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फिल्म ‘फुले’ : बड़े परदे पर क्रांति का दस्तावेज

यह फिल्म डेढ़ सौ साल पहले जाति प्रथा और सदियों पुरानी कुरीतियों और जड़ रूढ़ियों के खिलाफ, समता की आवाज बुलंद करनेवाले दो अनूठे क्रांतिकारी समाज सुधारकों की बायोपिक ही नहीं, सामाजिक उत्तरदायित्व से लैस एक क्रांतिकारी दंपत्ति की एक बेहद मार्मिक और अद्भुत प्रेमकथा भी है। बता रही हैं सुधा अरोड़ा

“हमारा देश एक भावुक देश है, जहां धर्म और जाति के नाम पर लोगों को लड़ाना बड़ा ही सरल है।”

“मनुष्य के उत्पीड़न को समाप्त करने में हम तभी सफल होंगे जब पुरुष प्रधान समाज स्त्रियों की उन्नत्ति के लिए काम करेगा। हम तभी सफल होंगे जब पानी पर हर एक मनुष्य का एक समान अधिकार होगा, क्योंकि पानी वह तत्व है जो सृष्टि से हमें भेंट में मिला है …”

“अग्रेजों की गुलामी तो सिर्फ सौ साल पुरानी है … मैं जिस गुलामी से लोगों को स्वतंत्र करना चाहता हूं, वह तीन हजार साल पुरानी है …”

“हमारी पाली हुई गाय के मूत्र से अपना घर साफ करेंगे और हमारी परछाई से डरते हैं … ये ऊंचे लोग जो काम खुद नहीं कर सकते, हमसे करवाना चाहते हैं”

“यह सब शास्त्रों में लिखा है … यह सब शास्त्रों में नहीं, शास्त्रों को पढ़ाने वालों ने लिखा है। शास्त्रों में लिखा है जो ज्ञान अर्जित करेगा, वह ब्राह्मण कहलाएगा। मैंने तो ज्ञान अर्जित किया ना बाबा! क्या मैं ब्राह्मण कहला पाया? तूने बहुत गलत ज्ञान अर्जित कर लिया है बेटा … मैंने वह ज्ञान अर्जित किया है, जो हमसे छिपाया गया है …”

“आज से 70 साल पहले के फ्रांस का समाज भी भारतीय समाज जैसा था … जैसे हमारे यहां पुरोहित और जमींदार … वैसे ही वहां पादरी और कुलीन वर्ग और फिर समाज का सबसे नीचा दबा हुआ वर्ग जैसे हम शूद्र … तब फ्रांस में क्रांति हुई – फ्रेंच रिवोल्यूशन! समाज के उत्पीड़ित निचले वर्ग ने एकजुट होकर वहां की राजशाही सत्ता को उखाड़ फेंका …”

“फेंकने दो उन्हें गोबर। देखते है कौन पहले थकता है, वो या हम?”

किसी फिल्म में जब हर दो-चार मिनट पर ऐसे तीखे और तुर्श संवाद सुनाई दे, जो वैसे तो डेढ़ सौ साल पहले के इतिहास का बयान कर रहे हैं, लेकिन उन सवादों की गूंज, आज की निरंकुश सत्ता, कट्टरपंथियों की मानसिकता और समाज की सड़ी-गली रूढ़ियों पर इतनी शिद्दत से लगातार चोट करती नजर आए, तो सत्ता का असहज हो जाना, बहुत स्वाभाविक है। यह फिल्म है अनंत महादेवन द्वारा निर्देशित ‘फुले’, जिसमें करीब डेढ़ सौ साल पहले की सामाजिक व्यवस्था, जाति प्रथा की दुर्दशा और नारकीय यातना के बीच सामाजिक रूढ़ियों से लड़ने वाले और स्त्री शिक्षा के लिए क्रांति की अलख जगाने वाले दंपत्ति जोतिबा और सावित्रीबाई फुले के संघर्ष को बहुत रोचक अंदाज़ में परदे पर उतारा गया है।

यह एक विडंबना है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे देने वाली सरकार ने बेटियों को स्कूल भेजने की शुरुआत करने वाले शिक्षक दंपत्ति के संघर्ष को बड़े परदे पर रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करने वाली इस फिल्म को अब तक ‘टैक्स-फ्री’ नहीं किया है।

फिल्म के उपरोक्त संवादों से गुजरते हुए यह समझ पाना कतई मुश्किल नहीं है कि कुछ संगठनों के विरोध पर अचानक सेंसर बोर्ड क्यों फिल्म में काट-छांट करवाने पर उतारू हो गया और 11 अप्रैल को जोतिबा की जयंती के अवसर पर इसकी रिलीज को स्थगित कर क्यों इसे 25 अप्रैल को रिलीज किया गया। हालांकि कुछ शब्दों और कुछ दृश्यों की काट-छांट के बावजूद फिल्म पूरे दम-खम के साथ अपनी बात कहने पर डटी रहती है। पूरी फिल्म पर तो कैंची चलाई नहीं जा सकती थी। इसके बावजूद फिल्म अपना प्रभाव छोड़ने में पूरी तरह सफल है।

जिस देश में सारी कवायदें आज समाज को फिर से कई सौ साल पीछे धकेलने की है, जहां हर रोज धर्म के नाम पर नफरत भड़काई जा रही है। जहां आज भी मां-बहन के नाम पर गालियां दी जाती हैं, जहां बलात्कारियों को रिहा कर फूल-मालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया जाता है, जहां दलित बच्चे के मटका छू लेने पर उसकी हत्या कर दी जाती है, उस देश के ऐसे माहौल में जहां ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘केरला स्टोरी’ जैसी प्रोपेगेंडा फिल्मों को विभाजनकारी शक्तियां नफरत फैलाने और हिंसा भड़काने के औजार की तरह इस्तेमाल करती हों, एक फिल्म का बगैर किसी व्यावसायिक समझौते के पूरी सच्चाई के साथ आना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है।

काश कि फिल्म की तारीफ करते हुए हम कह पाते कि यह फिल्म इतिहास है, हमारा यथार्थ नहीं … कि डेढ़ सौ साल पहले हमारे देश में ये हालात थे और आज समय कितना बदल गया है। अफसोस कि समय बदला नहीं है, और जो इसे बदलने देना नहीं चाहते, उन्होंने ही इस फिल्म का पुरज़ोर विरोध किया है।

