सन् 1950 में भारत का संविधान लागू होते ही उसके अनुच्छेद 17 के अंतर्गत अछूत प्रथा गैरक़ानूनी हो गई। मगर यदि किसी को लग रहा था कि इससे जातिगत भेदभाव का अंत हो जाएगा तो वह गलत था। कानून की लताड़ के बावजूद जाति को इतिहास के अंधेरे में खो जाना स्वीकार नहीं था।
आज संविधान के लागू होने के 75 साल बाद भी रेगिस्तानी राजस्थान में जाति कई दलित परिवारों के साथ छाया की तरह चलती है। गांवों में दलित पानी के सार्वजनिक स्रोतों का इस्तेमाल नहीं कर सकते। उन्हें अलग कपों/गिलासों में चाय दी जाती है और उन्हें ज़मीन पर बैठना होता है। कोई कुछ बोलता नहीं है, मगर सब जानते हैं कि उनके और शेष समाज के बीच एक ऊंची दीवार है। राजस्थान के देहाती इलाकों में अछूत प्रथा छिपी हुई या अव्यक्त नहीं है। उसका आचरण खुलेआम होता है। वह सामाजिक जीवन में अलगाव की एक ऐसी प्रणाली है जिसे वर्जनाओं, मूक सहमति और अव्यक्त धमकियों के ज़रिए जिंदा रखा जाता है। स्थानीय निवासियों के अनुभवों को सामने रखते हुए हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि कानूनी रूप से प्रतिबंधित होने के दशकों बाद भी जाति ग्रामीण समाज को इतनी बुरी तरह से विभाजित क्यों किए हुए है।
निम्न जातियों को धार्मिक रस्म-ओ-रिवाज के नाम पर निम्न दर्जा दे दिया गया है। जाति व्यवस्था को गांवों के पंडे-पुजारियों, समुदाय के बुजुर्गों और स्थानीय प्रथाओं के ज़रिए लागू किया जाता है। यह प्रथा अपने एक ही गांव में संग रहनेवाले मनुष्यों के बहिष्करण और हाशियाकरण को उचित ठहराती है। पश्चिमी राजस्थान का ग्रामीण इलाका, जहां मेरा घर भी है, में जातिगत ऊंच-नीच केवल एक सांस्कृतिक निर्मिती नहीं हैं। वह ज़मीन, श्रम और मानवीय गरिमा पर वर्चस्व स्थापित करने की प्रणाली भी है।
क्रिस्टोफ़ जैफ़रलो ने अपनी पुस्तक ‘इंडियाज़ साइलेंट रेवोलुशन’ (2003) में बताया है कि किस तरह जाति, संस्कृति के ज़रिए अपना अस्तित्व बनाए हुए है। सामाजिक रीति-रिवाजों और धार्मिक अनुष्ठानों पर जाति का गहरा प्रभाव है और आधुनिक कानून उसका बाल भी बांका नहीं कर पाए हैं। शुद्धता और प्रदूषण के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरण और कर्म की अवधारणाओं की हिंदू धर्म में गहरी पैठ है और वे ही राजस्थान के ग्रामीण समुदाय में सामाजिक बहिष्करण को नैतिक आधार प्रदान करती हैं।
चाय की गुमटियों और हर घर में दो तरह के गिलास होते हैं। दलित ग्राहकों और कर्मचारियों को बिना कुछ बोले अलग कपों में या स्टील के पुराने गिलासों में चाय दी जाती है। इन कपों और गिलासों को दूसरे लोग छूते भी नहीं हैं। पीढ़ियों से चली आ रही आदतों के चलते दलित परिवारों के कदम मंदिरों के चौखट पर ही थम जाते हैं। पुजारी और गांवों के बुजुर्ग उन सांस्कारिक संहिताओं को दोहराते रहते हैं जिनमें दलितों के मंदिर प्रवेश से होने वाले प्रदूषण के संबंध में चेताया गया होता है।
मौत भी जाति को ख़त्म नहीं करती। मृत शरीर भी प्रदूषणकारी होता है। प्रदूषित करने की शरीर की क्षमता अक्षय होती है। चिता की आग भी उसे नहीं जला पाती। हर जाति के मृतकों की अंतिम क्रिया के लिए स्थान निर्धारित होता है ताकि दलित-बहुजनों की लाशों के जल जाने के बाद भी उनकी राख उच्च जातियों के लोगों के चिताओं को प्रदूषित न कर दे। सन् 2024 में जयपुर स्थित सेंटर फॉर दलित राइट्स द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से जाहिर हुआ कि राजस्थान में 60 फीसद गांवों में इस अलिखित नियम का पालन किया जाता है।
अछूत गायक
