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आखिर ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के पन्नों में क्यों गायब है आजीवक प्रसंग?

नाटक के मूल संस्करण से हटाए गए तीन दृश्य वे हैं, जिनमें आजीवक नामक पात्र आता है। आजीवक प्राक्वैदिक भारत की श्रमण परंपरा के उत्तराधिकारी थे तथा अपनी घोर अपरिग्रही वृत्ति एवं कठिन व्रतों के लिए जाने जाते थे। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में उनका बार-बार उल्लेख हुआ है। जेर-ए-बहस पढ़ें ओमप्रकाश कश्यप का यह आलेख

जयशंकर प्रसाद की ख्याति ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कवि, उपन्यास लेखक और नाटककार की रही है। उनके नाटक ‘चंद्रगुप्त’ की गिनती हिंदी के बहुप्रतिष्ठित नाटकों में की जाती है। प्रसाद के दूसरे प्रमुख नाटकों ‘अजातशत्रु’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘ध्रुव-स्वामिनी’ आदि की तरह ही ‘चंद्रगुप्त’ भी ऐतिहासिक नाटक है। उसके केंद्रीय पात्र चंद्रगुप्त मौर्य का उल्लेख देशी-विदेशी सभी ग्रंथों में मिलता है। भारतीय इतिहास में जितना बड़ा सैन्यबल चंद्रगुप्त का था, उतना किसी और राजा का नहीं रहा। यही नहीं भारत की सीमाओं का जितना विस्तार चंद्रगुप्त के शासनकाल में हुआ, वह भी कभी नहीं दोहराया जा सका। आज जिसे बृहत्तर भारत कहा जाता है, असल में वह चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल का सीमांकन है। इस महान सम्राट के बारे में चर्चा करना स्वतः ही विराट भारत के गौरवशाली राष्ट्रीयताबोध से जुड़ जाता है।

चंद्रगुप्त मौर्य को केंद्र में रखकर पहला नाटक बांग्ला में ख्यातिनाम नाटककार द्विजेंद्रलाल राय ने 1911 में लिखा था। 1917 में वह हिंदी में अनूदित होकर भी आ चुका था। वर्ष 1931 में ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के पहले संस्करण के प्रकाशकीय से पता चलता है कि द्विजेंद्रलाल राय का नाटक प्रकाशित होने से पहले ही जयशंकर प्रसाद मौर्यकालीन इतिहास और संस्कृति का विशद अध्ययन आरंभ कर चुके थे। ‘चंद्रगुप्त’ नाटक का पहला संस्करण प्रेमचंद के सरस्वती प्रेस से छपा था। उसके प्रकाशकीय से दो महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं, जिन्हें यहां देना प्रासंगिक होगा–

  1. जयशंकर प्रसाद ने 1908 में ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ शीर्षक से लंबा लेख लिखा था, जिसे उपर्युक्त नाटक के प्रथम संस्करण में शामिल किया गया था। उसे भारती भंडार, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त के संस्करणों में देखा जा सकता है।
  2. 1912 में उन्होंने ‘कल्याणी परिणय’ शीर्षक से रूपक लिखा था। 1929 में नाटक सरस्वती प्रेस में भेजने के बाद प्रसाद ने उक्त रूपक को भी ‘यथाप्रसंग परिवर्तित तथा परिवर्धित कर’ चंद्रगुप्त की पांडुलिपि में शामिल कर लिया था। कह सकते हैं कि दो वर्षों के अंतराल के बाद यह नाटक 1931 में, जब पहले संस्करण के रूप में बाजार में आया, तो प्रसाद उसके कथ्य एवं शिल्प से संतुष्ट थे।

प्रकाशन में हुए अतिरिक्त विलंब पर ‘प्रसाद वाङ्मय’ के संपादक रत्नशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया है कि ‘चंद्रगुप्त’ प्रसादजी का छठा नाटक था। इसका लेखन ‘स्कंदगुप्त’ से पहले हो चुका था, लेकिन प्रकाशन संवत् 1988 (ईस्वी 1931) में हुआ। उससे दो वर्ष पूर्व इसे प्रेस में दे दिया गया था। सरस्वती प्रेस की दशा भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वह बड़े काम शीघ्र कर दे। दैनंदिन व्यय छोटी-छोटी छपाइयों से चलते थे, इसलिए उन्हें पहले करने की बाध्यता रहती थी। ‘चंद्रगुप्त’ को अन्यत्र देना भी संभव न था क्योंकि वह मुंशी प्रेमचंद का प्रेस था, जिनसे लेखक जयशंकर प्रसाद और प्रकाशक भारती भंडार के स्वामी रायकृष्णदास के निजी संबंध रहे… पांडुलिपि 1929 से दो वर्षों तक अमुद्रित पड़ी रही और 1931 के मध्य में छप सकी। लेखन में भी पर्याप्त समय लगा। संभव है कुछ नए तथ्यों के उजागर होने की प्रतीक्षा रही हो।[1]

