा के वर्तमान कार्यकाल में) हम जाति जनगणना करवा के रहेंगे। और यह कि बिहार में चुनाव एकदम मुंहाने पर है, इसलिए केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के लिए तैयार हुई है। लेकिन आप यह भी देखिए कि 2027 में बिहार का चुनाव तो निकल ही जाएगा और यह मुमकिन है कि वे इसे इसी तरह से खींचखांच करें और लोकसभा के चुनाव तक विलंबित रखें। हालांकि जिस तरह से वैदेशिक और आंतरिक मामलों में नरेंद्र मोदी की थूकम फजीहत हो रही है तो वह तब तक सत्ता में रहेंगे कि नहीं, यह कहना मुश्किल है।

आपको याद होगा कि हमने एक पर्चा छपवाया था– “सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का यही इलाज जाति जनगणना के लिए हो जाओ तैयार।” नरेंद्र मोदी आरएसएस और भाजपा को बखूबी समझते हैं। आरएसएस जातिगत जनगणना का खुलकर विरोध कर चुका है। यह ऐसा सवाल है कि उनका सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का जो गुब्बारा है, उसमें सुराख हो जाएगा, उसकी हवा निकल जाएगी। वह धड़ाम हो जाएगा। नरेंद्र मोदी इस बात को बखूबी समझते हैं तो जितना उसमें घालमेल हो सकता है, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। अगर मजबूरी में कराना भी हुआ तो ये कराएंगे और सारा घालमेल करेंगे। उनकी प्राथमिकता यह होगी कि इसको भरसक टाला जाए।

इसीलिए अब उसे 2027 तक लटकाया जा रहा है। एक बात और कि जनगणना में जाति आधारित गणना तो अब जोड़ा गया है। लेकिन आप यह देखिए कि हर दस साल पर जनगणना होती है। इस लिहाज से 2011 के बाद तो 2021 में होनी थी। 2011 जनगणना में जातिगत गणना की बात कही गई थी। लेकिन वह रिपोर्ट नहीं आई। इसका मतलब कि दो दशकों के बाद अब जाकर तीसरे दशक में यह कराए जाने की बात कही जा रही है। अब यह आगे भी होगा कि नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इनकी कथनी और करनी में आसमान जमीन का फर्क है।

आपका एक लंबा समय जदयू के सांसद के रूप में गुजरा है और आपने नीतीश कुमार को बहुत नजदीक से देखा है, इसलिए मेरा यह सवाल है कि तब जब आप उनके साथ थे, सामाजिक न्याय को लेकर उनकी सोच को आपने किस रूप में देखा था और वर्तमान में किस रूप में देखते हैं?

देखिए, अब मैं आपको बताता हूं कि जब मैं राज्यसभा में था तो 18 दिसंबर, 2009 को मैंने जाति जनगणना कराने के सवाल को उठाया। लेकिन आप हैरत कीजिएगा। नीतीश कुमार ने हालांकि कह दिया था और उनका मानना भी था कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सांसदों को निर्देश नहीं दिया कि आपलोग इस मामले को पार्लियामेंट में उठाइए। जाति जनगणना तो कोई एक स्टेट का मामला तो है नहीं।

पहली बार 18 दिसंबर, 2009 को मैंने यह सवाल उठाया, क्योंकि 2011 में जनगणना होनेवाली थी। अन्य दलों को तो छोड़ ही दीजिए, उस समय जदयू के करीब 5 सांसद थे। जदयू के किसी अन्य सांसद ने मेरी बात का समर्थन नहीं किया। अब इसी से आप समझ लीजिए।