राजस्थान की ढोली जाति के सदस्य पारंपरिक रूप से वर्चस्वशाली जातियों के घरों में विवाह, जन्म, त्यौहारों, मृत्यु से जुड़े संस्कारों, व अन्य मौकों पर गीत गाते और संगीत बजाते हैं। मगर वे अछूत हैं। त्यौहारों और पारिवारिक उत्सवों के मौकों पर वे वर्चस्वशाली जातियों के घर जाते हैं। मगर वे मेहमान नहीं होते। उनका काम गा-बजा कर अपनी सेवाएं देना होता है। वे ढोल बजाते हैं, संबंधित परिवार की शान में कसीदे काढ़ते हैं और उसकी वंशावली का वर्णन करते हैं। वे पीढ़ियों से उन्हें उत्तराधिकार में प्राप्त लोकगीत भी प्रस्तुत करते हैं।

यह लोक संगीत गांवों में होने वाली शादियों और अन्य उत्सवों में जान फूंकता है। मगर इसके सर्जकों को क्या मिलता है? पुराने अनाज के कुछ बोरे, उतरन (पूर्व में इस्तेमाल किए गए कपड़े) या बचा हुआ खाना। नगदी शायद ही कभी दी जाती है और कई मामलों में यह भी माना जाता है कि नगदी देना, सेवा कार्य का असम्मान करना है। उनका संगीत समुदाय की पहचान और उसका गौरव है। मगर उसे कभी एक ऐसा कौशल नहीं माना जाता जिसका पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए। उनके काम को इज्ज़त और धर्म से जोड़ा जाता है, मानो उनकी सांगीतिक प्रस्तुति पेट भरने का साधन न हो कर, उनका काम न होकर, उनके द्वारा ईश्वर को अर्पित किया जाने वाला चढ़ावा है। भक्त के तौर पर उनका पारंपरिक कर्तव्य है। इस तरह, परंपरा के नाम पर ढोली समुदाय को सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का शिकार बनाया जाता है।
अगर वे नगदी या उचित मेहनताने की मांग करते हैं तो उन्हें न्यात बाहर (सामाजिक बहिष्कार) का सामना करना पड़ सकता है। उन्हें धमकियां दी जाती हैं और यह खतरा रहता है कि संबंधित परिवार भविष्य में उनकी सेवाएं लेना बंद कर दे। उनका यह डर उनके शोषण और सामाजिक बहिष्करण को समाप्त नहीं होने देता।
इसी तरह अल्पसंख्यक मुसलमानों के ओबीसी समुदाय जैसे मांगणियार, लंगा और भाट भी इस बात के उदाहरण हैं कि किस तरह जाति और धर्म, रोजी-रोटी कमाने के हक में बाधा बनते हैं। मांगणियार और लंगा राजस्थान के लोकसंगीत की विरासत को रेगिस्तान के बीच बसे अपने गांवों से बहुत दूर तक ले गए हैं। मगर यह विरासत उनकी अपनी नहीं है। वह तो राजपूतों की है। मांगणियार, लंगा और भाट तो केवल सांस्कृतिक और सामंती गौरव को बनाए रखने और संस्कृति के बाज़ार में मुनाफा कमाने के साधन भर हैं।
मामे खान, सरूप खान, खेता खान, साकर खान लंगा व सवाई भट्ट जैसे गायकों ने बॉलीवुड की फिल्मों के लिए गाया है और अंतर्राष्ट्रीय संगीत उत्सवों में प्रस्तुतियां दी हैं, जहां उन्हें ‘अतुल्य भारत’ का चेहरा बताया जाता है। मगर उनके लिए बजती जाने वाली तालियों की गूंज उनके गांवों की सीमा के अंदर प्रवेश नहीं कर पाती।
संगीतकार घर में नहीं घुस सकते
अधिकांश भाट और लंगा परिवार अब भी अपने गांवों के अर्द्ध-सामंती ढांचे के कैदी हैं। उनके संगीत को तो सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है मगर एक व्यक्ति के तौर पर उन्हें सम्मान और गरिमा हासिल नहीं है। राजपूत, ब्राह्मण, जाट, गुर्जर व विश्नोई जैसी वर्चस्वशाली भू-स्वामी जातियां इस तरह के विचारों की परंपरागत पोषक हैं। ये लोग अपने घरों में विवाह, बच्चे के जन्म या अन्य पारिवारिक उत्सवों पर इन संगीतकारों को बुलाते हैं। मगर उनकी कला को उनका पेशा नहीं माना जाता और न ही यह माना जाता है कि उनकी प्रस्तुतियों के लिए उन्हें उचित पारिश्रमिक मिलना चाहिए। उनके गायन-वादन को ‘सेवा’ माना जाता है जो वे धार्मिक दस्तूर के मुताबिक करते हैं। इस ‘सेवा’ के बदले उन्हें अपने मालिकों की ‘कृपा’ मिलती है, पारिश्रमिक नहीं। यह ‘कृपा’ बचा हुआ भोजन हो सकती है या और भी कुछ जिसे उन्हें बुलाने वाला उचित समझे। नतीजा यह कि आज बड़ी संख्या में लंगा जाति के लोग गरीबी में जी रहे हैं।
