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जेर-ए-बहस : क्या शंबूक श्रमण परंपरा का प्रतिनिधि था?

रामायण में शंबूक प्रकरण को जाति के नजरिए से ही देखा गया है। देवता शंबूक की हत्या के बाद राम की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि उनकी कृपा से ही शूद्र स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाया है। लेकिन मामला केवल शूद्रत्व का होता तो ब्राह्मणों को राम के पास जाने की आवश्यकता शायद ही पड़ती। वे अपने स्तर पर ही निपट लेते। इसलिए उसके मृत्युदंड के कारण हमें कहीं और तलाशने होंगे। ओमप्रकाश कश्यप का यह आलेख

राम द्वारा शंबूक की निर्दयतापूर्ण हत्या करने को लेकर अनेक व्याख्याएं मिलती हैं। एक मान्यता है कि वह वेदों का अध्ययन कर रहा था। लेकिन शूद्र द्वारा वेद संबंधी कर्म करने; यथा वेदमंत्र सुनने पर कान में पिघला सीसा भर देने, मंत्रोच्चारण करने पर जीभ तथा स्पर्श करने पर हाथ काट देने जैसी सजाओं का प्रावधान है; मृत्युदंड का नहीं। इधर लोग बताने लगे हैं कि वह सशरीर स्वर्ग जाना चाहता था। जबकि मर्त्य प्राणी का सशरीर स्वर्ग जाना इंद्र की समस्या थी। उसने जैसे नहुष को रोका था, शंबूक को भी रोक सकता था। यदि नहुष के सशरीर स्वर्ग जाने के कृत्य से किसी ब्राह्मण का बेटा नहीं मरा था, तो शंबूक की इच्छा-मात्र से ब्राह्मण-पुत्र कैसे मर सकता था? वाल्मीकि रामायण के अनुसार शंबूक को इसलिए दंड दिया गया था क्योंकि वह तपस्या जैसा ‘ब्राह्मणोचित’ कर्म कर रहा था। ब्राह्मण परंपरा में ‘तप’ का आशय यज्ञवेदी (अग्निकुंड) के सामने बैठकर तपना है। फिर यदि शूद्र होना ही उसका अपराध था तो कवष ऐलूष, ऋषि कावषेय, रैक्व, महीदास, कौत्स, जाबाल आदि अनेक ऋषि, विद्वान कथित शूद्र वर्ग से ही आए थे। ब्राह्मण परंपरा इन सभी को ससम्मान याद करती है। माना जाता है कि वेदों के रचयिताओं में 21 ऋषि ब्राह्मणेतर शूद्र समुदाय से थे। रामायण में ही मतंग नाम के शूद्र ऋषि का ससम्मान उल्लेख है।

इन दिनों यज्ञादि अनुष्ठानों में भागीदारी तथा वेद-वेदांग आदि ग्रंथ रहस्य नहीं रहे। बल्कि अल्पसंख्यक हो जाने के भय से ब्राह्मण खुद चाहते हैं कि उनका प्रचार-प्रसार हो। इसलिए जब भी शंबूक के मृत्युदंड का कारण उनके शूद्रत्व को बताया जाता है, ब्राह्मणवादी शबरी, मतंग मुनि, जाबाल आदि का उदाहरण देकर बचाव में उतर आते है। दरअसल ब्राह्मणों को शूद्र प्रतिभाओं से उस समय तक कोई शिकायत नहीं होती थी, जब तक वे वर्ण-संस्कृति की मर्यादा में रहकर काम करें। यदि कोई विलक्षण शूद्र मेधा वर्ण-संस्कृति की मर्यादा तथा जन्मना ब्राह्मणत्व के मिथ को पुष्ट करती हो तो देर-सवेर उसका वर्णोन्नयन कर ब्राह्मण मान लेने से कोई परहेज नहीं था, जैसा उन्होंने इतरापुत्र महीदास के साथ किया था। मामला ब्राह्मण संस्कृति के विरोध का हो तो वे ब्राह्मण कुल में जन्मे रावण को भी राक्षस घोषित कर सकते थे। सारतः ब्राह्मणों को शिकायत शूद्र के सोच से नहीं, उसके सोच की स्वतंत्रता से होती है।