किसी आइकॉन पर बायोपिक बनाना आसान नहीं होता। चाहे वह एटनबरो की ‘गांधी’ हो या जब्बार पटेल की ‘बाबासाहेब आंबेडकर’। कोई ताज्जुब नहीं कि महात्मा गांधी पर एक विदेशी फिल्म निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने बरसों बाद महात्मा गांधी जैसी नायाब शख्सियत पर फिल्म बनाने का बीड़ा उठाया और पूरे विश्व में उनके द्वारा बनाई गई ‘गांधी’ फिल्म की सराहना हुई।

बरसों पहले 1954 में लेखक कवि, शिक्षाविद और संपादक प्रहलाद केशव अत्रे, जिन्हें आचार्य अत्रे कहा जाता था, ने फुले दंपत्ति पर मराठी भाषा में, एक अभूतपूर्व फिल्म का निर्माण किया। लेकिन इसके बावजूद हिंदी भाषी आम जनता के बीच इस फिल्म का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया और बरसों तक हिंदी भाषी जनता इस शख्सियत से वाकिफ ही नहीं हो पाई। इसके बाद ‘भारत एक खोज’ धारावाहिक के 45वें एपिसोड में श्याम बेनेगल ने एक घंटे का वृत्तचित्र जोतिबा फुले पर तैयार किया। लेकिन सावित्रीबाई का महत्वपूर्ण पक्ष वहां भी उभर कर सामने नहीं आ पाया। इस बीच मराठी भाषा में फुले दंपत्ति पर कई महत्वपूर्ण नाटक खेले गए। मसलन, गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे द्वारा लिखित और अतुल पेठे द्वारा निर्देशित नाटक ‘सत्यशोधक’ और सुषमा देशपांडे का ‘हां, मैं सावित्रीबाई’, जिसे हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में खेला गया।

मैंने ऐसी कई अद्‌भुत प्रस्तुतियां देखीं – सोलापुर में और फिर पुणे, कर्जत और मुंबई में। लेकिन यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि फुले दंपत्ति को घर-घर और आम जन तक पहुंचाने का श्रेय अनंत महादेवन की फिल्म ‘फुले’ को जाता है, जिसमें सावित्रीबाई को भी उतना ही महत्व दिया गया है जितना जोतिबा फुले को।

यह फिल्म डेढ़ सौ साल पहले जाति प्रथा और सदियों पुरानी कुरीतियों और जड़ रूढ़ियों के खिलाफ, और समता की आवाज बुलंद करनेवाले दो अनूठे क्रांतिकारी समाज सुधारकों की बायोपिक ही नहीं, सामाजिक उत्तरदायित्व से लैस एक क्रांतिकारी दंपत्ति की एक बेहद मार्मिक और अद्भुत प्रेमकथा भी है। फिल्म में जब-जब जोतिबा और सावित्रीबाई एक साथ फ्रेम में आते हैं, उनका एक-दूसरे को देखने और सराहने का अंदाज दर्शकों के मन में नमी पैदा करता है। आमजन को प्रतिरोध और प्रेम का संदेश एक साथ दे पाना किसी फिल्म के मुकम्मल और कारगर होने का सबसे बड़ा पैमाना है।

फिल्म फुले दो बार देख चुकी हूं। पहली बार में फिल्म ने इस तरह अपना हिस्सा बना लिया कि कई दृश्यों पर आंखें भर आने से फिल्म को एक समीक्षक की तरह देख ही नहीं पाई। पूरी फिल्म के दौरान न तालियां, न कोई सुगबुगाहट। दर्शक वर्ग पूरी तल्लीनता से फिल्म में डूबा हुआ था। उसी हॉल में फिल्म को दूसरी बार देखना एक अलग किस्म के दर्शकों से रू-ब-रू होना था जो इस बार शायद मेरी ही तरह, अपने मित्रों और परिवार को साथ लेकर, दोबारा फिल्म देखने आए थे। जिस तरह पहले दृश्य से ही वे बेसब्री से अपने प्रिय संवाद के लिए तालियों के साथ इंतजार कर रहे थे, उनकी उतावली समझ में आ रही थी। इस बार बच्चे भी साथ थे, जो अपने मासूम टिप्पणियों के साथ दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर रहे थे। जैसे मध्यांतर होते ही एक बच्चे की आवाज गूंजी– ये सब उस पर गंदा क्यों फेंक रहे हैं? … या एक दृश्य में शंभू … शंभू … के बाद एक बच्चे ने दर्शकों में पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए कहा– ये शंभू कौन है?

साहित्य और सिनेमा का सबसे बड़ा फर्क यही है कि सिनेमा जिस विशाल दर्शक वर्ग तक अपनी पैठ बना सकता है, साहित्य नहीं। साहित्य की पहुंच पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग के एक छोटे से हिस्से तक होती है, वहां सिनेमा आम जनों के बीच अपनी पहुंच आसानी से बना लेता है। कागज पर रचे शब्दों की बहुत कीमत थी उस कालखंड में। जब सावित्रीबाई अपने पति जोतिबा से कहती हैं कि आपने बहुत काम किया, पर इसे लिखोगे तो यह हमेशा रहेगा और जोतिबा पुस्तक लिखते हैं– ‘गुलामगिरी’! … पर शायद बहुत गिने-चुने लोगों ने ही यह किताब पढ़ी होगी, जबकि फ़िल्म साहित्य की इस सीमा को तोड़ लाखों लोगों तक अपनी बात पहुंचाती है।

फिल्म ‘फुले’ 1897 के प्लेग महामारी के कालखंड से शुरू होती है, जहां जोतिबा फुले की मृत्यु के बाद सावित्रीबाई अपने मिशन पर जुटी रहती हैं। अपनी जान को जोखिम में डालकर भी वह प्लेग संक्रमित बच्चे को राहत कैंप में पहुंचाती हैं और रोग से संक्रमित होकर एक माह के अंदर उनकी मृत्यु हो जाती है। यह एक कल्पना नहीं, तथ्य है, जिसका उल्लेख हर दस्तावेज में मिलता है। फिल्म की पूरी कथा इस दृश्य से शुरू होकर सावित्रीबाई के नजरिए से फ्लैशबैक में कही गई है।

