गत 26 अप्रैल, 2025 को लेफ्टवर्ड/वाम प्रकाशन बुकस्टोर में इतिहासविद, कवि और राजनीतिक समीक्षक अशोक पांडे की कविताओं की एक पुस्तक पर चर्चा आयोजित थी। उन्होंने एक घंटे से अधिक समय तक अपनी कविताओं का पाठ किया। वहां करीब 15 लोग मौजूद थे, जिनमें मैं और मेरे दो मित्र भी थे। कवितापाठ के बाद उन्हें श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देने शुरू किए। चूंकि मुझे उनकी रूमानी कविताएं व्यक्तिपरक, आत्म-केंद्रित और भाववादी लगीं, इसलिए मैंने उनसे पूछा, “आपकी कविताएं प्रेम के भौतिकवादी पक्ष की बात क्यों नहीं करतीं? यहां तो अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक प्रेम करने पर लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।”
पांडे ने प्रश्न का जवाब प्रश्न से दिया, “क्या आपने कभी किसी से प्यार किया है?” फिर वे बोले, “मेरी कविताओं में अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक रूमानी रिश्ते इसलिए नहीं हैं, क्योंकि मेरे लिए वे जीवन की वास्तविकता नहीं रहे हैं। इस तरह के सामाजिक बंधन मेरे अनुभव का हिसा नहीं रहे हैं।” मेरा दूसरा प्रश्न था कि “क्या किसी कलाकार अथवा लेखक को आमजनों में राजनीतिक चेतना जगाने के लिए काम करना चाहिए?” उनका जवाब फिर प्रश्न के रूप में था। “ये किसके राजनीतिक विचार हैं– मार्क्स के, लेनिन के, किसके?” फिर उन्होंने कहा, “आदमी पहले से एक मानसिकता बनाकर लेखन नहीं कर सकता। लेखन अंदर से आता है। अगर आप लिखने से पहले सोचेंगे तो आप सही अर्थों में लेखन नहीं कर सकते। आमजनों में राजनीतिक चेतना जगाना लेखकों का कर्त्तव्य नहीं है।” मैंने उन्हें याद दिलाया कि कबीर कला मंच के कलाकार सागर गोरखे, रमेश गैचोर, ज्योति जगताप और सचिन माली जेल में हैं। उनका जवाब और सवाल दोनों था कि, “यह सही है कि वे जेल में इसलिए हैं क्योंकि वे दलितों में राजनीतिक चेतना जगा रहे थे। मगर इसका मतलब यह तो नहीं है जो लोग जेल से बाहर हैं, वे कुछ लिखते ही नहीं हैं?”
जब मैंने उनसे पूछा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान जैसे दलित लेखकों की रचनाएं लोकविमर्श का हिस्सा क्यों नहीं बनतीं तो उन्होंने कहा, “क्या आपने जूठन पढ़ी है? उसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने कुछ दोस्तों के नाम लिखे हैं। उनमें मेरा नाम भी है। जब ओमप्रकाश वाल्मीकि को माली इमदाद की ज़रूरत पड़ी तो मैंने उनकी मदद की। राजेंद्र यादव ने एक पैसा नहीं दिया। आप लोग केवल ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान के नाम के प्लेकार्ड लगाकर आ जाते हो और नारे लगाते हो। जब वाल्मीकि को मदद की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी तब उन्हीं लोगों ने उनकी मदद की, जिनके खिलाफ वे लिखते थे, जिनसे उनकी विचारधारा मेल नहीं खाती थी। आज के युवा सोशल मीडिया में गुम हैं। जो कुछ वे सोशल मीडिया पर पढ़ लेते हैं, उसे ही सच मान लेते हैं। मुझे सोशल मीडिया पसंद नहीं है।”

अशोक कुमार पांडे को शायद मेरे प्रश्न चुभ गए थे। उनके उत्तर विरोधाभासी थे। उन्होंने कहा कि राजनीतिक चेतना जगाना लेखकों का कर्त्तव्य नहीं है। मगर यह मंज़ूर किया कि कबीर कला मंच के कलाकार वही कर रहे हैं। मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान के नाम उदाहरण के रूप में साहित्यिक विमर्श में प्रतिनिधित्व के अभाव को रेखांकित करने के इरादे से लिए थे। मगर वे यह बताने लगे कि ज़रूरत के वक्त उन्होंने वाल्मीकि की आर्थिक मदद की थी। उन्होंने कहा कि उन्हें सोशल मीडिया पसंद नहीं है, मगर वे तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर खूब दिखते हैं। अशोक पांडे उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष ‘दिखते’ हैं। वे उस वर्ग से हैं जिसके पास सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पूंजी हैं। ऐसे में शासक वर्गों के हितों के खिलाफ कुछ लिखने के लिए उन्हें अपने मन को टटोलना होगा, खुद को खुद के बारे में चेतनशील करना होगा और उन्हें हासिल विशेषाधिकारों को त्यागना होगा। अशोक कुमार पांडे ने ओमप्रकाश वाल्मीकि के बारे में तो थोड़ा-बहुत अच्छा कहा भी, मगर सूरजपाल चौहान के बारे में वे एक शब्द नहीं बोले। अपने वर्गीय और जातिगत विशेषाधिकारों की चकाचौंध से मुक्त होने के लिए अशोक कुमार पांडे को उस भौतिकवादी यथार्थ को समझना होगा, जिसने सूरजपाल चौहान को जन्म दिया था।