वाल्मीकि रामायण में ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनसे पता चलता है कि कवि वाल्मीकि श्रमण परंपरा तथा उसकी साधना-पद्धतियों से परिचित थे। दशरथ के दरबारी ऋषियों में जाबालि का नाम आया है। राम को समझाने भरत के साथ किष्किंधा पर्वत तक गए ऋषि-मंडल में वे भी शामिल थे। उनके विचारों पर भौतिकवादी चिंतन की छाप है। उन्हीं तर्कों की मदद से वे राम को वापस अयोध्या लौटकर राज-पाट संभालने की सलाह देते हैं। इसके विपरीत, राम जाबालि की निंदा करता है तथा उन्हें नास्तिक कहता है और नास्तिकों को चोर के समान दंडनीय बताता है।

सवाल यह है कि ब्राह्मण संस्कृति क्या थी? क्या वेद पठन-पाठन ब्राह्मण संस्कृति मानी जाएगी। हरगिज नहीं। वेदपाठी होने के बावजूद रावण को राक्षस घोषित किया गया था? उस समय यज्ञ और कर्मकांड ब्राह्मण संस्कृति का लक्षण थे तथा तर्क भौतिकवादी दर्शनों का। जहां तक वेदों के पढ़ने की बात है, उनका लिप्यांतरण ईसा उपरांत पहली शताब्दी के आसपास ही हो पाया था। ब्राह्मणों के लिए असली समस्या ही उनके चाहे-अनचाहे हुए वेदादि के लिप्यांतरण के बाद से शुरू हुई थी। उससे आश्रम परंपरा की तथाकथित महानता के छद्म एक-एक कर सामने आने लगे थे। लिखित रूप में उपलब्ध होने के बाद वेदों के महिमामंडन या विरोध में कोई भी, लिखकर या बोलकर अपनी बात रख सकता था। उससे ‘ब्रह्म-वाक्य’ का स्थापित मिथ संदिग्ध की श्रेणी में आने लगा था। समानांतर धर्म-संघों की ओर से उसे तर्क-सम्मत ढंग से चुनौती मिलने लगी थी। आजीवक तो पहले से ही वैदिक परंपरा का विरोध करते आए थे। वेदों को वे बुद्धि-पौरुषहीन जनों की आजीविका का माध्यम मानते थे।[1] निरुक्त के लेखन में अपने गुरु यास्क द्वारा किए गए श्रम की परवाह न करते हुए, व्याकरणाचार्य कौत्स ने कहा था कि वैदिक ऋचाओं में कुछ भी सार्थक नहीं है – वे अर्थहीन हैं।[2] वेद पढ़ने-सुनने वाले शूद्रों के कानों में पिघला हुआ सीसा डाल भर देना चाहिए, यह नियम उनके लिपिबद्ध होने के बाद ही बना होगा। तदनुसार यह ईसा उपरांत पहली शताब्दी की शुरुआत के काफी बाद की घटना ही हो सकती है।

बिहार के गया जिले के निकट बराबर पहाड़ी गुफाओं में आजीवकों की प्रतिमाएं

शंबूक प्रकरण की पड़ताल के लिए, उसके समय के साथ-साथ यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि पूरा प्रकरण तब का है जब राम अश्वमेध यज्ञ कर रहा था। नारद की बात सुनकर राम जिस तरह विवेकहीन सम्राट की तरह तलवार उठाकर चल देता है, उससे तो ब्राह्मणों का ‘चक्रवर्तित्व’ ही सिद्ध होता है। कई विद्वान रामायण के इस हिस्से को बाद में जोड़ा गया मानते हैं। हो सकता है, राम की भांति शंबूक भी कल्पित पात्र रहा हो। वास्तविक इतिहास में उसका कोई अस्तित्व ही न रहा हो। लेकिन चालाक लोग इतिहास को अपने हिसाब से गढ़ते आए हैं। शंबूक प्रकरण भारत के सांस्कृतिक इतिहास का सच, तत्कालीन समाज में शूद्रों के प्रति ब्राह्मणों की विद्वैषपूर्ण नीति का आइना है। यही कारण है कि ब्राह्मणवाद के उभार के दिनों में इसे अलग-अलग ग्रंथों में दोहराया गया। रामायण के अलावा इसे पउमचरियं, महाभारत, पदमपुराण (सृष्टि खंड), भवभूतिकृत उत्तररामचरित, कालिदास के रघुवंश, कंबन रामायण, आनंद रामायण, अलवार संतों की कविताओं के माध्यम से जीवित रखने की कोशिश की गई है। रामायण में दी गई कहानी इस प्रकार है–