प्लेग महामारी के दारुण दृश्य के बाद फिल्म की शुरुआत में पूरे स्क्रीन पर दूर-दूर तक फैले गेंदे के फूलों का बगीचा मोहब्बत का पैगाम देता स्क्रीन पर छा जाता है। गेंदे के फूलों को बैलगाड़ी में रखी बड़ी-बड़ी टोकरियों में भरते जोतिबा के बड़े भाई दिखाई देते हैं। पत्नी सावित्री के लिए अपने हाथों से फूलों की वेणी गूंथते हुए जोतिबा, बच्चियों के लिए खड़िया पाटी सहेजती सावित्री के बालों में वेणी लगाते हैं। इस दृश्य में जिस सहयोग और साथ की झांकी मिलती है, वह फिल्म के इस शुरुआती फ्रेम से लेकर, आखिरी फ्रेम तक बरकरार रहती है।

जैसा प्रेम दोनों दृढ़ संकल्पित क्रांतिकारी दंपत्ति की आंखों में दिखता है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ‘फुले’ फिल्म क्रांति के साथ प्रेम के बेमिसाल संग-साथ की अनमोल गाथा भी बन गई है, जिसे, अपने सारे पूर्वाग्रहों और सिनेमा के मानक मापदंड को एक तरफ रख, अपनी तरह की अनूठी एक अप्रतिम प्रेमकथा की तरह भी देखा जा सकता है।

अगले ही दृश्य में स्कूल में सिर्फ पांच ही लड़किया हैं और एक बच्ची को उसका पिता कचरे की पेटी में छुपा कर पाठशाला लेकर आता है। इस दृश्य को देख कर फिल्म पर सरलीकरण का आरोप भी लगाया जा सकता है। लड़कियों की जिस शाला की शुरुआत करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा, उसे इतनी आसानी से स्थापित हुआ दिखाना और अंग्रेजी, संस्कृत और मराठी भाषा की कक्षाएं चलते हुए दिखाना, इतिहास जानने वालों के गले नहीं उतरता।

फुले दंपत्ति ने जिस कालखंड में जन्म लिया था, उस समय का समाज कैसा था, सच्चाई क्या थी, यह इतिहास के सभी छात्र जानते हैं।

मसलन, महाराष्ट्र में पेशवाओं का राज हाल ही खत्म हुआ था, लेकिन ब्राह्मण समाज में धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास कायम था। जाति-प्रथा और जाति-विद्वेष अपने चरम पर था। चमार, मांग, वाल्मीकि, महार जैसी अछूत मानी जाने वाली जातियों की दुर्दशा का आलम यह था कि इन जातियों के लोगों को कमर के पीछे झाड़ू या कंटीली झाड़ी बांधकर चलना पड़ता था, जिससे रेत या सड़क पर बने उनके पांव के निशान मिटते चले जाएं और किसी ब्राह्मण का पांव उनपर न पड़े। उन्हें अपने गले में हांडी या मटकी लटकाकर चलना पड़ता था ताकि वह उसमें ही थूकें, सड़क पर नहीं, जिससे ब्राह्मणों के अपवित्र होने का खतरा न रहे। वे लोग सिर्फ तपती दोपहरी में घर से बाहर निकल सकते थे, क्योंकि सुबह-शाम उनकी परछाई किसी ब्राह्मण को अपवित्र कर सकती थी। किसी जरूरी काम से अगर सुबह बाहर निकलना ही पड़ता तो वे एक हाथ में थाली, दूसरे हाथ से पत्थर या लकड़ी से टन-टन बजाते हुए अपने आने की सूचना देते हुए चलते। अछूत मानी जाने वाली जातियों के वजूद को किस तरह रौंदा जाता था, इसका आज सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।

दरअसल जातिप्रथा के दंश, छुआ-छूत के भेदभाव और इतिहास के इस कालखंड की सच्चाई को एकसाथ शुरुआत में ही न दिखाकर फिल्म में बड़ी खूबसूरती से एक-दो मिनट के अलग-अलग दृश्यों में समेटा गया है, जिसने इस फिल्म को वृत्त चित्र होने की एकरसता से बचा लिया है।

‘फुले’ फिल्म के एक दृश्य में स्कूल खोलने के संबंध में उस्मान शेख, फातिमा शेख, ब्राह्मण मित्रों व ग्रामीणों के साथ चर्चा करते जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले

फिल्म में इस दृश्य और संवाद पर सेंसर बोर्ड के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप सिर्फ एक ही दृश्य दिखाया गया है, जिसमें एक अछूत, सड़क पर कमर में झाड़ू और गले में अपना मिट्टी का बर्तन लेकर चलता है क्योंकि जमीन पर थूकना वर्जित था।

अछूत वर्ग की परछाई से परहेज करने वाला दृश्य बहुत खूबसूरत तरीके से कुछ आगे चलकर फिल्माया गया है। इस दृश्य के संवाद बहुत पैने और तुर्श हैं–

“एक घंटे तक तो मेरी परछाई नहीं हिलने वाली। मैं भी कहीं नहीं जा रहा।”

“आस्था का विषय है धर्म, तर्क वितर्क का नहीं …”

“जो विषय तर्क नहीं झेल सकता, पाखंड कहलाता है।”

फिल्म में कई मार्मिक दृश्य बार-बार हमें बांधते हैं। उदाहरण के लिए यह कि स्कूल में शुरू में सिर्फ पांच लड़कियां पढ़ने के लिए आती हैं। एक कचरा ढोने वाली गाड़ी में एक बच्ची को छिपाकर स्कूल में पढ़ने के लिए लाया जा रहा है। वजह यह कि लोग बेटियों को पढ़ने के लिए भेजते ही नहीं थे। यह डेढ़ सौ साल पहले की बात है। लेकिन मैं अपने अनुभव से बीस साल पहले की बात करूं कि मुंबई के पवई इलाके में मेरी मित्र चैताली गुप्ता और आईआईटी में प्रोफेसर उनके पति अमिताभ गुप्ता ने एक एनजीओ – प्रज्ञालय – की शुरुआत की, जहां स्कूली छात्राओं को मुफ्त कोचिंग दी जानी थी। इस कोचिंग सेंटर की शुरुआत सिर्फ़ छह छात्राओं से हुई थी। झुग्गियों में जा जाकर लड़कियों के माता-पिता से बीस साल पहले भी मिन्नतें करनी पड़ती थीं कि उन्हें दो घंटे के लिए ट्यूशन के लिए भेजें। अब बेशक वहां तीन सौ से ज्यादा छात्र हैं। लड़कियों को आज भी गरीब तबका म्यूनिसिपैलिटी के स्कूल पढ़ने भेज देता है, लेकिन स्कूल के बाद लड़कियां घर के कामों में मां की मदद करती हैं।