सूरजपाल चौहान की जिंदगी की कहानी
सूरजपाल चौहान का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के फुसावली गांव में एक भूमिहीन वाल्मीकि परिवार में हुआ था। उनकी जाति हाथ से मैला साफ़ करने का काम करने पर मजबूर थी। चौहान अपनी मां के साथ के साथ ठाकुरों और ब्राह्मणों के घरों में जाते थे और काम में उनकी मदद करते थे। बहुत कम उम्र में चौहान की मुलाकात जातिवाद और सामंतवाद की बेरहम सच्चाईयों से हो गई थी। उनकी मां बीमार रहती थीं मगर तब भी उन्हें काम पर जाना पड़ता था। और इस काम के बदले क्या मिला था – भूस्वामी कुलीनों की थालियों की जूठन! इन कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए उनकी मां चल बसीं। उसके बाद उनके पिता, जो दिल्ली के निजामुद्दीन स्टेशन पर मजदूरी करते थे, उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आए। उनके पिता बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी की जुगाड़ कर पाते थे। चौहान पहले दिल्ली के खान मार्केट की झुग्गियों में रहे और फिर नेशनल स्टेडियम में, जहां एक शौचालय को घर का रूप दे दिया गया था। जातिगत दमन और गरीबी से जूझते हुए भी वे एक सरकारी दफ्तर में नौकरी हासिल करने में कामयाब हो गए। इसी दफ्तर में उनके पिताजी एक समय स्वीपर का काम किया करते थे।

सूरजपाल चौहान की कविताएं और लघु कथाएं, जातिगत और वर्गीय शोषण के उनके अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि आंबेडकरवादी व जाति-विरोधी साहित्य से उनकी पहचान ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ही करवाई थी। तब तक वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा आयोजित कार्यक्रमों और कार्यशालाओं में हिस्सा लिया करते थे। वाल्मीकि से उनकी पहली मुलाकात दिल्ली में एक कवि गोष्ठी में हुई थी। चौहान ने हंस में वाल्मीकि की कविताएं पढ़ रखीं थीं। गोष्ठी में चौहान ने जो कविता पढ़ी, उसमें भारत के गांवों का रूमानी चित्रण था। गोपालदास नीरज ने उनकी कविता की सराहना की। मगर गोष्ठी के बाद वाल्मीकि ने चौहान से कहा कि उनकी कविता बहुत ‘घटिया’ थी। वाल्मीकि ने कहा कि गांव तो दलितों के लिए नरक हैं। वाल्मीकि की ग्रामीण भारत की समझ आंबेडकर से मिलती-जुलती थी, जो गांवों को जहालत का अड्डा मानते थे। वाल्मीकि के मार्गदर्शन में सूरजपाल ने साहित्य के क्षेत्र में उंचाईयों को छुआ, ‘गप्पी’ सवर्ण साहित्य का पर्दाफाश किया और ‘जाति-विरोधी’ साहित्य के प्रतिनिधि हस्ताक्षर बने। उनकी कविताएं जैसे ‘ये दलितो की बस्ती है’ और लघु कथाएं जैसे ‘बदबू’ भाववादी सवर्ण लेखन के खिलाफ साहित्यिक युद्ध का ऐलान हैं। ‘ये दलितो की बस्ती है’ के तीन शुरुआती छंद इस प्रकार हैं–
बोतल महंगी है तो क्या,
थैली बहुत ही सस्ती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
ब्रह्मा विष्णु इनके घर में,
क़दम-क़दम पर जय श्रीराम।
रात जगाते शेरोंवाली की …
करते कथा सत्यनाराण…।
पुरखों को जिसने मारा था,
उनकी ही कैसिट बजती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
तू चूहड़ा और मैं चमार हूं,
ये खटीक और वो कोली।
एक तो हम कभी हो ना पाए,
बन गई जगह-जगह टोली।
अपने मुक्तिदाता को भूले,
गैरों की झांकी सजती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
हर महीने वृंदावन दौड़े,
माता वैष्णो छह-छह बार।
गुड़गांवा की जात लगाता,
सोमनाथ को अब तैयार।
बेटी इसकी चार साल से,
दसवीं में ही पढ़ती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और जिस दुनिया में वे रहते थे, उससे मैं वाकिफ था। उस दिन अशोक कुमार पांडे के कवितापाठ कार्यक्रम में मुझे समझ में आया कि ‘गप्पी’ साहित्य से सूरजपाल चौहान का क्या मतलब था।
(अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in