उसके बाद आप जैसे लोग कुछ पत्रकार, कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इस सवाल को लेकर उनके पास गए। उनमें राजनारायण नामक युवा की अहम भूमिका थी। वे लोग गए शरद यादव जी के यहां और उनसे कहा कि एक मुसलमान सांसद होकर अली अनवर इस बात को उठा रहे हैं, आपकी पार्टी व आप कहते हैं कि हमारी पार्टी इसके पक्ष में हैं, तो इस मामले को उठा क्यों नहीं रहे हैं। शरद जी उस समय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा कि दिसंबर में यह सेशन [शरदकालीन सत्र] तो निकल गया। अब अगले साल जब बजट सेशन आएगा तब उठाया जाएगा। मैंने इस सवाल को उसी विंटर सेशन [शरदकालीन सत्र] में उठाया था। बजट सेशन दो भाग में होता है। फरवरी से प्रारंभ होकर वह मई में खत्म होता है। मई में जाकर 10 मई, 2010 को लोकसभा में यह सवाल उठा। उस समय शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और लालू जी भी लोकसभा के सदस्य थे। चूंकि शरद यादव जी से लोगों का मिलना-जुलना थोड़ा आसान था तो उनसे मिलकर अपनी बात कह लेते थे। इसकी वजह यह भी रही कि वे स्थायी रूप से दिल्ली में ही रहते थे। लालू जी ज्यादातर बिहार में रहते थे। ऐसे ही मुलायम सिंह जी ज्यादातर यूपी में रहते थे। इन तीनों नेताओं ने मिलकर 10 मई को इस सवाल को लोकसभा में उठाया। उसमें उनका साथ भाजपा के गोपीनाथ मुंडे साहब ने भी किया। जातिगत जनगणना के मुद्दे को जब इतना बड़ा समर्थन मिल गया तब सारे दलों के जो पिछड़े लोग थे, उन्हें भी सहानुभूति हुई और उन्होंने भी इसमें अपनी आवाज मिला दी। उस समय की यूपीए-2 की सरकार थी। उसको मानना पड़ा। सरकार ने माना जरूर, लेकिन उसमें डंडीमारी हो गई। डंडीमारी करनेवालों में जो लोग थे, बाद में शिखर पर भी पहुंचे। 

आज तो देखिए कि जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय का सवाल राहुल गांधी जी भले उठा रहे हैं, लेकिन आपने देखा कि सलमान खुर्शीद साहब ने अपनी हालिया किताब में लिखा है कि कांग्रेस पार्टी में इस बात को लेकर मतभेद है कि जाति जनगणना होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए। तो इसका मतलब यह है कि उनके सर्वोच्च नेता राहुल गांधी जो जोरदार तरीके से कह रहे हैं, उसे लेकर उनकी पार्टी में किस तरह का विरोधाभास रहा है, खुर्शीद साहब उसे उजागर करने में लगे हैं। उस समय 2011 में भी इस तरह की लॉबी थी, जिसमें हिंदू भी थे और मुस्लिम भी।

अब आप यह देखिए कि 1931 में जातिगत जनगणना हुई। यही गणना 1941 में भी हुई। लेकिन उसकी रिपोर्ट नहीं आ सकी, क्योंकि दूसरा विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। हो सकता है कि अभी जिस मुहाने पर दुनिया जा रही है, खुदा न खास्ता यह हो। लेकिन अगर यह हो गया तो यह भी एक अच्छा बहाना मिलेगा मोदी जी को कि जातिगत जनगणना तो छोड़िए जनगणना ही नहीं कराना है। एक समय उनको कोरोना का बहाना मिल गया। एक समय चुनाव का बहाना मिल गया। बहाना उसे तो मिलते ही रहते हैं, जिसे नहीं करना होता है। हमारे यहां भोजपुरी में कहावत है– “रोए के रहे तो अंखिए खोदा गईल”। मेरे कहने का मतलब है कि यह भी उसी तरह का बहाना है। तो उस समय उनको बहाना मिल गया।

कहने का मतलब यह कि नीतीश जी कह तो देते थे कि ये जातिगत जनगणना जरूरी है, लेकिन कभी वह जोर नहीं देते थे। यदि जोर देते तो हमलोगों को कहते कि भाई आप लोग इस सवाल को पार्लियामेंट में उठाइए। लेकिन कभी भी किसी से नहीं कहा।

अली अनवर, पूर्व राज्यसभा सदस्य

मौजूदा केंद्र सरकार दो बैसाखियों पर टिकी है– टीडीपी और जदयू। इस लिहाज से देखें तो नीतीश कुमार के पास ठीक वैसा ही मौका है जैसा कि 1990 के दशक में जयललिता के पास था। तब जयललिता जी ने तमिलनाडु में बढ़े हुए आरक्षण को नौवीं अनुसूची में डलवा दिया। लेकिन बिहार में नीतीश कुमार ऐसा कुछ नहीं कर पाए हैं। ऐसा क्यों हुआ?