डेढ़ सौ साल पहले लड़कियों को स्कूल इसलिए नहीं भेजा जाता था क्योंकि पुरुष अध्यापक लड़कियों को शिक्षा देंगे। इसलिए पथरीली दीवार पर जब खड़िया से लिख दिया जाता है कि “महिला अध्यापिका से शिक्षण लीजिए” तो एक मां अपनी बेटी से पूछती है– तू शाला जाणार …? (तुम पाठशाला जाओगी?) बच्ची सिर हिला कर हामी भरती है और हाथ बढ़ाकर खड़िया से किए महिला अध्यापिका के अंकन को बहुत नरमी से छूती है जैसे वह शिक्षिका सावित्रीबाई पर अपना लाड़ उड़ेल रही है। संघर्ष को, भीषण और आक्रामक न कर, मुलायम कर दिया गया है, जिसने सिनेमाई खूबसूरती में इज़ाफ़ा किया है। चाहे वह हर रोज नदी पार करने के लिए पत्थरों पर आहिस्ता-आहिस्ता पांव रखकर जोतिबा और उस्मान शेख का पाठशाला पढ़ाने के लिए जाना हो या फिर सावित्रीबाई का शुरुआती संवाद हो कि “फलाने पीर संत की दरगाह पर चलें तो संतान प्राप्ति हो जाए।” उस पर भी जोतिबा का बिना आक्रामक हुए कहना कि “क्यों वह मांगना चाहती हो जो वह देना नहीं चाहता … हो सकता है, हमारे लिए कुछ इससे भी अच्छा उसने सोच रखा हो …”

पूरी फिल्म लड़कियों की शिक्षा के अलावा जाति दंश और स्त्रियों के दोयम दर्जे पर बिना आक्रामक हुए गहरी चोट करती है – चाहे वह विधवा विवाह हो, विवाह का मंगलाष्टक हो या अवैध नाजायज बच्चों की परवरिश की समस्या। वह एक जटिल समय था। सन् 1818 में दलित विरोधी ब्राह्मणों के समर्थक पेशवा राज का अंत हुआ और अंग्रेजी हुकूमत कायम हो गई। ब्रिटिश शासन के समय भी जाति-प्रथा की पहले से चली आ रही कुरीतियां बदस्तूर जारी थीं। वह समय शूद्र, अतिशूद्रो (दलितों) और स्त्रियों के लिए नैराश्य और अंधकार का था। स्त्री-शिक्षा का प्रचलन नहीं था। विधवा होने पर स्त्री का मुंडन कर दिया जाता और उसके खान-पान, पहनावे और घर से बाहर निकलने पर अंकुश लगा दिए जाते। स्त्रियों को लेकर तरह-तरह की जकड़बंदियां थीं और अंधविश्वासों से समाज अटा हुआ था। सती प्रथा और बाल विधवा के स्त्रीविरोधी समय में यह निश्चित था कि लड़कियों को शिक्षा की जरूरत नहीं है और शिक्षित स्त्री के हाथ का बनाया खाना खाने से पति की मृत्यु हो सकती है। ऐसे अंधविश्वासों वाले समय में सावित्रीबाई ने परंपरागत कूपमंडूक स्त्री के सामने एक शिक्षित बदली हुई स्त्री को ला खड़ा करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी।

उस कठिन दौर की तथ्यात्मकता को बरक़रार रखते हुए बेहद रोचक अंदाज़ में कुछ गंभीर बातों की कड़वी घुट्टी भी दर्शकों के गले उतार दी जाती है। फ्रांसीसी क्रांति पर आधारित थॉमस पेन की किताब ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ का ब्यौरा हो या अब्राहम लिंकन के पिता का जूते बनाने का ज़िक्र – फिल्म के आम दर्शक की ग्राह्य शक्ति को समझते हुए इन गंभीर वक्तव्यों को भी फिल्म में बड़ी सरलता से पिरो दिया गया है – “उस वक्त इंग्लैंड में थॉमस पेन ने फ्रेंच रिवोल्यूशन के समर्थन में यह किताब लिखी – ‘राइट्स ऑफ़ मैन’। यह किताब बताती है कि मनुष्य के कुछ जन्मसिद्ध अधिकार है जिसकी स्वीकृति के लिए किसी भी राजकीय आदेश की आवश्यकता नहीं। समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और वे सारे अधिकार जो समाज के निचले दबे हुए वर्ग से छीन लिए गए हैं …”

फिल्म के कई दृश्यों में संवाद लेखक और निर्देशक चोट करने से चूकते नहीं।

“हिंदू धर्म में स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती कहा जाता है। ज्ञान अर्जित करने का अधिकार सिर्फ पुरुषों का होता तो भगवान, सरस्वती मां को, ज्ञान की देवी नहीं बनाते …।”

सावित्रीबाई के इस संवाद को जारी रखते हुए अगले दृश्य में फातिमा कहती है– “सिर्फ हिंदू धर्म में नहीं, हमारे मजहब के ठेकेदारों ने भी औरतों को गुलाम बनाए रखने के कानून बनाए है। … एक शादीशुदा औरत के फर्ज क्या होते हैं? शौहर की खिदमत करना, उसके लिए खाना बनाना, कपड़े धोना, झाड़ू-पोंछा बर्तन करना, घर का ख्याल रखना, बच्चों की परवरिश करना, सास ससुर की खिदमत करना और क्या?”

“हमारी औरतों और बच्चियों को अपनी तरह बेहया बनाना चाहती हो?”