पुत्र की अल्पायु में ही मृत्यु से व्यथित, एक ब्राह्मण राम के दरबार में पहुंचा और उसकी अकाल मृत्यु के लिए राज्य में हो रहे किसी दुष्कर्म की ओर संकेत किया। उसी समय वशिष्ठ के साथ आठ ब्राह्मण ऋषियों ने दरबार में प्रवेश किया। उनमें मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कच्चायन, काश्यप, जाबालि, गौतम के अलावा नारद भी थे। समस्या के समाधान के लिए राम ने उन ऋषियों की ओर देखा। नारद ने धर्म के स्वरूप में आ रही उत्तरोत्तर गिरावट की चर्चा करते हुए कहा– ‘तुम्हारे राज्य में इस समय कोई खोटी बुद्धि वाला शूद्र महान तप का आश्रय लेकर तपस्या कर रहा है। बालक की असमय मृत्यु के लिए वही जिम्मेदार है।’[3]

नारद की प्रेरणा से, राज्य में हो रहे अनर्थ की जांच के लिए राम वाणों से भरे दो तरकस और चमचमाती तलवार हाथ में लेकर पहले पश्चिम दिशा की ओर गया, फिर इधर-उधर खोजते हुए उत्तर दिशा की ओर बढ़ गया। जब उन दिशाओं में कुछ भी न मिला तो उसने पूरब दिशा में जाकर अच्छी तरह से पड़ताल की। वहां से निराश होकर वह दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गया। वहां शैवाल पर्वत के उत्तर भाग में उसने एक उग्र तपस्वी को देखा जो नीचे मुंह किए औंधा लटका हुए, बड़ी भारी तपस्या में लीन था।[4] ‘पद्मपुराण’ में भी प्रसंग को यथावत दोहराया गया है। उसके अनुसार राम ने दक्षिण दिशा में जाकर (समाक्रामद्दक्षिणां) तपस्वी को नीचे सिर लटकाकर उग्र तप में लीन देखा।[5] शंबूक ने खुद बताया कि वह ‘शूद्र योनि’ में जन्मा है और उग्र तपस्या कर रहा है। तपस्या का लक्ष्य सशरीर स्वर्ग प्राप्त करना है।[6]

इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। गुप्तकाल के आसपास जब महाकाव्यों, पुराणों की रचना की गई, उस समय दक्षिण में श्रमण परंपरा पर आधारित धर्मों का बोलबाला था। चूंकि सशरीर मुक्ति की अवधारणा बुद्ध के निर्वाण और महावीर के कैवल्य से प्रेरित है। अतएव कह सकते हैं कि आजीवक धर्म-दर्शन के अलावा ये दोनों धर्म भी उन दिनों ब्राह्मणों के लिए चुनौती बने हुए थे। यहां सत्यकाम जाबाला प्रकरण की याद आना प्रासंगिक है। सत्यकाम जब यह बताता है कि वह मामूली पिसनहारी (अनाज पिसने वाले का) का बेटा है तो उद्दालक प्रसन्न होकर, ‘ऐसा सच बोलने वाला ब्राह्मण ही हो सकता है’ – उसे अपने गुरुकुल में शामिल कर लेते हैं। इसके दो निहितार्थ है। पहला सच बोलने वाला ब्राह्मण ही हो सकता है। शंबूक भी अपने बारे में सच-सच बता देता है, लेकिन राम सच बोलने के लिए उसकी प्रशंसा करने के बजाय, गर्दन तराश देता है। इससे उपनिषदकाल से महाकाव्यकाल के बीच हो रहे बदलाव को समझा जा सकता है। उपनिषद क्षत्रियों की रचनाएं हैं और महाकाव्य ब्राह्मणों की। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि क्षत्रिय वर्ण-व्यवस्था में लचीलापन बनाए रखना चाहते थे, जबकि ब्राह्मण उसमें जरा-भी ढील देने को तैयार न थे।

