प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस), बिहार इकाई, ने 27 जुलाई को अमरकांत की जन्मशताब्दी के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में प्रेमकुमार मणि जी को आमंत्रित किया था। लेकिन वे नहीं आए। ऐसा पहले भी हुआ। प्रलेस ने उन्हें 14-15 मई, 2023 को होने वाले राज्य सम्मेलन के खुले सत्र में आमंत्रित किया था। लेकिन वे नहीं आए थे। ऐसे ही कई कार्यक्रमों में उन्हें आमंत्रित किया गया और वे नहीं आ पाए। लेकिन यह कहना कि किसी ने उनके बारे में किसी के व्हाट्सअप पर कोई टिप्पणी की, उसके चलते प्रलेस ने उन्हें कार्यक्रम में आमंत्रित अतिथियों की सूची से हटा दिया तो यह निहायत झूठी बात है। यह दुष्प्रचार है। अमरकांत जी को समर्पित कार्यक्रम के अंतिम दिन तक सोशल मीडिया पर पोस्ट वाले डिजिटल कार्ड से इसे जांचा जा सकता है।
प्रलेस का दोष तब होता जब किसी के दबाव या धमकी देने से उनका नाम दूसरे सत्र ‘समकालीन कथा परिदृश्य और अमरकांत’ से हटाता। मणि जी इस सत्र के मुख्य वक्ता थे। लेकिन मणि जी द्वारा प्रलेस की यह कहकर आलोचना करना कि लिट् फेस्ट का आजकल जमाना है, इसलिए लेखक संघ अप्रासंगिक हो गए हैं। यह सही बात नहीं है।
वरिष्ठ लेखकों को ऐसा लगता है कि जब वे संगठन में थे तो सब कुछ अच्छा था, लेकिन अब वह अप्रासंगिक हो गया है। जब तक लेखक को पहचान नहीं मिलती, उसे लेखक संगठन की जरूरत होती है। लेकिन एक बार स्थापित हो जाने के बाद या नाम हो जाने के बाद उसी लेखक को संगठन की जरूरत नहीं रह जाती है।

जब औपनिवेशिक दौर में प्रलेस बना था तब अंग्रेज और हिंदू फंडामेंटलिस्ट दोनों प्रगतिशील लेखक संघ के खिलाफ रहा करते थे। आज भी हमेशा प्रलेस को सांप्रदायिक व प्रतिक्रियावादी तत्वों का हमला झेलना पड़ता है। आज भी प्रलेस जब कोई बड़ा कार्यक्रम करता है तो तरह-तरह के सांप्रदायिक शक्तियों के जो फुट सोल्जर्स रहते हैं, जितने अवसरवादी हैं, वे सब प्रलेस पर हमला करते हैं। उनका मुख्य मकसद यह होता है कि जो नए रचनाकार हैं, वे प्रलेस के नजदीक न जाएं। खासकर दलित जातियों से आनेवाले जो रचनाकार हैं, वे भाजपा में चले जाएं, प्रतिक्रियावादी ताकतों के पास चले जाएं, लेकिन लेफ्ट के लेखक संघ के नजदीक नहीं जाएं।
इसलिए दुष्प्रचार चलाया जाता है कि सृजन के लिए संगठन आवश्यक नहीं है। बड़ा रचनाकार बनने के लिए लेखक संघ में जाना जरूरी नहीं है। विचारधारा की कैद में साहित्य नहीं रचा जा सकता। पतित पूंजीवाद के दौर में लेखक संघ के खिलाफ लगातार ऐसे अभियान चलाए जाते हैं।
इन सारे झंझावातों, विरोधों और लगातार पतन के बावजूद आज भी प्रलेस देश में जो सेक्यूलरिज्म का मुद्दा है, सोशलिज्म का है, सोवरनिटी का मुद्दा है और जो है उससे बेहतर चाहिए, ऐसा चाहनेवाले लेखकों का सबसे बड़ा संगठन है। इसलिए मणि जी का यह कहना कि लिट् फेस्ट का जमाना है, लेखक संगठन अप्रसांगिक हो गए हैं, यह सही नहीं है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जो लोग लेखकों के संगठन का विरोध करते हैं, वे हमेशा अपना नेटवर्क बनाने में व्यस्त पाए जाते हैं।
दूसरी बात यह है कि प्रलेस ने मणि जी को बहुत आदर के साथ आमंत्रित किया था। आज भी वह बतौर रचनाकार उनका सम्मान करता है। साथ ही यह भी है कि किसी की सार्वजनिक जिंदगी के बारे में हर किसी की अपनी राय होती है। इससे किसी को घबराना नहीं चाहिए। इतना उत्तेजित नहीं होना चाहिए। रही बात मेरे नाम के स्क्रीनशॉट की तो वह मेरे मोबाइल का नहीं है। मणि जी ने जो स्क्रीनशॉट साझा किया है, वह मेरा लिया हुआ नहीं है। वह दूसरे व्यक्ति के मोबाइल का स्क्रीनशॉट है। मेरे मोबाइल में मेरा फोटो वैसे नहीं आएगा। तो वह स्क्रीनशॉट किसी ने मणि जी को भेज दिया। और देखिए कि यह दो लोगों के बीच विचारों का आदान-प्रदान है, बिल्कुल पर्सनल है। इसे सार्वजनिक किया जाना भी सही नहीं है। मान लीजिए कि किसी की राय अच्छी नहीं है और वह पर्सनली कोई बात कह रहा है। और यह कि व्हाट्सअप सिर्फ पर्सनल मंच है जबतक कि व्हाट्सअप ग्रुप में न भेजा जाय। ग्रुप में भेजने पर वह सार्वजनिक हो जाती है। फिर किसी पर्सलन बातचीत को फेसबुक जैसे सार्वजनिक मंच पर जारी करने का कोई मतलब नहीं है।
सार्वजनिक जीवन में आलोचना-प्रत्यालोचना होती ही है। इससे उद्विग्न नहीं होना चाहिए, उत्तेजित नहीं होना चाहिए। मणि जी अच्छे रचनाकार हैं। प्रगतिशील लेखक संघ उनको बार-बार बुलाता रहा है। इसलिए प्रगतिशील लेखक संघ पर उनका हमला करना बहुत ही गलत है। निहायत गैर-जरूरी है। लिट् फेस्ट कारपोरेट ताकतें आयोजित करती हैं। यह कहना कि मजदूरों और किसानों के सवालों को लेकर चलनेवाला संगठन अप्रासंगिक हो जाएगा और कारपोरेट संचालित लिट् फेस्ट चलेगा, इस बारे में क्या कहा जा सकता है? मणि जी ने जो पोस्ट लिखा है, वह उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है।
(दूरभाष पर नवल किशोर कुमार से बातचीत के आधार पर)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in