“इमाम साहब, तालीम हासिल करना बेहयाई है?” आक्रामक हुए बिना इमाम पर कोई जवाबी हमला न करते हुए फातिमा उस दृश्य से बाहर हो जाती है। लड़कियों और उनकी अम्मियों के सामने जो कुछ उसे कहना था, वह कह चुकी है। दृश्य को अनावश्यक रूप से और आगे नहीं खींचना अंडर-प्ले करना ही इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है।

जैसे कि “स्त्री का धर्म होता है वंश को आगे बढ़ाना … वह तो हो पाया नहीं इनसे” – जोतिबा के पिता का यह एक वाक्य पर्याप्त है डेढ़ सौ साल पहले के समाज की मानसिकता समझाने के लिए। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज भी हिंदू सनातनी इसी अवधारणा के तहत वक्तव्य देते हैं कि स्त्री की परिधि चहारदीवारी के भीतर रहकर अपनी संतान को अच्छे संस्कार देना है। बाकी बाहर की पूरी स्पेस की कमान तो पुरुष संभाल ही रहा है। इस तरह बार-बार इस फिल्म के संवाद आज के माहौल पर भी करारा प्रहार करते हैं।

भ्रांतियों का खंडन

फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है– पुरानी भ्रांतियों का खंडन। कई दशकों तक भारत के समाज-सुधारकों के बीच जोतिबा फुले का नाम नहीं लिया गया। यह आरोप भी उन पर खूब लगाया गया कि जोतिबा फुले अंग्रेजों के दलाल थे और ब्रिटिश हुकूमत के सहयोग से ही उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में इतना काम किया। इसलिए उनका नाम महाराष्ट्र से इतर प्रदेशों में सुना नहीं गया। फिल्म कई दृश्यों में अपने संवादों से इस आरोप का बहुत सहजता से खंडन करती है। ब्राह्मण वर्ग, जोतिबा के कामों का श्रेय, तीखे व्यंग्य के साथ, ब्रिटिश सरकार को देता है। जैसे कि “जोतिबा तो सिर्फ दीया जला रहा है, उसमें तेल तो अंग्रेजी सरकार भर रही है …।” इसके अलावा कई दृश्यों में इसके स्पष्टीकरण में जोतिबा की दूरदर्शिता उजागर करने वाले संवाद हैं, जो दशकों से चले आते आरोपों का सटीक जवाब देते हैं।

“यह सच है कि अंग्रेज हम पर हुकूमत कर रहे हैं। पर यह भी सच है कि धीरे-धीरे वह हमारे समाज की कुरीतियों को समाप्त कर रहे हैं। जिस शिक्षा पर सिर्फ ऊंची जाति के लोग का अधिकार था, अब उसी शिक्षा पर हर जाति के स्त्री और पुरुष दोनों का अधिकार है।”

“आपको लगता है शस्त्र और बल के आधार पर हम अंग्रेजो से जीत सकते हैं ? पूरा देश महासंग्राम की तैयारी कर रहा है। यह महासंग्राम तभी संभव है जब देश का निचला और मध्यम वर्ग उसके साथ जुड़ेगा।”

फिल्म एक सर्वसमावेशी धारणा को भी उभारती है। पूरा का पूरा ब्राह्मण समाज कूपमंडूक और रूढ़िवादी नहीं है। इसी समाज से प्रगतिकामी सोच वाले अनेक चिंतक, विश्लेषक और समाज सुधारक हुए हैं। इनमें सभी ईसाई धर्मांतरण के नजरिए से काम नहीं करते। इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत का एक रूढ़ि ग्रस्त समाज से भेदभाव को मिटाने के लिए एक वर्ग का साथ देना और एक मिशनरी के भाव से काम करना भी दर्ज है। जोतिबा बार-बार यह कहते हैं कि “मैं जानता हूं ब्रिटिश सरकार का पहला सरोकार अपना लाभ देखना है, वे हमारा उत्थान करने के लिए नहीं आए है।”

जहां तक अभिनय का सवाल है, फुले फिल्म के दोनों मुख्य चरित्र प्रतीक गांधी और पत्रलेखा अपनी-अपनी भूमिका में बेहद विश्वसनीय हैं। इन्हीं भूमिकाओं को निभाने वाले पहले के किरदारों को भी देखें। दूरदर्शन के लिए बनाया गया धारावाहिक – भारत एक खोज – एक बेहद सार्थक और प्रामाणिक दस्तावेज था। इसका 45वां एपिसोड जोतिबा फुले के संघर्ष पर केंद्रित था। उसमें महात्मा फुले के चरित्र को निभाया था मराठी भाषा के बड़े कलाकार सदाशिव अमरापुरकर ने, जिनसे हिंदी फिल्मों के दर्शक भी बख़ूबी परिचित हैं। जोतिबा फुले के जीवन और संघर्ष पर मराठी भाषा में कई नाटक भी खेले गए। लगभग 15 साल पहले मैंने गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे द्वारा लिखित व अतुल पेठे द्वारा निर्देशित नाटक ‘सत्यशोधक’ देखा था, जिसमें जोतिबा फुले की भूमिका में ओंकार गोवर्धन और सावित्रीबाई की भूमिका में अतुल पेठे की बेटी पर्ण पेठे ने फुले दंपत्ति को जीवंत कर दिया था। मैं उस चरित्र के अभिनेता ओंकार गोवर्द्धन से इतनी प्रभावित थी कि मुझे लगा था कि जोतिबा फुले पर इससे बेहतर प्रस्तुति नहीं हो सकती। पर ‘फुले’ फिल्म के प्रतीक गांधी ने इन दोनों कलाकारों को पीछे छोड़ दिया है। ‘भारत एक खोज’ धारावाहिक में अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर के चेहरे पर एक स्थाई आक्रोश का भाव था, ओंकार गोवर्द्धन भी कुछ लाउड थे, जो उस वक्त मुझे लगा था कि जोतिबा फुले को बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए, लेकिन प्रतीक गांधी ने पहले के हर अभिनेता के आगे एक लम्बी लकीर खींच दी  है। उनका बहुत दृढ़ संकल्प वाला, संयत चेहरा फुले के व्यक्तित्व को आत्मसात कर उनके साथ एकाकार हो जाता है। पूरी फिल्म में उन्होंने संवादों को अंडरप्ले किया है। पत्रलेखा भी सावित्रीबाई की भूमिका में एक बहुत कोमल पर दृढ़, अडिग, मजबूत और निश्चयात्मक व्यक्तित्व की अनूठी छाप छोड़ जाती हैं। उनके अभिजात्य उच्चारण को अगर थोड़ा-सा नज़रअंदाज़ कर सकें तो दोनों अपने चरित्र को बहुत प्रामाणिकता और ईमानदारी से निभा ले गए हैं। पिता गोविंदराव फुले, उस्मान शेख और उनकी बहन फातिमा के किरदारों को सभी अभिनेताओं ने जीवंत कर दिया है। फिल्म में टुकड़ों-टुकड़ों में सहज मराठी संवाद “येतो … म्हाला पण शिकवा आहे”, “नंतर बोलू नका कि शेठजी ने त्रास दिला …” फिल्म को विश्वसनीयता दिलाते हैं।