ये नए तथ्य क्या रहे होंगे? प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय से इतना पता तो चलता है कि प्रसाद ने नाटक में ‘कल्याणी परिणय’ को परिवर्तित-परिवर्धित कर ‘चंद्रगुप्त’ का हिस्सा बनाया है, लेकिन अपनी सृजनात्मकता से प्रसाद ने उसे इतना बदल दिया है कि सिवाय प्रसंग के और कोई साम्य नजर नहीं आता।

चंद्रगुप्त’ नाटक के पाठ

इस समय प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ के दो पाठ मौजूद हैं। पहला प्रसाद जन्मशती पर उनके पुत्र रत्नशंकर प्रसाद के संपादन में पांच खंडों में प्रसाद न्यास के तत्वावधान में वाराणसी से प्रकाशित ‘प्रसाद वाङ्मय’ के दूसरे खंड में। इस पाठ में कुल 47 दृश्य हैं। दूसरा पाठ भारती भंडार, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ में देखा जा सकता है। उसमें केवल 44 दृश्य हैं। कॉपीराइट मुक्त होने के बाद इस नाटक को अन्य प्रकाशकों ने भी छापा है। लेकिन ओमप्रकाश सिंह द्वारा संपादित ‘जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली’, सत्यप्रकाश मिश्र द्वारा संपादित ‘प्रसाद के संपूर्ण नाटक एवं एकांकी’ सहित बाकी सभी संस्करणों में 44 दृश्यों वाला पाठ ही मिलता है। वही विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है।

हटाए गए तीन दृश्य वे हैं, जिनमें आजीवक नामक पात्र आता है। आजीवक प्राक्वैदिक भारत की श्रमण परंपरा के उत्तराधिकारी थे तथा अपनी घोर अपरिग्रही वृत्ति (किसी भी विषय में आसक्ति नहीं रखना) एवं कठिन व्रतों के लिए जाने जाते थे। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में उनका बार-बार उल्लेख हुआ है। नाटक में आजीवक की उपस्थिति युगीन परिदृश्य को दर्शाने के साथ-साथ हास्य के सृजन हेतु की गई है। बीच-बीच में आजीवक दर्शन भी संकेत रूप में चला आता है। प्रश्न यह उठता है कि आजीवक प्रसंग वाले तीन दृश्यों को कब, क्यों और किसने हटाया था? क्या उसके लिए नाटककार की सहमति थी? नाटक के लिए जयशंकर प्रसाद ने अलग से भूमिका नहीं लिखी थी, इसकी पुष्टि रत्नाकर प्रसाद ने भी की है। संभवतः 1908 में प्रकाशित ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ शीर्षक लेख को ही उसकी भूमिका मान लिया गया था।

आजीवक दर्शन

आजीवक दर्शन भारत का प्राचीनतम भौतिकवादी दर्शन है। जैन और बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि महावीर और बुद्ध के समय, आजीवक दर्शन के कम से कम पांच प्रमुख तीर्थंकर मौजूद थे। दीघनिकाय में बुद्ध ने उनकी खूब प्रशंसा की है। जैन ग्रंथों में उनका उल्लेख विरोधी मतावलंबी के रूप में किया गया है। दर्शन के अलावा वे गणित, ज्योतिष तथा आयुर्वेद के विद्वान थे। उनके गणित संबंधी ज्ञान की पुष्टि भास्कर प्रथम द्वारा लिखित ‘आर्यभटीय की टीका’ से भी होती है। ‘गणितविदौ मस्करीपूरण’ कहकर उसमें आजीवक दर्शन के दो प्रमुख तीर्थंकरों, मस्करी (मक्खलि गोसाल) तथा पूरण कस्सप की प्रशंसा की गई है। भास्कर प्रथम के अनुसार भूमिति अर्थात चतुर्भुजाकार आकृतियों के क्षेत्रफल की गणना के लिए सूत्रों की खोज उन्होंने ही की थी।