देखिए, बोलने के लिए लोग बोल देते हैं, लेकिन उस पर जोर नहीं देते हैं। उसके लिए लगते नहीं हैं, संवेदनशील नहीं होते हैं। हम लोगों ने तो देखा है। अब मान लीजिए कि बिहार के लिए यह संयोग की बात थी कि सूबे में अपोजिशन की पार्टियों – राजद, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, माले – ने जातिगत जनगणना का सवाल उठाया और नीतीश से मिलकर कहा कि चलिए प्रधानमंत्री जी से कहा जाए। और ये सब लोग गए प्रधानमंत्री जी से कहने। नीतीश जी के नेतृत्व में गए। तो जाति जनगणना न सही, सर्वे हुआ, लेकिन उसको भी कोर्ट में भाजपा के लोगों ने चुनौती दी। भाजपा ऊपरी मन से या दबाव में आकर ‘हां’ कह तो देती है, लेकिन उसमें पेंच भी लगा देती है। तो उसने जाति आधारित सर्वेक्षण को रुकवा दिया। उस समय नीतीश जी ने भी एक बार कहा था कि पिछड़ों के आरक्षण को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला जाना चाहिए। और राजद सहित और बाकी दल तो कह ही रहे थे। लेकिन नीतीश जी ने उसके लिए जोर नहीं दिया। आप कह रहे हैं कि जयललिता जी ने बार्गेन कर लिया तो उस तरह का चाहते तो ये लोग भी दबाव बना सकते थे, बार्गेन कर सकते थे। आंध्र प्रदेश वाले चंद्रबाबू नायडू को तो इससे कोई मतलब ही नहीं है, वो तो इस धारा के हैं ही नहीं।

तो इसका क्या मतलब निकालें कि नीतीश कुमार जी के लिए सामाजिक न्याय का जो एजेंडा है, वह प्राथमिक एजेंडा नहीं है?

बिल्कुल नहीं है। अगर रहता तो वे नरेंद्र मोदी और भाजपा से बार्गेन करते कि बिहार में पिछड़ों के बढ़े 65 फीसदी आरक्षण को नौवीं अनुसूची में डाल दीजिए। आधा-अधूरा जो भी हुआ है, उसको ये कर सकते थे। लेकिन उनको तो पैसा चाहिए। बिल्डिंग बनवाने के लिए, फ्लाइओवर बनवाने के लिए। विकास को लेकर उनकी जो अवधारणा है, सही अवधारणा है नहीं। सिर्फ फ्लाइओवर बन जाना, इमारतों का बन जाना विकास नहीं है। 

देखिए जातिगत जनगणना एक बड़ा काम है, जिससे पूरे समाज की एक्स-रे रिपोर्ट आ जाएगी। यदि नीतीश जी के लिए यह प्राथमिकता होती तो वे जोर देते। इसके लिए इनको कुछ पैसा भी नहीं लगना था। लेकिन इस काम में पैसा भी नहीं मिलना था। यहां तो पैसे की मांग है। उनको भी चाहिए और चंद्रबाबू को भी पैसे चाहिए– ‘हाय पैसा हाय पैसा’।

केंद्र सरकार अभी कह रही है कि परिसीमन के बाद वह महिला आरक्षण विधेयक लागू करेगी। परिसीमन को लेकर खासकर दक्षिण के राज्यों में एक विरोध सामने आया है कि उनका प्रतिनिधित्व घटेगा। हिंदी प्रदेशों में और खासकर हम कहें कि उत्तर और मध्य भारत के इलाकों में इसके किस तरह के परिणाम सामने आ सकते हैं?