इससे भी ज्यादा संजीदा बात यह है कि ढोलियों और भाटों को गांव के प्रवेशद्वार या घर के बाहरी आंगन में गायन-वादन करना होता है। उन्हें कभी भी किसी ‘पवित्र’ सवर्ण घर में बैठने के लिए आमंत्रित नहीं किया जाता। उनके कप और प्लेट अलग होते हैं। इस व्यवस्था में अंतर्निहित विरोधाभास हैं। ढोलियों और भाटों के गीत पवित्र माने जाते हैं मगर उनकी उपस्थिति और उन्हें स्पर्श करने से अन्य लोग अपवित्र हो जाते हैं। ये दोहरे मानदंड जाति आधारित बहिष्करण और हाशियाकरण के आधार हैं।
जैसा कि नृवंशविज्ञानशास्त्रियों ऐन ग्रोइन गोल्ड एवं लिंडसे हार्लन ने राजस्थान पर केंद्रित अपने शोधकार्य में बताया है कि गांवों में सामाजिक बहिष्करण केवल आर्थिक नहीं होता और न ही वह केवल शारीरिक दूरी बनाए रखने तक सीमित होता है। वह रोज़ाना की जिंदगी के आचार-व्यवहार का हिस्सा होता है। मांगणियारों और लंगाओं को वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि मिली है। यू-ट्यूब पर उनके गायन के वीडियो उपलब्ध हैं। संगीत उत्सवों में उन्हें बुलाया जाता है और शहरी श्रोता उनके बारे में बहुत जिज्ञासु होते हैं। इसके बावजूद उनमें से कई आज भी अपने संगीत को अपना जन्मना कर्तव्य मानते हैं। वे उसे एक ऐसा कौशल नहीं मानते जिसके लिए उनका सम्मान किया जाना चाहिए और जिसके लिए उन्हें वाजिब मजदूरी मिलनी चाहिए। जैसलमेर, उदयपुर, जोधपुर और बाड़मेर जैसे शहरों में शादियों में आने वाले मेहमान या पर्यटक लंगा और मांगणियारों द्वारा बजाए जा रहे ‘कमायचा’ (सारंगी की तरह तार वाला वाद्य) की धुन पर भले ही नाचते-झूमते हों, लेकिन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब कलाकार अपने गांव लौटते हैं तो उन्हें अपनी जाति और रस्म-ओ-रिवाजों का दंश झेलना होता है। यहां तक कि अन्य मुसलमान भी लंगाओं और मांगणियारों के साथ भेदभाव करते हैं।
ढोल और भाटों को भी ‘प्रदूषणकारी’ माना जाता है और उन्हें भी सामाजिक बहिष्करण का सामना करना पड़ता है। यह इसलिए क्योंकि वे दरवाज़े-दरवाज़े जाकर गाने गाते हैं और नगद ईनाम की अपेक्षा करते हैं। यह सब जजमानी व्यवस्था का भाग है जो जजमानों को जाति-आधारित सेवाएं उपलब्ध करवाती है। इससे यह पता चलता है कि आर्थिक निर्भरता और सामाजिक कलंक किस तरह एक साथ जिंदा रहते आए हैं। रस्मी कर्तव्यों की अवधारणा और धार्मिक अंधविश्वासों से ऊंची जातियों के भू-स्वामियों के हित सधते हैं और पीढी-दर-पीढी निम्न जातियों को उनकी जगह दिखाई जा सकती है। अन्य सेवाएं प्रदान करने वाली जातियां भी अपने जीवनयापन के लिए वर्चस्वशाली जातियों पर निर्भर रहती हैं।
नरेंद्र दाभोलकर की उनके गृहराज्य महाराष्ट्र में इसलिए हत्या कर दी गई थी क्योंकि वे अंधश्रद्धा के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उनका मानना था कि अंधविश्वास एक ऐसा हथियार है जिसका प्रयोग लोगों को पिछड़ा और विभाजित रखने के लिए किया जाता है। दाभोलकर लिखते हैं, “जाति एक ऐसी संस्था है जो केवल हमारे देश में पाई जाती है। यह संस्था अंध आस्थाओं और आचरण से परिपूर्ण है। यह सोच अंधविश्वास के अलावा क्या हो सकती है कि एक मनुष्य इतना पावन है कि उसके पैर धोने के लिए इस्तेमाल किया गया पानी भी पवित्र हो जाता है और दूसरा मनुष्य इतना अपवित्र है कि उसकी छाया भी प्रदूषणकारी है। जाति प्रथा के समाज पर इससे भी कहीं ज्यादा गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। यह शोषण की एक अत्यंत क्रूर व्यवस्था है।” [द केस फॉर रीज़न: अंडरस्टैंडिंग दि एंटी-सुपरइस्टीशन मूवमेंट (अनुवाद: सुमन ओक), कॉन्टेक्स्ट, चेन्नई, 2018]