चरक संहिता का लेखक अग्निवेशायन को बताया गया है। आर्थर एल. बॉशम ने अग्निवेशायन को मक्खलि गोसालक का पूर्ववर्ती आजीवक बताया है। ‘इंडिका’ तथा अन्य ग्रीक स्रोतों में जिन अचेलक (नग्न) श्रमणों का उल्लेख है, उनकी विशेषताएं आजीवकों से मेल खाती हैं। जैन ग्रंथों में ऐसे कई संदर्भ हैं जो आजीवकों के आयुर्वेद तथा ज्योतिष संबंधी ज्ञान की पुष्टि करते हैं। हैरानी की बात है कि औपनिषदिक युग का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली दर्शन होने के बावजूद संस्कृत वाङ्मय में आजीवकों का उल्लेख अपवाद-स्वरूप ही मिलता है। महाभारत में आजीवकों को वर्णसंकर तथा चोरों के समकक्ष रख उनके लिए मृत्युदंड की अनुशंसा की गई है।[2]

आजीवकों की पैठ मुख्यतः शिल्पकारों, किसानों तथा श्रमिक वर्ग के बीच थी। ‘वायु पुराण’ में आजीवक दर्शन को अपने श्रम-कौशल के बल पर आजीविकोपार्जन करने वालों का धर्म-दर्शन कहा गया है। जैनग्रंथों के अनुसार मगध का वैभवशाली सम्राट महानंद आजीवक मतावलंबी था। उनके राज्य में आजीवकों का काफी सम्मान था। उनमें यह भी आया है कि नंद के दरबार से अपमानित होकर निकलते समय चाणक्य ने अचेलक (आजीवक वेश) का ही सहारा लिया था। इसके बावजूद उसके मन में अचेलक श्रमणों के प्रति ईर्ष्या बनी रही। ‘अर्थशास्त्र’ में आजीवक, जैन आदि भिक्षुओं को घर पर आमंत्रित कर भोज कराने वाले गृहस्थ पर 100 पण का जुर्माना लगाने का निर्देश दिया गया है। आधुनिक तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि से चौथी-पांचवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के ऐसे अनेक अभिलेख मिले हैं जो आजीवकों पर कर लगाए जाने की पुष्टि करते हैं। बुद्ध के समय आजीवक तर्क के लिए जाने जाते थे। चातुर्मास को छोड़कर वे हमेशा चलते रहते थे। उनके भिक्षाटन संबंधी नियम अत्यंत कठोर थे। कोसल नरेश प्रसेनजित ने उनके लिए कूटागारशालाओं (सभास्थलों) का निर्माण कराया था, जहां वे दार्शनिक विषयों पर संवाद किया करते थे।

आजीवक यज्ञ और कर्मकांडों के मुखर आलोचक थे। इस कारण ब्राह्मण ग्रंथों में उन्हें पाषंड, नास्तिक, मूर्ख आदि कहा गया है। ब्राह्मणों ने आजीवकों को लोकस्मृति से गायब करने के लिए पहले उनके दर्शन को लोकायत(लोक का दर्शन) कहा, फिर चार्वाक कहना शुरू किया। पुराणों में कहीं उसे वेन का दर्शन कहा गया, कहीं माया-मोह का। कहीं बृहस्पति को उसका श्रेय दिया गया, तो कहीं इंद्र का उसका अनुगामी बताया गया।