कालीदास कृत ‘रघुवंशम्’ में भी शंबूक को धुंए से लाल नेत्र किए, वृक्ष की शाखा पर लटकते, नीचे की ओर मुंह किए तपस्यारत बताया गया है। राम द्वारा पूछने पर धुआं पीने वाले उस पुरुष ने अपने को स्वर्ग की इच्छा करने वाला शंबूक नामक शूद्र बताया था।[7] राम ने उसे तत्क्षण मौत के घाट उतार दिया। महाभारत में तपस्वी शूद्र को दंडित करने के लिए राम की प्रशंसा की गई है।[8] नौवीं शताब्दी के तमिल कवि कुलशेखर अलवार की ‘पेरुमल तिरुमोझी’ में भी शंबूक प्रसंग का वर्णन हुआ है। उसके अनुसार चित्रकूट तिल्लई नगर में स्थित था। रामायण में भी शंबूक को दक्षिण भारत से संबंधित बताया है। कुलशेखर अलवार लिखते हैं–

हम तिल्लईनगर में चित्रकूटधाम में बसने वाले भगवान (राम) को हमेशा याद रखते हैं, उन्होंने ही तपस्वी शंबूक का वध कर, श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र को जीवन प्रदान किया था।[9]

भारत में जाति और धर्म परस्पर अन्योन्याश्रित रहे हैं। एक-दूसरे की रक्षा और संवर्धन हेतु कभी धर्म तलवार बनता है और जाति उसका सुरक्षा-कवच। कभी जाति तलवार बन जाती है और धर्म सुरक्षा-कवच। जब से ब्राह्मण धर्म अस्तित्व में आया है, धर्म और जाति का कुछ ऐसा ही अटूट नाता रहा है। इसी नीति के चलते यदि शूद्र ऋषि ‘ब्राह्मणत्व’ का पोषण-संरक्षण करें तो उन्हें ब्राह्मण परंपरा सामयिक विरोध के बावजूद अंततः स्वीकार कर ही लेती थी। ब्राह्मण धर्मग्रंथों में जाति के नाम पर हुई हत्याओं का उल्लेख नहीं है। शूद्र की हत्या को महत्वपूर्ण माना ही नहीं जाता था। ‘मनुस्मृति’ में उसे कुत्ते, बिल्ली, मेंढक आदि की हत्या के तुल्य माना गया है।[10] ब्राह्मण ग्रंथों में केवल धर्म के नाम पर हुई हत्याओं का वर्णन है। वाल्मीकि रामायण में वेद-विरोधियों, बौद्ध एवं जैन मतावलंबियों को चोरों के समान दंडनीय माना गया है।[11] शंकराचार्य ने उपनिषद आदि के भाष्यों के माध्यम से मनुस्मृति के जाति-विधान को नए सिरे से लागू किया था। उसके बाद से ही विरोधी धर्मावलंबियों की हत्याओं में तेजी आई थी। उसके निशाने पर आजीवक, जैन और बौद्ध थे। विद्यारण्य विरचित ‘शंकरदिग्विजय’ में मीमांसक कुमारिल भट्ट को कार्तिकेय का अवतार बताकर उसकी आज्ञा से जैनों और बौद्धों के कत्लेआम का वर्णन किया गया है–

कार्तिकेय के अवतार कुमारिलभट्ट की आज्ञा को मानकर राजा ने धर्म-द्वेषी बौद्धों और जैनों को उसी प्रकार मार डाला, जिस प्रकार तत्वज्ञानी योगी, योग के प्रतिबंधक व्याधि, आलस्य, संशय आदि विघ्नों को नष्ट कर देता है … सिंहरूपी कुमारिल द्वारा हस्ती रूपी बौद्धों एवं जैनों के मारे जाने से श्रुति की शाखाएं चारों दिशाओं में निर्विघ्न बढ़ने लगीं।[12]