ढोल और भाट घर के दरवाज़े के बाहर बरामदे में ढोल-थाली बजाते हुए मारवाड़ी में मालिक मकान, उसके पुरखों और उसकी जाति की प्रशंसा में और उनकी संतानों के यशस्वी भविष्य की कामना करते हुए ग़ीत गाते हैं। इन संगीतकारों को अपने जजमानों की वीरता की गाथाओं पर गीत रचने के लिए ऊंची जातियों के स्थानीय और कुलदेवों के नाम याद रखने होते हैं और पबुजी, तेजाजी और गोगाजी जैसे लोकनायकों के भी।
कई बार इन संगीतकरों को ऊंची जाति के किसी घर के बाहर गायन-वादन करने के बाद खाली हाथ लौटना पड़ता है। ऊंची जातियां अपने ही बनाये गए रीति-रिवाजों को तोड़ने के लिए स्वतंत्र होती हैं, मगर ढोलियों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने अन्नदाताओं की शान में गीत गाएं, चाहे फिर उनके पेट में अनाज हो या न हो। ईश्वर और पुरखों के नाराज़ हो जाने का डर या भूदेवों (ऊंची जातियों) की नाराज़गी मोल लेने में हिचकिचाहट इस रिवाज़ को जिंदा रखे हुए है।
जाति प्रणाली की अपनी समालोचना में डॉ. आंबेडकर ने साफ़ कहा है कि जाति केवल श्रम विभाजन की व्यवस्था नहीं है वरन् वह मूलतः लोगों को विभाजित करने की व्यवस्था है, वह श्रमिकों का विभाजन है। यह विभाजन अत्यंत कठोर है और एक निश्चित पदक्रम पर आधारित है। हर जाति, अपने से नीची जाति का शोषण करती है और हर सीढ़ी उतरने के साथ यह शोषण और तीव्र, और क्रूर होता जाता है। और इस कृत्रिम व्यवस्था का निर्माण धर्म के नाम पर किया गया है। पुराण और ब्राह्मणवादी टीकाएं गांव-गांव में पुजारियों के ज़रिए सुनी जाती हैं। वे न केवल प्रदूषण और बहिष्करण की अवधारणा को औचित्यपूर्ण ठहराती हैं, बल्कि उसे संहिताबद्ध भी करती हैं। इस प्रकार ईश्वर को नाराज़ करने के भय को सामाजिक कानून में बदल दिया जाता है। वेद इस ऊंच-नीच को दैवीय और सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की कवायद बताकर इस सामाजिक सोच को और मजबूती देते हैं। लोग एक-दूसरे को छूने से डरने लगते हैं, एक-दूसरे से घुलने-मिलने में घबराने लगते हैं। वे उस अदृश्य रेखा को पार करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते जो उनके लिए खींच दी गई है।
डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, “हिंदुओं की नैतिकता पर जाति का प्रभाव साफ-साफ खेदपूर्ण है। जाति ने सार्वजनिक भावना को नष्ट कर दिया है। जाति ने सार्वजनिक दानशीलता की हत्या कर दी है। जाति ने जनमत को असंभव बना दिया है। एक हिंदू के लिए उसकी जाति ही उसका समाज है। उसकी जिम्मेदारी सिर्फ उसकी जाति के प्रति है। उसकी वफादारी उसकी जाति तक सीमित है। सद्गुण जाति से बंधे हुए हैं और नैतिकता जाति से घिरी हुई है। सुपात्रों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। योग्य व्यक्तियों के लिए कोई प्रशंसा भाव नहीं है। जरूरतमंद के लिए कोई दानशीलता नहीं है। पीड़ा कोई अनुक्रिया पैदा नहीं करती। दानशीलता है भी, तो जाति से ही उसकी शुरुआत और जाति से ही उसका अंत होता है। सहानुभूति है भी, तो वह अन्य जातियों के व्यक्तियों के लिए नहीं है।।” (जाति का विनाश, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 76-77)
श्रमजीवी संगीतकारों और अन्यों के हालात में बदलाव तभी आएगा जब वे एकजुट होंगे, विभाजनों को अपने दिमाग से मिटा देंगे और सबको एक बराबर मानने लगेंगे। और जब वे अपनी बड़ी आबादी की ताकत दिखाएंगे और उन ग्रंथों को नकारेंगे जो समाज को बांटने वाली व्यवस्था प्रतिपादित करते हैं और उसे जिंदा रखते हैं।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in