“सरकारी नौकरी के बाद इस व्यक्ति के व्यवहार में सबसे ज्यादा बदलाव आया हैं।” बलराम मेघवाल (परिवर्तित नाम) दलित समुदाय के नए नवेले सरकारी कर्मचारी को इंगित करते हुए बताते हैं। बलराम मेघवाल राजस्थान के सुदूर चुरू जिले के धीरवास बड़ा गांव में रहने वाले दलित हैं। अपनी आयु के लगभग साढ़े चार दशक गांव में गुजार चुके बलराम आगे बताते हैं, “मुझे दुख इस बात का है कि यह व्यक्ति नौकरी से पहले समाज सुधार की बड़ी-बड़ी बाते करता था। समाज के साथ उठता-बैठता था। मगर सरकारी नौकरी के बाद पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि इसने अपने समाज के लोगों से बातचीत ही बंद कर दी।” बलराम का अनुभव नया नहीं है और न ही सरकारी नौकर होने वाले दलितों का व्यवहार। इस क्षेत्र के बहुत से निजी अनुभव इस बात को पुष्ट करते हैं कि सरकारी नौकरी के पश्चात दलितों की प्राथमिकता में समाज को छोडकर बाकी सबकुछ आ जाता है।
महावीर मेघवाल जैसे दलित इसका कारण बताते हुए चिंतित दिखाई देते हैं। उनका कहना है कि, “समाज से अनौपचारिक रूप से संबध तोड़ने वाले इन सरकारी कर्मचारियों को देखकर अक्सर लगता है जैसे इन्होंने अतीत की स्मृतियां भूला दी हों।” इस तरह की प्रतिक्रियाओं से यह अनुमान ना लगाया जाए कि यह सरकारी कर्मचारी रहन-सहन में उच्च या अत्यधिक प्रगतिशील हो जाते हैं, जिस कारण समाज इनके बारे में ऐसी अवधारणाएं गढ़ लेता है। अगर ऐसा होता तो ऐसी बातें सभी कर्मचारियों के बारे में मिलतीं। कुछ सरकारी कर्मचरियों से लोग इस बात को लेकर खुश हैं कि वे न केवल समाज के सुख-दुख में उनके साथ खड़े होते हैं, बल्कि आंबेडकरवादी आंदोलन में भी प्रत्यक्ष रूप से साथ देते हैं।
पश्चिम राजस्थान के उपरोक्त गांव की यह स्थिति वस्तुत: सारे ग्रामीण और लगभग कस्बाई क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। दलित समुदाय के सरकारी नौकरों का इस तरह समाज के प्रति उदासीन होना, बाबा साहब की चिंताओं को न केवल सत्य सिद्ध करता है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से गंभीर सवाल खड़े करता है।
‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ का ऐतिहासिक नारा देने के तकरीबन चौदह साल बाद डॉ. आंबेडकर ने आगरा के प्रसिद्ध भाषण में कहा था कि, “मुझे समाज के पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया।” उन्होंने कहा था, “मैं आशा कर रहा था कि वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद समाज की सेवा करेंगे, लेकिन मैं देख रहा हूं कि छोटे और बड़े क्लर्कों की एक बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है, जो अपना पेट भरने में व्यस्त है।”
बाबा साहब के इस भाषण के 68 साल बाद भी ग्रामीण दलितों की चिंता वही है। इन वर्षों में दलितों की साक्षरता दर में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। मसलन, 1961 में जहां ग्रामीण-दलितों की साक्षरता दर 8.89 प्रतिशत थी, वह 2021 की जनगणना में बढ़कर 62.85 प्रतिशत हो गई। अगर, संख्यात्मक स्तर से हटकर देखें तो हर गांव में दलित सरकारी कर्मचारी मौजूद हैं। इन सबके बावजूद भी ऐसा क्या है कि – दलित कर्मचारी, समाज से मुंह चुराते नजर आते हैं? वे समाज केंद्रित रहते हुए ‘आरक्षण’ की बदौलत नौकरी तो पा लेते हैं पर बाद में ‘परिवार-केंद्रित’ हो जाते हैं?
