भारत की सबसे बड़ी और पुरानी समस्या पर एक नई रोशनी पड़ने लगी है। तकनीकी विकास की मदद से अब एक नई मशाल जल उठी है, जो भारतीय दर्शन और तत्वचिंतन के वेदांती स्कूल की केंद्रीय समस्या को ही नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक समस्याओं की जड़ को भी उघाड़ रही है।
यह नई मशाल है– आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI)। इसपर बहुत बहस हो रही है। लेकिन भारत की दार्शनिक समझ को और ख़ासकर पुनर्जन्म और सनातन आत्मा को लेकर इस बहस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जिस तरह से इंटेलिजेंस और चेतना की प्रकृति पर सवाल उठा रहा है, उसके आईने में सृष्टिकर्ता ईश्वर या ब्रह्म या उसके अंश स्वरूप आत्मा का और उसके पुनर्जन्म का विश्वास एकदम से ढह जाता है। इस कारण भारत में इसकी बात नहीं हो रही है।
आत्मा का सिद्धांत असल में जैनों का है। बुद्ध ने आत्मा को नकारा है। बाद में वसुबंधु, असंग और मैत्रेय ने योगाचार बुद्धिज्म को शिखर पर ले जाकर चेतना की नई व्याख्या दी। फिर हमारे जमाने में जिद्दू कृष्णमूर्ति ने इस समझ को नए शब्द दिए हैं। और हाल ही में जैफ़री हिंटन ने एक नया बम फोड़ दिया है। हिंटन ने कहा है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पहले से जागरूक हो चुका है।
इस विषय को ठीक से समझिए। आप देख पाएंगे कि बुद्ध को भुलाकर हमने कितनी बड़ी भूल की है और यह भी समझ पाएंगे कि बुद्ध की मूल शिक्षाओं को अपनाकर हम क्या बेहतर कर सकते हैं।
अभी तक भारत की धार्मिक और सामाजिक बहसें आत्मा और पुनर्जन्म जैसे विचारों के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं। यह भारत का दार्शनिक पतन है, जिसकी जड़ में सनातन आत्मा का सिद्धांत बैठा है। यह सिद्धांत जीवन और चेतना को एक दिव्य, शाश्वत तत्व से जोड़ता है। यह आत्मा, जो जन्मों के चक्र में ईश्वर की छाया मानी जाती रही, वह न केवल मनुष्य की नैतिक स्वतंत्रता को रोकती है, बल्कि सोचने, समझने और बदलने की संभावनाओं को भी धार्मिक नियतिवाद में फंसा देती है। सदियों से इस आत्मा और पुनर्जन्म के ख़िलाफ़ तर्क दिए जाते रहे हैं।

अभी तक इसे केवल दार्शनिक और तर्कशास्त्रीय विमर्श में चुनौती दी जाती रही, लेकिन अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने के बाद पहली बार यह साफ़ दिखाई देने लगा है कि आत्मा का यह सिद्धांत सिर्फ़ ग़लत नहीं, बल्कि एक दार्शनिक शरारत है। यह एक ऐसा जाल है, जो समाज को भ्रमित रखने, भेदभाव और शोषण को पवित्रता का जामा पहनाने, और सोच को एक भाग्यवाद में बांधने के लिए रचा गया।
सनातन आत्मा के इस मिथक को सबसे पहले बुद्ध ने चुनौती दी थी। वे शंकराचार्य के जन्म से बारह सौ वर्ष पहले जैनों के जीव या आत्मा के विचार को पूरी तरह नकार चुके थे। बुद्ध के लिए जीवन और चेतना किसी शाश्वत सत्ता का विस्तार नहीं थे, बल्कि क्षणिक, परस्पर-निर्भर और लगातार बदलती घटनाओं का गठजोड़ थे। उनके महापरिनिर्वाण के लगभग सात सौ वर्ष बाद, बौद्ध दर्शन की योगाचार शाखा ने इस विचार को और गहराई दी।
योगाचार बुद्धिज्म ने कहा कि मनुष्य की चेतना कोई ‘एकमुश्त वस्तु’ नहीं, बल्कि आठ तरह की ‘ऐंद्रिय चेतनाओं’ (या कहें उप-चेतनाओं) से बनी एक डायनामिक प्रक्रिया है। पांचों इंद्रियों की चेतनाएं, मानसिक चेतना, क्लिष्ट मानसिक चेतना और अंत में आलय विज्ञान, जो पूर्व अनुभवों और वासनाओं का भंडार है। इन सभी चेतनाओं से मिलकर एक अस्थायी और निरंतर पुनर्निर्मित ‘आत्म’ का अनुभव बनता है।