चंद्रगुप्त और आजीवक

चंद्रगुप्त को यद्यपि जैन बताया जाता है, उसके बचपन के बारे में अधिक सूचना नहीं है। उस समय अधिकांश शिल्पकार और पेशेवर जातियां आजीवक दर्शन में विश्वास करती थीं, इसलिए हम उसे अशोक का पैतृक दर्शन कह सकते हैं। चंद्रगुप्त का पुत्र तथा अशोक का पिता बिंदुसार पुनः अपने पैतृक आजीवक धर्म में लौट जाता है। चंद्रगुप्त के जैन होने का दावा भी किया जाता है। लेकिन सिवाय इसके कि जैन दर्शन की प्रथम संगीति पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम वर्षों में हुई थी, वे उसके जैन होने का बड़ा दावा पेश नहीं कर पाते। वैसे भी बड़े राज्य का गठन तथा उसे आजीवन संभाले रखना आसान काम नहीं था। अपनी धार्मिक-दार्शनिक अभिरुचियों को परिष्कृत कर सके, इतना समय शायद ही उसके पास रहा होगा। इतना तय है कि उसके शासनकाल में आजीवक धर्म मगध सहित उत्तर, उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण भारत का सबसे बड़ा धर्म था। यह स्थिति अशोक के शासनकाल तक बनी रहती है। अशोक आजीवक मतावलंबी भले न रहा हो, लेकिन उसकी आजीवक दर्शन से सहानुभूति थी, इसके कई प्रमाण मिलते हैं।

‘प्रसाद वाङ्मय’ में संकलित ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के प्रथम संस्करण के आरंभिक पृष्ठ की तस्वीर

चूंकि ‘चंद्रगुप्त’ ऐतिहासिक नाटक है, इसलिए प्रसाद जैसा नाटककार युगीन सत्य के रूप में आजीवकों का उल्लेख न करें, अथवा संबंधित दृश्यों को पूरी तरह हटाने की सहमति दे दें, यह किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि नाटक का प्रमुख घटनाक्रम नंद के शासनकाल का है, जब आजीवक दर्शन राज्य का धर्म था। चंद्रगुप्त की विजय के साथ ही नाटक का समापन हो जाता है। फिर तीन दृश्यों को कब और किसने हटाया, क्यों हटाया? ‘चंद्रगुप्त’ को अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। तो क्या विद्यार्थियों के सभी ‘अवांछित’ तत्वों को हटाकर सभी दृष्टि से आपत्तिविहीन बनाने के लिए ऐसा किया गया था? अथवा यह आजादी से पहले उन दिनों किया गया, जब हिंदी-हिंदू का पुरुत्थानवादी दौर चल रहा था? अपने समय का सबसे महत्त्वपूर्ण दर्शन होने के बावजूद आजीवकों तथा उनके दर्शन को विरोधियों की निंदा का सामना करना पड़ा। सच तो यह है कि बिना आजीवक दर्शन की चुनौती से निपटे वे भारतीय जनमानस में पैठ बना ही नहीं सकते थे। ब्राह्मण ग्रंथों में उसे हमेशा ही अवांछित दर्शन माना गया है।

हम इसपर आगे भी विचार करेंगे। पहले नाटक के वे दृश्य जो 1931 में प्रकाशित पहले संस्करण में शामिल थे, जिन्हें बाद के संस्करणों में लेखक की अनुमति या बिना अनुमति के ही हटाया जा चुका है।

चंद्रगुप्त नाटक के आजीवक प्रसंग

नाटक में आजीवक श्रमण का प्रवेश प्रथम अंक के पांचवे दृश्य से होता है। उसका परिचय ‘बड़ी-बड़ी जटाओं वाला, लंबा-सा बांस लिए, चादर ओढ़े आजीवक’ शब्दों से दिया गया है। आजीवक हाथ में बांस (मस्कर/बड़ी लाठी) रखते थे, इसलिए पाणिनी ने उन्हें ‘मस्करिन्’[3] कहा था। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार आजीवक प्रायः अचेलक रहते थे। पांच आजीवक शास्ताओं में से एक अजित केशकंबलि शरीर पर बालों से बुना कंबल डाले रखते थे। आजीवक प्रकृतिवादी थे। जैन ग्रंथों में उन्हें नियतिवादी कहा गया है। (आजीवक किसी भी किस्म की परासत्ता के अस्तित्व से इंकार करते थे) नाटक का एक पात्र सार्थवाह धनदत्त भी नियतिवादी है। सहसा लंबा-सा बांस लिए, चादर ओढ़े एक आजीवक श्रमण उसके सम्मुख आकर जोर से छींक देता है। धनदत्त घबरा जाता है। आजीवक हंसने लगता है–

धनदत्त    : (सक्रोध) तुम हंस रहे हो!

आजीवक : तो क्या रोऊं?

धनदत्त : अरे नहीं-नहीं तुमने छींक तो दिया ही अब यात्रा के समय रोने भी लगोगे

आजीवक : फिर क्या होगा?