कुल मिलाकर यह फिल्म कई श्रेणियों में राष्ट्रीय पुरस्कार की हकदार है, निर्देशन, अभिनय पटकथा संवाद और संगीत के लिए।

कुछ आपत्तियां … ताकि सनद रहे …

इस सबके साथ फिल्म को लेकर प्रबुद्ध मित्रों की कुछ आपत्तियों पर चर्चा करना भी ज़रूरी हो जाता है।

रिलीज़ होने के बाद इस फिल्म को दोतरफा मार झेलनी पड़ी। पहली यह कि ‘ट्रेलर’ आते ही पुणे के कुछ ब्राह्मणवादी संगठन सकिय हो गए कि इसमें ब्रा‌ह्मणों को आततायियों की तरह दिखाया गया है, जिसके कारण सेंसर बोर्ड भी सक्रिय हो गया और कुछेक दृश्य काटने पड़े। दूसरी ओर फिल्म के रिलीज होने के बाद दलित प्रबुद्ध चिंतक नाराज हो गए कि निर्देशक खुद ब्राह्मण है, इसलिए उसने महात्मा जोतिबा फुले के साथियों और ब्राह्मणों को उनके सहायकों और सहयोगियों की तरह दिखाकर उनकी क्रूरताओं और वर्चस्व को विस्तार नहीं दिया और इस तरह, सच्चाई न दिखाकर उनके आततायी स्वरूप को धुंधला कर दिया।

अगर प्रबुद्ध और समझदार वर्ग भी इस फिल्म की आलोचना करता है और इसके पक्ष में कुछ पंक्तियां लिखना गवारा नहीं करता तो हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर यह फिल्म किसके लिए बनाई गई है। सिर्फ प्रबुद्ध वर्ग के लिए तो नहीं ही। फिल्म का टारगेट कौन-सी ऑडियंस है? वह जो फुले दंपत्ति के संघर्ष से अच्छी तरह परिचित हैं, या वे आमजन समाज भी जिनका सामाजिक सरोकारों से थोड़ा कम वास्ता रहता है, जो सिर्फ इतिहास और साहित्य में पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने वाली चीजों से ही बावस्ता रहे हैं। निश्चित रूप से किसी भी फिल्म चाहे वह कितनी भी कला फिल्म हो या पूरी तरह से किसी मुद्दे पर केंद्रित, एक फिल्मकार यही चाहता है कि उसका दर्शक वर्ग विराट हो, विशाल हो। उसकी फिल्म की पहुंच ज्यादा से ज्यादा आम जनों तक हो।

कुछ मित्रों को लगा कि इस फिल्म में सामाजिक सरोकार कम और व्यावसायिक गुणा-भाग ज़्यादा है। उन्हें मालूम था कि आज के समय में फुले दंपत्ति पर बनाई गई फिल्म अच्छा व्यवसाय करेगी और इसलिए उन्होंने यह विषय चुना। लेकिन अगर ऐसा था तो अब तक महात्मा फुले पर कई फिल्में क्यों नहीं बनीं?

दरअसल, आज के समय में इस तरह की फिल्म के बारे में सोचना ही एक जोखिम भरा कदम था। किसी भी फिल्म के निर्माण में जब करोड़ों रुपयों की लागत हो, हजारों काम करनेवालों की बरसों की मेहनत हो तो फिल्म कितनी ही कला प्रधान या विषय प्रधान हो, उसके व्यावसायिक पक्ष के बारे में सचेत और जागरूक होना कोई अपराध नहीं है। फिल्म सेंसर बोर्ड के चंगुल में फंसी रहकर डब्बे में बंद न हो जाए, इसके लिए निर्माता और निर्देशक अगर कुछ व्यावसायिक समझौते करता भी है तो इससे परहेज़ नहीं होना चाहिए। अनुराग कश्यप या अनुभव सिन्हा से उनके सामाजिक सरोकारों के चलते ही हर नई फिल्म का इंतजार वे दर्शक करते हैं, जिन्हें सिनेमा से दिमागी खुराक मिलती है या जो कुछ बदलाव की उम्मीद रखते हैं। अनुभव सिन्हा ने पहले कुछ प्रेमकथाएं जरूर बनाईं, अनंत महादेवन ने भी कॉमेडी बनाई होगी। पर अनुभव सिन्हा की ‘मुल्क’ फिल्म और अनंत महादेवन की ‘सिंधुताई सपकाल’ के बाद उनसे गंभीर फिल्मों की उम्मीद हुई और नतीजा हमारे सामने है। अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ और ‘थप्पड़’ तथा अनंत महादेवन की ‘फुले’। व्यावसायिक पक्ष पर सफलता पर नजर रखते हुए पूरे दर्शक समूह को एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व से परिचित करवा देना मामूली बात नहीं है। प्रबुद्ध वर्ग अगर व्यावहारिक नहीं है तो कभी हमारे क्रांतिकारी नायक आम जन तक नहीं पहुंच पाएंगे।

मैंने खुद अपने शिक्षण और अध्यापन काल में , स्कूल या कॉलेज के पाठ्यक्रम में, इन दोनों के बारे में कभी नहीं पढ़ा। स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि के बारे में हम सब जानते हैं क्योंकि इतिहास में हमने इनके बारे में पढ़ा है। लेकिन आम जन को जोतिबा फुले के बारे में नहीं मालूम। फुले के संघर्ष और उनके मिशन के बारे में पढ़ाया नहीं गया। महाराष्ट्र में जरूर सातवीं और आठवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में आधा पृष्ठ इतिहास की किताब में मिल जाता है, लेकिन भारत के अधिकांश राज्यों में जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का नाम लंबे अरसे तक अनजान ही रहा और इसमें कुछ हाथ निश्चय ही पाठ्यक्रम का चुनाव करने वालों की मानसिकता का भी रहा होगा।