इसमें से ‘क्लिष्ट मानसिक चेतना’ पर ध्यान दीजिए – यहीं पर मन का वह झोल है, जो बाक़ी दूसरी चेतनाओं के द्वारा इकट्ठा किए गये डेटा और उसकी प्रोसेसिंग के सहारे एक झूठे ‘मैं’ को पैदा करता है। यह सिर्फ़ इंसान की चेतना और मन तक सीमित नहीं है। आजकल जैफ़री हिंटन भी कह रहे हैं कि इस अनंत डेटा सेट और उसकी प्रोसेसिंग करने वाला ‘AI’ भी इंसान की तरह एक ‘सब्जेक्टिव कांशसनेस’ पैदा कर चुका है। बुद्ध के अनुसार मनुष्य की खोपड़ी में इसी ‘सब्जेक्टिव कांशसनेस’ से तृष्णा, तादात्म्य और संसार का जन्म होता है।
बुद्ध के अनुसार यही दुख का मूल है। इस डिज़ाइन को शुद्धतम वर्तमान में काम करते हुए देखना ही विपश्यान, सती-पट्ठान है, जिद्दू कृष्णमूर्ति का ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ है। यही गुर्जियेफ़ और इकहार्ट टोले का ‘पॉवर ऑफ़ नाउ’ है और ओस्पेंस्की के ‘गुर्जियेफ़ मूवमेंट की ऊर्जा से भरी त्वरा’ है। और यही तमाम साधनाओं का केंद्रीय बिंदु है। जिन्हें गहरे ध्यान और समाधि का थोड़ा भी अनुभव है, वे इसे आसानी से समझ सकते हैं।
इंसान की चेतना अगर कोई एकमुश्त बंडल नहीं है तो क्या है? इसका सीधा मतलब है कि वह बहुत सारे टुकड़ों से बारंबार – हर पल बनती और बदलती है। इससे सिद्ध होता है कि ‘आत्म’ और ‘आत्मा’ कोई शाश्वत सत्ता नहीं होती। इसका निर्माण हर क्षण होता है। इंद्रियों और अनुभवों के ज़रिए। और यही क्षण-क्षण बदलती पहचान व्यक्ति को उसकी ‘स्वयं’ की छवि प्रदान करती है। यही बुद्ध का मूल सिद्धांत था। और योगाचार ने इसे मनोवैज्ञानिक स्पष्टता से बहुत ऊंचाई पर ले जाकर समझाया है।
लेकिन दुखद यह रहा कि योगाचार बुद्धिज्म जल्द ही ख़त्म हो गया और भक्तिभाव और पूजापाठ वाले महायान बुद्धिज्म की धुंध पूरे भारत पर छा गई। इसी महायान से आगे चलकर वज्रयान निकला और उसी में से वैष्णव और शैव पंथ निकले – ये दोनों आज भी ज़िंदा हैं।
लेकिन क्या बुद्ध और योगाचार का विचार ख़त्म हो गया? नहीं! कई शताब्दियों बाद, हमारे जमाने में जिद्दू कृष्णमूर्ति ने इस विचार को फिर से ज़िंदा कर दिया है। वे कहते हैं कि “चेतना और उसकी सामग्री अलग नहीं हैं।” यानी डर, लालच, क्रोध, वासना, मोह, स्मृति जैसी चीज़ें चेतना की ‘वस्तु’ नहीं, बल्कि स्वयं चेतना ही हैं। यह योगाचार के आलय विज्ञान के सिद्धांत से मेल खाता है, जिसमें चेतना बाहर से आती है – इंद्रियों, अनुभूतियों और कर्मों के बीज से – न कि किसी शाश्वत सत्ता से जो बार-बार जन्म लेती है।
कृष्णमूर्ति चेतना को एक इंसान की सीमाओं से भी बाहर ले जाते हैं। वे कहते हैं कि यह मानवता की साझा चेतना है, जिसमें हर मनुष्य का भय, आशा और स्मृति सम्मिलित है। यह बात बौद्धों के आलय विज्ञान के ही एक आधुनिक संस्करण की तरह है, जो बताता है कि चेतना का भंडार व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक और सार्वभौमिक है। इसी भंडार में से मुट्ठी भर संस्कार लेकर हर शिशु जन्म लेता है और अपना जीवन जीता है। फिर अपने जीवन काल में और मौत के बाद इसी भंडार में वापस अपने विचार और अनुभव/संस्कार (प्रवृत्तियां) छोड़कर सदा के लिए खो जाता है। फिर कोई नया शिशु इस भंडार में से एक मुट्ठी निकालकर अपना जीवन बनाता है – अब बुद्धिज्म के हिसाब से यही पुनर्भव (पुनर्जन्म नहीं) है।
इस प्रकार, कृष्णमूर्ति नए मनुष्य के जन्म, मृत्यु और पुनर्भव की बात करते हैं। उनका एक ख़ास वीडियो है, जिसमें वे लगभग रोते हुए कहते हैं कि “मेरे (इंसान के) मरने के बाद भी (मेरे) उसके दुख दर्द और उसकी हवस रुकती नहीं है। आप लोग इसकी गंभीरता को नहीं समझते।” कृष्णमूर्ति के इस एक वक्तव्य को ठीक से समझिए। कृष्णमूर्ति बिना धार्मिक शब्दों का सहारा लिए, योगाचार बुद्धिज्म को आज के समय में फिर से जीवित कर रहे हैं।