धनदत्त : कहीं राह में कुंवे सूख जाएं, घोड़े-बैल मर जाएं, डाकू घेर लें आंधी चलने लगे पानी बरसने लगे रात को प्रेतों का आक्रमण हो, गाड़ियां उलट जाएं?  

आजीवक : फिर…

धनदत्त    : तुम्हारा सिर! मैं जा रहा हूं इतनी दूर, शकुन देखकर घर से निकला था तुम पूरे व्यतिपात की तरह मेरी यात्रा में व्याघात बन रहे हो[4]

जैन ग्रंथों के अनुसार आजीवक शकुन-विचार द्वारा आजीविका चलाते थे। इससे पता चलता है कि प्रसाद ने आजीवकों के बारे में अध्ययन किया था तथा उनके बारे में जो सामान्य बातें प्रचलित थीं, उनका अपने नाटक में ध्यान रखा था। शकुन विचार कर निकलना, निरा तंत्र-मंत्र या ज्योतिषीय कर्म नहीं था। इसे उन दिनों की मौसम आधारित यात्राओं की मजबूरी भी कहा जा सकता है। लोग आने-जाने के लिए किसी अनुभवसिद्ध व्यक्ति से मौसम, मार्ग आदि की जानकारी लेकर निकलते थे। चातुर्मास को छोड़कर सदैव प्रव्रजन में रहने वाले आजीवक श्रमण इस काम में उनकी निर्लोभ मदद करते थे। आगे चलकर इस क्षेत्र में स्वार्थी लोगों का प्रवेश होने लगा। लोगों से पैसा ऐंठने के लिए उन्होंने शकुन विचार को कर्मकांडीय आयोजन बना दिया। नाटक का एक अन्य पात्र चंदन संवाद को आगे बढ़ाता है–

चंदन      :  पर जो अपशकुन हो गया अब हम लोग न पीछे लौट सकते हैं

आजीवक :  यही तो, पुरुष कुछ नहीं कर सकता है

चंदन      :  (आश्चर्य से) क्यों?

आजीवक :  क्योंकि उसमें न कर्तव्य है, न कर्म

धनदत्त    :  है है… यह तुम क्या कहते हो?

आजीवक :  यही तो क्योंकि उसमें वीर्य नहीं है

….

धनदत्त    : अरे चंदन! कोई उपाय बता, क्या करूं? मुहूर्त्त तो निकल ही गया अब चैत्य-वृक्ष के नीचे विश्राम करूं या घर ही लौट चलूं? फिर कोई दूसरा शकुन देखकर यात्रा होगी

आजीवक : तुम नियति के क्रीड़ा कंदुक कुछ न कर सकोगे?

….

आजीवक :  नियति जो करती है वही मनुष्य के लिए पथ्य है मूर्ख मनुष्य! व्यर्थ अपनी टांग अड़ाता है

राजपुरुष : अकर्मण्य भिक्षु! यह क्या पाठ पढ़ा रहे हो?

चंदन : नियति यदि तुम्हारी टांग तोड़ दे? भिक्षुजी!

आजीवक : तो तुम मुझे अपनी पीठ पर लादकर मुझे जहां जाना है, पहुंचा दोगे

चंदन : और तुम्हारा बोझ ढोना मैं स्वीकार न करूं?

आजीवक : तो कदाचित नियति तुम्हारी टांग भी तोड़ चुकी होगी[5]

 

नाटक के दूसरे अंक के दसवें दृश्य में एक बार फिर धनदत्त, चंदन, माधवी आदि आजीवक से मिलते हैं। इस दृश्य में प्रसाद आजीवक दर्शन के एक और सिद्धांत को व्यक्त करते हैं–

धनदत्त  : नियति क्या चाहती है? तुम बतलाओगे?

आजीवक : यह तो वही जाने! लाखों योनियों में भ्रमण करते-करते वह पहुंचने वाले स्थान पर पहुंचा देगी।[6]

 आजीवक मानवीय प्रयास की निस्सारता (सारहीनता) पर विश्वास करते थे। बुद्ध के समय ‘मुक्ति’ का प्रश्न बहुत बड़ा था। उस समय उसके चार प्रमुख समाधान या रास्ते बताए जा रहे थे। जैनों का मानना था कि कर्म से सासांरिक लिप्तता बढ़ती है। मुक्ति के लिए उन्होंने कर्म-निर्जरा का सुझाव दिया था, जिसे निरंतर तपश्चर्य से संभव बनाया जा सकता है। बुद्ध संसार को दुखमय मानते थे। उनका कहना था चित्त-वृत्ति निरोध से इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। ब्राह्मण वायवी (हवाहवाई) देवताओं के अस्तित्व पर भरोसा करते थे। उसके लिए हजारों पशुओं की बलि देना उनका नैमत्तिक कर्म था।