यूं तो इन सब सवालों के गहराई से जवाब जानने और सरकारी नौकरीपेशा दलितों और नौकरीविहीन दलितों के संबंधों में गहराती जा रही खाई को समझने की आवश्यकता है।

मगर राजस्थान के सुदूर चुरू जिले के धीरवास बड़ा गांव के बुजुर्ग बलराम मेघवाल का अनुभव कुछ महत्वपूर्ण बातों को अवश्य रेखांकित करता है। उनका कहना है कि, “समझ में नही आता कि आखिर इन लोगों ने कौन-सी पढाई की है, जो सरकारी नौकरी पाते ही समाज से किनारा कर लेते हैं?” सवाल है कि आखिर दलित किस तरह की उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं? क्या ‘उच्च शिक्षा’ की यह प्रक्रिया उन्हें मानसिक रूप से तर्कसंगत नागरिक और सामाजिक स्तर पर संवेदनशील व्यक्ति के रूप में विकसित कर पा रही है या महज डिग्री का पन्ना पाने की खानापूर्ति बनती जा रही है? क्या कारण है कि उच्चवर्णीय सुविधाओं से लैस लोग धरातल पर काम करने वाले सामाजिक संगठनों के साथ न्यूनतम वेतनमान और ना के बराबर सुविधाओं में काम करते दिखाई पड़ते हैं, जबकि भोजन संकटों में पली-बढ़ी सरकारी नौकरी की पहली पीढ़ी समाज के साथ आने-बैठने से कतराती हैं? इसका कारण, जानने के लिए इन सरकारी कर्मचारियों की शैक्षणिक योग्यताओं से अधिक शैक्षणिक संस्थानों पर जाना पड़ेगा। धीरवास बड़ा एवं इस क्षेत्र के दलित सरकारी कर्मचारियों के प्रोफाइल देखते हुए एक बात दृष्टिगोचर होती है कि अधिकांश ने अपनी शिक्षा-दीक्षा स्थानीय स्तर के ‘खानापूर्ति संस्थानों’ से अर्जित की है। ऐसे संस्थान, जिन्हें छात्रों से अधिक फीस की चिंता है और ऐसे छात्र जिन्हें सीखने से ज्यादा, डिग्री चाहिए। इनका ध्यान सीखने में कम और सरकारी नौकरियों के प्रतियोगिता परीक्षा की कुंजियों को रटने में ज्यादा रहा है। ऐसे में इन लोगों में नागरिकता एवं सामाजिकता का विकास हो ही नहीं पाया।
जाहिर तौर पर पिछली पीढ़ी के इन दोषों को नही सुधारा जा सकता। पर समझा जा सकता है कि इस देश के दलित तबके का ‘विश्वविद्यालयों/उच्च शिक्षण संस्थानों’ में पहुंचना कितना आवश्यक है। दलितों की अगली पीढ़ी को आवश्यक रूप से सदियों के संघर्ष और ‘पे-बैक टू सोसायटी’ का सांस्थानिक प्रशिक्षण मिलना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि दलितों की विश्वविद्यालयों में भागीदारी को लेकर समुचित प्रयास हो। कई संस्थाएं, यथा – नालंदा अभियान, वर्धा; एकलव्य फाउंडेशन, नागपुर आदि कई सामाजिक-संस्थान दलित विद्यार्थियों को प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय परिसरों में पहुंचाने के प्रयत्नरत हैं। ‘बोधि फाउंडेशन, सूरतगढ़ जैसे संस्थान भी लगातार प्रयासरत हैं कि सरकारी नौकरियों की तैयारी करते हुए भी विद्यार्थियों का धरातल से सामाजिक जुड़ाव कायम रहे। ये प्रयास देश के अलग-अलग हिस्सों में बेहद उत्साही ढंग से काम कर रहे हैं। इसके लिए समाज के अन्य संगठनों को भी वृहद सांस्थानिक ढांचा विकसित करने के लिए आगे आना चाहिए।