रामायण में शंबूक प्रकरण को जाति के नजरिए से ही देखा गया है। देवता शंबूक की हत्या के बाद राम की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि उनकी कृपा से ही शूद्र स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाया है (स्वर्गभाङ् नहि शूद्रोऽयं त्वत्कृते)। लेकिन मामला केवल शूद्रत्व का होता तो ब्राह्मणों को राम के पास जाने की आवश्यकता शायद ही पड़ती। वे अपने स्तर पर ही निपट लेते। इसलिए उसके मृत्युदंड के कारण हमें कहीं और तलाशने होंगे। ब्राह्मण परंपरा में तपस्या किसी न किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। आमतौर पर उसके लिए इंद्र के अलावा त्रिदेवों में से किसी एक देवता को चुना जाता था। महाभारत के अनुसार मतंग मुनि, उस पाप से मुक्ति के लिए जिसके कारण उन्हें शूद्र योनि में जन्म लेना पड़ा था, तपस्या करने लगते हैं। उस समय इंद्र आकर उन्हें समझाता है कि शूद्र के लिए इस लक्ष्य की प्राप्ति दुष्कर ही नहीं असंभव है। शंबूक अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किस देवता को प्रसन्न करना चाहते थे, इसका रामायण में कोई उल्लेख नहीं है। समस्या का एक पक्ष यह भी है कि ब्राह्मण धर्म-दर्शन में सदेह स्वर्ग प्राप्ति की कोई संकल्पना नहीं है। सदेह स्वर्ग जाने की एकमात्र कोशिश करने वाले के रूप में नहुष का नाम दर्ज है। विश्वामित्र उसे योगबल द्वारा स्वर्ग पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं, जिसे इंद्र नाकाम कर देता है। शंबूक के मामले में इंद्र विशेषरूप से चिंतित नहीं दिखता।

शंबूक की तप शैली पर विचार करते हैं। रामायण आदि ग्रंथों में उसे ‘उत्तम तप करते हुए’ (तप उत्तमम्) और ‘दृढ़विक्रमी तपोवृद्ध’ (तपोवृद्ध वर्तसे दृढ़विक्रम), ‘नीचे की ओर मुख करके तपोलीन’ (अवाक्-शिरास्थता भूतो) कहकर प्रशंसा की गई है। यह भी कहा गया है कि वह सशरीर से स्वर्ग जाने की कामना अथवा दिव्यत्व प्राप्त करने की इच्छा से उग्र तप कर रहा था।[13] ब्राह्मण परंपरा में यज्ञादि अनुष्ठानों पर जोर दिया जाता था। आगे चलकर संन्यास के साथ-साथ श्रमण परंपरा की तप-शैली को भी अपना लिया गया, लेकिन कठिन तप केवल और केवल आजीवकों और जैनों की विशेषता बने रहे। ‘निगंठ जातक’ (संख्या 144) में बहुत से आजीवकों का उल्लेख है जो ‘नाना प्रकार की तपस्याओं’; यथा उकडूं बैठना, चमगादड़ व्रत धारण करना (उल्टा लटकना), कांटों पर सोना, पंचाग्नि में तपना जैसी तपस्याओं में लिप्त रहते थे। ‘महासीहनाद सुत्तंत’ (मज्झिम निकाय) में बुद्ध भी अपने साधनाकाल के आरंभ में उकडूं बैठने, कंटक शयन करने, श्मशान में रात बिताने जैसे अनेक कष्टकारी तरीकों से देह की आतापना-सन्तापना करने की बात कहते हैं। इतनी दुष्कर तपस्या न जैन करते थे, न ही बौद्ध। शंबूक की उपर्युक्त साधना-शैली आजीवकों से मेल खाती है।

