बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन (मतदाता सूची पुनरीक्षण) के लिए जारी विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर), जिसे विपक्ष ‘वोटबंदी’ बता रहा है, से ‘छोट जात’ वालों में खलबली मची है। उनके अंदर बेचैनी है। लेकिन अगड़ी जातियों के टोले-मोहल्लों में निश्चिंतता और खामोशी है। इधर की खामोशी और उधर की बेचैनी चुनाव आयोग के “असली खेल” को उजागर कर रही है। छोट जात वालों के टोले-मोहल्लों में बेचैनी इस बात की है कि उनका नाम वोटर लिस्ट से कट जाएगा तो अगड़ी जाति के लोग इस ठसक में हैं कि “हमारा नाम कैसे कट जाएगा”।
भागलपुर जिले के नवगछिया अनुमंडल के सिमरा गांव में मंदिर के पास खड़े रंजीत झा और बब्लू झा ने वोटरों की जांच वाला फार्म भर दिया है। दस्तावेज के तौर पर आवास प्रमाण पत्र नत्थी कर दिया। बूथ पदाधिकारी (बीएलओ) उनके घर आया था। वह फॉर्म भरवाकर ले गया। लेकिन कोई पावती (रिसीविंग) नहीं दी। क्या फॉर्म भरने में कोई परेशानी हुई? इस सवाल के जवाब में दोनों ने कहा, “नहीं, कोई परेशानी नहीं हुई।” उनकी बातों में निश्चिंतता और आश्वस्ति दिखी। मानो उन्हें पता है कि संकट ‘इधर’ नहीं ‘उधर’ वालों पर है।
लेकिन बगल के पकड़ा नामक गांव के संतोष कुमार की किस्मत सिमरा के रंजीत झा और बब्लू झा जैसी नहीं है। संतोष इस बात से नाराज़ हैं कि बीएलओ गरीब लोगों के घरों तक नहीं जा रहा है। गरीबों को स्कूल पर बुला रहा है और कह रहा है कि स्कूल पर आकर फॉर्म भरकर जमा कर दो। संतोष गुस्से में कहते हैं कि “बीएलओ गरीब के घर पर क्यों नहीं जा रहा है? क्या हमलोग वोट नहीं देते हैं? सिर्फ ‘बड़का आदमी’ के यहां जा रहा है।”

संतोष की बेचैनी देखकर हाशिए के समाज के लोगों के मताधिकार की गारंटी पर संविधान सभा में डॉ. भीमराव आंबेडकर की कही गई बात याद आती है। उन्हें आशंका थी कि इस देश में ऐसी भी सरकार आएगी जो आदिवासी, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से उनका मताधिकार छीन लेगी। उन्होंने 15 जून, 1949 को संविधान सभा में हुई बहस में अपने संबोधन में कहा था कि “लोकतंत्र में मताधिकार सबसे बुनियादी अधिकार है … इसलिए किसी भी राज्य में प्रभावशाली वर्ग द्वारा नस्लीय, भाषाई या सांस्कृतिक रूप से भिन्न नागरिकों के साथ अन्याय रोकने के लिए, आवश्यक है कि पूरी चुनाव प्रक्रिया केवल केंद्रीय चुनाव आयोग के अधीन हो … ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भारत के किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात या अन्याय न हो।”
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लेकिन यहां तो केंद्रीय चुनाव आयोग ही संदिग्ध हो गया है। वह साफ-साफ बलवान और धनवान की ओर झुका हुआ दिख रहा है। निष्पक्षता की चादर नोंचकर भाजपा की सरकार का एजेंडा आगे बढ़ा रहा है। बिहार में एसआईआर का काम गत 25 जून से चल रहा है। इसकी अधिसूचना 24 जून, 2025 को जारी हुई थी। ग्रामीण आबादी के एक बड़े हिस्से को अब तक पता नहीं है कि हो क्या रहा है। हो रहा है तो क्यों हो रहा है? उन तक छन-छन कर बात पहुंची तो पता चला कि ‘वोटर कार्ड’ फिर से बन रहा है, जिसके लिए फॉर्म भरना है। पहचान का सबूत भी देना है।