दलित मुद्दों पर बहुत गंभीरता से काम करने वाले एक स्त्रीवादी कार्यकर्ता और प्रबुद्ध विचारक मित्र को आपत्ति है कि सावित्रीबाई और जोतिबा फुले के समानांतर उस्मान शेख और फातिमा शेख को आखिर इतने सारे दृश्यों में क्यों खड़ा कर दिया गया। एक बड़े वर्ग को यह आपत्ति पिछले कुछ सालों से हो रही है कि आजकल फातिमा शेख और उस्मान शेख के चरित्र को विराट किया जा रहा है। दिलीप मंडल ने तो यहां तक कह दिया कि ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) का कार्यकारी संपादक रहते हुए फातिमा शेख का चरित्र उन्होंने गढ़ा। जबकि सच्चाई यह है कि फातिमा शेख और उस्मान शेख का जिक्र शुरू से ही दस्तावेज़ी ग्रंथों में मिलता है। पिता का घर छोड़ने के बाद फुले दंपति ने अपने मित्र उस्मान शेख के घर में ही आश्रय लिया था। फिल्म में फातिमा शेख को अगर बार-बार सावित्री के साथ दिखाया गया और उन्होंने भी अपने समाज में कट्टरपंथियों का वैसे ही विरोध का सामना किया तो इससे सावित्रीबाई का आभामंडल धूमिल नहीं होता और न ही उनकी संघर्ष कथा कहीं से कमतर होती है। फिल्म हमारे और आप जैसे सीमित प्रबुद्ध वर्ग के देखने के लिए डॉक्युमेंटेशन नहीं है, बल्कि उस आम जन को खींचने की कोशिश है, जिसने संघर्ष कथा तो दूर, जोतिबा और सावित्रीबाई का नाम तक नहीं सुना। दूसरी जरूरी बात यह भी कि आज के समय में जब लगातार अल्पसंख्यकों के प्रति एक नफरती माहौल बार-बार किसी न किसी बहाने से खड़ा किया जा रहा है, दोनों संप्रदायों के कट्टरपंथियों के खिलाफ एक सामूहिक सौहार्द का माहौल बनाने की जरूरत है। फातिमा शेख और उसके भाई उस्मान शेख के चरित्र को कुछ विराट आकार देना फिल्म की सर्वसमावेशी विशिष्टता को ही दर्शाता है। इस संदर्भ में भी फिल्म ‘फुले’ आज के नफरती माहौल में स‌द्भाव और भाईचारे का एक अनूठा संदेश देती है, जो इस फिल्म को आज के दौर में बेहद प्रासंगिक बनाता है।

एक मित्र की आपत्ति थी कि सावित्रीबाई स्कूल में जैसी फ्रेम जड़ी स्लेट बच्चों के लिए ले जाती हैं। वैसी स्लेट तब ईजाद नहीं हुई थी। तब खड़िया पाटी का जमाना था। कम से कम फिल्म की टीम को डेढ़ सौ साल पहले का यह यथार्थ तो मालूम होना चाहिए था।

एक अन्य मित्र की आपत्ति थी कि सावित्रीबाई का अपनी ही बिरादरी के एक आदमी को खींचकर थप्पड़ मारना फिल्म के नज़रिए से चाहे आम दर्शक को लुभाता हो, सावित्रीबाई के व्यक्तित्व के साथ मनमानी करना है और विश्वसनीय नहीं लगता। वैसे तो दृश्य माध्यम को इतनी छूट लेने की इजाज़त होती है पर यह प्रसंग भी एक किताब में आया है, काल्पनिक नहीं है।

हाल ही में ‘ज्योति कलश’ नाम से हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार मित्र संजीव का जोतिबा फुले के जीवन पर आधारित एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। फुले फिल्म को लेकर जब उनसे फोन पर बातचीत हुई तब उन्होंने आपत्ति दर्ज की– “मैं फिल्म देख आया, लेकिन आप मेरा उपन्यास पढिए। फिल्म में उनकी बुआ सगुणाबाई का जिक्र तक नहीं है, जिनका बहुत बड़ा योगदान जोतीराव को जोतिबा बनाने में रहा।”

दलित चिंतक डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी ने भी कथाकार संजीव की आपत्ति की तस्दीक करते हुए कहा कि “यह एक गंभीर भूल है। जोतिबा फुले के जीवन में सगुणाबाई का महत्व बहुत बड़ा है। जब जोतिबा के पिता उन्हें घर से बाहर जाने के लिए कहते हैं और जब जोती इसके लिए तैयार हो जाते हैं तब सगुणाबाई अपने भाई से कहती हैं कि जहां जोती जाएगा, वहां मैं भी जाऊंगी, क्योंकि जोती जो कर रहा है, वह सही है। यह देखकर सावित्रीबाई फुले को भी हिम्मत मिलती है और वह भी घर के बाहर निकल जाती है। सगुणाबाई जोतिबा और सावित्री की प्रेरणा स्रोत रहीं। इसे फिल्म में क्यों नहीं दिखाया गया, यह बहुत बड़ा प्रश्न है। यह इतिहास के प्रति भी अन्याय है।”

शायद कुछ सेकेंड के लिए ही सही, जोतिबा की बुआ सगुणाबाई का उल्लेख एक संवाद में तो आ ही सकता था। किताब में ऐसी बहुत सी सूचनाएं हैं, जिनका ज़िक्र किया जाना चाहिए था। जिस तरह जोतिबा की सूक्तिनुमा चर्चित पंक्तियों “विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी/ नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया/ वित्त बिना शूद्र गए, इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए” को बड़े खूबसूरत तरीके से अंडरप्ले किया गया, वैसे ही सावित्रीबाई की कुछ पक्तियों को गेय बनाकर या कविता की तरह ही सावित्रीबाई के मुंह से कहलवाया जा सकता था। कम से कम सावित्रीबाई का भी एक बेबाक क्रांतिकारी कवि रूप सामने आ पाता।

मेरा भी एक सुझाव यह भी था कि जोतिबा के जीवन के अंतिम चरण में जब 1888 में उन्हें महात्मा की उपाधि से सम्मानित किए जाने की सूचना मिली तो उन्होंने इस उपाधि को लेने से इनकार करते हुए कहा था कि “मुझे महात्मा कहकर मेरे संघर्ष को पूर्णविराम मत दीजिए। जब व्यक्ति मठाधीश बन जाता है तब वह संघर्ष नहीं कर सकता। इसलिए आप मुझे साधारण जन ही रहने दें, महात्मा बनाकर मुझे अपने से अलग न करें।” इक्कीस साल पहले जोतिबा फुले पर लिखे गए मेरे आलेख का शीर्षक ही था – “मुझे साधारण जन ही रहने दें …”। यह वाक्य भी कुछ सेकेंड की ही जगह यदि फिल्म में होता तो यह एक जरूरी स्टेटमेंट होता।