दूसरी और इतनी ही महत्वपूर्ण बात, शंबूक ने कहा था कि वह सशरीर मुक्ति अथवा दिव्यत्व की कामना से कठिन तप कर रहा है। ब्राह्मण परंपरा में सदेह मुक्ति की संकल्पना ही नहीं है। उसमें केवल आत्मा मुक्त होती है। उसके अनुसार आत्मा, परमात्मा के प्रतिनिधि के रूप में देह में वास करती है। मुक्ति की अवस्था में वह आवागमन छोड़ परमात्मा में समा जाती है। सदेह मुक्ति की संकल्पना केवल श्रमण दर्शनों की थी। संसार में रहते हुए सांसारिकता के समस्त प्रलोभनों और विकारों से मुक्त हो, परम शुद्ध, परम बुद्ध हो जाने की अवस्था को बौद्धों ने निर्वाण और जैनों ने कैवल्य कहा है। आजीवकों ने ऐसे तीर्थंकरों को परमश्वेत तीर्थंकर का दर्जा दिया है। उनकी परंपरा में मक्खलि गोसाल तथा पूरण कस्सप को परमश्वेत श्रेण जैन और बौद्ध धर्म में ऐसी अनेक विलक्षण दिव्यताओं का वर्णन है, जो उनके ग्रंथों के अनुसार कैवल्य और निर्वाण प्राप्ति के बाद क्रमशः महावीर और बुद्ध को प्राप्त हुई थीं। शंबूक की सदेह मुक्ति और दिव्यत्व की कामना केवल श्रमण धर्म के अनुसरण द्वारा संभव हो सकती थी। लेकिन उसकी कठिन तपस्या उसे आजीवकानुयायी सिद्ध करती है।

मगध-वैशाली युद्ध के समय जब जैन और बौद्ध शास्ता मौन थे, तब आजीवक गोसाल ही महाशिलाकंटक युद्ध को मनुष्यता का चरम बता रहे थे। महाभारत में युद्ध जीतकर लौटे पांडवों के स्वागत के लिए जब हजारों ब्राह्मण एकत्र होकर, उनकी जय-जयकार कर रहे थे, तब एक आजीवक आगे आकर उसे, राज्य-लिप्सा में अपने ही परिजनों की हत्या करने के लिए दुत्कारने लगा था। राम के हाथ में नंगी तलवार देखकर भी शंबूक का स्वयं को ‘शूद्रयोन्यां’ बताना और यह कहना कि ‘मैं सशरीर महायश और दिव्यत्व’ प्राप्त करना चाहता हूं, पूर्वजों से प्राप्त निर्भीकता को दर्शाता है।

पउमचरियं में शंबूक

जैन रामायण ‘पउमचरियं’ में शंबूक श्रमण परंपरा का प्रतिनिधि है। उसकी साधना वैसी ही है जैसी जैन तथा बौद्ध ग्रंथों में आजीवकों की बताई गई है। प्रकरण के अनुसार वह रावण की बहन चंद्रनखा (शूर्पणखा) तथा उसके पति खरदूषण की संतान था। चंद्रनखा, रावण, खरदूषण आदि ‘विद्याधर’ राक्षस थे। उनका काम द्वीप की रक्षा करना था।[14] एक दिन देवकुमारों के समान रूपवान शंबूक सूर्यहास नामक तलवार के साथ दण्डकारण्य पहुंचा। यह कहते हुए कि ‘सम्यक्त्व, नियम और योग से रहित’ (असमत्त नियमजोगस्स) जो भी मेरे रास्ते में आएगा, वह निस्संदेह मेरे हाथों मृत्यु का भागी बनेगा, उसने बांस के गहरे जंगल में प्रवेश किया और तपस्या में लीन हो गया। तप करते हुए बारह वर्ष और चार दिन बीत गए। विद्याप्राप्ति काल के केवल तीन दिन शेष थे। तभी घूमता-घामता लक्ष्मण वहां पहुंच गया। उसकी नजर सूर्य तेज से दमकती सूर्यहास नामक तलवार पर पड़ी। लक्ष्मण उसे चलाकर देखने लगा। उसने जोश में बांसों के झुरमुट को काट डाला। वह उत्साह में तलवार चला ही रहा था कि अचानक कुंडल से अलंकृत एक सिर उसके सामने आ गिरा। वह शंबूक का था।[15]