हाजीपुर संसदीय क्षेत्र के एकारा गांव के प्रेम महतो मजदूरी करते हैं। यह पूछने पर कि नया वोटर लिस्ट बन रहा है, आपने फार्म जमा कर दिया? प्रेम कहते हैं कि हमको तो पता ही नहीं था। गांव में हल्ला मचा तब पता चला कि वोटर कार्ड फिर से बनेगा। इसके अलावा प्रेम को कुछ भी नहीं पता है। क्या करना है, कैसे करना है। कोई जानकारी नहीं। उनके घर या टोला में बीएलओ नहीं पहुंचा है। पूछने पर प्रेम बताते हैं कि हमारे पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड है। मनरेगा का जॉब कार्ड भी है। इसके अलावा कुछ नहीं है। यह बताने पर कि आपका तीनों पहचान पत्र काम नहीं आएगा। चुनाव आयोग इसको मंजूरी नहीं दे रहा है। इतना सुनते ही प्रेम कहते हैं कि तब तो हम वोट नहीं दे पाएंगे। उनकी आंखों में गहरी उदासी छा जाती है। भारी मन से कहते हैं कि गरीब को कोई पूछने वाला नहीं है।
प्रेम की बेबसी बिहार की उस बड़ी आबादी की बेबसी है, जो आदिवासी, दलित और अति पिछड़ा और पिछड़ा व अल्पसंख्यक है। इन वर्गों के अधिकांश लोगों के पास वे 11 दस्तावेज नहीं हैं, जो चुनाव आयोग मांग रहा है। मैट्रिक का सर्टिफिकेट, जन्म प्रमाण-पत्र, पासपोर्ट, एनआरसी, जमीन का कागजात, वनाधिकार प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेजों की तो कोई जानकारी भी इस आबादी को नहीं है।
चुनाव आयोग के तुगलकी फरमान से तो दलित-बहुजन समाज के मुहावरे भी बेमानी होते दिख रहे हैं। मसलन ‘वोट का राज, मतलब छोट का राज’, ‘वोट हमारा राज, तुम्हारा नहीं चलेगा’, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ और ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ आदि मुहावरे बेमानी हो जाएंगे जब मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर इन वर्गों के नाम कट जाएंगे।
लगता है कि जाति जनगणना की बात भी बेमानी हो जाएगी। जब वोटिंग का अधिकार संपत्ति और शिक्षित तबके तक सीमित हो जाएगा, तब उस गिनती का कोई असर नहीं होगा जिसके आधार पर शासन-प्रशासन और प्रतिनिधि संस्थाओं तक में हिस्सेदारी की दावेदारी की जाती है।

वोटर लिस्ट रिवीजन फार्म भरने में कैसी अफरातफरी और अराजकता मची है, वह तब तक सामने नहीं आया जब तक यूट्यूब न्यूज चैनलों और खबरिया वेबसाइट्स ने जमीन पर जाकर रिपोर्ट दिखानी नहीं शुरू की। मुख्यधारा की सवर्ण वर्चस्ववादी मीडिया हरकत में तब आया जब फार्म भरने में मनमानी, अनियमितता की खबरें सोशल मीडिया में आने लगी। मुख्य चुनाव आयुक्त से विपक्षी नेताओं की मुलाकात, गत 9 जुलाई को आहूत बिहार बंद और सुप्रीम कोर्ट से मिली झिड़की का असर यह हुआ कि आयोग के अघोषित निर्देश पर वोटर लिस्ट रिवीजन के फॉर्म धकाधक भरे जाने लगे।