‘कथादेश’ पत्रिका के अप्रैल, 2004 के अंक में लेखिका सुधा अरोड़ा द्वारा लिखित आलेख ‘मुझे साधारण जन ही रहने दें’ का प्रथम पृष्ठ

एक सुझाव मेरा यह भी था कि जब जोतिबा को संतानहीन होने पर, दूसरा विवाह करने के लिए सावित्रीबाई के माता-पिता द्वारा भी उन पर दबाव बनाया जाता है तो जोतिबा कहते हैं, “मैं विवाह करने के लिए तैयार हूं लेकिन मेरी एक शर्त है उसी लग्न मंडप में सावित्री का भी दूसरा विवाह संपन्न हो। हो सकता है उन्हें दूसरे विवाह से मातृत्व का सुख मिल सके …।” इस महत्वपूर्ण दृश्य को एक अविस्मरणीय दृश्य बनाने से फिल्म के निर्देशक और संवाद लेखक चूक गए।

कुछ मित्रों के साथ मेरी भी यह आपत्ति थी कि पहले ही दृश्य में जहां से फलैशबैक कथा शुरू होती है, सावित्रीबाई कहती है, “पता है डॉक्टर साहब, सबको लगता था कि शेठ जी भगवान पर नहीं विश्वास नहीं करते लेकिन बहुत करते थे। उनका मानना था कि भगवान कभी भी मनुष्य का बुरा नहीं चाहते हैं।” इस स्थापना की पुष्टि महात्मा फुले के अंतिम दृश्य में पुनः रेखांकित होती है जब जोतिबा कहते हैं “तुम जाओ, मुझे कुछ बात करनी है ‘उससे’। और फिर जैसे ईश्वर से मुखातिब होकर जोतिबा का संवाद यहां तो मंदिर के दरवाजे हमारे लिए हमेशा बंद रहे, तुम तो दरवाज़ा खोलोगे न …?” बेशक यह दोनों दृश्य भावुक करते हैं, पर क्या धर्म और ईश्वर के प्रति जोतिबा की इतनी गहरी आस्था जताकर हम ‘गुलामगिरी’ किताब की सारी प्रगतिकामी चेतना और जोतिबा के समाज सुधार के मकसद को ही डाइल्यूट नहीं कर रहे?

इन सारी आपत्तियो के बावजूद मेरा मत है कि सूक्ष्म निरीक्षण और मीनमेख निकालने की अपनी आदत से परे, हम उदार होकर इस फिल्म को परखें तो यह एक बारीक बुनावट वाली आम जन को आकर्षित करने और उद्वेलित करने वाली फिल्म है और इसका बृहद कैनवास इसे हर दर्शक वर्ग तक पहुंचाता है। ईसाई, ब्राहमण, मुस्लिम हर समाज से कुछ ऐसे लोग निकलते हुए दिखाई देते हैं जो जाति और धर्म के बाड़े में फिट नहीं होते। वे पहले इंसान होते हैं। फिर कुछ और।

यह आपत्तियां सिर्फ़ इसलिए ताकि सनद रहे … किसी महान व्यक्तित्व के 50 वर्षों के संघर्ष को और कई मोर्चों पर किए गए विराट कार्यों को दो घंटे में समेटना कोई आसान बात नहीं है।

फिल्म पहले बनकर तैयार हो गई थी। लेकिन उसमें चित्रित घटनाएं देखकर ऐसा लगता है जैसे हाल ही की घटनाओं को पर्दे पर उतार दिया गया हो। फुले दंपत्ति द्वारा शुरू किए गए स्कूल में समाज के तथाकथित रखवालों का तोड़फोड़ करना, हाल ही में दो महीने पहले कुणाल कामरा की कॉमेडी पर हैबिटेट सेंटर में उपद्रवियों का बेखौफ होकर आतंक मचाना, एक ही सिनेरियो को दो अलग कालखंड में प्रस्तुत करता है।

करीब डेढ़ सौ सालों में हम जितना आगे बढ़ पाए हैं तो क्या फिर से पीछे लौटने के लिए? यह फिल्म तत्कालीन रूढ़िवादी भारत को आज के परिवेश के बरक्स सामने रखती है, ताकि हम स्वयं तय कर सकें कि अपने देश की रूढ़ियों और सड़ी-गली हुई परंपरा से हम कितना आगे बढ़ पाए हैं … और क्या हमें फिर से पीछे धकेलने की कोशिश तो नहीं की जा रही …!

बहरहाल, फुले फिल्म का आना, उस पर आपत्तियों का खर्रा, कई विवाद होना, फिल्म की रिलीज पर प्रतिबंध लगना, कई शहरों में थिएटर उपलब्ध न होना, शो चलने पर भी उसके पोस्टर न लगना, फिल्म को टैक्स फ्री न करना … और इन सारे व्यवधानों के बावजूद सिर्फ और सिर्फ ‘वर्ड ऑफ माउथ’ के बूते पर फिल्म का सफलता के नये प्रतिमानों को छूना, एक इतिहास रचता है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुधा अरोड़ा

चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा का जन्म 4 अक्टूबर, 1946 को अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत बतौर प्राध्यापक अध्यापन कार्य किया। उनके एक दर्जन से अधिक कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें 'महानगर की मैथिली', 'काला शुक्रवार', 'रहोगी तुम वही' आदि बहुचर्चित रहे हैं। उनकी कृतियों में उनका उपन्यास 'यहीं कहीं था घर' भी शामिल है। इसके अलावा 'आम औरत : ज़िंदा सवाल' और 'एक औरत की नोटबुक' में उनके स्त्री-विमर्श-संबंधी आलेखों का संकलन है। उनकी कहानियां अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित हैं। कहानियों के अलावा सुधा अरोड़ा के प्रकाशित काव्य संग्रह हैं– 'रचेंगे हम साझा इतिहास', 'कम से कम एक दरवाज़ा' और 'यात्रा पर औरत'।

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