आजीवकों का कहना था कि प्रकृति अपने नियमों से आबद्ध रहती है। कोई कुछ करे, न करे, उसकी चाल नहीं बदलती। कोई ऐसी बाहरी सत्ता नहीं, जो उसे अपनी चाल बदलने को मजबूर कर सके। गोसाल के अनुसार जैसे आसमान में फेंकी गई सूत की गेंद अपनेआप धीरे-धीरे स्वत: खुलती हुई गायब हो जाती है। वैसा ही जीवन के साथ भी होता है।[7] नाटक में आजीवक के कथन, ‘लाखों योनियों में भ्रमण करते-करते वह पहुंचने वाले स्थान पर पहुंचा देगी’ में इस दर्शन की आधार-मान्यता अंतर्निहित है।

नाटक में आजीवक की तीसरी उपस्थिति तीसरे अंक के दसवें दृश्य में होती है। चंदन, धनदत्त, आदि परस्पर मिलता हैं। आजीवक धनदत्त से कहता है–

‘सार्थवाह! अब मुझे नियति का आदेश है कि तू यहां से चल दे।’[8]

यहां ‘नियति का आदेश’ नंद का शासन समाप्त होने का पूर्वाभास है।

अनसुलझी पहेली

‘चंद्रगुप्त’ नाटक का प्रथम प्रकाशन, जिसमें सभी 47 दृश्य शामिल थे, 1931 में हुआ था। करीब 95 वर्ष बाद भी बृहद हिंदी समाज नहीं जानता कि आजीवक की उपस्थिति वाले तीन दृश्यों को कब और किसके कहने पर हटाया गया था। इस पहेली के समाधान की दिशा में विद्वान लेखक, आलोचक प्रो. कमलेश वर्मा की सराहना करनी होगी। नाटक से तीन दृश्य हटाए जाने का कारण जानने के लिए उन्होंने काफी पड़ताल की है। यह अलग बात है उनके अथक प्रयास के बावजूद समस्या ज्यों की त्यों रह जाती है। वर्माजी के लेख को ‘शब्दबिरादरी’ पोर्टल पर पढ़ा जा सकता है।[9]

वर्मा जी ने जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की पुस्तक – ‘प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन’ (1949) – का जिक्र किया है। इस पुस्तक के अनुसार 1931 में ‘चंद्रगुप्त’ का जब पहला संस्करण आया, इसमें 47 दृश्य थे। दूसरे संस्करण में प्रसाद ने कुछ दृश्यों को मिलाकर कुछ संख्या घटाई थी। मगर शर्मा जी की इस किताब में भी ‘आजीवक’ वाले प्रकरण की कोई चर्चा नहीं मिली। विकीपीडिया में उल्लेखित स्रोत पर भारती भंडार, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ (दूसरा संस्करण) का प्रकाशन वर्ष 1932 दिया गया है। उसमें केवल 44 दृश्य हैं। दृश्यों की कटौती के अलावा नाटक का शीर्षक भी बदला गया था। प्रसाद ने नाटक का शीर्षक ‘चंद्रगुप्त’ रखा था। इस शीर्षक का उन्होंने स्वयं रेखांकन भी किया था, जिसे सरस्वती प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक के आरंभ में देखा जा सकता है। भारती भंडार से प्रकाशित पुस्तक में शीर्षक को बदलकर ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ कर दिया गया था। ऐसा क्यों किया गया? क्या इसके लिए नाटककार जयशंकर प्रसाद की अनुमति ली गई थी? इसका स्पष्टीकरण अपेक्षित था, जो नहीं मिलता। पुनश्चः भारती भंडार के संस्करण से तीन दृश्य हटाए जाने की पुष्टि तो होती है, मिलाए जाने की नहीं। दोनों की शेष सामग्री में भी प्रथम दृष्टया कोई बदलाव नहीं है।