विपक्षी दल, संस्थाएं और चुनाव के जानकार लोग जिस एसआईआर को असंभव, अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक करार दे रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट सवाल खड़े कर रहा है, उसे भारत का चुनाव आयोग संभव बनाने के लिए हर वह हथकंडा अपना रहा है, जो अवैध और नियम विरुद्ध है। शासन-प्रशासन की निगरानी में यह फर्जीवाड़ा मीडिया रिपोर्ट से रोज-ब-रोज उजागर हो रहा है। फॉर्म आधा अधूरा भरा जा रहा है। बिना दस्तावेज और बिना फोटो वाले फार्म भी अपलोड किए जा रहे हैं। फॉर्म पर हस्ताक्षर नहीं हैं। प्री फिल्ड एन्यूमेरेशन फार्म यानि पहले से भरा और वोटर का फोटो लगा फार्म की जगह सादा फार्म भी भरवाया जा रहा है। किसी वोटर को पावती नहीं दी जा रही है। जबकि चुनाव आयोग के दिशा-निर्देश में सबसे ऊपर लिखा है कि बीएलओ दो फार्म लेकर वोटर के पास जाएगे। फार्म भरने में मदद करेंगे। एक फार्म वापस ले लेंगे और दूसरा वोटर के पास पावती के तौर पर छोड़ देंगे। लेकिन ऐसा कहीं नहीं हो रहा है।
भागलपुर जिले के नवगछिया अनुमंडल में इस गड़बड़ी की ओर ध्यान दिलाने पर नव नियुक्त आईएएस अधिकारी एसडीएम ऋतुराज प्रताप सिंह दावा करते हैं कि बीएलओ दो फार्म लेकर जा रहे हैं और वोटरों को पावती दे रहे हैं। लेकिन एसडीएम का दावा क्षेत्र के मतदाता ही नहीं बल्कि बीएलओ की बातों से भी खारिज हो जा रहा है। वैशाली, बेगूसराय, खगड़िया, भागलपुर, अररिया और किशनगंज आदि जिलों से ग्राउंड रिपोर्ट कर रहे जाने माने पत्रकार अजीत अंजुम पर तो बेगूसराय जिले बलिया प्रखंड में मुकदमा भी दर्ज करा दिया गया है। जाहिर है चुनाव आयोग गड़बड़ियों को दूर करने की बजाय उसपर पर्दा डाल रहा है। अपना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक निर्णय जैसे तैसे लागू करने की जिद पर अड़ा है।
यही वजह है आयोग रोज आंकड़े बढ़ा रहा है। अब वह कह रहा है कि 11 दिन बचे हुए हैं। 7.89 करोड़ वोटरों में से 6.6 करोड़ ने फार्म भर दिया है, जिसमें से 5.74 करोड़ फार्म आयोग के वेबसाइट पर अपलोड हो चुके हैं। सवाल उठता है कि आधा अधूरा फार्म अपलोड करवाकर चुनाव आयोग हासिल क्या करना चाह रहा है? क्या वह इसी के आधार पर बड़े पैमाने पर आदिवासी, दलित, पिछड़ा, अतिपिछड़ा, अल्पसंख्यक और गरीबों को वोटर लिस्ट से बाहर करेगा? वजह यह कि दस्तावेज की कमी तो इन्हीं जाति समूहों के पास है। शायद जनाक्रोश से बचने के लिए आयोग ने अखबारों में विज्ञापन देकर कह दिया है कि बिना फोटो और बिना दस्तावेज के भी फार्म भर सकते हैं। लेकिन चुनाव आयोग को उन 11 दस्तावेजों में से कोई एक चाहिए ही जो उसके नोटिफिकेशन में दर्ज है। इस बात की पुष्टि नवगछिया के एसडीएम भी करते सुने गये। उन्होंने साफ-साफ कहा कि निर्धारित दस्तावेज तो वोटरों से हम लेंगे हीं। अभी तो सिर्फ फार्म भरने में छूट दी गई है। दस्तावेज अनिवार्य है। आयोग और प्रशासन की बातों से साफ हो जा रहा है कि फार्म भरने की समय सीमा के बाद वोटरों का मताधिकार आयोग की ‘फिंगर टिप्स’ पर निर्भर रहेगा, क्योंकि पावती नहीं रहने की वजह से वोटरों को दावा-आपत्ति में मुश्किल होगी। ऐसे में चुनाव आयोग बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की आड़ में कैसा चमत्कार करने जा रहा है। इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है।