इस गांव और आसपास के क्षेत्र में दलित सरकारी कर्मचारियों का जॉब प्रोफाइल कुछ ऐसा है कि अधिकतर कर्मचारी ‘सरकारी शिक्षक’ हैं। अन्य नौकरियों में जल विभाग और विद्युत विभाग की नौकरियां प्रमुख हैं। प्रशासनिक सेवाओं में जाने वाले दलितों की पहली पीढ़ी शिक्षक ही है। वकील, इंजीनीयर, असिस्टेंट प्रोफेसर/प्रोफेसर या तो नगण्य हैं या एकाध। इस तरह एक ही प्रकार की नौकरियों के चयन का कारण आर्थिक असुरक्षा हो सकता है, पर किसी समाज के लिए लंबे समय तक यह ट्रेंड घातक है। इसके घातक होने के दो कारण समझ आते हैं – पहला, तो एक ही प्रकार की नौकरी करने वाले एक ही क्षेत्र के लोग सामान्यत: एक ही प्रकार के व्यवहार वाले होते है। ऐसा एक समान व्यवहार लोगों में एक तरह की राय जन्म देता है।
धीरवास बड़ा के अधिकतर दलित सरकारी शिक्षकों के व्यवहार से इतने निराश हैं कि वे सारे सरकारी शिक्षकों को एक ही पलड़े पर तौल देते हैं। उनके पास इसके पर्याप्त कारण भी हैं। एक उदाहरण देखिए– “गांव के गरीब दलित दलीप बामणिया (परिवर्तित नाम) को अपनी बेटी की फीस के लिए बीस हजार रुपए की तुरंत आवश्यकता थी। उसने दलित-समाज के ही एक वरिष्ठ सरकारी शिक्षक से उधार मांगने का मन बनाया। दलित कर्मचारी ने उससे पैसा वापिस लौटाने की तारीख पूछी। दलीप ने दो-तीन दिन में वापिस देने का वादा किया। कर्मचारी, दलीप को दो दिन तक टरकाता रहा। तीसरे दिन उसने दलीप से कहा कि अब तुम्हें उधार की क्या जरूरत। तीसरा दिन तो हो गया।” दलीप और ना जाने कितने दलित ऐसे अनुभवों से गुजरते हैं। दलित कर्मचारियों का दलितों के साथ ऐसा व्यवहार इन्हें और अपमानजनक बना देता है। दलीप को बेटी की फीस के लिए अपना घर गिरवी रखना पड़ा।
ऐसे अनेक उदाहरणों ने इस गांव में दलितों के मन में सरकारी कर्मचारियों के लिए अलग प्रकार का विपन्न भाव निर्मित कर दिया है। ऐसा कहीं भी संभव है। इसलिए, ‘नौकरियों में विविधता’ बेहद आवश्यक हो जाती है। धीरवास बड़ा के दलित-अनुभव स्पष्ट करते हैं कि लोगों की नाराज़गी सरकारी शिक्षकों से बहुत हद तक सार्वजनिक और आर्थिक व्यवहार पर आधारित है। एक सरकारी शिक्षक से इन दो के अलावा अन्य अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। अगर सरकारी शिक्षकों की भरमार के स्थान पर कुछ दलित, कहीं उच्च पदों पर आसीन होते तो शायद किन्हीं और तरीकों से दलितों का हित कर पाते। उन स्थितियों में आर्थिक और सार्वजनिक व्यवहार गौण हो जाते। दलित विद्यार्थियों को सामाजिक भविष्य के प्रति संवेदनशील होते हुए रोजगार के विभिन्न सरकारी विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए। यह विविधता को बढ़ाएगा। संभव है दलितों में जो सरकारी कर्मचारियों को लेकर अवधारणा बनी है, उसे तोड़ने में नई नौकरियां सहायक हों।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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