देखिए, हिंदी प्रदेश – बिहार, उत्तर प्रदेश ऐसे राज्यों – और बंगाल को फायदा होगा। लेकिन इससे चिंतित हैं दक्षिण भारत के राज्य। और उनका चिंतित होना स्वाभाविक भी है। एक तो ऐसे ही उनके साथ उत्तर भारत के लोगों की तरह का ट्रीटमेंट नहीं होता है और केंद्रीय सत्ता में उनको हिस्सेदारी बहुत कम मिली है। अब एक बार देवगौड़ा साहब प्रधानमंत्री हो गए, लेकिन वह तो एक अपवाद की तरह हुए। जो ड्राइविंग सीट पर होता है, उसी की ज्यादा चलती है। खैर अभी तो गुजरात लॉबी हावी है।

अहम सवाल महिला आरक्षण का भी है। पहले विधायिका में महिला आरक्षण का बिल राज्य सभा में पारित हो गया, लेकिन लोक सभा में पेंडिंग रह गया। हम लोग थे उस समय। लेकिन उसमें हमारा कहना था और मैं यह मानता भी हूं कि जो समाजवादी धारा की पार्टियां थीं, उनसे हमारा इस बात पर मतभेद था कि जब आप महिला आरक्षण की बात कर रहे हैं तो मुस्लिम ओबीसी महिलाओं की बात क्यों नहीं करते।

मेरा अगला सवाल यही था। एक समय जब महिला आरक्षण की बात चल रही थी तब संसद में आप लोगों ने ‘कोटा में कोटा’ की बात की थी। अब जब चूंकि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा जो विधेयक लाया गया उसको लोकसभा राज्य सभा में पारित कर दिया गया, तब यह सवाल कोई नहीं उठा रहा है। मैं यह सवाल आपसे भी पूछ रहा हूं कि क्या आपको यह सवाल परेशान नहीं करती है कि 33 प्रतिशत आरक्षण के बाद संसद में और विधानसभाओं में सवर्णों की संख्या में बड़ा इजाफा हो जाएगा, और इसका असर नीतियों की निर्माण पर पड़ेगा?

बिल्कुल पड़ेगा और महिला आरक्षण सपाट कर देने से तो जाहिर है कि पिछड़े वर्ग की महिलाएं कम हो जाएंगीं। पहले जब यह सवाल उठा था, शरद यादव जी इस सवाल पर जोर दे रहे थे। वे राज्य सभा में थे और मैं भी था। उन्होंने मुझे फोन किया। मैं तमिलनाडु में दलित ईसाइयों के साथ एक मीटिंग में था। उन्होंने कहा कि अनवर जी आप आईए, आपसे एक जरूरी बात करनी है। हम नहीं समझे कि क्या बात करनी है। मैं उनसे मिलने गया। तब उन्होंने कहा कि आप राज्यसभा में पार्टी के चीफ व्हिप (मुख्य सचेतक) हैं। आप व्हिप जारी कर दीजिए तो दल के सभी सदस्यों को उपस्थित रहना है और इसके खिलाफ वोट करना है। तो हमने कहा कि ठीक है, हम करेंगे। लेकिन आप लोग तो कह रहे हैं यह मुस्लिम महिलाओं को भी रिजर्वेशन मिले तो आप लोग सिर्फ मुस्लिम शब्द क्यों कह रहे हैं? तब तो उसमें जो पसमांदा महिलाएं हैं, उनकी हकमारी हो जाएगी। अगर आप यह कह रहे हैं कि इसमें ओबीसी की महिलाओं को कोटे के अंदर कोटे के तहत आरक्षण मिले और उसमें जोड़ रहे हैं कि मुस्लिम महिलाओं का भी कर दें, तो यह तो विरोधाभासी बात हो गई। इसलिए हम इसका समर्थन नहीं करेंगे। तब हमने नहीं किया, उनकी बात हमने नहीं मानी। हमने व्हिप जारी नहीं किया। तब हमने कहा कि जब इसी रूप में पास होना है तब हो जाए। लेकिन हम तभी व्हिप जारी करेंगे जब इसमें पसमांदा मुस्लिम महिलाओं की बात कही जाएगी। शरद जी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, लेकिन हमने उनका कहा नहीं माना। खैर शरद यादव के जैसे ही नीतीश जी भी इस पक्ष में नहीं थे। उन्हें कोटा इन कोटा से कोई लेना-देना नहीं था। वे तो चाहते थे कि 33 प्रतिशत आरक्षण एक साथ सब महिलाओं के लिए हों।

नीतीश जी को ‘कोटा इन कोटा’ से कोई मतलब नहीं था?