डॉ. कमलेश वर्मा ने सिद्धनाथ कुमार की पुस्तक ‘प्रसाद के नाटक’ का जिक्र भी किया है। बताया है कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण (1990) के पृष्ठ 37-38 पर इन अतिरिक्त दृश्यों की चर्चा मिलती है। उन्हीं के शब्दों में–

“1933 में ‘चंद्रगुप्त’ नाटक का प्रथम मंचन काशी रत्नाकर-रसिक-मंडल द्वारा 14-15 दिसंबर को काशी के न्यू सिनेमा हॉल में हुआ था। मंचन की तैयारी और योजना का विवरण बताने के क्रम में राजेंद्र नारायण शर्मा का एक लंबा कथन उद्धृत किया गया है। शर्मा जी का संदर्भ इस प्रकार दिया गया है – ‘लेखक : प्रसाद का अन्तेवासी’, नाट्य प्रशिक्षण शिविर – 1972, वाराणसी की स्मारिका, 1972।”

राजेंद्र नारायण शर्मा के उस लंबे कथन का एक अंश इन अतिरिक्त तीन दृश्यों के बारे में बताता है, “… एक ब्रह्म संकल्प के साथ सबने प्रसादजी के ‘चंद्रगुप्त’ नाटक को अभिनीत करने का निश्चय किया। नाटककार से प्रार्थना की गई कि वे स्वयं नाटक के कलेवर को, उसके आयतन को इस भांति छोटा कर दें जिससे उसकी रमणीयता और रस सृष्टि रंच मात्र भी कम न हो और उसका अभिनय चार-पांच घंटों के भीतर सफलता के साथ किया जा सके। प्रसादजी ने संकोच के साथ इसे स्वीकार किया। उनसे यह भी प्रार्थना की गई कि काल की परंपरा के अनुसार विदूषक के अतिरिक्त उसमें एक प्रहसन [हास्य नाटिका] की भी रचना आप करने की कृपा करें जो मूल नाटक की कथा के समानांतर एक हास्योत्पादक लघु कहानी के रूप में चले। पारसी रंगमंच की प्रभुता के युग की इस मांग को इच्छा न रहते हुए भी उन्होंने अपनी स्वीकृति दी। स्वयं न लिख कर उन्होंने तटस्थ भाव से बोल कर प्रहसन लिखा दिया। यद्यपि उक्त प्रहसन केवल नाटक के मंचीकरण के हेतु लिखवाया लेकिन उन्होंने इस बात का इतना ध्यान रखा कि प्रहसन के पात्र और उनकी कथा दोनों उसी युग के हों जिस युग का यह नाटक है। प्रहसन का पहला दृश्य इन पंक्तियों के लेखक ने तथा दूसरा और तीसरा दृश्य श्री लक्ष्मीकांत झा ने लिखा है।” (प्रसाद के नाटक – सिद्धनाथ कुमार, अनुपम प्रकाशन, पटना, 1990, पृष्ठ संख्या – 38)

राजेंद्र नारायण शर्मा की टिप्पणी हमारी समस्या का समाधान नहीं कर पाती। उन्होंने नाटक का मंचन वर्ष 1933 बताया है, जबकि भारती भंडार के 1932 के संस्करण से पता चलता है कि चारों दृश्यों को पहले ही हटाया जा चुका था। दूसरे, जैसा कि पहले भी कहा गया है, तीन दृश्यों को छोड़कर दोनों संस्करणों की सामग्री में कोई अंतर नहीं है। यदि उपर्युक्त टिप्पणी सच है तो बस इतना कहा जा सकता है कि प्रसाद ने मंचन की आवश्यकता के देखते हुए, नाटक के पाठ में तात्कालिक बदलाव किया हो, लेकिन वह अस्थायी और अवसर विशेष के लिए था। उसके आधार पर प्रकाशित सामग्री को संशोधित नहीं किया गया था। दूसरे नाटक में आजीवक की उपस्थिति केवल प्रहसन के लिए नहीं, बल्कि तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को प्रभावशाली बनाने के लिए है।