‘पउमचरियं’ के अनुसार शंबूक की मृत्यु महज एक दुर्घटना थी। उसके बाद लक्ष्मण सूर्यहास तलवार को लेकर वहां से चला गया था। पउमचरियं में शंबूक के धार्मिक विश्वास के बारे में कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन ऐसे कई संकेत हैं जो उसके आजीवक मतावलंबी होने की ओर इशारा करते हैं। उसके शब्दों, ‘सम्यक्त्व, नियम और योग’ से श्रमण संस्कृति के प्रति लगाव का संकेत मिलता है। तपस्या स्थली के रूप में वह बांसों के जंगल को चुनता है। बांस और मक्खलि गोसाल के बीच बहुत करीबी संबंध है। गोसाल के जन्म के समय उनके माता-पिता ने जिस ‘सरवण’ गांव में शरण ली थी, उसका अर्थ भी ‘बांसों का जंगल’ है। ‘विआहपण्णत्ती’ के अनुसार आजीवकोपासक अयंपुल द्वारा ‘हल्ला’ नामक कीट के बारे में पूछने पर गोसाल ने उसका परिचय बांस की जड़ में रहने वाले विषैले कीट (बंसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता) के रूप में दिया था। ‘हल्ला’ के नाम पर ही श्रावस्ती में आजीवक धर्म-दर्शन की संरक्षिका और कुंभकारापण की स्वामिनी हालाहला का, विरोधियों द्वारा नामकरण किया गया था।

कुल मिलाकर शंबूक का विद्याभ्यास अथवा तप के निमित्त बांसों के जंगल में जाना, प्रतीकात्मक रूप से उसके आजीवक धर्म की ओर प्रयाण को दर्शाता है। बांसों के जंगल में (भीषण गर्मी के बीच), खारे समुद्र तथा क्रौंचरवा (जहां क्रौंच पक्षी तीखी आवाज निकालते हों) जैसी कठिन परिस्थितियों में नदी के तट पर बारह वर्ष और चार दिनों तक विद्याभ्यास (तप) के लिए टिके रहना, आजीवकों की महादुष्कर तप-शैली की ओर संकेत करता है।

हाथ में तलवार शंबूक की रक्ष-संस्कृति का प्रतीक हो सकती है। जैन दर्शन में दीक्षा के लिए आजीविका के सभी संसाधनों का त्याग करना पड़ता था। आजीवक दर्शन में ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी। इससे शंबूक के जैन-तपस्वी होने की संभावना कम हो जाती है। विद्याभ्यास के दौरान कुंडल से अलंकृत रहना उसके आजीवक तपस्वी होने पर प्रश्न-चिह्न लगाता है, लेकिन यह भी सच है कि जैनग्रंथों में आजीवकों को बदनाम करने के लिए उनकी तप-शैली को विकृत दर्शाने की कोशिश भी लगातार होती रही है। स्वयं गोसाल को जीवन के अंतिम दिनों में मरणोपरांत शव को गंधोदक से नहलाने, बहुमूल्य पट-शाटक पहनाने, अलंकार आदि से सजाने की कामना करते हुए दिखाया गया है। आजीवक शंबूक को तपस्या के लिए निविड़ वन-प्रांतर में कुंडल और तलवार के साथ दिखाया जाना भी इसी प्रवृत्ति का संकेतक हो सकता है।

पउमचरियं को ईसा उपरांत तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना माना गया है। वाल्मीकि रामायण को अंतिम रूप गुप्तकाल में दिया गया था। उत्तर रामायण का समय तो दसवीं शताब्दी या उसके भी बाद का है। इस तरह रामायण के शंबूक प्रकरण पर ‘पउमचरियं’ के प्रभाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। प्रश्न यह उठता है कि जब पउमचरियं से उसकी पहचान ‘आजीवक’ या ‘जैन’ ही स्पष्ट नहीं थी, तो रामायण में उसके प्रक्षेपण की क्या आवश्यकता थी? उत्तर है– विद्याध्ययन वह भी लंबे समय तक। शूद्र या जनजाति का सदस्य, तपस्वी के भेष में बारह वर्ष विद्याध्ययन में बिताए यह ब्राह्मणों के विधान के विरुद्ध था। इसलिए उसे राम के हाथों दंडित कराया गया था। यह वह समय था जब ब्राह्मण ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र जैसे देवताओं, जिनपर बलात्कार और छल-प्रपंच के आरोप थे – को हटाकर राम जैसे वर्णाश्रम समर्थक देवताओं को स्थापित करने में लगे थे। ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की यह भी कमी थी वे कि वर्ण-भेद, सुर-असुर का विचार किए बिना किसी को भी वरदान से कृतार्थ कर सकते थे। शंबूक प्रकरण का संदेश था कि रामकृपा केवल धर्म और वर्णाश्रम की मर्यादा में ही संभव है।