एक बात साफ है कि इस अभियान के सहारे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें शुरू हो गई हैं। आरएसएस और भाजपा का प्रचार तंत्र हिंदुओं के बीच कहता सुना जा रहा है कि आप चिंता नहीं करें। यह सब बांग्लादेशी, रोहिंग्या, नेपाली घुसपैठियों के लिए हो रहा है। लेकिन अपर कास्ट हिंदुओं में प्रचार थोड़ा अलग तरह का किया जा रहा है। वहां कान में बताया जा रहा है कि आप निश्चिंत रहें। लालू और कम्युनिस्टों के वोटरों के नाम ही कटेंगे! हाल में सरकारपरस्त न्यूज एजेंसी एएनआई ने चुनाव आयोग के सूत्रों के हवाले से खबर चलाई कि बिहार में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी, रोहिंग्या, नेपाली नागरिक वोटर के रूप में पकड़े गए हैं। लेकिन एजेंसी ने खबर में किसी विधानसभा क्षेत्र/बूथ या गांव का नाम नहीं दिया। इस निराधार खबर पर प्रतिक्रिया मांगने पर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने जब सूत्र को मूत्र बताया तो हंगामा खड़ा हो गया। तेजस्वी ने कहा, यह वही सूत्र है जो आपरेशन सिंदूर के दौरान लाहौर, कराची और इस्लामाबाद तक कब्जा करा चुका था।
बहरहाल, चुनाव आयोग, भाजपा की केंद्र सरकार और सवर्णपरस्त मीडिया के गठजोड़ से बिहार में लागू की जा रही एसआईआर की प्रक्रिया ने पूरी चुनावी व्यवस्था को अव्यवस्था और तनाव में डाल दिया है। आनन-फानन और बिना पर्याप्त तैयारी के चल रही इस प्रक्रिया ने आम जनता के साथ-साथ बीएलओ कर्मियों को भी जबरदस्त संकट में झोंक दिया है। कई बीएलओ से लगातार 12-12 घंटे काम कराया जा रहा है। उनके उपर लक्ष्य पूरा करने का भारी दबाव बनाया जा रहा है।
इस दवाब का गंभीर नतीजा सामने आया है। एक जगह एक बीएलओ की मौत हो गई। वहीं बारसोई प्रखंड के बीडीओ ने इस्तीफ़ा दे दिया है। यह स्थिति दर्शाती है कि चुनाव आयोग और प्रशासन ने इस प्रक्रिया को लागू करते समय ज़मीनी हकीकत और मानवीय पक्ष की पूरी तरह अनदेखी की है।
लेकिन इस संवेदनहीनता की इंतिहा यह है कि जो बीएलओ अपनी समस्याएं और कठिनाइयां सामने रख रहे हैं, उन्हें ही अब टारगेट किया जा रहा है। ताजा मामला बेगूसराय जिले का है, जहां एक बीएलओ पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने मीडिया से ‘भ्रामक सूचना’ साझा की।
गणना फॉर्म (प्रपत्रों) को लेकर भारी भ्रम की स्थिति है। आयोग कह रहा है कि प्रत्येक मतदाता के लिए दो फॉर्म जारी किए जा रहे हैं। एक बीएलओ द्वारा संग्रह हेतु और दूसरा पावती के तौर पर मतदाता को लौटाया जाएगा। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि बीएलओ को केवल एक फॉर्म दिया जा रहा है, जिसे लेकर मतदाता बीएलओ से पावती की मांग कर रहे हैं। अब सवाल उठता है कि जब बीएलओ के पास दूसरा फॉर्म ही नहीं है, तो वे कहां से दें?
इतना ही नहीं, कई स्थानों से यह शिकायतें सामने आई हैं कि बिना मतदाता की जानकारी और सहमति के ही फॉर्म भर दिए जा रहे हैं, जिससे पूरी प्रक्रिया की पारदर्शिता और वैधता पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। ऐसे में विपक्ष के पास चुनाव आयोग के अलोकतांत्रिक फैसले के खिलाफ लड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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