डॉ. कमलेश वर्मा, राजेंद्र नारायण शर्मा की उपर्युक्त टिप्पणी से आश्वस्त दिखते हुए लिखते हैं कि “संदर्भित तीन दृश्यों को ‘प्रसाद वाङ्मय’ के खंड-दो में शामिल किया गया है। चूंकि इन दृश्यों को केवल उस समय के मंचन के लिए बोलकर लिखवाया गया था, इसलिए इसे मूल पाठ में शामिल नहीं किया गया। यह उचित भी है। प्रसाद ने मंचन से जुड़े शुभचिंतकों के प्रेमपूर्ण दबाव के कारण इन तीन दृश्यों को बोलकर लिखवाना स्वीकार किया था इसलिए इन्हें नाटक के पाठ का हिस्सा नहीं माना गया। इन तीनों दृश्यों की भाषा भी अन्य दृश्यों की भाषा से थोड़ी हल्की है। ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि इनमें प्रहसन की झलक देनी थी।”

इस संबंध में मैं पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि ‘प्रसाद वाङ्मय’ के खंड-दो में ‘चंद्रगुप्त’ नाटक का जो पाठ है उसमें संवत 1988 (1931 ईस्वी) दर्ज है। उसमें 47 दृश्य थे, इसकी पुष्टि जगन्नाथ प्रसाद की पुस्तक से भी हो जाती है। वह नाटक का प्रथम संस्करण था। उससे पहले मंचन की बात संभव ही नहीं थी। तीनों दृश्यों को हटाने तथा शीर्षक बदलने कार्य भारती भंडार से छपे दूसरे संस्करण में हुआ था। रहा भाषा के हल्के होने का सवाल सो सार्थवाह धनदत्त, उसकी पत्नी, चंदन और आजीवक श्रमण तत्कालीन गैर-अभिजन समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी भाषा मागधी या स्थानीय रही होगी। जयशंकर प्रसाद ने पात्रों के अनकूल भाषा का प्रयोग किया है। दूसरे हास्य किसी भी नाटक का प्रमुख हिस्सा होता है। वह जितना सरल और सहज संप्रेषणीय होगा, जनसाधारण उसका उतना ही आनंद ले सकेगा। हम कह सकते हैं कि नाटककार ने प्रसंगानुकूल भाषा का चयन किया था।

एक और बात जो सिद्धनाथ कुमार, राजेंद्र नारायण शर्मा आदि के कथन को संद्धिग्ध बनाती है, वह यह कि वे नाटक में बदलाव की बात तो करते हैं, मगर आजीवक का उल्लेख नहीं करते। बुद्ध के समय आजीवक भारत का प्रमुखतम दर्शन था। उत्तर भारत में इसका शीर्षत्व अशोक के आरंभिक शासनकाल तक बना रहा। उसके बाद यह दक्षिण में फला-फूला, जहां तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक इसके बने रहने के प्रमाण मिलते हैं। उत्तर भारत में अकबर के दरबार में पहुंचा आजीवक (नास्तिक) जिस राजनीतिक दर्शन की गवेष्णा करता है, उसकी तुलना अरस्तु से लेकर रूसो, बैंथम सहित आधुनिकतम दार्शनिक के राजनीतिक दर्शन से की जा सकती है। इसके बावजूद इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़कर किसी भी संस्कृत या हिंदू धर्मग्रंथ में आजीवकों अथवा उनके दर्शन का उल्लेख नहीं है। उलटे उनकी याद को मिटाने के लिए उसे लोकायत, चार्वाक, नास्तिक जैसे नाम दिए जाते रहे हैं।

क्रमश: जारी

[1] रत्नशंकर प्रसाद, प्रसाद वाङ्मय खंड दो [1989 : xi], प्रसाद प्रकाशन, प्रसाद मंदिर, वाराणसी

[2] राज्ञो वधं चिकीर्षेद्यस्तस्य चित्रो वधो भवेत्, आजीवकस्य  स्तेनस्य वर्णसंकरकस्य च. महाभारत, शांतिपर्व,  86.21, पेंगुइन क्लासिक्स, अनुवाद जॉन डी स्मिथ

[3] मस्करमस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः.पाणिनी 6.1.154

[4] चंद्रगुप्त, प्रथम अंक, दृश्य पांच, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 540-541 (URL: shorturl.at/hYusN)

[5] चंद्रगुप्त, प्रथम अंक, दृश्य पांच, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 542-543

[6] चंद्रगुप्त, दूसरा अंक, दृश्य दस, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 588

[7] मक्खलि गोसाल, सामञ्ञफलसुत्त दीघनिकाय

[8] चंद्रगुप्त, तृतीय अंक, दृश्य छह, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 608

[9] शब्दबिरादरी shorturl.at/aFza3

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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