संदर्भ :

[1]  अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकैति बृहस्पति: सर्वदर्शनसंग्रह [1.11]

[2]   अनर्थका हि मन्त्राः. कौत्स, निरुक्त [1.15]

[3] अद्य तप्यति दुर्बुद्धिस्तेन बालवधो ह्ययम्
यो ह्यधर्ममकार्ये वा विषये पार्थिव्यस्य तु
करोति चाश्रीमूलं तत्पुरे वा दुर्मतिनर:। रामायण, उत्तरकांड, 74.29-30.5

[4]   दक्षिणां दिशमाक्रामत्ततो राजर्षिनंदनः
शैवलस्योत्तरे पार्श्वे ददर्श सुमहत्सरः।
तस्मिन्सरसि तप्यन्तं तापसं सुमहत्तपः
ददर्श राघवः श्रीमाँल्लम्बमानमधोमुखम्। रामायण, उत्तरकांड 75.13-14

[5]   ददर्श राघवो भीमं लंबमानमधोमुखम्। श्रीपद्मपुराणम् (सृष्टिखंड) [35.69]

[6]   शूद्रयोनिप्रसूतोहं तप उग्रं समास्थित:। देवत्वं प्राथये रामस्वशरीरेण सुव्रत. न मिथ्याहं वदे भूप देवलोकजिगीषया। श्रीपद्मपुराणम् (सृष्टिखंड), [35.83-84]

[7] अथ धूमाभिताम्राक्षं वृक्षशाखावलम्बिनम्
ददर्श कंचिदैक्ष्वाकस्तपस्यन्तमधोमुखम्।
पृष्टनामान्वयो राज्ञा स किलाचष्ट धूमप:
आत्मानं शम्बुकं नामशूद्र सुरपदार्थिनम्। कालिदास, रघुवंश 15.49-50

[8]   श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारक:
जीवितो धर्ममासाद्य रामात् सत्यपराक्रमात्। महाभारत, शांतिपर्व 153.67

[9]   कुलशेखर अलवार, पेरुमल त्रिरुमोली, अंग्रेजी अनुवाद सुगन्य आनंद किचनेन, इंस्टीट्यूट फ्रांसिसी दि पांडिचेरी

[10]  मार्जारनकुलौ हत्वा चाषं मण्डूकमेव च।
श्वगोधौलूककाकांश्च शूद्रहत्याव्रतं चरेत्। मनुस्मृति 11.131

[11]   यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि य: शङ्क्यतम प्रजानां न नास्तिकेनाभिमुखो बुध: स्यात्। रामायण, अयोध्याकांड [109.34]

[12]  स्कन्दानुसारिराजेन जैना धर्मद्विषो हता:
योगीन्द्रेणेव योगाघ्ना विघ्नास्तत्त्वावलम्बिना।
कुमारिलमृगेन्द्रेण हतेषु जिनहस्तिषु
निष्यप्रत्यूहमवर्धन्त श्रुतिशाखा: समन्तत:। विद्यारण्य, श्रीशंकरदिग्विजय, [1.95, 97]

[13] शूद्रयोन्यां प्रजातेाऽस्मि तप उग्र समास्थित:
देवत्वं प्रार्थये राम सशरीरो महायश: … देवलोकजिगीषया. रामायण, उत्तरकांड  76.2-3

[14] न य रक्खसा न देवा, रक्खसीव तु जेण रक्खन्ति
विज्जाहरा जणेण, वुच्चन्ति उ रक्खसम तेण। पउमचरियं, संबुक्कवहणपव्वं 43.14

[15] पउमचरियं, संबुक्कवहणपव्वं 43.16-27

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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