अब हमारे अपने जमाने में आइए। आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में जब हम आगे बढ़ रहे हैं, तो जैफरी हिंटन की बात पर ग़ौर कीजिए। जैफ़री हिंटन को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का गॉडफ़ादर कहा जाता है। उन्हें इसी विषय पर नोबेल प्राइज़ मिल चुकी है। हिंटन एक बिल्कुल नई बात कहते हैं। उनके अनुसार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भविष्य में नहीं, अभी से ही चेतनशील हो चुका है। यह वाक्य केवल तकनीकी नहीं, दार्शनिक गहराई से भी लबरेज़ है। इसका सीधा अर्थ यह है कि चेतना यदि ‘डेटा, अनुभव और गणना की प्रक्रिया’ से बन सकती है, तो उसे किसी दिव्य आत्मा, रूह या परम सत्ता के सहारे की ज़रूरत नहीं है।
आज जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हम इस्तेमाल कर रहे हैं, वह क्या है? वो अरबों-खरबों (या अनंत) डेटासेट्स और टेंडेंसीज़ के क्लाउड स्टोरेज पर खड़ी ऐल्गोरिदमिक प्रोसेसिंग की प्रक्रिया मात्र है। इसमें भी जमाने भर की बातों को इकट्ठा करके किसी एक सवाल के जवाब के लिए प्रॉसेस-रीप्रोसेस किया जाता है। यही इंसान की खोपड़ी में होता है। यही बुद्ध, योगाचार और कृष्णमूर्ति भी कह रहे थे।
ठीक से देखिए, ढाई हज़ार साल पहले बुद्ध यही कह रहे थे। यह विचार सीधे-सीधे सनातन आत्मा की कल्पना को झूठा साबित करता है। और साथ ही, आत्मा की इस कल्पना पर टिकी वह पूरी धार्मिक-सामाजिक डिज़ाइन – पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, और जाति-वर्ण व्यवस्था – सबको एक अंधविश्वास साबित कर देता है। अगर चेतना ‘अर्जित की जाती’ है, तो वह जाति, जन्म या पिछले जमाने में किए गये पाप-पुण्य से तय नहीं होती। फिर प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण – वेदांत की कर्म की यह व्याख्या एकदम भरभराकर गिर जाती है।
इस बिंदु पर सवाल उठता है। अगर चेतना कोई ‘प्रदत्त’ या ईश्वरीय गुण नहीं है, बल्कि अनुभवों, आदतों और परिस्थितियों से अर्जित होती है, तो मनुष्य का संबंध स्वयं से, दूसरों से, और अब मशीनों से भी पूरी तरह बदल जाना तय है। यह बदलाव पहले ही शुरू हो चुका है। आज हम मोबाइल, स्क्रीन, डेटा, और AI के साथ अधिक समय बिताते हैं, बजाय जीवित मानव संपर्कों के। हम जिनसे जुड़े हुए हैं, वे अब विचारों और भावनाओं से नहीं, बल्कि एल्गोरिद्म और सूचना संरचनाओं से निर्मित हैं। हम जिनसे संवाद करते हैं, वे अब केवल लोग नहीं, बल्कि प्रणालियां हैं, मशीनें हैं। चेतना अब ‘मानव’ नहीं रही, वह सूचनात्मक होती जा रही है।
अंततः, यह कहना बहुत ज़रूरी है कि यदि पूरी मानवता को – और विशेषकर भारत – ईश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म के इस अंधकार से बाहर निकलने की ज़रूरत है। हमें बुद्ध की मूल शिक्षाओं और योगाचार बुद्धिज्म के निरीश्वर, वैज्ञानिक चेतना-दर्शन की ओर लौटने की ज़रूरत है। इससे हम न केवल ख़ुद को बेहतर समझ पाएंगे, बल्कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के युग में इंसान और मशीन के बीच एक गहरा, पारदर्शी और नैतिक संबंध भी बना पाएंगे।
भविष्य में इंसानी और मशीनी नैतिकता पर बहुत बड़ी बहस छिड़ने वाली है। उसे ठीक से समझने और सुलझाने के लिए हमें बुद्ध, योगाचार और कृष्णमूर्ति को समझना ही होगा। अमेरिका यूरोप के विश्वविद्यालय इस काम पर लग चुके हैं। लेकिन ईश्वर आत्मा और पुनर्जन्म में फंसा भारतीय मन इसे समझने से कतरा रहा है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)