‘कोटा इन कोटा’ की बात ही नहीं थी, बल्कि वह अंदर से शरद यादव जी से नाराज थे कि विधेयक का विरोध नहीं होना चाहिए।

इन दिनों देखा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों की बिहार दौरा करने की गति बढ़ गई है। राहुल सामाजिक न्याय के सवाल को उठा रहे हैं और ऐसा लगता है कि मोदी के लिए ये सवाल मायने ही नहीं रखते। बिहार में होनेवाले चुनाव के आलोक में सामाजिक न्याय बनाम मोदी का राष्ट्रवाद, जिसमें ऑपरेशन सिंदूर भी शामिल है, के नॅरेटिव को किस रूप में देखा जाए?

आप तो देखिए कि मोदी जी यहां आते हैं तब वह क्या बोलते हैं। सामाजिक न्याय की बात तो कोई बोलते नहीं हैं। उनको तो ले-देकर एक ही बात कहनी है। मतलब फिर से बैतलवा डाल पर। घूम फिर करके चले जाते हैं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर। हिंदू-मुसलमान के मुद्दे पर चले जाते हैं। सामाजिक न्याय उनका एजेंडा या कहिए कि उनका क्षेत्र ही नहीं रहा है। वह जानते हैं कि यदि सामाजिक न्याय का सवाल उठाएंगे तो पिट जाएंगे। वे तो दबाव में बोल देते हैं। जैसे दबाव में नीतीश जी ने बोल दिया और पिछड़ों के आरक्षण को नौवीं अनुसूची में शामिल करने की बात कह दी। दबाव हुआ एक बार बोल दिया। हो गया, काम खतम। रिकार्ड में हो गया कि हम भी इस पक्ष में हैं। लेकिन आप जोर नहीं देते हैं। उसी तरह से कह दिया कि हम जातिगत जनगणना कराएंगे। लेकिन इसको तब तक टालते जाएंगे जब तक टाला जा सकेगा। उनको कोई न कोई बहाना मिलता जाएगा। बहाना खोजने वालों को बहाना मिल भी जाता है।

चूंकि आपने कांग्रेस की सदस्यता ली है। और आप पसमांदा समाज का सवाल भी लगातार उठाते रहे हैं। क्या आप इस बार इंडिया गठबंधन में कोई उम्मीद देख रहे हैं कि पसमांदा समाज को उसका वाजिब प्रतिनिधित्व मिलेगा?

देखिए, उम्मीद पर दुनिया कायम है। राहुल जी जब यह बोलते हैं कि दलित-पिछड़ो को उनकी आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और हम देंगे, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि देंगे। और हम आवाज उठाते रहे हैं। हालांकि मैं कांग्रेस में कोई पदाधिकारी नहीं हूं। न किसी पॉलिसी डिसीजन मेकिंग में और न ही किसी कमिटी में हूं। एक मेनिफेस्टो कमिटी में हूं। तो जो बातें हमको रखनी हैं, उसमें हमने रखा है। अब देखना है कि इंडिया गठबंधन में शामिल सभी मिलकर जो मेनिफेस्टो बनाते हैं तो अंतिम में क्या निकलकर आता है। वह तो जब छप कर आएगा तो पता चलेगा। लेकिन हम अपनी बात कह रहे हैं, पसमांदा मुसलमानों की बात कर रहे हैं। राहुल गांधी जी ने एक घंटा 5 मिनट तक दिल्ली में दो महीना पहले हम लोगों की बात सुनी उन्होंने और अपनी भी बात कही। और हम लोगों ने बताया, और जोर देकर कहा। और आप इतना ही समझ लीजिए कि हम लोगों को आधा घंटा का समय मिला था और हम लोगों ने राहुल जी का एक घंटा 5 मिनट उनका समय लिया। और बगल में दक्षिण अफ्रिका का प्रतिनिधिमंडल बैठा हुआ था उनसे मिलने के लिए। उन्हें लेट हो रहा था। तब भी हम लोगों ने जोर देकर अपनी बात की। हमलोग सोलह आदमी थे। पूरे देश के पसमांदा महाज के हमारे नेता वहां थे। हम लोगों ने पूरी मजबूती से अपनी बात करी। 

मैंने तो कांग्रेस की सदस्यता मात्र ली है। राहुल गांधी जी जोर देकर सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं, दलित-पिछड़े की बात कर रहे हैं तो इससे हमको लगा कि इनमें ईमानदारी लगती है। देखना है कि यह किस हद तक इंप्लीमेंट होता है।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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